2. क्या पवित्र आत्मा प्रेरितों या कलीसिया के अगुवों
की सहायता से मिलता है?
(भाग 2 – यहाँ पर ध्यान रखने योग्य संबंधित शिक्षाएं)
किन्तु इस बात को थोड़ा सा विस्तार से देखने से
पहले, कुछ संबंधित बातों पर ध्यान करने की आवश्यकता है:
समस्त कलीसिया की एकता: इसके लिए कृपया इफिसियों 2:12-22 ध्यान से,
प्रार्थना पूर्वक, और बारंबार पढ़िए। इफिसियों के इस खंड में दी गई शिक्षा का सार
यही है कि प्रभु यीशु द्वारा समस्त संसार के लिए उपलब्ध करवाए गए उद्धार और
परमेश्वर के साथ मेल-मिलाप से पहले, संसार के मनुष्यों के मध्य परमेश्वर की
व्यवस्था, उसकी शिक्षाएं और बातें, तथा परमेश्वर तक पहुँच की प्रणाली केवल
यहूदियों के पास ही उपलब्ध थी। यह बात यहूदियों के लिए बड़े घमण्ड का विषय था, और
इसके अंतर्गत वे अपने आप को संसार के अन्य सभी लोगों से बहुत बढ़कर समझते थे।
किन्तु अब, प्रभु यीशु मसीह के द्वारा किए गए कार्य के उपरान्त, यह सारी बातें संसार
के सभी लोगों के लिए उपलब्ध हो गई हैं, अब इन पर यहूदियों ही का एकाधिकार नहीं रहा
है – अब सभी मसीही विश्वासी जन मसीह यीशु में विश्वास में आ जाने पर एक कर दिए गए
हैं, मसीह यीशु में हो जाने के बाद यहूदियों और गैर-यहूदियों में कोई भिन्नता नहीं
रही है, और सभी एक साथ मिलकर प्रभु यीशु और भविष्यद्वक्ताओं की शिक्षाओं की नींव
पर पवित्र आत्मा के द्वारा परमेश्वर का निवास स्थान बनाए जा रहे हैं (इफिसियों 2:20-22)
– एक ही शिक्षा पर, एक ही आत्मा के द्वारा, एक ही परमेश्वर के लिए, एक ही प्रकार
के लोग, एकत्रित, कार्यान्वित, और उपयोगी किए जा रहे हैं (इफिसियों 4:4-6), बिना
किसी भी प्रकार के किसी भी भेदभाव के।
एक किए जाने से पूर्व के सामाजिक वर्ग: मसीही विश्वासियों की प्रथम मण्डली स्थापित
होने के समय में, इस्राएल के निवासियों के दृष्टिकोण से समाज के लोगों को मुख्यतः चार
प्रकार के वर्गों में देखा जाता था – (1) यहूदी, जो परमेश्वर की चुनी हुई प्रजा थे;
जिनके पास परमेश्वर की व्यवस्था, विधियां, वचन थे; जिनके पास परमेश्वर का मंदिर और
उसकी उपासना और आराधना का दायित्व था; और इसलिए वे अपने आप को मनुष्यों में सर्वोच्च
स्तर का समझते थे, उन्हें लगता था कि उनके समान कोई अन्य न तो है और न हो सकता है।
(2) सामरी लोग, जो न तो पूर्णतः यहूदी थे, और न ही पूर्णतः अन्य-जाति वरन बीच में
कहीं थे। यहूदी उन्हें अपने समान नहीं मानते थे, और वे सामरी, स्वयं को याकूब की
संतान होने, तथा यहूदी व्यवस्था, आराधना, और विधियों के पालन करने वाले होने के
कारण (यूहन्ना 4:9, 12, 20, 25), यहूदियों ही के समान अपने आप को अन्य-जाति लोगों
से भिन्न समझते थे। (3) अन्य-जाति या गैर यहूदी, जिन्हें परमेश्वर के जन या कृपा
के पात्र होने के योग्य भी नहीं समझा जाता था; यहूदी उन से कोई भी व्यवहार रखना अधर्म
समझते थे (प्रेरितों 10:28)। (4) यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले के अनुयायी, जिनमें
से निकलकर पतरस, अन्द्रियास आदि प्रभु के पास आए थे (यूहन्ना 1:35-42); यूहन्ना
बपतिस्मा देने वाले के चेले यहूदी तो थे, किन्तु यूहन्ना की शिक्षाओं के पीछे चल
निकलने के कारण यहूदी मुख्य धारा से पृथक देखे जाते थे। इन सभी वर्गों के लोगों के
पास परमेश्वर ने यहूदियों में से आए मसीही विश्वासियों, अर्थात, फिलिप्पुस, पतरस,
यूहन्ना, और पौलुस को सुसमाचार के साथ भेजा, और उन यहूदी मसीहियों की सेवकाई में
होकर उन लोगों ने भी वही पवित्र आत्मा पाया जो आरंभ में यहूदी विश्वासियों ने पाया
था। उन के लिए यह होना परमेश्वर के वचन में प्रभु यीशु की बात की पुष्टि तथा
परमेश्वर की इच्छानुसार हुआ कार्य कहा गया (प्रेरितों 11:15-18)।
कहने का अभिप्राय यह है कि परमेश्वर ने यहूदियों से
भिन्न या नीचे समझे जाने वाले प्रत्येक वर्ग के लोगों को, यहूदियों के द्वारा ही,
अपने साथ मिला लिया – जो इफिसियों 2:20-22 के व्यावहारिक प्रयोग का उदाहरण है – सब
को एक देह में एक साथ, परमेश्वर का एक ही मंदिर होने के लिए जोड़ लिया। ऐसा करना
इसलिए आवश्यक था, जिससे यहूदियों में से मसीही विश्वासी बने शिष्य भी यह स्वयं ही
देख, समझ और मान लें कि अब प्रभु में होने के बाद न तो वे कोई विशेष हैं, और न ही
गैर-यहूदी उनसे निचले स्तर के हैं (प्रेरितों 10:28, 35; 11:1-4, 18)। यदि यह बात
और कार्य यहूदी मसीही विश्वासियों के समक्ष और उन ही के माध्यम से नहीं होता, और
इसके विषय उन आरंभिक यहूदी विश्वासियों, प्रेरितों और कलीसिया के अगुवों, तथा अन्य
मसीही विश्वासियों की समझ और धारणाएं नहीं सुधारी जाती और बदलतीं, तो उन और उन के
बाद के यहूदी विश्वासियों के लिए यह स्वीकार करना बहुत कठिन होता कि गैर-यहूदी भी
प्रभु यीशु में होकर उन ही के समान के स्तर के हो गए हैं, और उनके पास भी अब वही
और वैसा ही पवित्र-आत्मा, तथा परमेश्वर की संतान होने का आदर है। और यदि यह नहीं
होता तो उस स्थिति में, कलीसिया में आरम्भ ही से बहुत बड़ा विभाजन और मत-भेद हो
जाता, जिसे बाद में पाट पाना बहुत कठिन होता। इस सन्दर्भ में, यह ध्यान देने योग्य
बात है कि इतने प्रमाणों और स्पष्टीकरणों के बावजूद, आरंभिक कलीसिया में यह मतभेद
तुरंत ही नहीं गया, भेदभाव फिर भी होता रहा (प्रेरितों 6:1); शैतान प्रभु के लोगों
के मध्य विभाजन और झगड़े खड़े करने का कोई अवसर नहीं छोड़ता है।
- क्रमशः
अगला लेख: तीनों उदाहरणों की समझ
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