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रविवार, 25 अप्रैल 2021

मत्ती 17:1 के छः दिन, या, लूका 9:28 के आठ दिन – कौन सा सही है?

 

  प्रश्न: 

    मत्ती 17:1 और लूका 9:28 में दिनों की संख्या में असंगति क्यों है? कौन सा वर्णन सही है?


  उत्तर:

    प्रश्न चुनौतीपूर्ण अवश्य लगता है, और सामान्य अवलोकन में एक ही घटना के वर्णन में परमेश्वर के वचन में असंगति, विरोधाभास प्रतीत होती है। इसका उत्तर भी बाइबल की व्याख्या के मूल सिद्धांतों पर आधारित है, जिनकी अनदेखी करने के कारण इस प्रकार के अनुचित विरोधाभास उत्पन्न हो जाते हैं, यद्यपि ऐसा कोई भी विरोधाभास परमेश्वर के वचन में नहीं है। बाइबल व्याख्या के ये अनिवार्य एवं मूल सिद्धांत हैं – बाइबल के प्रत्येक शब्द, वाक्यांश, पद या खण्ड को हमेशा ही उसके सन्दर्भ में देखें, सन्दर्भ से बाहर निकाल कर के नहीं; और लिखे हुए प्रत्येक शब्द पर ध्यान दें क्योंकि परमेश्वर के वचन का कोई भी शब्द व्यर्थ नहीं है। साथ ही हमेशा इस बात का ध्यान रखें कि मूल लेख और भाषा में अध्यायों अथवा पदों का कोई विभाजन नहीं था। हमारी वर्तमान बाइबलों में पाए जाने वाले ये सभी विभाजन कृत्रिम हैं, बाइबल की पुस्तकों के संकलित किए जाने के सैकड़ों वर्ष बाद में बाइबल का अध्ययन सहज करने, और उसके किसी भाग का सरलता से हवाला दे पाने के उद्देश्य से डाले गए हैं। इसलिए हमें सदा ज़ारी विषय और विचार के अनुसार बाइबल की बातों को देखना और समझना चाहिए, न कि उन विषयों और विचारों के किए गए इस कृत्रिम विभाजन के अनुसार। अब इन सिद्धांतों के आधार पर इन दोनों पदों को देखते हैं: 


  मत्ती 17:1 में लिखा है “छ: दिन के बाद यीशु ने पतरस और याकूब और उसके भाई यूहन्ना को साथ लिया, और उन्हें एकान्‍त में किसी ऊंचे पहाड़ पर ले गया।”


  और, लूका 9:28 में लिखा है इन बातों के कोई आठ दिन बाद वह पतरस और यूहन्ना और याकूब को साथ ले कर प्रार्थना करने के लिये पहाड़ पर गया।”


  लूका 9:28 अपनी बात के सन्दर्भ को स्पष्ट व्यक्त कर देता है - इन बातों के कोई आठ दिन बाद” – इसलिए यह अब पाठक पर है कि वह इस सन्दर्भ “इन बातों” को देखे और समझे, और तब इस पद की शेष बातों के साथ उसे मिलाकर, फिर उसकी वास्तविकता को समझे। कृपया इस बात का भी ध्यान कीजिए कि “बातों” (बहु वचन) लिखा गया है, न कि “बात” (एक वचन) – अर्थात लूका 9:28 के इस कथन से पहले जो कुछ बातें हुई हैं, उन बातों के आठ दिन के बाद फिर यह घटना हुई है। लूका 9:28 से पहले के पदों पर ध्यान करें तो तुरंत पहले, 9:18-27 में, शिष्यों के साथ प्रभु की एक महत्वपूर्ण विषय पर चर्चा हो रही है, जो मत्ती 16:20-28 के समानान्तर है, और “इन बातों” में से ‘एक’, तथा अंतिम बात है। किन्तु इस चर्चा के होने से पहले भी कुछ और ‘बातें’ होकर चुकी हैं। इस चर्चा से पहले, 9:11-17 में, पाँच रोटी और दो मछलियों से प्रभु के द्वारा पाँच हजार से भी अधिक की भीड़ के खिलाए जाने का आश्चर्यकर्म है; और उससे भी पहले प्रभु द्वारा शिष्यों के प्रचार के लिए भेजे जाने (9:1-6) और हेरोदेस के घबराने और प्रभु यीशु को लेकर असमंजस में पड़ने (9:7-8), और चेलों के प्रचार से लौट कर आने और अपने किए हुए कार्यों को प्रभु को बताने (9:10) की बातें हैं। ये सभी ‘बातें’ (बहु वचन) मिलकर लूका 9:28 का सन्दर्भ बनाती हैं। अर्थात, सन्दर्भ के अनुसार, लूका 9:28 को इस प्रकार से समझना चाहिए – शिष्यों के प्रचार पर जाने और लौटने, फिर उनके एकांत स्थान पर जाने, वहाँ पर भीड़ के एकत्रित होने तथा प्रभु द्वारा उन्हें आश्चर्यकर्म के द्वारा भोजन करवाने, आदि “बातों के आठ दिन के बाद” प्रभु तीन शिष्यों को लेकर पहाड़ पर गया।


  जब कि मत्ती 17:1 का संदर्भ, इस से पहले के अध्याय का अंतिम भाग – मत्ती 16:21-28 है, जो लूका 9:18-27 की प्रभु की शिष्यों की चर्चा के साथ सामान्य है, और लूका 9:28 की “इन बातों”” के सन्दर्भ की अंतिम घटना है। प्रभु यीशु और शिष्यों के मध्य हुई इस चर्चा, जिसमें पतरस को प्रभु का सलाहकार और मैनेजर बनने के प्रयास के कारण अच्छे से डांट भी पड़ी (मत्ती 16:22-23), के “छः दिन के बाद” प्रभु यीशु तीन शिष्यों को लेकर पहाड़ पर गया।


  दोनों वृतांतों के संदर्भ का ध्यान रखते हुए इन पदों को देखने और समझने से स्वाभाविक निष्कर्ष सामने आता है कि लूका 9:1-17 की “बातों” के होने के “आठ दिन के बाद, और शिष्यों के साथ हुई प्रभु की चर्चा (मत्ती 16:21-28; लूका 9:18-27), के “छः दिन के बाद” प्रभु अपने उन तीन शिष्यों के साथ पहाड़ पर गया।


  इसलिए इन दोनों वृतांतों में कोई विरोधाभास नहीं है; लूका 9:1-27 की सभी बातों को होने में दो दिन लगे, और उन में से अंतिम बात, शिष्यों के साथ प्रभु की वह चर्चा जो मत्ती 16:28 और लूका 9:27 में समाप्त हुई, और इस के छः दिन के पश्चात प्रभु यीशु अपने शिष्यों को साथ लेकर पहाड़ पर गया।


परमेश्वर का वचन निर्विवाद, अटल, खरा और विश्वासयोग्य है; यदि कोई गलती प्रतीत भी होती है, तो यह हम मनुष्यों के उसे ठीक से देखने और समझने की कमी के कारण है, न कि वचन में कोई कमी होने के कारण। सभी पाठकों से निवेदन है, कृपया जब भी परमेश्वर के वचन में कुछ असंगत अथवा विरोधाभास प्रतीत हो, तो कृपया सन्दर्भ और अन्य बातों के साथ उस भाग का बारंबार अध्ययन करें, और विचार करें; परमेश्वर से उसके विषय प्रार्थना करें। साथ ही अध्याय और पदों के विभाजन की अनदेखी करते हुए, ज़ारी विषय या विचार के अनुसार संपूर्ण वृतांत या घटना अथवा चर्चा को देखने और विश्लेषण करने का प्रयास करें।

सोमवार, 19 अप्रैल 2021

मत्ती 16:28 को समझना

 

प्रश्न: मत्ती 16:28 में प्रभु यीशु द्वारा कही गई बात  "जो यहाँ खड़े हैं, उनमें से कुछ ऐसे हैं कि वे जब तक मनुष्य के पुत्र को उसके राज्य में आते हुए ना देख लेंगे, तब तक मृत्यु का स्वाद नहीं चखेंगे" को हम कैसे समझ सकते हैं?

 

उत्तर:

 प्रभु के राज्य, या स्वर्ग के राज्य से संबंधित प्रश्न में प्रभु के द्वारा कही बात को समझने के लिए कुछ अन्य पदों को भी ध्यान में रखकर चलना पड़ेगा। हमारी सामान्यतः यही स्वाभाविक धारणा होती है कि जैसे ही वाक्यांश “स्वर्ग का राज्य” या “परमेश्वर का राज्य” सामने आए, तो हम उसे भविष्य में, इस जगत के अंत तथा न्याय के साथ स्थापित होने वाले परमेश्वर के राज्य के रूप में देखें और समझें। इसमें कुछ गलत नहीं है, यह समझना ठीक तो है, किन्तु यहाँ पर प्रभु द्वारा कही गई बात की यही एकमात्र समझ भी नहीं है; क्योंकि यदि यही अर्थ लिया जाए तो यह इसे प्रभु यीशु के दूसरे आगमन के साथ जोड़ देता है, जिसकी तिथि अनिश्चित है, और आज लगभग 2000 वर्षों से जिसकी प्रतीक्षा चल रही है। इसीलिए मत्ती 16:28 की यह बात अव्यावहारिक और स्वीकार करने में कठिन प्रतीत होती है। साथ ही यदि मत्ती 21:31 में प्रभु यीशु द्वारा अपने विरोधियों और आलोचकों से कहे गई बात को देखें, जहाँ लिखा है “...यीशु ने उन से कहा, मैं तुम से सच कहता हूं, कि महसूल लेने वाले और वेश्या तुम से पहिले परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करते हैं।” यहाँ पर हम देखते हैं कि प्रभु यीशु यहाँ परमेश्वर/स्वर्ग के राज्य में महसूल लेने वालों और वेश्याओं के प्रवेश के लिए निरंतर ज़ारी वर्तमान काल (Present Continuous Tense) का प्रयोग कर रहा है, न कि भविष्य काल (Future Tense) – ‘वे प्रवेश करेंगे का, अथवा अनिश्चितता का – ‘वे कर सकते हैं, का। कहने का अभिप्राय यह है कि जिस समय प्रभु यीशु यह बात कह रहे थी, उस समय भी यह कार्य – लोगों का परमेश्वर/स्वर्ग के राज्य में प्रवेश होना ज़ारी था, हो रहा था; इसलिए परमेश्वर/स्वर्ग के राज्य में प्रवेश होने को केवल भविष्य की बात समझना ही एकमात्र तात्पर्य नहीं है।


प्रभु द्वारा मत्ती 16:28 में कही गई इस बात को समझने के लिए, उनकी पृथ्वी की सेवकाई के समय में प्रभु द्वारा कही गई कुछ बातों को देखिए:


यूहन्ना के पकड़वाए जाने के बाद यीशु ने गलील में आकर परमेश्वर के राज्य का सुसमाचार प्रचार किया। और कहा, समय पूरा हुआ है, और परमेश्वर का राज्य निकट आ गया है; मन फिराओ और सुसमाचार पर विश्वास करो” (मरकुस 1:14-15)। प्रभु ने अपनी सेवकाई का आरंभ पश्चाताप करने के आह्वान के साथ किया क्योंकि “परमेश्वर का राज्य निकट आ गया है” – प्रभु के शब्दों पर ध्यान कीजिए, वह राज्य दूर भविष्य में नहीं है, वरन निकट है – आ ही गया है; राज्य निकट आने वाला है नहीं कहा, वरन निकट आ गया है कहा।


प्रभु स्वयं लूका 11:20 में कहता है, "परन्तु यदि मैं परमेश्वर की सामर्थ से दुष्टात्माओं को निकालता हूं, तो परमेश्वर का राज्य तुम्हारे पास आ पहुंचा"; अर्थात प्रभु यीशु की उपस्थिति और कार्य परमेश्वर के राज्य के विद्यमान होने के को दिखाते हैं। इसके कुछ समय पश्चात, “जब फरीसियों ने उस से पूछा, कि परमेश्वर का राज्य कब आएगा? तो उसने उन को उत्तर दिया, कि परमेश्वर का राज्य प्रगट रूप से नहीं आता। और लोग यह न कहेंगे, कि देखो, यहां है, या वहां है, क्योंकि देखो, परमेश्वर का राज्य तुम्हारे बीच में है” (लूका 17:20-21)। सेवकाई का आरम्भ करते हुए प्रभु कहता है कि परमेश्वर का राज्य निकट है; सेवकाई के दौरान, प्रभु, परमेश्वर के वचन के ज्ञानी फरीसियों को सिखाता है कि परमेश्वर का राज्य किसी वस्तु या घटना के समान प्रगट होने के द्वारा नहीं आता है, वरन वह तो अभी उनके मध्य में ही है, अर्थात उस समय प्रभु की उनके मध्य उपस्थिति में है, यदि वे प्रभु पर विश्वास कर लेते, प्रभु को स्वीकार कर लेते, तो परमेश्वर के राज्य में प्रवेश कर जाते।


मरकुस 12:28-34 को देखिए; शास्त्री प्रभु को परमेश्वर की आज्ञाओं के विषय फँसाना चाहते हैं; उस वार्तालाप के अंत में प्रभु उस प्रश्न करने वाले शास्त्री से कहता है, जिसने प्रभु के उत्तरों को बिना कोई अन्य प्रश्न उठाए स्वीकार कर लिया था, जब यीशु ने देखा कि उसने समझ से उत्तर दिया, तो उस से कहा; तू परमेश्वर के राज्य से दूर नहीं: और किसी को फिर उस से कुछ पूछने का साहस न हुआ” (मरकुस 12:34)। अर्थात, प्रभु उस शास्त्री से कह रहा था कि परमेश्वर की आज्ञाओं की सही समझ को स्वीकार करने के कारण तू परमेश्वर के राज्य से दूर नहीं है, अब अपने इस किताबी ज्ञान को व्यावहारिक भी बना ले, इसे अपने जीवन में लागू कर ले, परमेश्वर की आज्ञाओं को मान ले, और तू परमेश्वर के राज्य में प्रवेश कर लेगा।


उपरोक्त बातों से हम समझ सकते हैं कि परमेश्वर का राज्य या स्वर्ग का राज्य, प्रभु यीशु जिसकी बात करता और सिखाता था, वह प्रभु को स्वीकार करना, उसकी आज्ञाकारिता में हो जाना, उसे समर्पित हो जाना है, जो कि यूहन्ना 1:12-13 के भी अनुरूप है – प्रभु पर लाए गए विश्वास के द्वारा परमेश्वर की संतान बनना, उसके राज्य में उसके साथ रहने के हकदार हो जाना।


प्रभु यीशु ने अपने पकड़वाए जाने से कुछ ही पहले अपने शिष्यों से यूहन्ना 14:18-20 में यह भी कहा: “मैं तुम्हें अनाथ न छोडूंगा, मैं तुम्हारे पास आता हूं। और थोड़ी देर रह गई है कि फिर संसार मुझे न देखेगा, परन्तु तुम मुझे देखोगे, इसलिये कि मैं जीवित हूं, तुम भी जीवित रहोगे। उस दिन तुम जानोगे, कि मैं अपने पिता में हूं, और तुम मुझ में, और मैं तुम में।” अर्थात अदृश्य रूप में प्रभु अपने शिष्यों के साथ अपने बलिदान और पुनरुत्थान के बाद से ही सदा बना रहने का वायदा करता है, और तब से लेकर आज तक बना हुआ भी है।


प्रभु यीशु के क्रूस पर दिए गए बलिदान, और उसके मृतकों में से पुनरुत्थान के साथ ही समस्त मानव जाति के लिए उद्धार का, स्वर्ग में प्रवेश का, मार्ग खुल गया और उपलब्ध हो गया, और वे प्रभु में लाए गए विश्वास और पापों से पश्चाताप के द्वारा उसमें प्रवेश पा सकते थे; स्वर्ग का राज्य या परमेश्वर का राज्य अब उन्हें उपलब्ध था।


इन बातों को ध्यान में रखते हुए, जब आप मत्ती 16:19 में प्रभु द्वारा पतरस से कही बात को तथा इस पद से पूर्व के पदों में कलीसिया अर्थात मसीही विश्वासियों के समूह के बनाए जाने की बात के सन्दर्भ में देखते हैं, तो प्रभु द्वारा पतरस से कही गई बात को इस प्रकार समझा जा सकता है: “मैं तुझे स्वर्ग के राज्य में लोगों को प्रवेश करवाने की कुंजियाँ, यानि कि उद्धार का सुसमाचार, दूँगा, और जो वह सुसमाचार ग्रहण कर लेगा, अर्थात वह कुंजी ले लेगा, उसके लिए स्वर्ग में प्रवेश का द्वार खुल जाएगा; जो वह कुंजी, वह सुसमाचार अस्वीकार करेगा, उसके लिए स्वर्ग में प्रवेश का द्वार बंद रह जाएगा” – और हम देखते हैं कि प्रेरितों 2 अध्याय में पतरस द्वारा पहली बार इस कुंजी के प्रयोग के द्वारा, पतरस द्वारा पहला सुसमाचार प्रचार किए जाने के परिणामस्वरूप तीन हज़ार लोगों ने पश्चाताप किया प्रभु को ग्रहण किया, प्रभु यीशु के शिष्य बन गए (प्रेरितों 2:41) और पतरस द्वारा उन्हें दी गई उस सुसमाचार की कुंजी के उनके स्वीकार कर लेने से उनके लिए स्वर्ग के राज्य में प्रवेश का द्वार खुल गया।


यही सन्दर्भ मत्ती 16:28 पर भी लागू होता है। प्रभु यीशु ने जिस समय यह बात कही थी, उस समय वहां उपस्थित लोगों में से बहुतेरे लोग पतरस के इस पहले प्रचार किए जाने, और कलीसिया की स्थापना होने के समय तक जीवित रहे होंगे, और संभव है उन में से अनेकों प्रेरितों 2 अध्याय की इस घटना के प्रत्यक्षदर्शी भी रहे होंगे। उन्होंने मृत्यु का स्वाद चखने के पहले ही स्थापित होते देख लिया; परमेश्वर के पुत्र, प्रभु यीशु के राज्य के आगमन को, लोगों द्वारा प्रभु यीशु मसीह में लाए गए विश्वास के द्वारा प्रभु को उन लोगों के जीवनों में प्रवेश करते और उनके जीवनों को परिवर्तित करते हुए देख लिया। और साथ ही, जैसा प्रभु यीशु ने शिष्यों से प्रतिज्ञा की, वह अपने चेलों के साथ तब भी था और आज भी है। इस प्रकार मत्ती 16:28 की सभी बातें पतरस के पहले प्रचार के समय बनी पहली कलीसिया में पूरी हो जाती हैं। इसकी पूर्ति के लिए केवल प्रभु यीशु के दूसरे आगमन को ही लेने की आवश्यकता नहीं है – जो इसे स्वीकार करने में आने वाली कठिनाई का कारण होता है।

यह एक बार फिर से इस तथ्य की पुष्टि है कि परमेश्वर के वचन को समझने में त्रुटियों से बचने के लिए प्रभु के वचन को सदा ही उसके सन्दर्भ में तथा अन्य संबंधित पदों और शिक्षाओं के साथ ही देखना और समझाना चाहिए।

गुरुवार, 8 अक्तूबर 2020

मत्ती 11:12 को समझना


 मत्ती 11:12 बाइबल के पेचीदा खण्डों में से एक है, और विभिन्न व्याख्या कर्ताओं ने इसे विभिन्न अर्थ दिए हैं।

ऐसे खण्डों को समझने के लिए, इस बात को ध्यान में रखना होता है कि भाषा और शब्दों के प्रयोग तथा उनके अर्थों में, समय के साथ परिवर्तन आते रहते हैं, और बीते समय में शब्द का जो अर्थ हुआ करता था (मूल एवं अनुवादित भाषा, दोनों में), आवश्यक नहीं कि आज भी वही अर्थ या वैसा ही प्रयोग उतना ही उचित माना जाए।

इस पद को समझने में आने वाली कठिनाई का एक कारण है यहाँ प्रयुक्त हुए शब्द ‘बलपूर्वक तथा ‘बलवान; और सामान्यतः हमारे द्वारा इन शब्दों को एक नकारात्मक अर्थ के साथ देखना। मूल यूनानी भाषा के जिन शब्दों का अनुवाद ‘बलपूर्वक और ‘बलवान हुआ है, उनके अन्य अर्थ ‘सशक्त’ और ‘दृढ़ता पूर्वक’ भी हो सकते हैं।

अब यदि इन अन्य अर्थों के प्रयोग के साथ इस पद के वाक्य को बनाया जाए, तो वह कुछ इस प्रकार का होगा: “और यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले के दिनों से लेकर अब तक प्रतिबद्ध लोग स्वर्ग के राज्य में सशक्त प्रयासों के द्वारा दृढ़ता पूर्वक के साथ प्रवेश करते जा रहे हैं” (मत्ती 11:12 भावानुवाद); और यह इस पद को एक अन्य इसी से संबंधित पद “व्यवस्था और भविष्यद्वक्ता यूहन्ना तक रहे, उस समय से परमेश्वर के राज्य का सुसमाचार सुनाया जा रहा है, और हर कोई उस में प्रबलता से प्रवेश करता है” (लूका 16:16) के अधिक समरूप बना देता है।


इस पृष्ठभूमि के साथ, इस पद की एक संभव व्याख्या तथा समझ इस प्रकार व्यक्त की जा सकती है: “जब से यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले ने पश्चाताप करने और पश्चाताप के बपतिस्मे को लेने का आह्वान किया है, तब से लेकर अब तक, जितनों ने भी इस आह्वान को स्वीकार किया है, उन्होंने ऐसा मन में पक्का ठान कर तथा दृढ़ संकल्प के साथ किया है, इस निश्चित प्रयास के साथ कि समस्त प्रतिरोध का सामना करेंगे और इस बुलाहट में दृढ़ निश्चय के साथ बने रहेंगे।


किन्तु यहाँ पर साथ ही एक अन्य बात का भी ध्यान रखना चाहिए, जब प्रभु यीशु मसीह ने ये शब्द कहे थे, उस समय तक अनुग्रह के द्वारा उद्धार के युग का आरंभ नहीं हुआ था और लोग उस समय परमेश्वर को स्वीकार्य होने के लिए व्यवस्था पर आधारित कर्मों की धार्मिकता पर ही विश्वास रखते तथा पालन करते थे, और इस लिए उनका मानना था कि परमेश्वर को ग्रहण योग्य होने के लिए उन्हें व्यवस्था के अनुरूप, प्रबल और सशक्त प्रयास करना आवश्यक है। साथ ही, प्रभु यीशु ने यहाँ पर बहुत विशिष्ट वाक्य प्रयोग किया हैऔर यूहन्ना बप्तिस्मा देने वाले के दिनों से लेकर अब तक ”, जो उनकी बात को एक निश्चित समय सीमा के साथ जोड़ देता है; और इस के पश्चात न तो किसी सुसमाचार लेख में और न ही किसी भी पत्री में इस अभिव्यक्ति (‘बल पूर्वक या ‘सशक्त या ‘दृढ़ता पूर्वक’ होना) को परमेश्वर के राज्य में प्रवेश पाने के लिए पूर्व-आग्रह या शर्त के समान फिर कहीं नहीं कहा गया है। इसलिए इस पद के आधार पर यह निष्कर्ष निकालना कि परमेश्वर के राज्य में प्रवेश प्राप्त करने के लिए स्वयं के द्वारा किए गए प्रबल प्रयास आवश्यक हैं अनुचित है, पद की गलत व्याख्या है।


किन्तु परमेश्वर के अनुग्रह के द्वारा उसकी नया जन्म प्राप्त की हुई संतान के लिए, जिन्होंने अपने पापों से पश्चाताप कर के प्रभु यीशु मसीह को अपना व्यक्तिगत उद्धारकर्ता स्वीकार किया है, उनके लिए मसीही विश्वास में उन्नत होते जाने तथा अपनी मसीही बुलाहट की पवित्रता को बनाए रखने के लिए, सशक्त और दृढ़ प्रयास करते रहना सदा ही अनिवार्य रहे हैं, जैसा कि हम पौलुस की सेवकाई से देखते हैं जिसने अपने आप को सब कुछ सहते हुए भी दृढ़ता के साथ अनुशासन में बनाए रखा, और यही शिक्षा अपने युवा सहकर्मी तिमुथियुस को भी दी (1 कुरिन्थियों 9:24-27, 2 तिमुथियुस 2:3-5 & 4:7)


दूसरे शब्दों में, हमारे लिए जो इस अनुग्रह के युग में रहते हैं, उद्धार पाना और परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करने के हकदार होना हमारे अपने किसी प्रयास से नहीं है वरन पूर्णतः परमेश्वर के अनुग्रह और प्रभु यीशु मसीह पर विश्वास लाने से है। परन्तु मसीही विश्वास में आ जाने के पश्चात, उस में उन्नत एवं परिपक्व होते जाना तथा प्रभु के लिए सक्रिय एवं प्रभावी होना हमारे सशक्त एवं दृढ़ बने रहकर प्रतिरोध का सामना करने के निश्चय बनाए रखने तथा अपने विश्वास को सतत प्रयास के साथ निभाते रहने की माँग करता है।

गुरुवार, 13 अगस्त 2020

सबत, इतवार (सन्डे), मसीही आराधना का दिन

 


प्रश्न: सबत क्या है; क्या यह और सन्डे एक ही हैं? मसीहियों को आराधना सन्डे को करनी चाहिए या सबत के दिन करनी चाहिए?


उत्तर:


     सीधा, स्पष्ट और एक वाक्य का उत्तर है कि सबत और सन्डे एक ही दिन नहीं है, और बाइबल के अनुसार मसीहियों को सन्डे के दिन आराधना करनी चाहिए।


     ‘सबत’ शब्द का अर्थ होता है विश्राम। सामान्यतः इसका अभिप्राय यहूदी कैलेंडर के सातवें दिन, और हमारे वर्तमान कैलेंडर के शनिवार का दिन होता है, क्योंकि इस दिन परमेश्वर ने अपनी सृष्टि के कार्य को पूर्ण करके विश्राम किया (उत्पत्ति 2:2-3) और यह सातवाँ दिन अपनी दस आज्ञाओं में अपने लोगों के विश्राम के लिए ठहरा दिया (निर्गमन 20:8-11)। किन्तु पुराने नियम में सबत या विश्राम दिन अनिवार्यतः यहूदी सप्ताह का सातवाँ दिन नहीं है – कोई भी ‘विश्राम दिनया ‘काम न करने का दिन,सबत का दिन कहा जा सकता है – लैव्यव्यवस्था 23 अध्याय देखें, जहाँ परमेश्वर के अन्य पर्व और उन्हें मनाने की विधियां दी गई हैं, और 25 अध्याय देखें, जहाँ एक पूरे निर्धारित वर्ष को ही सबत या विश्राम का वर्ष कहा गया है। इसी प्रकार निर्गमन 31:13 और लैव्यव्यवस्था 19:3 तथा 26:2 में भी बहुवचन ‘विश्राम दिनों आया है (अंग्रेज़ी अनुवादों में शब्द sabbaths का प्रयोग हुआ है), अर्थात एक ही दिन सबत का दिन नहीं था, जो यह स्पष्ट करता है कि पुराने नियम में शब्द ‘सबत’ केवल यहूदी सप्ताह के सातवें दिन के लिए ही नहीं था, वरन परमेश्वर द्वारा निर्धारित किसी भी विश्राम या काम से अवकाश लेने के समय के लिए था। शब्द के प्रयोग का संदर्भ निर्धारित करता था कि यह किस अभिप्राय से कहा जा रहा है; किन्तु सामान्यतः यह यहूदी सप्ताह के सातवें दिन, हमारे शनिवार, के लिए था, जिसे परमेश्वर की व्यवस्था और दस आज्ञाओं के अनुसार कोई भी कार्य करने के लिए नहीं वरन परमेश्वर की उपासना के लिए व्यतीत किया जाना था – यह व्यवस्था की माँग थी, उनके लिए जो व्यवस्था के अंतर्गत परमेश्वर के लोग थे, वे चाहे जन्म से अब्राहम के वंशज हों, या स्वेच्छा से यहूदियों के साथ रहने वाले हों (निर्गमन 20:10), या जिन्होंने यहूदी धर्म और व्यवस्था को अपना लिया हो – जैसे कि उन लोगों की वह मिली-जुली भीड़ जो इस्राएलियों के साथ मिस्र से निकलकर आई थी (निर्गमन 12:38), या बाद में जो लोग यहूदी बने (एस्तेर 8:17; 9:27; यशायाह 14:1; 45:14; ज़कर्याह 8:20-23) – उन सभी पर परमेश्वर द्वारा दी गई व्यवस्था लागू होती थी, और उसका उन्हें पालन करना था, सबत का दिन या शनिवार परमेश्वर के लिए पृथक एवं पवित्र रखना था और व्यवस्था में दी गई विधि के अनुसार उसका पालन करना था।


     हमारा आज का इतवार, या सन्डे, यहूदी कैलेंडर का सप्ताह का पहला दिन है; और हमारे वर्तमान कैलेंडर का सातवाँ दिन। यह दिन हम मसीही विश्वासियों के लिए विशेष इस लिए है क्योंकि इस दिन प्रभु यीशु मसीह मृतकों में से जी उठे थे (मरकुस 16:9, देखें पद 1-9)। इसीलिए प्रभु यीशु मसीह के अनुयायी, प्रभु की आराधना करने और प्रभु-भोज में सम्मिलित होने के लिए ‘सप्ताह के पहले दिन अर्थात सन्डे के दिन एकत्रित हुआ करते थे (प्रेरितों 20:7; 1 कुरिन्थियों 16:2) – और यह बात परमेश्वर के पवित्र आत्मा ने लिखवाई है (2 तिमुथियुस 3:16-17), हमारी शिक्षा और पालन के लिए। और नए नियम में कहीं भी ऐसा करने के लिए मसीही विश्वासियों की न तो निन्दा की गई है और न ही इसे सुधारने, तथा वापस ‘सबत’ या शनिवार के दिन पर जाने के लिए कहा गया है। अर्थात, सब्त के स्थान पर सन्डे के दिन आराधना करने की यह बात परमेश्वर की ओर से है, परमेश्वर को स्वीकार्य है, और मसीही विश्वासियों के लिए उचित एवं मान्य है। बाद में इसे ‘प्रभु का दिन भी कहा गया है (प्रकाशितवाक्य 1:10) – और यह भी पवित्र आत्मा ही के द्वारा लिखवाया गया है। इसे वापस यहूदी सबत पर पलट देने का न तो कोई निर्देश है, और न ही कोई औचित्य, अथवा अनिवार्यता है।


     आज बहुत से लोग मसीही विश्वासियों को भरमा कर सन्डे के स्थान पर सबत के दिन की ओर ले जाना चाहते हैं, और अपनी बात के समर्थन में पुराने नियम से व्यवस्था के हवाले देते हैं। किन्तु वे बाइबल से यह नहीं दिखाते हैं कि मसीह यीशु ने हमारे लिए व्यवस्था को पूरा कर दिया, उसे हमारे सामने से हटा कर क्रूस पर ठोक दिया, और व्यवस्था के पालन के लिए हम भी मसीह के साथ क्रूस पर मर गए हैं (रोमियों 7:4; 10:4; कुलुस्सियों 2:13-15) – इन पदों में ध्यान कीजिए, मसीह में व्यवस्था पूरी हो गई, अर्थात, उसकी सभी आवश्यकताएँ पूरी कर दी गई हैं; और अब उसका अन्त, अर्थात परिपूर्ण होने के कारण समापन हो गया है; अब व्यवस्था टूट नहीं सकती है – उसका संपूर्ण पालन कर के, उस पुस्तक को बन्द कर के, उसके स्थान पर परमेश्वर ने मसीह यीशु में लाए गए विश्वास के द्वारा अपने अनुग्रह की धार्मिकता लागू कर दी गई है। मसीह ने व्यवस्था को क्रूस पर जड़ कर उसे हमारे सामने से हटा दिया है – अब धार्मिकता के लिए हमें उसके मार्ग पर चलने की कोई आवश्यकता ही नहीं रह गई है; मसीह में होकर हम व्यवस्था के लिए मर गए हैं – इसलिए अब न तो व्यवस्था का हम पर कुछ अधिकार रह गया है और न ही हम उसके पालन कर पाने की दशा में हैं; अब हम मसीह में विश्वास के द्वारा जीते हैं – अब हमें व्यवस्था और उसकी बातों के पालन करने की कोई आवश्यकता नहीं है; हम प्रभु यीशु मसीह में विश्वास के द्वारा धर्मी ठहरते हैं, न कि व्यवस्था के पालन के द्वारा (रोमियों 3:22-31; 10:8-11)।


      इस पर भी ध्यान करें कि पहली कलीसिया और प्रेरितों – प्रभु यीशु के शिष्यों, के समय पर ही इस बात पर खुलकर और विस्तार से चर्चा हुई थी, और निष्कर्ष निकाल कर यह आज्ञा दे दी गई थी कि न तो कभी कोई व्यवस्था को पूरा करने पाया है (प्रेरितों 15:10) और न ही व्यवस्था की बातों को पूरा करने की कोई आवश्यकता है (प्रेरितों 15:24)। साथ ही, पौलुस ने पवित्र आत्मा के अगुवाई में अपनी पटरियों में यह बिलकुल स्पष्ट कर दिया था कि व्यवस्था के पालन से कोई भी परमेश्वर के दृष्टि में धर्मी नहीं ठहरेगा (रोमियों 3:20; गलातियों 3:11), और जो भी व्यवस्था के अनुसार जीना चाहता है वह संपूर्ण व्यवस्था का पालन करने के श्राप के अधीन है (गलातियों 3:10), परन्तु मसीह यीशु ने हमें इस श्राप के अधीन आने से छुड़ा लिया है (गलातियों 3:13); और याकूब लिखता है कि जो व्यवस्था के एक भी बिंदु का दोषी है, वह संपूर्ण व्यवस्था का दोषी है (याकूब 2:10) – तो हम क्यों अपने आप को इस असम्भव और पूर्णतया अनावश्यक बोझ के नीचे ले कर आएँ?  


     अब, जो भी अपने आप को व्यवस्था की बातों के पालन के अधीन लाना चाहता है, उसके लिए कहा गया है कि वह श्रापित है’, व्यवस्था के द्वारा धर्मी नहीं ठहरता है, और व्यवस्था का विश्वास से कोई संबंध नहीं है (गलातियों 3:10-13)। और शैतान के ये लोग, धर्मी बनकर (2 कुरिन्थियों 11:3, 13-15), मसीह यीशु के नाम में हमें वापिस व्यवस्था के पालन में ढकेलने का प्रयास कर रहे हैं हमें श्रापित करना चाह रहे हैं जिससे हम मसीह में विश्वास की हमारी आशीषों को गँवा दें, व्यर्थ कर दें।


     इनसे सावधान रहें, इनकी चिकनी-चुपड़ी बातों में न आएँ, क्योंकि सबत के पालन का यह झूठ बहुत बल के साथ अनेकों रीतियों और सभी माध्यमों से प्रचार किया जा रहा है, लोगों को भरमाया जा रहा है। इनसे बच कर रहें, इनकी बातों से दूर रहें।

सोमवार, 11 मई 2020

पवित्र आत्मा को पाना – भाग 5 – उपसंहार


उपसंहार 

 हमने पवित्र आत्मा तथा पवित्र आत्मा को प्राप्त करने से प्रायः संबंधित विभिन्न शिक्षाओं तथा धारणाओं की सत्यता के बारे में अध्ययन किया है। जैसा उपरोक्त व्याख्या में प्रगट है, पवित्र आत्मा को प्राप्त करने से संबंधित इन आम शिक्षाओं का बाइबल से कोई आधार नहीं है और वे गलत हैं। परमेश्वर के वचन बाइबल से, हम कुछ बातों को सीखते हैं जिन्हें सदा ध्यान में रखना आवश्यक है, जिस से हम एक स्पष्ट और बाइबल के अनुसार सही विचार परमेश्वर पवित्र आत्मा के विषय रख सकें। 

पवित्र आत्मा परमेश्वर है, पवित्र त्रिएकत्व का एक व्यक्ति। उस की प्रत्येक मसीही विश्वासी के जीवन – आत्मिक तथा शारीरिक, में बहुत ही महतवपूर्ण भूमिका है, ऐसी भूमिका जिसे हलका नहीं किया जा सकता है, जिसे नज़रन्दाज़ नहीं किया जा सकता है, और जिसे महत्वहीन कह कर एक किनारे नहीं किया जा सकता है। स्वयं प्रभु यीशु मसीह के शब्दों में, वह हमारा परमेश्वर द्वारा प्रदान किया गया सहायक है जो हम में निवास करता है और सदैव हमारे साथ बना रहता है (यूहन्ना 14:16, 17), तथा हमें सब बातें सिखाता है, और सब बातें स्मरण करवाता है (यूहन्ना 14:26)। एक मसीही विश्वासी के जीवन में पवित्र आत्मा की भूमिका इतनी अनिवार्य, और इतनी लाभप्रद है कि स्वयं प्रभु यीशु ने उसे भेजा और अपने आप को एक ओर कर लिया कि वह उन के शिष्यों का दायित्व ले (यूहन्ना 16:7), जिस से कि वह उन्हें सत्य का मार्ग और आने वाली बातें बता सके (यूहन्ना 16:13)। 

पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन और सिखाए जाने के बिना, कोई भी परमेश्वर के वचन को उस की सत्यता और प्रभावी उपयोगिता के लिए सीख नहीं सकता है (1 कुरिन्थियों 2:9-15)। इस लिए जिसे भी परमेश्वर के वचन को सीखने और अध्ययन करने की सच्ची लालसा है, उसे यह सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि उस का मार्गदर्शन एवं सहायता करने के लिए पवित्र आत्मा उस के साथ है, अन्यथा वह सत्य को कभी नहीं सीख सकेगा, बस मानवीय विचार और बुद्धि की बातों में भटकता रहेगा, कभी सत्य की पहचान तक नहीं पहुँच पाएगा (2 तीमुथियुस 3:7)

हम विस्तार से देख चुके हैं कि पवित्र आत्मा को महिमान्वित करने के भेष में दी जाने वाली सभी बाइबल के प्रतिकूल और गलत शिक्षाओं के निहितार्थ कितने छलावों और खतरों से भरे हैं। परमेश्वर के वचन के अध्ययन करके सही निष्कर्षों तक पहुँचने के लिए, यह अनिवार्य है कि बाइबल के प्रत्येक खण्ड, प्रत्येक आयत, और उस के प्रत्येक भाग का उस के सही सन्दर्भ में तथा परमेश्वर के वचन में अन्य संबंधित शिक्षाओं को साथ ले कर अध्ययन किया जाए जिस से परमेश्वर के वचन की गलत समझ और गलत व्याख्या से बचा जा सके, क्योंकि परमेश्वर के वचन के सभी भाग एक दूसरे के पूरक ही हैं, वे कभी एक दूसरे का खंडन नहीं करते हैं। इस लिए ऐसी कोई भी बात जो संदर्भ में या अन्य संबंधित शिक्षाओं के साथ सहजता से सही नहीं बैठे, वह परमेश्वर के वचन से बाहर की बात है, और उसे स्वीकार नहीं करना चाहिए। और जबकि गलत शिक्षाएँ और झूठे सिद्धांत किसी आयत या उसके एक भाग, या किसी खण्ड को अलग से उस के सन्दर्भ से बाहर ले कर बिना बाइबल की अन्य संबंधित शिक्षाओं को ध्यान में रखे हुए एक विशेष विचार का समर्थन करने के लिए व्याख्या करने के द्वारा बनाई जाती हैं। 

शैतान भली-भाँति जानता है कि एक मसीही विश्वासी के जीवन में और जीवन के द्वारा पवित्र आत्मा के कार्यकारी होने का कितना महत्त्व है, और ऐसा होना उस की इच्छाओं तथा योजनाओं के लिए कितना घातक है। क्योंकि शैतान पवित्र आत्मा को मसीही विश्वासी के जीवन से निकाल तो नहीं सकता है, इस लिए वह प्रयास करता रहता है कि लोगों को बहला, फुसला, और बहका कर, उन्हें परमेश्वर द्वारा दिए गए इस सामर्थ्य और उपयोगिता के स्त्रोत के आज्ञाकारी एवं समर्पित न रहने दे। शैतान अच्छे से जानता है कि जैसे हव्वा के साथ, वैसे ही वह सरलता से हमें भी आकर्षक, लाभकारी, और अद्भुत प्रतीत होने वाली बातों के द्वारा फंसा कर बहका सकता है (उत्पत्ति 3:6), और इस प्रकार से परमेश्वर के वचन के तोड़ने-मरोड़ने और गलत व्याख्याओं के द्वारा हमें परमेश्वर के वचन से भटका कर दूर ले जा सकता है। इस लिए मसीही विश्वासी के जीवन में पवित्र आत्मा की भूमिका तथा आवश्यकता को समझने के लिए, और उस के विषय किसी गलत शिक्षा अथवा सिद्धांत में बहकाए जाने से बचने और सुरक्षित रहने के लिए, यह बहुत आवश्यक है कि हम कुछ बुनियादी सत्यों को अच्छे से समझ लें, और अपने आप को उन पर स्थिर और दृढ़ कर लें।ऐसी कोई भी शिक्षा या सिद्धांत जो इन बुनियादी बाइबल तथ्यों से सहजता से मेल नहीं खाती है या उन में सहजता से सही नहीं बैठती है, ऐसी कोई भी बात जिसे इन तथ्यों के अनुसार सही बैठाने के लिए कुछ तोड़ने-मोड़ने, और विशेष प्रयास करने की आवश्यकता पड़ती है, वह मनगढ़ंत है, और उस का तिरिस्कार किया जाना चाहिए।

ये बुनियादी तथ्य हैं: 

1. पवित्र आत्मा परमेश्वर है: वह मनुष्य के नियंत्रण में न तो है; और न ही उसे मनुष्य की इच्छाओं और विचारों के अनुसार कार्य करने के लिए बाध्य किया जा सकता है; तथा न ही उसे मनुष्य की अभिलाषाओं और अपेक्षाओं के अनुसार इधर-इधर किया जा सकता है। परमेश्वर के साथ हमारे संबंधों में, सदा ही परमेश्वर नियम बनाता है और सदा ही हम मनुष्य उन नियमों का पालन करते हैं।ऐसा कुछ भी जो इस बुनियादी नियम को पलटना या उसकी अनदेखी भी करना चाहता है वह परमेश्वर की ओर से नहीं हो सकता है।इस लिए ऐसी कोई भी शिक्षा जिस में ऐसे किसी सुझाव का संकेत मात्र भी है कि पवित्र आत्मा को बाध्य किया जा सकता है, उसे चालाकी से प्रयोग किया जा सकता है, या मनुष्य के किसी भी प्रयास के द्वारा उस से कुछ ऐसा करवाया जा सकता है जो परमेश्वर के वचन के अनुसार नहीं है, वह गलत शिक्षा है, अस्वीकार्य है, और उसे लेश मात्र भी स्थान नहीं दिया जाना चाहिए। 

2. पवित्र आत्मा व्यक्ति है, पवित्र त्रिएकत्व का एक भाग: पवित्र आत्मा कोई वस्तु नहीं है जिसे टुकड़ों में बाँटा जा सके, जिसे अधिक या कम किया जा सके, अथवा विस्तृत या संकुचित जा सके, या अंशों अथवा किस्तों में दिया और लिया जा सके। जिस प्रकार से इन में से कोई भी बात मेरे और आपके साथ नहीं की जा सकती है, क्योंकि हम व्यक्ति हैं, उसी प्रकार से ये उस के साथ भी नहीं की जा सकती हैं। जहाँ भी उस की उपस्थिति होगी, वह उस की सम्पूर्णता में होगी, न की टुकड़ों में अथवा खण्डों में। 

3. पवित्र आत्मा अपने लिए कोई महिमा नहीं लेता है, परन्तु सारी महिमा मसीह की ओर करता है: पवित्र आत्मा की भूमिका प्रभु यीशु मसीह की गवाही देना है (यूहन्ना 15:26), प्रभु की बातों को लेकर उन्हें हमें बताना है (यूहन्ना 16:15), प्रभु यीशु मसीह द्वारा कही गई बातों को सिखाना और स्मरण दिलाना है (यूहन्ना 14:26)। इस लिए जो यह कहते फिरते हैं कि उन्हें पवित्र आत्मा के द्वारा दर्शन और भविष्यवाणियाँ मिली हैं, ऐसी बातें जो कि बाइबल की बातों से बाहर होती हैं, वे सचेत हो जाएं – वे बहुत बड़े छलावे में हैं। लोगों को इस बात का एहसास होना चाहिए और उन्हें यह स्वीकार करना चाहिए कि, प्रभु यीशु के समान ही (यूहन्ना 8:26; 12:49), पवित्र आत्मा भी कभी अपने आप से कुछ नहीं कहता है, केवल वही कहता है जो वह सुनता है (यूहन्ना 16:13)। और जो भी वह कहता है वह सदा ही प्रभु यीशु को महिमा देने के लिए कहता है, कभी भी अपने आप को महिमा देने के लिए नहीं (यूहन्ना 16:14)। इस लिए ऐसा कोई भी विचार, धारणा, विश्वास, या व्यवहार जो प्रभु यीशु के स्थान पर पवित्र आत्मा को महिमा देने के लिए है वह पवित्र आत्मा की ओर से नहीं है, परमेश्वर की ओर से नहीं है; क्योंकि परमेश्वर कभी भी अपने आप का और अपने वचन का खण्डन नहीं करेगा। 

4. जैसा हम ने इस संपूर्ण लेख में देखा है, वास्तव में नया जन्म पाए हुए सच्चे मसीही विश्वासी पवित्र आत्मा का मंदिर हैं, न कि ऐसी टंकियाँ जो रिस सकती हैं या रिसती रहती हैं, जिन में से होकर कुछ समय या परिस्थितियों में पवित्र आत्मा रिस कर बाहर निकल जाता है। प्रत्येक सच्चे मसीही विश्वासी को पवित्र आत्मा उसी पल दे दिया जाता है जब वह मसीह यीशु में विश्वास लाता है, और तब से लेकर पृथ्वी पर उस की आख़िरी साँस तक पवित्र आत्मा उस में बसा रहता है उसके साथ बना रहता है। इस लिए मसीही विश्वास में आ जाने के पश्चात किसी भी प्रकार से पवित्र आत्मा को प्राप्त करने, या जीवन में पवित्र आत्मा की उपस्थिति की मात्रा को बढ़ाने या प्रभावी करने के लिए, कोई भी ‘बपतिस्मे’ अथवा ‘भरपूरी या परिपूर्णता’ कर पाने की बात गलत व्याख्या है, और बाइबल के सत्य का गलत प्रयोग है – ऐसा होना तो संभव है ही नहीं! पवित्र आत्मा की उन में विद्यमान उपस्थिति को और अधिक प्रमुख या बेहतर करने के लिए सच्चा मसीही विश्वासी जो कर सकता है, वह है उस के प्रति समर्पित तथा आज्ञाकारी बना रहे; वह जितना अधिक पवित्र आत्मा को उसे नियंत्रित एवं निर्देशित करने देगा, वह प्रभु के लिए उतना ही अधिक उपयोगी और सामर्थी बनेगा, और पवित्र आत्मा अपनी सामर्थ्य उस हो कर में उतना अधिक प्रगट करेगा। 

 समाप्त

रविवार, 10 मई 2020

पवित्र आत्मा को पाना – भाग 4 – भरना या परिपूर्ण होना – भाग 3 – निहितार्थ




पवित्र आत्मा से भरना या परिपूर्ण होना क्या है? – भाग 3

निहितार्थ

इस गलत शिक्षा को स्वीकार करने का अर्थ है, जैसे कि उपरोक्त ‘पवित्र आत्मा का बपतिस्मा’ के गलत शिक्षा के साथ है, मसीह की देह, उसकी कलीसिया को दो भागों में विभाजित करना – वे जन के पास यह भरपूरी या परिपूर्णता ‘है’, और वे जिन के पास यह ‘नहीं है।’ और फिर इस से, जिनके पास ‘है’ उन में ‘उच्च श्रेणी का होने,’ ‘बेहतर क्षमता और कार्य-कुशलता वाले होने,’ और ‘परमेश्वर से आशीष और प्रतिफल पाने पर अधिक दावा रखने’ की भावनाओं के द्वारा; तथा जिनके पास ‘नहीं है’ उन्हें इस ‘विशिष्ट विश्वासियों’ के समूह में सम्मिलित होने और उस समूह के लाभ अर्जित कर पाने के निष्फल व्यर्थ प्रयासों को करते रहने के चक्करों में फंसा देते हैं। दोनों ही स्थितियों में, अंततः परिणाम एक ही है – वास्तविक मसीही परिपक्वता और प्रभु के लिए प्रभावी होने में गिरावट (1 कुरिन्थियों 3:1-3) – जिनके पास ‘है’ उन में इस के कारण उठने वाले घमंड, वर्चस्व, तथा अधिकार रखने की भावनाओं के कारण; और जिनके पास ‘नहीं है’ उन्हें एक पूर्णतः अनावश्यक और अनुचित कार्य में समय गंवाने और व्यर्थ प्रयास करने में लगा देने के द्वारा, जिससे वे मसीही विश्वास, परमेश्वर के वचन, और प्रभु के लिए प्रभावी होने में बढ़ न सकें।

इस के अतिरिक्त, इस एक छोटी सी और अ-हानिकारक प्रतीत होने वाली बात से संबंधित गलत शिक्षा में शैतान ने एक बार फिर से परमेश्वर के विरुद्ध बहुत बड़ा षड्यंत्र लपेट कर ‘भक्ति की आदरणीय बात’ के रूप छिपा कर हम में घुसा दिया है। और हमारा इसलिए इस बात के प्रति सचेत होना, उस की सही समझ रखना, इस गलत शिक्षा से निकलना, और बच के रहना कितना अनिवार्य है (2 कुरिन्थियों 2:11)। पवित्र आत्मा प्राप्त कर लेने के पश्चात, उस की प्रभावी उपस्थिति एवं सामर्थ्य को बढ़ाने के लिए बाद में किसी अन्य प्रक्रिया के द्वारा एक भिन्न पवित्र आत्मा से भर जाने अथवा ‘परिपूर्ण’ होने के अनुभव का संभव होने की बात कहने से तो यही अर्थ निकलता है कि पवित्र आत्मा को बांटा जा सकता है, उसे घटाया या बढ़ाया जा सकता है, उसे किस्तों या टुकड़ों में लिया या दिया जा सकता है, आदि।

ये सभी बातें न केवल वचन के विरुद्ध हैं, वरन पवित्र आत्मा के त्रिएक परमेश्वर का स्वरूप होने का इनकार करने का प्रयास करती हैं। यह गलत शिक्षा पवित्र आत्मा को पवित्र त्रिएक परमेश्वर के एक व्यक्ति के स्थान पर, एक  वस्तु बना देती है जिसे काटा, छांटा, और बांटा जा सकता है और फिर मनुष्यों के प्रयासों द्वारा दिया या लिया जा सकता है। और सब से अनुचित यह कि यह शिक्षा, परमेश्वर पवित्र आत्मा को मनुष्य के हाथों का खिलौना बना देती हैं, कि मनुष्य अपने व्यवहार और आचरण, अर्थात अपने कर्मों के द्वारा निर्धारित और नियंत्रित कर सकता है कि पवित्र आत्मा कब, किसे, कैसे, और कितना दिया जाएगा, और फिर वह उस मनुष्य में क्या और कैसे कार्य करेगा!

अर्थात पवित्र आत्मा तो फिर परमेश्वर नहीं रहा वरन मनुष्य के हाथों की कठपुतली हो गया। और क्योंकि त्रिएक परमेश्वर के तीनों स्वरूप – परमेश्वर पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा समान और एक ही हैं, इसलिए या तो फिर शेष दोनों स्वरूप भी उस कठपुतली के समान हो गए, अन्यथा पवित्र त्रिएक परमेश्वर में विभाजन है, पवित्र आत्मा शेष दोनों से भिन्न और पृथक है, शेष दोनों से कुछ कम है, जिसका अर्थ है कि पवित्र त्रिएक परमेश्वर का सिद्धांत झूठा है, और परमेश्वर का वचन जो यह सिद्धांत सिखाता है, वह भी झूठा है।

इस गलत शिक्षा को स्वीकार करने का अर्थ है कि परमेश्वर मनुष्य की मुठ्ठी में आ गया; और अब मनुष्य उसे अपनी इच्छानुसार नियंत्रित और उपयोग करेगा! परमेश्वर इस घोर विधर्म के विचार से भी हमारी रक्षा करे, हमें इस के घातक फरेब में कभी भी न पड़ने दे। ये सभी गलत शिक्षाएं परमेश्वर और उसके पवित्र वचन को झुठलाने और उसे हमारे जीवनों में अप्रभावी करने के लिए बड़ी चतुराई तथा परोक्ष रीति से किए गए शैतान के हमले हैं; हमारे लिए इन शैतानी षड्यंत्रों को ध्यान दे कर समझना और उन से दूर रहना, और शैतान के इन छलावों में फँसने से बच कर रहना बहुत अनिवार्य है।

 - क्रमशः

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