यदि आप वास्तव में प्रभु यीशु में अपने विश्वास
को अपने आस-पास तथा सहकर्मियों के साथ बाँटना चाहते हैं, तो
जो सबसे पहला कार्य आपको करना चाहिए वह है अपनी इस इच्छा को परमेश्वर के सामने
रखें और उससे माँगें कि वह आपको इसके लिए तैयार करे तथा इसके विषय आपका मार्गदर्शन
करे। उससे माँगें कि वह आपको उन संभव अवसरों को पहचानने की समझ-बूझ दे, तथा सिखाए कि उन अवसरों का सदुपयोग कैसे किया जाए; वह
आपको उन लोगों के पास लेकर जाए जो सुसमाचार को ग्रहण करने, या
कम से कम सुनने के लिए तैयार हैं, बिना किसी अनुचित विवाद
अथवा बहस में पड़े (1 कुरिन्थियों 16:9)।
परमेश्वर से माँगें कि वह आपको इसके लिए आवश्यक साहस, उचित शब्द, और सही
अभिव्यक्ति की क्षमता प्रदान करे जिससे आप इस कार्य को यथोचित रीति से करने पाएँ
(यशायाह 50:4), और जब आप प्रभु की इस सेवकाई
को उसकी इच्छानुसार करें तो परमेश्वर आपके बैरियों एवँ विरोधियों को बाँध कर
नियंत्रण में रखे।
सहज रीति से, बिना विरोध को निमंत्रण दिए “प्रचार”
करने का सबसे अच्छा तरीका है, उसे जी कर दिखाना और अपने व्यावाहरिक
जीवन की गवाही से उसे प्रगट करना (प्रकाशितवाक्य
12:11), क्योंकि आपके शब्दों से कहीं अधिक ऊँचा और प्रभावी आपका जीवन
‘बोलता’ है। दो प्रकार से है – पहली यह कि, प्रभु ने आपके
जीवन को कैसे बदला, उसने आपको अन्दर से कैसे बदला है, और
आपके हृदय-परिवर्तन के समय से लेकर अब तक वह कैसे आपकी सहायता करता रहा है, कैसे आपके
हित में कार्य करता रहा है; इन बातों की आपके अपने शब्दों में दी गई मौखिक गवाही;
और आपकी दूसरी व्यावाहरिक गवाही है, आपके दैनिक
जीवन में आए परिवर्तनों की गवाही जो आपके साथी और आस-पास वाले देखते हैं – आपकी जीवन-शैली, रूचियाँ, बात-चीत,
व्यवहार, सत्य-निष्ठा, तथा
कार्य-नैतिकता एवँ प्रतिबध्दता इत्यादि। गवाही के पहली रीति के माध्यम से, आप अपने व्यक्तिगत अनुभवों को बाँटते हैं – आप किसी
को यह नहीं कहते हैं कि उन्हें क्या करना चाहिए या नहीं करना चाहिए – ऐसा करने से विरोध और तर्क या विवाद उत्पन्न हो सकते हैं; वरन, आप केवल वह बताएँ जो प्रभु ने आपके जीवन में
किया है, और/या प्रभु ने किसी विशेष परिस्थिति में कैसे आपकी
सहायता की। क्योंकि ये आपके व्यक्तिगत अनुभव हैं, इसलिए कोई
भी इन्हें आपके लिए गलत या अस्वीकार्य नहीं ठहरा सकता है, और
प्रभु इन्हें औरों के हृदयों में कार्य करने के लिए उपयोग करेगा; उनके अन्दर जिज्ञासा को जागृत करेगा कि वे भी अपने जीवनों में इन्हें
आज़माएँ। गवाही के दूसरी रीति के माध्यम के द्वारा, अर्थात आपकी
जीवन शैली इत्यादि की गवाही के द्वारा, आप अपने जीवन को निःशब्द किन्तु व्यवाहारिक
रीति से गवाही देने देते हैं, और जब भी कोई आपके जीवन की
किसी बात के लिए कोई प्रश्न उठाए, तो आप उसके साथ अपने
विश्वास तथा सुसमाचार को बाँटने के लिए सदा तैयार बने रहें (2 तिमुथियुस 4:2).
एक और कार्य जो आप कर सकते हैं वह है किसी
कठिनाई, या क्लेश, या समस्या, या तनाव में पड़े हुए, या जिसे किसी सहायता या मार्गदर्शन
की आवश्यकता हो, ऐसे व्यक्ति के पास जाकर उसके लिए प्रार्थना करना। आप नम्रता और
प्रेम सहित उससे उसके साथ प्रार्थना करने की अनुमति माँग सकते हैं, और यदि वे अनुमति प्रदान करते हैं, तो प्रार्थना में
बिना कोई ‘प्रचार’ किए, एक छोटी, सार्थक और सरल प्रार्थना
करें, परमेश्वर से माँगें कि वह उनकी परिस्थिति या कठिनाई
में उनकी सहायता एवँ मार्गदर्शन करे, और इस परेशानी की
परिस्थिति में वे परमेश्वर की शान्ति को अनुभव करने पाएँ। आप ऐसा फोन पर वार्तालाप
के माध्यम से भी कर सकते हैं। अपने बैरी-विरोधियों के लिए भी प्रार्थनाएं अवश्य
करें, चाहे वे उन्हें बिना बताए, खामोशी से की गई
प्रार्थनाएं हों (रोमियों 12:14-21), और
परमेश्वर स्वयँ ही उचित समय पर उन पर प्रगट करेगा कि उनके बैर-विरोध के बावजूद, आप
उनके लिए प्रार्थना करते रहें हैं।
किन्तु सदा सचेत रहें, शैतान
आपके विरोध में समस्याएँ या विरोध खड़े करने, या आपको विभिन्न प्रकार के प्रलोभनों तथा
परीक्षाओं में फंसाने का कोई अवसर हाथ से जाने नहीं देगा, (1 तिमुथियुस 4:1-2), जिससे आपकी गवाही बिगाड़ी जा सके तथा
निष्क्रीय करी जा सके। इसलिए बहुत ध्यान रखें और चौकस रहें कि आप क्या देखते हैं
(भजन 101:3; 119:37), कहते हैं (इफिसियों 4:29), करते हैं (1 पतरस
2:11-12), और जीवन कैसे जीते हैं तथा कैसा व्यवहार करते हैं
(1 कुरिन्थियों 11:1)। सदा हर बात के लिए
प्रभु से लिपटे रहें, कभी अपने बुद्धिमत्ता पर भरोसा न रखें और
प्रार्थना में प्रभु से पहले पूछे या मांगे बिना कुछ भी नहीं करें (नीतिवचन 3:5-6); अन्यथा शैतान आपको बहका कर किसी
गलती में डाल देगा (2 कुरिन्थियों 11:3).
इसका यह अर्थ नहीं है कि आपके प्रयास सदा ही
सकारात्मक तथा रचनात्मक स्वीकार किए जाएँगे, या आपको कभी
किसी विरोध का सामना नहीं करना पड़ेगा, और जीवन आपके लिए सदा
ही निर्विवाद एवँ सुचारू रीति से चलता रहेगा – ऐसा तो हो ही
नहीं सकता है – फिलिप्पियों 1:29; 2 तिमुथियुस
3:12; कोई न कोई नकारात्मक प्रतिक्रियाएं तो सदा ही होती रहेंगी। इसलिए,
“पर तू सब बातों में सावधान रह, दुख उठा,
सुसमाचार प्रचार का काम कर और अपनी सेवा को पूरा कर।” (2
तिमुथियुस 4:5)।
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