मेरा नाम पुष्पा है, मेरा जन्म फरीदाबाद के एक पंजाबी परिवार में हुआ। हमारा परिवार १९४७ में भारत-पाकिस्तान बंटवारे के समय मुल्तान सूबे से भारत के फरीदबाद (हरियाणा) में आकर बस गया था।
शुरू से ही मैं धार्मिक प्रवृति की थी और उपवास करती थी। सन १९८४ की बात है जब मैं कक्षा ८ में पढ़ रही थी, एक दिन मैं अपनी एक सहेली के घर गई, परन्तु वह घर पर नहीं थी। लेकिन उसकी माँ ने मुझसे प्रभु यीशु के बारे में बात करने के इरादे से कुछ देर रुकने को कहा। वह कहने लगी कि क्या मैं तुम्हारे साथ प्रार्थना कर सकती हूँ? मैंने उनसे हाँ कह दिया। मुझे उनकी प्रार्थना कुछ अलग सी लग रही थी, क्योंकि वे आँखें बन्द करके, बिना किसी को आधार बनाए वह किससे माँग रही थी, मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था। लेकिन जो भी उन्होंने प्रभु यीशु के बारे में बताया, वह मैंने साधारण विश्वास से मान लिया। वह सब बातें मैंने अपने घर आकर अपनी बड़ी बहनों के साथ बांटीं। क्योंकि मैं घर में सबसे छोटी थी इसलिए मैं उनके साथ अपनी बातों को बांट लिया करती थी।
एक दिन मेरी सहेली की माँ रविवार की सुबह मुझे और मेरी दो बहनों को परमेश्वर के भवन में लेकर गईं। वहाँ हमने और भी विस्तार से प्रभु यीशु के प्यार के बारे में एक प्रभु के भक्त से सुना। वहां मैंने और मेरी दो बहनों ने उसी दिन प्रभु को अपना व्यक्तिगत उद्धारकर्ता के रूप में ग्रहण किया। फिर हमने प्रभु के वचन को भी पढ़ना शुरू कर दिया।
हमारे मोहल्ले में, जहाँ हम रहते थे कुछ विश्वासी बहनें सप्ताह में एक बार प्रार्थना के लिये इकट्ठी हुआ करतीं थीं। वहाँ हमें भी जाने का मौका मिलता था। बहनों की उस सभा में सब बहने अपनी बाइबल खोलकर बताती थीं कि प्रभु ने उनसे बात की है। पर मुझे यह समझ नहीं आता था कि प्रभु कैसे बातें करता है? जब मैंने एक बहन से पूछा तो उन्होंने मुझे समझाया कि किस प्रकार प्रभु बातें करते हैं इसलिए मैंने भी प्रार्थना करना शुरू कर दिया "प्रभु आप मुझ से भी बातें कीजिए और मेरे पाप माफ कर दीजिए।" एक बार जब मैं प्रभु का वचन पढ़ रही थी तो मेरे सामने यशायाह ४४:२२ का पद आया जिसमें लिखा था, "मैंने तेरे अपराधों को काली घटा के समान और तेरे पापों को बादल के समान मिटा दिया है, मेरी ओर फिर लौट आ, क्योंकि मैंने तुझे छुड़ा लिया है।" मुझे यह पढ़कर बहुत अच्छा लगा। पहली बार मैंने एहसास किया कि प्रभु ने मुझसे बात की। उसके बाद मैंने प्रतिदिन प्रभु के भय में जीना शुरू कर दिया। मुझे यह निश्चित हो गया था कि मेरे पाप माफ हो गये हैं और अब प्रभु की दृष्टि में कुछ पाप करने में मुझे भय लगने लगा।
एक बार की बात है, हमारे यहाँ मेला लगता था, जिसमें मैंने एक दुकान से आईना चुरा लिया था। पर जब मैं घर आई तो मेरी आत्मा में बहुत बेचैनी होने लगी और मैंने एहसास किया कि मुझे चोरी नहीं करनी चाहिए थी। सो मैंने वह आईना दुकानदार को वापस करने का निर्णय कर लिया। लेकिन मेरे सामने समस्या यह थी कि यदि मैं दुकानदार के सामने गई तो वह मुझे बहुत मारेगा। तो मैंने सोचा कि जिस तरह मैंने चोरी की थी वैसे ही चुपके से मैं उसे वहीं रख दूँगी। लेकिन प्रभु ने ऐसा नहीं होने दिया और मैंने उस दुकानदार को सब कुछ बता कर वह आईना लौटा दिया और उससे माफी माँगी। वह व्यक्ति बहुत खुश हुआ कि दुनिया में ऐसे भी बच्चे हैं जो चोरी की चीज़ वापस भी कर सकते हैं। एक बार मेरी किसी आँटी से बहस हो गई, जबकि उसमें मेरी कोई गलती नहीं थी, फिर भी उसके बाद मैंने उनसे माफी माँग ली। यह सब देखते हुए मेरे माता-पिता ने मुझे और मेरी बहनों को रविवार की सभाओं में जाने से नहीं रोका, क्योंकि वे सोचते थे कि हमारे बच्चे कुछा गलत काम तो कर नहीं रहे हैं।
इस तरह हम प्रभु की संगति में जाने लगे और हमें वहाँ जाकर कुछ-कुछ समझ में भी आने लगा था। हमें वहाँ समझाया गया कि यदि हम उपवास के साथ परमेश्वर से कुछ माँगें तो वह ज़रूर सुनता है। एक बार मेरी ९वीं कक्षा का परिणाम आना था परन्तु मैंने एक पेपर ठीक से नहीं लिखा था, इसी कारण मेरे मन में डर था कि कहीं फेल न हो जाऊँ सो मैंने उपवास के साथ प्रभु के चरणों में जाने का फैसला लिया। मैंने फैसला किया कि जब तक प्रभु मेरे परिणाम के बारे में मुझे तसल्ली नहीं देगा, तब तक मैं परिणाम सुनने स्कूल नहीं जाऊंगी। मैं उपवास के साथ प्रभु से प्रार्थना करती रही। तभी प्रभु ने भजन संहिता के एक पद मेरी सफलता के बारे में बात की। वचन के उसी पद पर विश्वास रखते हुए कि प्रभु ही मुझे सफलता देंगे, मैं परिणाम सुनने स्कूल की ओर चल दी। अभी मैं रास्ते में ही थी कि मुझे पता चला कि मैं काफी अच्छे अंकों से पास हो गई हूँ। मैंने वहीं पर प्रभु क धन्यवाद किया। इस तरह प्रभु छोटी-छोटी बातों से मेरे विश्वास को बढ़ाता रहा।
उसके बाद परिवार की ओर से मेरे विश्वास की वास्तविक परख शुरू हो गई। जब मैंने परिवार के रीति-रिवाज़ों को मानने से मना कर दिया, तो मेरे पिता ने, जो बड़े सख्त स्वभाव के व्यक्ति थे, मुझ पर बहुत पाबन्दी लगा दी। वे सोचते थे कि मेरी बड़ि बहन तो उनके हाथ से निकल चुकी है, यह अभी छोटी है और वे मुझे इस मार्ग पर नहीं चलने देंगें। मेरी बहन और छोटा भाई मेरे माता-पिता को दुखी नहीं देखना चाहते थे। इसलिए उन्होंने परमेश्वर के भवन में जाना बन्द कर दिया। मेरी बड़ी बहन तो नौकरी करती थी इसलिए वह तो वहीं से सभाओं में चली जाती थी, परन्तु मेरा आना-जाना बन्द हो गया था। लेकिन जैसे ही कभी मुझे बाज़ार जाने का मौका मिलता, मैं वहीं से सभाओं में चली जाती थी। ऐसा करते हुए मैं कई बार पकड़ी गई परन्तु प्रभु ने मुझे नहीं छोड़ा। जब भी कोई त्यौहार का मौका होता, तो यह जानकर कि पापा ज़बर्दस्ती करेंगे, हम दोनो बहनें बाथरूम में छिप जाती थीं। कई बार मुझे बहुत मार पड़ी। एक दिन उन्होंने मुझे डाँटते हुए कहा, "क्या अब भी तू अपनी बहन के नक्शे-कदम पर चलेगी?" पता नहीं कैसे मेरे मूँह से निकल गया, "मैं अपनी बहन के नहीं परन्तु यीशु के पीछे चलूँगी।"
उसके बाद मेरी बड़ी बहन के विवाह की बात आई। मेरी बहन ने ठान लिया था कि वह किसी विश्वासी लड़के से ही विवाह करेगी। लेकिन मेरे पापा ने ऐसा करने से मना कर दिया। परन्तु हमारी बहुत प्रार्थनाओं के बाद वे मेरी बहन का एक विश्वासी लड़के से विवाह करने के लिए मान गए। हमारे यहाँ इस तरह का यह पहला विवाह था, और इसके कारण मेरे पिता को समाज का सामना करन पड़ा। मन मारकर उन्होंने मेरी बहन का विवाह कर दिया। मेरी बहन के पति का स्वभाव काफी मिलनसार होने के कारण मेरे पिता का स्वभाव मेरे प्रति भी नरम हो गया था। विवाह के चार साल बाद मेरी बहन के पति प्रभु के पास चले गए। मेरे पिता को बहुत दुख हुआ। इसी कारण वे मुझे शनिवार और रविवार को मेरी बहन के घर भेज दिया करते थे कि मैं अपनी बहन के दुख में हाथ बंटा सकूँ।
इसके बाद मेरे पिता ने मेरी बहन से मेरे विवाह के बारे में पूछना शुरू कर दिया। प्रभु का धन्यवाद हो कि उसके बाद १९९७ में मेरा विवाह भी एक विश्वासी से हो गया। वे हमेशा ही प्रभु के काम के लिए समय-असमय तैयार रहते हैं। प्रभु ने मेरे विवाह के बाद न केवल आत्मिक आशीशें दीं बल्कि सब प्रकार कि आशीषें दीं। प्रभु ने हमें एक बेटी और एक बेटा आशीष के रूप में दिये। इन सब के लिए मैं प्रभु का धन्यवाद करती हूँ। इन सब के बाद भी जब कभी मैं इस संसार में अपने आप को अकेला महसूस करती हूँ तो तभी प्रभु यीशु का सामर्थी हाथ और उसकी अद्भुत शांति को अपने अन्दर महसूस करती हूँ जो वर्णन से बाहर है। कई बार मैंने अपने प्रभु पर अविश्वास किया लेकिन उसने मुझे आज तक नहीं छोड़ा। वह आज तक मेरे साथ भला रहा है। प्रभु का धन्यवाद हो, मैं जो उसकी बेटी नहीं थी, मुझे उसने संसार से चुनकर अपनी बेटी बना लिया।
- पुष्पा
फरीदाबाद (हरियाणा)
शुरू से ही मैं धार्मिक प्रवृति की थी और उपवास करती थी। सन १९८४ की बात है जब मैं कक्षा ८ में पढ़ रही थी, एक दिन मैं अपनी एक सहेली के घर गई, परन्तु वह घर पर नहीं थी। लेकिन उसकी माँ ने मुझसे प्रभु यीशु के बारे में बात करने के इरादे से कुछ देर रुकने को कहा। वह कहने लगी कि क्या मैं तुम्हारे साथ प्रार्थना कर सकती हूँ? मैंने उनसे हाँ कह दिया। मुझे उनकी प्रार्थना कुछ अलग सी लग रही थी, क्योंकि वे आँखें बन्द करके, बिना किसी को आधार बनाए वह किससे माँग रही थी, मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था। लेकिन जो भी उन्होंने प्रभु यीशु के बारे में बताया, वह मैंने साधारण विश्वास से मान लिया। वह सब बातें मैंने अपने घर आकर अपनी बड़ी बहनों के साथ बांटीं। क्योंकि मैं घर में सबसे छोटी थी इसलिए मैं उनके साथ अपनी बातों को बांट लिया करती थी।
एक दिन मेरी सहेली की माँ रविवार की सुबह मुझे और मेरी दो बहनों को परमेश्वर के भवन में लेकर गईं। वहाँ हमने और भी विस्तार से प्रभु यीशु के प्यार के बारे में एक प्रभु के भक्त से सुना। वहां मैंने और मेरी दो बहनों ने उसी दिन प्रभु को अपना व्यक्तिगत उद्धारकर्ता के रूप में ग्रहण किया। फिर हमने प्रभु के वचन को भी पढ़ना शुरू कर दिया।
हमारे मोहल्ले में, जहाँ हम रहते थे कुछ विश्वासी बहनें सप्ताह में एक बार प्रार्थना के लिये इकट्ठी हुआ करतीं थीं। वहाँ हमें भी जाने का मौका मिलता था। बहनों की उस सभा में सब बहने अपनी बाइबल खोलकर बताती थीं कि प्रभु ने उनसे बात की है। पर मुझे यह समझ नहीं आता था कि प्रभु कैसे बातें करता है? जब मैंने एक बहन से पूछा तो उन्होंने मुझे समझाया कि किस प्रकार प्रभु बातें करते हैं इसलिए मैंने भी प्रार्थना करना शुरू कर दिया "प्रभु आप मुझ से भी बातें कीजिए और मेरे पाप माफ कर दीजिए।" एक बार जब मैं प्रभु का वचन पढ़ रही थी तो मेरे सामने यशायाह ४४:२२ का पद आया जिसमें लिखा था, "मैंने तेरे अपराधों को काली घटा के समान और तेरे पापों को बादल के समान मिटा दिया है, मेरी ओर फिर लौट आ, क्योंकि मैंने तुझे छुड़ा लिया है।" मुझे यह पढ़कर बहुत अच्छा लगा। पहली बार मैंने एहसास किया कि प्रभु ने मुझसे बात की। उसके बाद मैंने प्रतिदिन प्रभु के भय में जीना शुरू कर दिया। मुझे यह निश्चित हो गया था कि मेरे पाप माफ हो गये हैं और अब प्रभु की दृष्टि में कुछ पाप करने में मुझे भय लगने लगा।
एक बार की बात है, हमारे यहाँ मेला लगता था, जिसमें मैंने एक दुकान से आईना चुरा लिया था। पर जब मैं घर आई तो मेरी आत्मा में बहुत बेचैनी होने लगी और मैंने एहसास किया कि मुझे चोरी नहीं करनी चाहिए थी। सो मैंने वह आईना दुकानदार को वापस करने का निर्णय कर लिया। लेकिन मेरे सामने समस्या यह थी कि यदि मैं दुकानदार के सामने गई तो वह मुझे बहुत मारेगा। तो मैंने सोचा कि जिस तरह मैंने चोरी की थी वैसे ही चुपके से मैं उसे वहीं रख दूँगी। लेकिन प्रभु ने ऐसा नहीं होने दिया और मैंने उस दुकानदार को सब कुछ बता कर वह आईना लौटा दिया और उससे माफी माँगी। वह व्यक्ति बहुत खुश हुआ कि दुनिया में ऐसे भी बच्चे हैं जो चोरी की चीज़ वापस भी कर सकते हैं। एक बार मेरी किसी आँटी से बहस हो गई, जबकि उसमें मेरी कोई गलती नहीं थी, फिर भी उसके बाद मैंने उनसे माफी माँग ली। यह सब देखते हुए मेरे माता-पिता ने मुझे और मेरी बहनों को रविवार की सभाओं में जाने से नहीं रोका, क्योंकि वे सोचते थे कि हमारे बच्चे कुछा गलत काम तो कर नहीं रहे हैं।
इस तरह हम प्रभु की संगति में जाने लगे और हमें वहाँ जाकर कुछ-कुछ समझ में भी आने लगा था। हमें वहाँ समझाया गया कि यदि हम उपवास के साथ परमेश्वर से कुछ माँगें तो वह ज़रूर सुनता है। एक बार मेरी ९वीं कक्षा का परिणाम आना था परन्तु मैंने एक पेपर ठीक से नहीं लिखा था, इसी कारण मेरे मन में डर था कि कहीं फेल न हो जाऊँ सो मैंने उपवास के साथ प्रभु के चरणों में जाने का फैसला लिया। मैंने फैसला किया कि जब तक प्रभु मेरे परिणाम के बारे में मुझे तसल्ली नहीं देगा, तब तक मैं परिणाम सुनने स्कूल नहीं जाऊंगी। मैं उपवास के साथ प्रभु से प्रार्थना करती रही। तभी प्रभु ने भजन संहिता के एक पद मेरी सफलता के बारे में बात की। वचन के उसी पद पर विश्वास रखते हुए कि प्रभु ही मुझे सफलता देंगे, मैं परिणाम सुनने स्कूल की ओर चल दी। अभी मैं रास्ते में ही थी कि मुझे पता चला कि मैं काफी अच्छे अंकों से पास हो गई हूँ। मैंने वहीं पर प्रभु क धन्यवाद किया। इस तरह प्रभु छोटी-छोटी बातों से मेरे विश्वास को बढ़ाता रहा।
उसके बाद परिवार की ओर से मेरे विश्वास की वास्तविक परख शुरू हो गई। जब मैंने परिवार के रीति-रिवाज़ों को मानने से मना कर दिया, तो मेरे पिता ने, जो बड़े सख्त स्वभाव के व्यक्ति थे, मुझ पर बहुत पाबन्दी लगा दी। वे सोचते थे कि मेरी बड़ि बहन तो उनके हाथ से निकल चुकी है, यह अभी छोटी है और वे मुझे इस मार्ग पर नहीं चलने देंगें। मेरी बहन और छोटा भाई मेरे माता-पिता को दुखी नहीं देखना चाहते थे। इसलिए उन्होंने परमेश्वर के भवन में जाना बन्द कर दिया। मेरी बड़ी बहन तो नौकरी करती थी इसलिए वह तो वहीं से सभाओं में चली जाती थी, परन्तु मेरा आना-जाना बन्द हो गया था। लेकिन जैसे ही कभी मुझे बाज़ार जाने का मौका मिलता, मैं वहीं से सभाओं में चली जाती थी। ऐसा करते हुए मैं कई बार पकड़ी गई परन्तु प्रभु ने मुझे नहीं छोड़ा। जब भी कोई त्यौहार का मौका होता, तो यह जानकर कि पापा ज़बर्दस्ती करेंगे, हम दोनो बहनें बाथरूम में छिप जाती थीं। कई बार मुझे बहुत मार पड़ी। एक दिन उन्होंने मुझे डाँटते हुए कहा, "क्या अब भी तू अपनी बहन के नक्शे-कदम पर चलेगी?" पता नहीं कैसे मेरे मूँह से निकल गया, "मैं अपनी बहन के नहीं परन्तु यीशु के पीछे चलूँगी।"
उसके बाद मेरी बड़ी बहन के विवाह की बात आई। मेरी बहन ने ठान लिया था कि वह किसी विश्वासी लड़के से ही विवाह करेगी। लेकिन मेरे पापा ने ऐसा करने से मना कर दिया। परन्तु हमारी बहुत प्रार्थनाओं के बाद वे मेरी बहन का एक विश्वासी लड़के से विवाह करने के लिए मान गए। हमारे यहाँ इस तरह का यह पहला विवाह था, और इसके कारण मेरे पिता को समाज का सामना करन पड़ा। मन मारकर उन्होंने मेरी बहन का विवाह कर दिया। मेरी बहन के पति का स्वभाव काफी मिलनसार होने के कारण मेरे पिता का स्वभाव मेरे प्रति भी नरम हो गया था। विवाह के चार साल बाद मेरी बहन के पति प्रभु के पास चले गए। मेरे पिता को बहुत दुख हुआ। इसी कारण वे मुझे शनिवार और रविवार को मेरी बहन के घर भेज दिया करते थे कि मैं अपनी बहन के दुख में हाथ बंटा सकूँ।
इसके बाद मेरे पिता ने मेरी बहन से मेरे विवाह के बारे में पूछना शुरू कर दिया। प्रभु का धन्यवाद हो कि उसके बाद १९९७ में मेरा विवाह भी एक विश्वासी से हो गया। वे हमेशा ही प्रभु के काम के लिए समय-असमय तैयार रहते हैं। प्रभु ने मेरे विवाह के बाद न केवल आत्मिक आशीशें दीं बल्कि सब प्रकार कि आशीषें दीं। प्रभु ने हमें एक बेटी और एक बेटा आशीष के रूप में दिये। इन सब के लिए मैं प्रभु का धन्यवाद करती हूँ। इन सब के बाद भी जब कभी मैं इस संसार में अपने आप को अकेला महसूस करती हूँ तो तभी प्रभु यीशु का सामर्थी हाथ और उसकी अद्भुत शांति को अपने अन्दर महसूस करती हूँ जो वर्णन से बाहर है। कई बार मैंने अपने प्रभु पर अविश्वास किया लेकिन उसने मुझे आज तक नहीं छोड़ा। वह आज तक मेरे साथ भला रहा है। प्रभु का धन्यवाद हो, मैं जो उसकी बेटी नहीं थी, मुझे उसने संसार से चुनकर अपनी बेटी बना लिया।
- पुष्पा
फरीदाबाद (हरियाणा)
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