सूचना: ई-मेल के द्वारा ब्लोग्स के लेख प्राप्त करने की सुविधा ब्लोगर द्वारा जुलाई महीने से समाप्त कर दी जाएगी. इसलिए यदि आप ने इस ब्लॉग के लेखों को स्वचालित रीति से ई-मेल द्वारा प्राप्त करने की सुविधा में अपना ई-मेल पता डाला हुआ है, तो आप इन लेखों अब सीधे इस वेब-साईट के द्वारा ही देखने और पढ़ने पाएँगे.

रविवार, 26 अप्रैल 2020

पवित्र आत्मा पाना भाग 3 – विशेष प्रयास – प्रेरितों और अगुवों के सहायता से (2)



2. क्या पवित्र आत्मा प्रेरितों या कलीसिया के अगुवों की सहायता से मिलता है?

(भाग 2 – यहाँ पर ध्यान रखने योग्य संबंधित शिक्षाएं)


 किन्तु इस बात को थोड़ा सा विस्तार से देखने से पहले, कुछ संबंधित बातों पर ध्यान करने की आवश्यकता है:
समस्त कलीसिया की एकता: इसके लिए कृपया इफिसियों 2:12-22 ध्यान से, प्रार्थना पूर्वक, और बारंबार पढ़िए। इफिसियों के इस खंड में दी गई शिक्षा का सार यही है कि प्रभु यीशु द्वारा समस्त संसार के लिए उपलब्ध करवाए गए उद्धार और परमेश्वर के साथ मेल-मिलाप से पहले, संसार के मनुष्यों के मध्य परमेश्वर की व्यवस्था, उसकी शिक्षाएं और बातें, तथा परमेश्वर तक पहुँच की प्रणाली केवल यहूदियों के पास ही उपलब्ध थी। यह बात यहूदियों के लिए बड़े घमण्ड का विषय था, और इसके अंतर्गत वे अपने आप को संसार के अन्य सभी लोगों से बहुत बढ़कर समझते थे। किन्तु अब, प्रभु यीशु मसीह के द्वारा किए गए कार्य के उपरान्त, यह सारी बातें संसार के सभी लोगों के लिए उपलब्ध हो गई हैं, अब इन पर यहूदियों ही का एकाधिकार नहीं रहा है – अब सभी मसीही विश्वासी जन मसीह यीशु में विश्वास में आ जाने पर एक कर दिए गए हैं, मसीह यीशु में हो जाने के बाद यहूदियों और गैर-यहूदियों में कोई भिन्नता नहीं रही है, और सभी एक साथ मिलकर प्रभु यीशु और भविष्यद्वक्ताओं की शिक्षाओं की नींव पर पवित्र आत्मा के द्वारा परमेश्वर का निवास स्थान बनाए जा रहे हैं (इफिसियों 2:20-22) – एक ही शिक्षा पर, एक ही आत्मा के द्वारा, एक ही परमेश्वर के लिए, एक ही प्रकार के लोग, एकत्रित, कार्यान्वित, और उपयोगी किए जा रहे हैं (इफिसियों 4:4-6), बिना किसी भी प्रकार के किसी भी भेदभाव के।

एक किए जाने से पूर्व के सामाजिक वर्ग: मसीही विश्वासियों की प्रथम मण्डली स्थापित होने के समय में, इस्राएल के निवासियों के दृष्टिकोण से समाज के लोगों को मुख्यतः चार प्रकार के वर्गों में देखा जाता था – (1) यहूदी, जो परमेश्वर की चुनी हुई प्रजा थे; जिनके पास परमेश्वर की व्यवस्था, विधियां, वचन थे; जिनके पास परमेश्वर का मंदिर और उसकी उपासना और आराधना का दायित्व था; और इसलिए वे अपने आप को मनुष्यों में सर्वोच्च स्तर का समझते थे, उन्हें लगता था कि उनके समान कोई अन्य न तो है और न हो सकता है। (2) सामरी लोग, जो न तो पूर्णतः यहूदी थे, और न ही पूर्णतः अन्य-जाति वरन बीच में कहीं थे। यहूदी उन्हें अपने समान नहीं मानते थे, और वे सामरी, स्वयं को याकूब की संतान होने, तथा यहूदी व्यवस्था, आराधना, और विधियों के पालन करने वाले होने के कारण (यूहन्ना 4:9, 12, 20, 25), यहूदियों ही के समान अपने आप को अन्य-जाति लोगों से भिन्न समझते थे। (3) अन्य-जाति या गैर यहूदी, जिन्हें परमेश्वर के जन या कृपा के पात्र होने के योग्य भी नहीं समझा जाता था; यहूदी उन से कोई भी व्यवहार रखना अधर्म समझते थे (प्रेरितों 10:28)। (4) यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले के अनुयायी, जिनमें से निकलकर पतरस, अन्द्रियास आदि प्रभु के पास आए थे (यूहन्ना 1:35-42); यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले के चेले यहूदी तो थे, किन्तु यूहन्ना की शिक्षाओं के पीछे चल निकलने के कारण यहूदी मुख्य धारा से पृथक देखे जाते थे। इन सभी वर्गों के लोगों के पास परमेश्वर ने यहूदियों में से आए मसीही विश्वासियों, अर्थात, फिलिप्पुस, पतरस, यूहन्ना, और पौलुस को सुसमाचार के साथ भेजा, और उन यहूदी मसीहियों की सेवकाई में होकर उन लोगों ने भी वही पवित्र आत्मा पाया जो आरंभ में यहूदी विश्वासियों ने पाया था। उन के लिए यह होना परमेश्वर के वचन में प्रभु यीशु की बात की पुष्टि तथा परमेश्वर की इच्छानुसार हुआ कार्य कहा गया (प्रेरितों 11:15-18)।

कहने का अभिप्राय यह है कि परमेश्वर ने यहूदियों से भिन्न या नीचे समझे जाने वाले प्रत्येक वर्ग के लोगों को, यहूदियों के द्वारा ही, अपने साथ मिला लिया – जो इफिसियों 2:20-22 के व्यावहारिक प्रयोग का उदाहरण है – सब को एक देह में एक साथ, परमेश्वर का एक ही मंदिर होने के लिए जोड़ लिया। ऐसा करना इसलिए आवश्यक था, जिससे यहूदियों में से मसीही विश्वासी बने शिष्य भी यह स्वयं ही देख, समझ और मान लें कि अब प्रभु में होने के बाद न तो वे कोई विशेष हैं, और न ही गैर-यहूदी उनसे निचले स्तर के हैं (प्रेरितों 10:28, 35; 11:1-4, 18)। यदि यह बात और कार्य यहूदी मसीही विश्वासियों के समक्ष और उन ही के माध्यम से नहीं होता, और इसके विषय उन आरंभिक यहूदी विश्वासियों, प्रेरितों और कलीसिया के अगुवों, तथा अन्य मसीही विश्वासियों की समझ और धारणाएं नहीं सुधारी जाती और बदलतीं, तो उन और उन के बाद के यहूदी विश्वासियों के लिए यह स्वीकार करना बहुत कठिन होता कि गैर-यहूदी भी प्रभु यीशु में होकर उन ही के समान के स्तर के हो गए हैं, और उनके पास भी अब वही और वैसा ही पवित्र-आत्मा, तथा परमेश्वर की संतान होने का आदर है। और यदि यह नहीं होता तो उस स्थिति में, कलीसिया में आरम्भ ही से बहुत बड़ा विभाजन और मत-भेद हो जाता, जिसे बाद में पाट पाना बहुत कठिन होता। इस सन्दर्भ में, यह ध्यान देने योग्य बात है कि इतने प्रमाणों और स्पष्टीकरणों के बावजूद, आरंभिक कलीसिया में यह मतभेद तुरंत ही नहीं गया, भेदभाव फिर भी होता रहा (प्रेरितों 6:1); शैतान प्रभु के लोगों के मध्य विभाजन और झगड़े खड़े करने का कोई अवसर नहीं छोड़ता है।

- क्रमशः

अगला लेख: तीनों उदाहरणों की समझ

शनिवार, 25 अप्रैल 2020

पवित्र आत्मा पाना भाग 3 – विशेष प्रयास – प्रेरितों और अगुवों के सहायता से (1)



2. क्या पवित्र आत्मा प्रेरितों या कलीसिया के अगुवों की सहायता से मिलता है?

(भाग 1 – तीन उदाहरण)


कुछ अन्य उदाहरण जिनकी गलत व्याख्या और प्रयोग के द्वारा यह प्रमाणित करने का प्रयास किया जाता है कि पवित्र आत्मा अलग से पाया जाता है, प्रभु यीशु पर विश्वास करने से तुरंत ही नहीं मिल जाता है, हैं :
·         पतरस और यूहन्ना द्वारा सामरिया के लोगों को पवित्र आत्मा दिया जाना (प्रेरितों 8:14-17);
·         पतरस द्वारा अन्यजाति कुरनेलियुस के घर जा कर प्रचार करना, और उन अन्य-जाति लोगों का पवित्र आत्मा पाना (प्रेरितों अध्याय 10, 11);
·         पौलुस के द्वारा, यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले के शिष्यों को पवित्र आत्मा दिया जाना (प्रेरितों 19:1-7)।

किन्तु यहाँ भी यदि हम गलत व्याख्या करने से संबंधित उपरोक्त दोनों गलतियों में न पड़ने का ध्यान रखें, तो बात प्रगट हो जाती है कि ये उदाहरण भी कदापि यह नहीं सिखा रहे हैं कि पवित्र आत्मा अलग से, या प्रयास से, अथवा किसी प्रभु के सेवक की मध्यस्थता से दिया जाता – ध्यान कीजिए कि इन तीनों स्थितियों में से किसी एक भी स्थिति में पवित्र आत्मा प्राप्त करने वालों में से किसी एक ने भी पवित्र आत्मा पाने के लिए कोई निवेदन या प्रार्थना, या कोई अलग और विशेष प्रार्थना अथवा प्रयास नहीं किया; और न ही किसी भी प्रेरित या प्रभु के शिष्य ने उन में से किसी से भी पवित्र आत्मा प्राप्त करने की इच्छा व्यक्त करने के लिए कुछ कहा। उन सभी को पवित्र आत्मा स्वतः ही परमेश्वर की ओर से दिया गया; उन के अपने किसी आग्रह के अंतर्गत नहीं।

केवल एक था जिसने यह पवित्र आत्मा लोगों को देने का विशेष गुण मांगा था – सामरिया का शमौन टोनहा करने वाला, और कहने को तो उसने भी विश्वास किया और बपतिस्मा लिया था (प्रेरितों 8:13) किन्तु वह वास्तविक उद्धार पाया हुआ नहीं था! और उसकी इस इच्छा के लिए पतरस ने उसकी तीव्र भर्त्सना की, उसे अधर्म के बंधन में जकड़ा हुआ बताया, परमेश्वर से क्षमा प्राप्त करने के लिए पश्चाताप करने को कहा (प्रेरितों 8:18-23)। इस एक व्यक्ति के अतिरिक्त बाइबल में कोई अन्य नहीं है जिसने कभी पवित्र आत्मा के लिए कोई विशेष आग्रह किया हो, और न ही कोई प्रेरित अथवा शिष्य है जिसने किसी को कभी यह शिक्षा दी हो कि जिन्होंने उद्धार पाया है उन्हें पवित्र आत्मा पाने के लिए अलग से कुछ विशेष प्रयास, या प्रार्थना, या प्रतीक्षा करनी चाहिए। यह शिक्षा बाइबल के अनुसार है ही नहीं!
- क्रमशः

अगला लेख: यहाँ पर ध्यान रखने योग्य संबंधित शिक्षाएं

शुक्रवार, 24 अप्रैल 2020

पवित्र आत्मा पाना – 2 – विशेष प्रयास – माँगने से – लूका 11:13 (भाग 3)



क्या पवित्र आत्मा प्राप्त करने के लिए कुछ विशेष करना पड़ता है?

1. क्या पवित्र आत्मा प्रभु से मांगने से मिलता है? (लूका 11:13)

(संबंधित चौथी बात एवं निष्कर्ष)

(4) उपरोक्त बातों के आधार पर वह बहुत ही महत्वपूर्ण चौथी बात जिसे हमें बड़े ध्यान से समझना है और फिर जिसका हमें सावधानी से पालन करना चाहिए, वह है कि मसीही विश्वासी होने का दावा करने वालों में अवश्य ही कुछ ऐसे भी होंगे जो प्रभु और उसके वचन की परख के अनुसार सच्चे मसीही विश्वासी नहीं हैं, इसलिए उनमें पवित्र आत्मा की उपस्थिति कदापि नहीं होगी। इन अंत के दिनों के लिए प्रभु ने पहले से ही सचेत कर दिया है कि ऐसे बहुतेरे ‘विश्वासी’ आएँगे जो “भक्ति का भेस तो धरेंगे, किन्तु उसकी शक्ति को नहीं मानेंगे” (2 तीमुथियुस 3:5)। ऐसे लोग प्रभु यीशु के प्रति चाहे कितनी भी भक्ति या विश्वास रखने का दावा करते रहें, कितने भी समय से मसीही मंडली का भाग रहे हों, मंडली में कितने भी सक्रिय रहे हों; उनके द्वारा कैसे भी और कितने भी अद्भुत काम और प्रचार क्यों न हुए हों (मत्ती 7:21-23), वे वास्तव में प्रभु के शिष्य, उस के सच्चे समर्पित और आज्ञाकारी जन हैं ही नहीं। ऐसे लोग चाहे कितना भी मांग लें, किन्तु उन्हें पवित्र आत्मा तब तक मिलेगा ही नहीं जब तक कि वे सच्चे पश्चाताप, पापों के अंगीकार और क्षमा प्राप्ति, जीवन समर्पण, और वचन की आज्ञाकारिता के साथ वास्तव में प्रभु के जन न हो जाएं। इसके विपरीत ऐसे लोग भी होंगे जिन्होंने आरंभ से ही सच्चे मन से पश्चाताप किया, वास्तव में प्रभु यीशु के आज्ञाकारी हो गए, और प्रभु को सच में अपना जीवन समर्पण कर दिया; और इसलिए प्रभु का पवित्र आत्मा उनके मसीही विश्वास में आते ही तुरंत ही उनके अन्दर निवास तथा कार्य करने लग गया।

अब, वचन की संबंधित शिक्षाओं और वास्तविकता पर ध्यान किए बिना, मात्र बाहरी स्वरूप और दिखावे के लिए उनके द्वारा किए जाने वाले कार्यों के आधार पर, इस तथ्य की यह व्याख्या करना कि किसी को पवित्र आत्मा शीघ्र दे दिया जाता है, और किसी को विलम्ब से; इसलिए जिसे नहीं दिया गया है वह इसके लिए प्रार्थना, उपवास, या अन्य प्रयास करे और प्रभु से माँगे, प्रभु के सामने गिड़गिड़ाए, उन से प्रभु के नाम में झूठ बोल कर बात का बिलकुल गलत अर्थ प्रस्तुत करना है; लोगों को पवित्र आत्मा पाने के विषय बिलकुल गलत शिक्षा, जो कि परमेश्वर के वचन से बिलकुल मेल नहीं खाती है, देना और भरमाना है; उन्हें सच्चाई को पहचानने और उस का सामना करने में सहायता कर के बच जाने के स्थान पर, उन्हें नरक में धकेलना है। और ऐसा करने वाले सभी प्रचारकों, शिक्षकों, पादरियों, और कलीसिया के अगुवों से परमेश्वर हिसाब लेगा, वे बचेंगे नहीं (यहेजकेल 33:1-9)।

इसके विपरीत, बाइबल के तथ्यों के आधार पर, सभी प्रचारकों, शिक्षकों, पादरियों, और कलीसिया के अगुवों को सभी लोगों को यह समझाना और बताना चाहिए कि क्योंकि पवित्र आत्मा सभी मसीही विश्वासियों में उन के वास्तव में विश्वास में आते ही, बिना कोई अन्य प्रयास किए, स्वतः ही आ जाता है, और सदा उन के साथ बना रहता है, कभी छोड़ कर नहीं जाता है, इसलिए यदि उन्हें लगता है कि उनके अन्दर पवित्र आत्मा नहीं है, तो इसके दो ही अर्थ हो सकते हैं – या तो उन्होंने उसे पाया ही नहीं है; अर्थात उनका मसीही विश्वास में होने का दावा सही नहीं है, और उन्हें इसके लिए उपयुक्त पश्चाताप और समर्पण करना चाहिए। या फिर वे पवित्र आत्मा की आज्ञाकारिता और समर्पण में नहीं जी रहे हैं, जिस कारण से वह उनके जीवन में कार्यकारी नहीं हो रहा है। इसलिए या तो वे अपने उद्धार पाने को सुनिश्चित कर लें, या फिर यदि उनका उद्धार सच्चा है तो अपनी इच्छा के अनुसार करना छोड़ कर, परमेश्वर के वचन और पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन के अनुसार करना आरम्भ कर दें (गलातियों 5:25), जिससे वह उनके जीवन में कार्यकारी तथा प्रभावी हो सके। आवश्यकता पवित्र आत्मा को मांगने की नहीं है, आवश्यकता है सच में उद्धार पाने और फिर उसके प्रति समर्पित और आज्ञाकारी रहने की है।

 इसलिए लूका 11:13 को आधार बनाकर यह कहना कि पवित्र आत्मा प्रभु से मांगने से मिलता है, इसलिए हमें प्रभु से प्रार्थना का के पवित्र आत्मा मांगना चाहिए, प्रभु के कथन की गलत व्याख्या और समझ है। इस पद के आधार पर यह गलत शिक्षा देना अनुचित है। इस पद को उसके सही सन्दर्भ तथा सम्बंधित पदों के साथ देखने से ही उसकी बात की वास्तविकता समझी जा सकती है।

- क्रमशः

अगला विषय: विशेष प्रयास – प्रेरितों और अगुवों की सहायता – भाग 1

गुरुवार, 23 अप्रैल 2020

पवित्र आत्मा पाना – 2 – विशेष प्रयास – माँगने से – लूका 11:13 (भाग 2)



क्या पवित्र आत्मा प्राप्त करने के लिए कुछ विशेष करना पड़ता है?

1. क्या पवित्र आत्मा प्रभु से मांगने से मिलता है? (लूका 11:13)

(संबंधित तीसरी बात)


(3) तीसरी बात, इस देने और लेने को एक अन्य उदाहरण से भी समझिए; जब एक रोगी किसी डॉक्टर के पास जाकर उस से अपने रोग से चंगाई मांगता है, तो क्या चंगाई कोई डॉक्टर की मेज़ पर रखी वस्तु या उसकी जेब में रखी कोई टॉफी है जिसे डॉक्टर रोगी को पकड़ा देता है, और कहता “ले, दे दी तुझे चंगाई?” उसके पास सहायता प्राप्त करने के लिए आए उस रोगी को डॉक्टर अवश्य ही चंगाई देना चाहता है, देने के लिए तैयार भी है, किन्तु रोगी द्वारा उस चंगाई को प्राप्त करने की एक विधि, एक प्रक्रिया है, जिसके पालन के किए बिना, उस डॉक्टर के द्वारा वह चंगाई दे देना और रोगी के द्वारा उस चंगाई को प्राप्त कर लेना संभव नहीं है – इस प्रक्रिया में डॉक्टर रोगी की कुछ जांच करवाता है, उसके लिए उपयुक्त दवा लिखता है, कुछ परहेज़ बताता है, रोगी को इलाज के लिए उन दवाओं और परहेजों को एक निर्धारित समय तक तथा दिए गए निर्देशानुसार नियमित लेना होता है – अर्थात उस प्रक्रिया का सही पालन करना होता है, तब ही उसे चंगाई प्राप्त होती है। इसी प्रकार से, प्रभु भी अपने शिष्यों को उनकी सहायता के लिए पवित्र आत्मा देना चाहता है और देता है, क्योंकि मनुष्यों के लिए यही प्रभु यीशु की ओर से ठहराई गई पवित्र आत्मा की सेवकाई है (यूहन्ना 14:16-17, 26; 16:7-15)। अब फिर ध्यान कीजिए, जैसे लूका 11 में, वैसे ही यहाँ यूहन्ना 14 और 16 में भी यह बात चेलों के लिए ही कही गयी है।

अर्थात पवित्र आत्मा प्राप्त करना उनके लिए ही संभव है जो वास्तव में प्रभु के चेले हैं; किसी परिवार विशेष में जन्म लेने अथवा मनुष्यों द्वारा परमेश्वर के नाम में बनाए गए कुछ रीति-रिवाजों और अनुष्ठानों को पूरा करने के द्वारा नहीं, वरन वे जो अपने पापों के लिए हृदय से किए गए सच्चे पश्चाताप और प्रभु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, प्रभु को जीवन पूर्णतः समर्पण कर के, उस के वचन की आज्ञाकारिता के अनुसार प्रभु के लिए जीवन जीने के संकल्प कर लेने के द्वारा प्रभु का अनुसरण करने और उस के चेले बन जाने का निर्णय लिया है।

यह भी सच है कि हर एक जो शिष्य होने का दावा करता है वह वास्तव में शिष्य नहीं होता है। कई तो प्रभु के साथ केवल अपनी शारीरिक आवश्यकताओं के लिए जुड़ते हैं (यूहन्ना 6:26-27); बहुतों ने तो मसीही सेवकाई को शारीरिक कमाई का माध्यम बना लिया है, वे प्रभु के नाम को सांसारिक संपत्ति जमा करने के लिए प्रयोग करते हैं (रोमियों 16:18; 1 तीमुथियुस 6:5; 2 तीमुथियुस 3:4; तीतुस 1:11; 2 पतरस 2:3, 13; यहूदा 1:12, 16)। बहुतेरे प्रभु के साथ जुड़ते तो हैं किन्तु प्रभु पर सच्चा विश्वास नहीं करते हैं (यूहन्ना 6:36, 64; 8:30-31); और कई प्रभु की सभी शिक्षाओं को स्वीकार करने और उन सभी का पालन करने के लिए तैयार नहीं होते हैं (यूहन्ना 6:66)। कई लोग मंडलियों में प्रभु के जन बनकर तो रहते हैं पर वास्तव में होते शैतान के जन हैं (2 कुरिन्थियों 11:13-15), और मंडलियों में फूट, झगड़ों और परेशानियों का कारण होते हैं (प्रेरितों 20:29-31; 1 यूहन्ना 2:18-19; 2 तीमुथियुस 3:5, 8; 4:14; 3 यूहन्ना 1:9-11)। प्रभु ने स्पष्ट बताया है कि वास्तव में उनका चेला कौन है (यूहन्ना 8:31-32; 14:21, 23), और इन आयतों से यह स्पष्ट है कि सच्चा शिष्य या विश्वासी वही है जो प्रभु के वचन की आज्ञाकारिता में, प्रभु की इच्छा के अनुसार, और प्रभु को समर्पित जीवन व्यतीत करता है; न कि वह जो प्रभु के नाम में अपनी इच्छा के अनुसार चलता और करता रहता है।

प्रभु तो प्रत्येक मनुष्य के हाल को जानता है, उसे पता है कि कौन उसका है और कौन नहीं (यूहन्ना 2:25; 2 तीमुथियुस 2:19)। अब स्वाभाविक प्रश्न है कि क्या प्रभु परमेश्वर ऐसे सभी पवित्र आत्मा मांगने वालों को, जो प्रभु के लोग होने का स्वांग तो भरते हैं किन्तु वास्तव में हैं नहीं, पवित्र आत्मा यूं ही दे देगा? जिनके जीवनों में प्रभु के वचन और आज्ञाकारिता का स्थान नहीं है वे प्रभु के पवित्र आत्मा को कैसे प्राप्त करने पाएंगे? क्या इन्हें भी पवित्र आत्मा पाने के लिए वास्तव में उद्धार या नया जन्म पाए हुए प्रभु के प्रति सच्चे, आज्ञाकारी, और समर्पित शिष्य नहीं होना होगा? और ऐसा होने की प्रक्रिया तो एक ही है, वही जो इस लेख के आरंभ में उद्धार या नया जन्म पाने के लिए दी गई है। तात्पर्य यह कि, प्रभु अवश्य ही अपने विश्वासियों को पवित्र आत्मा देता है, किन्तु केवल उन्हें जिन्होंने वास्तव में उद्धार पाया है, जिनका सच में नया जन्म हो गया है, जो वास्तव में प्रभु की दृष्टि में उसके चेले हो गए हैं; अन्यथा नहीं।

- क्रमशः
अगला विष्य: संबंधित चौथी बात

बुधवार, 22 अप्रैल 2020

पवित्र आत्मा पाना – 2 – विशेष प्रयास – माँगने से – लूका 11:13 (भाग 1)



क्या पवित्र आत्मा प्राप्त करने के लिए कुछ विशेष करना पड़ता है?

1. क्या पवित्र आत्मा प्रभु से मांगने से मिलता है? (लूका 11:13)

(संबंधित पहली दो बातें)


बाइबल में कहीं भी ऐसा कोई निर्देश नहीं दिया गया है कि पवित्र आत्मा प्राप्त करने के लिए किसी भी मसीही विश्वासी को कोई विशेष प्रयास, प्रतीक्षा, प्रार्थना, योग्यता, या अवसर की आवश्यकता नहीं होती है। अकसर लूका 11:13 को आधार बना कर यह दावा किया जाता है कि स्वयं प्रभु यीशु ने कहा है कि पवित्र आत्मा माँगने से मिलता है। किन्तु ऐसा कहना बाइबल की इस बात की व्याख्या करने में भी वही दो गलतियाँ करना है, जो सामान्यतः बाइबल की लगभग सभी बातों की अनुचित व्याख्या एवं अनुचित प्रयोग करने के साथ की जाती है – पहली गलती, बात को उसके सन्दर्भ से बाहर ले कर, केवल कुछ ही शब्दों के अनुसार उसकी व्याख्या करना; तथा दूसरी गलती, उस बात या विचार से संबंधित बाइबल की अन्य शिक्षाओं एवं पदों का ध्यान न रखते हुए, बिना उन शिक्षाओं का उस व्याख्या में समावेश किए, एक विशेष धारणा को समर्थन देने के लिए केवल कुछ चुने हुए शब्दों, वाक्यांशों, और पदों का प्रयोग करना।

आईए प्रभु से मांगने के द्वारा पवित्र आत्मा मिलने की लूका 11:13 की बात को उसके सन्दर्भ में और अन्य संबंधित शिक्षाओं के साथ रख कर देखते हैं, और तब उनके अनुसार निष्कर्ष लेते हैं:

(1) लूका 11:13 को उसके सन्दर्भ, अर्थात लूका 11:1-13, के साथ देखने पर जो पहली बात हमारे सामने आती है, वह है, कि इस खण्ड में प्रभु यीशु मसीह द्वारा कही गई यह बात, उनके चेलों (लूका 11:1) के साथ हो रहे प्रभु के संवाद का भाग है – अभिप्राय यह है कि प्रभु यीशु ने पवित्र आत्मा मिलने की बात हर किसी के लिए नहीं कही, और न ही हर उस व्यक्ति के लिए कही है जो कोई भी प्रभु का जन होने, उस पर विश्वास करने का दावा करे; वरन प्रभु ने यह केवल उन के लिए ही कही है जो वास्तव में प्रभु के चेले हैं। इस बात को और इसके अर्थ एवं तात्पर्यों को समझना बहुत आवश्यक है। यदि इसे यूहन्ना 7:37-39 के साथ मिलाकर देखें तो यह और स्पष्ट हो जाता है कि पवित्र आत्मा केवल प्रभु यीशु मसीह पर विश्वास करने वालों, अर्थात प्रभु यीशु के शिष्यों को ही दिया जाना था, और वह भी भविष्य में; न कि उसी समय जब प्रभु ने यह बातें कहीं थी। आगे चलकर, क्रूस पर चढ़ाए जाने के लिए पकड़वाए जाने से पहले प्रभु ने सहायक के रूप में एक बार फिर केवल शिष्यों को ही, आने वाले समय में, पवित्र आत्मा दिए जाने की प्रतिज्ञा दी थी (यूहन्ना अध्याय 14, 16)। और अंततः जब प्रेरितों दो अध्याय में पवित्र आत्मा दिया गया तो वह केवल प्रभु के विश्वासियों या शिष्यों को ही दिया गया (प्रेरितों 2:1-4), जब कि वहां उस समय अनेकों “भक्त यहूदी” (प्रेरितों 2:5) विद्यमान थे। (इसकी और पुष्टि, कि यह केवल चेलों ही के लिए है, आगे के भागों भी दी गई है)।

(2) दूसरी बात जो हम देखते हैं, वह है कि प्रभु यहाँ शिष्यों को उदाहरण के द्वारा यह समझा रहे हैं कि यदि सांसारिक पिता अपनी संतान के लिए उत्तम दे सकता है, तो परमेश्वर पिता सर्वोत्तम, यहाँ तक कि पवित्र आत्मा भी क्यों नहीं दे देगा? प्रभु अपने शिष्यों को यहाँ लूका 11:5-13 पद में समझा रहा है कि वे अपनी आवश्यकताओं के लिए चिंतित न हों, वरन सदा अपना भरोसा परमेश्वर पर रखें कि समय और परिस्थिति के अनुसार, परमेश्वर पिता उनकी आवश्यकताओं को पूरा करता रहेगा। इस बात को पद 10-13 में वह और विशिष्ट रीति से समझाता है कि जैसे सांसारिक पिता अपनी संतान को यथासंभव अच्छा ही देते हैं, वैसे ही परमेश्वर पिता भी अपनी संतान को उनके लिए सदा सर्वोत्तम ही देगा। परमेश्वर द्वारा अपने लोगों को भली वस्तुएं देने की कोई सीमा नहीं है, यहाँ तक कि जो उसे मांगने का साहस रखने वाले होंगे वह उन्हें वह पवित्र आत्मा को भी, अर्थात परमेश्वर स्वयं अपने आप को, भी दे देगा।

ध्यान कीजिए, यहाँ पर इस पूरे वार्तालाप में ऐसा कहीं कोई संकेत नहीं है कि प्रभु चेलों को कोई निर्देश या आज्ञा दे रहे हैं कि “भविष्य में मेरे जो शिष्य परमेश्वर से उसे माँगेंगे केवल उन्हें ही पवित्र आत्मा प्राप्त होगा; या जो माँगेगा उसे ही पवित्र आत्मा दिया जाएगा।” अपने स्वर्गारोहण से पहले जब प्रभु ने इन्हीं चेलों से सेवकाई पर निकलने से पहले पवित्र आत्मा मिलने की प्रतीक्षा करने के लिए कहा, तब भी न तो किसी चेले ने प्रभु की इस पहले कही गई बात को लेकर कोई असमंजस व्यक्त किया या प्रश्न उठाया, और न ही किसी ने प्रभु की लूका 11:13 की बात के आधार पर प्रभु से तुरंत ही पवित्र आत्मा मांग लिया, जिससे कि वे सेवकाई पर निकल सकें। इससे प्रगट है कि प्रभु की इस बात यह अभिप्राय था ही नहीं, जो आज के कुछ प्रचारक इसे दे रहे हैं, कि पवित्र आत्मा माँगने से मिलता है। इसलिए इस बात को यह स्वरूप देना और सिखाना कि “प्रभु ने कहा है कि मांगने से ही पवित्र आत्मा मिलेगा” प्रभु के वचन का दुरुपयोग और अनुचित व्याख्या तथा शिक्षा देना है, भक्ति और आदर के भेस में वचन को झूठा ठहराना है।

यह पद एक तुलनात्मक उदाहरण के द्वारा किया गया चित्रण है कि सांसारिक पिता उत्तम देते हैं, इसलिए स्वाभाविक है कि स्वर्गीय परमेश्वर पिता सर्वोत्तम देगा; यहाँ तक कि पवित्र आत्मा भी देने को तैयार है – उसके प्रेम और दान देने की कोई सीमा नहीं है, वह मानव जाति के लिए स्वयं को भी उपलब्ध करने को तैयार है, यदि कोई लेने को तैयार हो।

- क्रमशः
अगला विष्य:  संबंधित तीसरी बात

सोमवार, 20 अप्रैल 2020

पवित्र आत्मा पाना - 1 - परिचय; कब, कैसे और किसे



पवित्र आत्मा पाने से संबंधित बातें - परिचय

यह लेख किसी मसीही मत या समुदाय की शिक्षाओं पर न तो आधारित है, और न ही किसी भी मत या समुदाय की शिक्षाओं को बढ़ावा देने, उनका प्रचार करने के लिए है। इस लेख का उद्देश्य केवल और पूर्णतः बाइबल के वचनों और शिक्षाओं के आधार पर परमेश्वर पवित्र आत्मा के विषय सामान्यतः प्रचलित गलत शिक्षाओं का विश्लेषण कर के उन शिक्षाओं के सत्य और असत्य को उजागर करना है।

जैसा कि आप यहाँ लिखी हुई बातों को पढ़ते हुए स्वयं ही समझ जाएंगे, परमेश्वर पवित्र आत्मा का प्रत्येक मसीही विश्वासी के जीवन में बहुत बड़ा महत्व है, और प्रत्येक मसीही विश्वासी के जीवन में पवित्र आत्मा की प्रभु यीशु मसीह की ओर से स्थापित बहुत बड़ी तथा अनिवार्य भूमिका है (यूहन्ना 16:7-13)। बिना पवित्र आत्मा की सामर्थ्य और मार्गदर्शन के कोई भी मसीही विश्वासी परमेश्वर के वचन बाइबल की शिक्षाओं को उनकी वास्तविकता में न तो समझ सकता है (1 कुरिन्थियों 2:11-14), और न उनमें दृढ़ एवं स्थापित हो सकता है (यूहन्ना 14:26), और न ही प्रभु के लिए कार्यकारी और उपयोगी हो सकता है (गलातियों 5:22-23 – जहां पवित्र आत्मा होगा, वहीं उसके फल भी होंगे)। क्योंकि बहुधा लोग पवित्र आत्मा की सामर्थ्य और उपयोगिता को समझते और स्वीकार नहीं करते हैं, इसलिए उनके मसीही जीवन आत्मिकता में निष्क्रिय और अप्रभावी, तथा प्रभु के लिए अनुपयोगी रहते हैं; और यह सामर्थ्यहीन एवं निष्क्रिय मसीही जीवन व्यतीत करते रहने के कारण लोग अपनी अनंतकाल तक के लिए उपयोगी आत्मिक आशीषें अर्जित करने से भी वंचित रह जाते हैं।

ऐसा इसलिए क्योंकि परमेश्वर पवित्र आत्मा के विषय सामान्यतः बहुत सी भ्रांतियां भी पाई जाती हैं, जिसके कारण मसीही विश्वासियों में असमंजस रहता है। बहुधा पवित्र आत्मा के नाम से दी जाने वाली गलत शिक्षाओं, लोगों पर उन गलत शिक्षाओं के विषय अनुचित ज़ोर देने के द्वारा, और उन लोगों के विचित्र तथा परमेश्वर के वचन से पूर्णतः असंगत व्यवहार के द्वारा, दुर्भाग्यवश इन गलतफहमियों को और भी अधिक बढ़ावा मिलता रहता है, जिस से लोग पवित्र आत्मा से संबंधित सही बातों और शिक्षाओं से और दूर होते रहते हैं। इन गलत शिक्षाओं के कारण कई मसीही तो पवित्र आत्मा की बातों के महत्व को सुनना, देखना या इस पर कोई वार्तालाप अथवा चर्चा ही नहीं करना चाहते हैं, क्योंकि उन्हें यह लगता है कि यह एक विशेष समुदाय की शिक्षा है, और जो उस समुदाय से संबंधित नहीं हैं, उनके लिए इसमें पड़ने की आवश्यकता भी नहीं है – किन्तु यह भी गलत है। जैसे परमेश्वर पवित्र आत्मा से संबंधित गलत शिक्षाओं को सिखाना और मानना गलत है, वैसे ही पवित्र आत्मा की बिलकुल अनदेखी कर देना, उस पर ध्यान न देना भी उतना ही गलत है।

यह लेख परमेश्वर पवित्र आत्मा से संबंधित सभी बातों पर नहीं है, वरन केवल पवित्र आत्मा को प्राप्त करने से संबंधित कुछ आधारभूत शिक्षाओं पर ही है; जिन को हम यहाँ निम्न शीर्षकों के अंतर्गत देखेंगे:

पवित्र आत्मा कब, कैसे, और किसे मिलता है?
क्या पवित्र आत्मा प्राप्त करने के लिए कुछ विशेष करना पड़ता है?
1. क्या पवित्र आत्मा प्रभु से मांगने से मिलता है? – (लूका 11:13); संबंधित चार बातें
2. क्या पवित्र आत्मा प्रेरितों या कलीसिया के अगुवों की सहायता से मिलता है?
(भाग 1 – तीन उदाहरण - प्रेरितों 8:14-17; अध्याय 10, 11; 19:1-7)
(भाग 2 – यहाँ पर ध्यान रखने योग्य संबंधित शिक्षाएं)
(भाग 3 – तीन उदाहरणों की समझ)
3. क्या पवित्र आत्मा अगुवों या प्रेरितों द्वारा हाथ रखने से मिलता है?
4. क्या पवित्र आत्मा प्राप्त करने के लिए प्रतीक्षा करनी पड़ती है?
5. पवित्र आत्मा पाने के लिए कुछ विशेष करना – निष्कर्ष
पवित्र आत्मा का बपतिस्मा क्या है?
पवित्र आत्मा से भरना या परिपूर्ण होना क्या है?
उपसंहार

************

पवित्र आत्मा कब, कैसे, और किसे मिलता है?

परमेश्वर के वचन बाइबल की यह स्पष्ट शिक्षा है कि जैसे ही व्यक्ति मसीह यीशु में विश्वास में आता है, अर्थात जैसे ही व्यक्ति पापों से पश्चाताप करके, उनके लिए प्रभु यीशु से क्षमा मांग कर, अपना जीवन प्रभु यीशु को समर्पित करता है, प्रभु के अनुग्रह के द्वारा उद्धार पाता है, उसी पल से वह परमेश्वर की संतान हो जाता है (यूहन्ना 1:12-13), और उसी क्षण उसे न केवल प्रभु परमेश्वर की ओर से पवित्र आत्मा दे दिया जाता है (प्रेरितों 19:2; इफिसियों 1:13-14), वरन साथ ही में वह व्यक्ति पवित्र आत्मा का मंदिर बन जाता है और परमेश्वर पवित्र आत्मा उसमें सदा के लिए निवास करने लगता है (1 कुरिन्थियों 3:16; 6:19) – बिना किसी भेद-भाव के, प्रत्येक वास्तविक उद्धार पाने वाले मसीही विश्वासी में। साथ ही बाइबल की शिक्षाओं के आधार पर कृपया यह भी ध्यान कर लीजिए कि ‘अन्य-भाषाएँ’ बोलना पवित्र आत्मा पा लेने का प्रमाण कदापि नहीं है – क्योंकि अन्य-भाषा बोलना और आत्मिक वरदान अपने आप में एक वृहद विषय है, जिस पर हम अभी कोई चर्चा नहीं कर रहे हैं, इस लिए इस लेख में इसके विषय और कुछ नहीं कहा गया है। यदि प्रभु की इच्छा में हुआ और प्रभु ने अगुवाई और मार्गदर्शन दिया, तो इस के विषय फिर आगे कभी चर्चा करेंगे।

जिस पल व्यक्ति उद्धार पाता है, उसी पल से वह व्यक्ति प्रभु का हो जाता है (2 कुरिन्थियों 5:15, 17)। क्योंकि बिना पवित्र आत्मा के कोई भी वास्तव में यीशु को प्रभु नहीं कह सकता है (1 कुरिन्थियों 12:3), इसलिए परमेश्वर के वचन के अनुसार यह असंभव है कि कोई वास्तव में उद्धार पाए, वास्तविक मसीही विश्वासी हो जाए, वास्तव में यीशु को अपना प्रभु अर्थात स्वामी माने और कहे (लूका 6:46), किन्तु उसमें पवित्र आत्मा न हो। जो भी वास्तव में मसीह यीशु में विश्वास में होगा, पवित्र आत्मा भी उसे संचालित करने और सुरक्षित रखने के लिए उसमें अवश्य ही होगा (रोमियों 8:1-2, 9)। यदि ऐसा नहीं होगा तो फिर परमेश्वर का वचन झूठा हो जाएगा – जो कि नामुमकिन है।

क्योंकि पवित्र आत्मा परमेश्वर है इसलिए उसे किसी भी मानवीय अनुष्ठान अथवा विधि-विधान, या कार्यवाही के आधीन न तो लाया जा सकता है, और न ही इन बातों से उसे नियंत्रित अथवा निर्देशित किया जा सकता है। पवित्र आत्मा को अंशों में नहीं बाँटा जा सकता है, उसे या उसकी उपलब्ध मात्रा को घटाया या बढ़ाया नहीं जा सकता है, और न ही उसे किश्तों में उपलब्ध करवाया जा सकता है। इसलिए यदि वह किसी में है – तो है, अपनी संपूर्णता और परिपूर्णता में है; और नहीं है तो बिलकुल नहीं है! इसलिए वह सभी सच्चे मसीही विश्वासियों में सदा ही समान ही होता है, न किसी में कम और न किसी में अधिक; परमेश्वर कभी भी पवित्र आत्मा नाप-नाप कर नहीं देता है (यूहन्ना 3:34)। किन्तु, जैसा हम आगे देखेंगे, प्रत्येक सच्चे मसीही विश्वासी में पवित्र आत्मा की उपस्थिति होने पर भी, उस विश्वासी व्यक्ति के व्यवहारिक मसीही जीवन में होने वाला पवित्र आत्मा का प्रभावी प्रगटीकरण, उद्धार पाए हुए उस व्यक्ति के मसीही जीवन की आत्मिक परिपक्वता के अनुपात में होता है, और इसलिए वह कम या अधिक प्रतीत हो सकता है – पवित्र आत्मा अपनी सामर्थ्य ,अथवा गुणवत्ता या मात्रा में किसी में भी कम या अधिक नहीं होता है, वरन व्यक्ति का पवित्र आत्मा की आज्ञाकारिता और अधीनता में होकर कार्य और व्यवहार करना कम या अधिक होता है।

संक्षेप में, पवित्र आत्मा प्रत्येक सच्चे मसीही विश्वासी को उद्धार पाते ही तुरंत ही परमेश्वर की ओर से उसके मसीही जीवन को व्यतीत करने में सहायता, सुरक्षा, और सामर्थ्य देने के लिए दे दिया जाता है, और उस के जीवन भर उस में बना रहता है।
यह एक बहुत महत्वपूर्ण तथ्य है कि पवित्र आत्मा प्रत्येक वास्तव में उद्धार पाए हुए सच्चे मसीही विश्वासी में सदा ही विद्यमान है; लेकिन इस से भी अधिक महत्वपूर्ण तथ्य जिसे हम सभी को बड़े ध्यान से समझना है, और जिस के तात्पर्य को व्यावहारिक मसीही विश्वास में निःसंकोच लागू करना है, उपरोक्त तथ्य को विपरीत रीति से कहना है – कि जो वास्तव में उद्धार पाया हुआ और सच्चा मसीही विश्वासी नहीं है, उसमें पवित्र आत्मा भी विद्यमान नहीं है, और न कभी किसी भी प्रयास द्वारा होगा।
 मसीही विश्वासी परमेश्वर के वचन की आज्ञाकारिता में, मसीही विश्वास की बातों के पालन में, और पवित्र आत्मा के प्रति समर्पण में जितना परिपक्व होगा, पवित्र आत्मा की सामर्थ्य, फल, और कार्य भी उसके जीवन में उतने अधिक प्रगट होंगे।

मंगलवार, 31 मार्च 2020

बाइबल, अन्य प्राचीन सभ्यताओं और संस्कृतियों के धार्मिक लेखों की तुलना में



कभी-कभी कुछ लोग यह बात उठाते हैं कि संसार की अन्य प्राचीन सभ्यताओं और संस्कृतियों की पुस्तकों में कुछ विषयों, जैसे कि अंतरिक्ष, ज्योतिष, स्वास्थ्य तथा चिकित्सा विज्ञान, आध्यात्मिक और अलौकिक बातों, इत्यादि के बारे में बहुत ज्ञान मिलता है; तो उस ज्ञान की तुलना में बाइबल की क्या स्थिति है? बाइबल अन्य लोगों, सभ्यताओं, और संस्कृतियों के प्राचीन लेखों में उल्लेखित इन उपरोक्त विषयों के संबंध में पूर्णतः मूक भी नहीं है, वरन उनके विषय परमेश्वर के दृष्टिकोण को बताती है। बाइबल में सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्रों और सितारों का उनके परमेश्वर द्वारा नियत उद्देश्यों और परमेश्वर की महिमा प्रगट करने के सन्दर्भ में (उत्पत्ति 1:14-18; अय्यूब 9:9; अय्यूब 38:31; भजन 19:1-2; भजन 104:19), और सितारों के द्वारा मार्गदर्शन (मत्ती 2:2) उल्लेख है, परन्तु बाइबल बिलकुल स्पष्ट रीति से इन आकाशीय वस्तुओं को कोई ईश्वरत्व प्रदान करने और इनकी उपासना करने का निषेध करती है (व्यवस्थाविवरण 4:19; 2राजाओं 23:4-5)। बाइबल स्वास्थ्य एवं सुरक्षा के लिए बचाव की विधियाँ और पृथक किए जाने के बाए में बताती है (लैव्यव्यवस्था 7:19; लैव्यव्यवस्था 11:24-39; लैव्यव्यवस्था 13; गिनती 19:11-16); और टोन्हों, महूर्तों, भूत-सिद्धि, तांत्रिकों आदि में जुड़ने के लिए मना करती है (लैव्यव्यवस्था 19:26, 31; व्यवस्थाविवरण 18:10-12)। परन्तु क्योंकि बाइबल इन बातों तथा ऐसी ही अन्य बातों के संबंध में किसी विस्तृत व्याख्या, चर्चा, अथवा स्पष्टीकरण में नहीं जाती है, इसलिए इसे, उन अन्य लेखों के बाइबल से श्रेष्ठ या उच्च होने का कारण और प्रमाण नहीं मान लेना चाहिए।

ऐसा इसलिए, क्योंकि बाइबल की विषय-वस्तु बिलकुल भिन्न तथा अनुपम है उसे कभी भी नश्वर जगत, जिसका एक दिन नाश होकर अन्त जाएगा, से संबंधित ज्ञान की पुस्तक नहीं रखा गया। वरन, बाइबल, प्रभु यीशु मसीह में लाए गए विश्वास के द्वारा मनुष्य जाति के परमेश्वर से मेल कराए जाने के विषय में है, क्योंकि मानव जाति, अपने पाप के कारण परमेश्वर से पृथक हो रखी है और नश्वर जगत से संबंधित कैसा भी, कितना भी ज्ञान, किसी को भी पाप के अनंतकालीन विनाशकारी दुष्परिणामों से कभी भी नहीं बचा सकता है। ज़रा विचार कीजिए, इतनी विभिन्न प्रकार की बातों के विषय में इतना ज्ञान होते हुए भी, क्या संसार के किसी भी स्थान की वे प्राचीन सभ्यताएं और उनके ज्ञानी लोग अपने आप को या अपने समय के किसी एक भी व्यक्ति को उनके पाप और उसके दुष्परिणामों की समस्या से छुड़ा सके; पापों से बचने और उद्धार का मार्ग दे सके? कोई भी व्यक्ति पूर्व काल के या वर्तमान समय के ज्ञान में कितना भी गौरव या महिमा अनुभव कर ले, कठोर दुखदायी यथार्थ यही है कि कैसा भी नश्वर ज्ञान किसी को भी, कभी भी, पाप और उसके दुष्परिणामों की समस्या का समाधान नहीं प्रदान कर सकता है; और पाप में मरने वाले व्यक्ति का अनंतकालीन भविष्य बहुत ही अंधकारमय और दुखद है, क्योंकि उन्हें अनंतकाल के लिए नरक में रहना पड़ेगा, चाहे पृथ्वी पर उनके ज्ञान का स्तर कुछ भी क्यों न रहा हो। उन प्राचीन सभ्यातों और संस्कृतियों का सांसारिक और नाश्मान बातों का ज्ञान व्यक्ति को कभी प्रमाणित न हो सकने वाले जन्म-मरण के, तथा मरणोपरांत जीवन के काल्पनिक सिद्धांतों के चक्करों में उलझा तो सकता है, परन्तु व्यक्ति के निज पाप की समस्या के निवारण का कोई भी स्थाई, व्यवाहारिक और प्रमाणिक समाधान नहीं दे सकता है।

बाइबल के आरंभ से लेकर अंत तक, उसकी विषय-वस्तु और अंतर्वस्तु प्रभु यीशु मसीह, और केवल उन ही के द्वारा प्रदान की जा सकने वाले पापों से मुक्ति और उद्धार ही हैं, “और किसी दूसरे के द्वारा उद्धार नहीं; क्योंकि स्वर्ग के नीचे मनुष्यों में और कोई दूसरा नाम नहीं दिया गया, जिस के द्वारा हम उद्धार पा सकें” (प्रेरितों 4:12)। यह विषय-वस्तु, अर्थात, प्रभु यीशु, उनका जीवन, उनके गुण और चरित्र, उनके कार्य और सेवकाई, उनसे मिलने वाला उद्धार आदि, सभी को प्रभु यीशु मसीह के पृथ्वी पर जन्म लेने से सदियों पूर्व बाइबल के पुराने नियम खंड में विभिन्न प्रकार से बताया, सिखाया, और उदहारणों द्वारा दर्ज किया गया है; विभिन्न शिक्षाओं, नियमों, घटनाओं, व्यवहारों, कुछ ऐतिहासिक लोगों के जीवनों और उनके लेखों, तथा अनेकों परिस्थितियों में मनुष्यों के साथ परमेश्वर के व्यवहार, इत्यादि के द्वारा। इस बात को स्वयं प्रभु यीशु मसीह और बाइबल के अन्य लेखकों ने कहा है, और बारंबार इसकी पुष्टि की है, जैसा कि बाइबल के कुछ निम्नलिखित संबंधित हवालों से प्रकट है:
यूहन्ना 5:39 तुम पवित्र शास्त्र में ढूंढ़ते हो, क्योंकि समझते हो कि उस में अनन्त जीवन तुम्हें मिलता है, और यह वही है, जो मेरी गवाही देता है।
यूहन्ना 5:46 क्योंकि यदि तुम मूसा की प्रतीति करते, तो मेरी भी प्रतीति करते, इसलिये कि उसने मेरे विषय में लिखा है।
यूहन्ना 12:41 यशायाह ने ये बातें इसलिये कहीं, कि उसने उस की महिमा देखी; और उसने उसके विषय में बातें कीं।
लूका 24:27 तब उसने मूसा से और सब भविष्यद्वक्ताओं से आरंभ कर के सारे पवित्र शास्‍त्रों में से, अपने विषय में की बातों का अर्थ, उन्हें समझा दिया।
1 कुरिन्थियों 15:1-4 हे भाइयों, मैं तुम्हें वही सुसमाचार बताता हूं जो पहिले सुना चुका हूं, जिसे तुम ने अंगीकार भी किया था और जिस में तुम स्थिर भी हो। उसी के द्वारा तुम्हारा उद्धार भी होता है, यदि उस सुसमाचार को जो मैं ने तुम्हें सुनाया था स्मरण रखते हो; नहीं तो तुम्हारा विश्वास करना व्यर्थ हुआ। इसी कारण मैं ने सब से पहिले तुम्हें वही बात पहुंचा दी, जो मुझे पहुंची थी, कि पवित्र शास्त्र के वचन के अनुसार यीशु मसीह हमारे पापों के लिये मर गया। और गाड़ा गया; और पवित्र शास्त्र के अनुसार तीसरे दिन जी भी उठा।
इब्रानियों 10:7 तब मैं ने कहा, देख, मैं आ गया हूं, (पवित्र शास्त्र में मेरे विषय में लिखा हुआ है) ताकि हे परमेश्वर तेरी इच्छा पूरी करूं।

बाइबल का नया नियम खण्ड चार वृतांतों के साथ आरंभ होता है, जो प्रभु यीशु मसीह के पृथ्वी के जीवन, तथा उन के द्वारा सम्पूर्ण मानव जाति, समस्त संसार के सभी लोगों के लिए उद्धार का मार्ग बनाने और उपलब्ध करवाने के बारे में हैं। यह उद्धार जो उन्होंने सभी के लिए मुफ्त में उपलब्ध करवाया है, उसे अब प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन के लिए स्वेच्छा से अपनाना तथा कार्यान्वित करना है, बिना कोई भी कीमत चुकाए, बिना किन्ही कर्मों या अनुष्ठानों के: “और उसने तुम्हें भी जिलाया, जो अपने अपराधों और पापों के कारण मरे हुए थे। जिन में तुम पहिले इस संसार की रीति पर, और आकाश के अधिकार के हाकिम अर्थात उस आत्मा के अनुसार चलते थे, जो अब भी आज्ञा न मानने वालों में कार्य करता है। इन में हम भी सब के सब पहिले अपने शरीर की लालसाओं में दिन बिताते थे, और शरीर, और मन की मनसाएं पूरी करते थे, और और लोगों के समान स्‍वभाव ही से क्रोध की सन्तान थे। परन्तु परमेश्वर ने जो दया का धनी है; अपने उस बड़े प्रेम के कारण, जिस से उसने हम से प्रेम किया। जब हम अपराधों के कारण मरे हुए थे, तो हमें मसीह के साथ जिलाया; (अनुग्रह ही से तुम्हारा उद्धार हुआ है।) और मसीह यीशु में उसके साथ उठाया, और स्‍वर्गीय स्थानों में उसके साथ बैठाया कि वह अपनी उस कृपा से जो मसीह यीशु में हम पर है, आने वाले समयों में अपने अनुग्रह का असीम धन दिखाए। क्योंकि विश्वास के द्वारा अनुग्रह ही से तुम्हारा उद्धार हुआ है, और यह तुम्हारी ओर से नहीं, वरन परमेश्वर का दान है। और न कर्मों के कारण, ऐसा न हो कि कोई घमण्‍ड करे (इफिसियों 2:1-9)। और प्रभु यीशु द्वारा इस प्रकार से उपलब्ध करवाई गई पापों की क्षमा के द्वारा उस व्यक्ति का परमेश्वर के साथ मेल होता है: “कि यदि तू अपने मुंह से यीशु को प्रभु जानकर अंगीकार करे और अपने मन से विश्वास करे, कि परमेश्वर ने उसे मरे हुओं में से जिलाया, तो तू निश्चय उद्धार पाएगा। क्योंकि धामिर्कता के लिये मन से विश्वास किया जाता है, और उद्धार के लिये मुंह से अंगीकार किया जाता है। क्योंकि पवित्र शास्त्र यह कहता है कि जो कोई उस पर विश्वास करेगा, वह लज्जित न होगा।; “क्योंकि बैरी होने की दशा में तो उसके पुत्र की मृत्यु के द्वारा हमारा मेल परमेश्वर के साथ हुआ फिर मेल हो जाने पर उसके जीवन के कारण हम उद्धार क्यों न पाएंगे? (रोमियों 10:9-11; रोमियों 5:10)। नया नियम, प्रभु यीशु मसीह के जीवन के बारे में लिखे गए लेखों के बाद फिर आगे, प्रभु यीशु के कुछ अनुयायियों द्वारा लिखे गए अन्य लेखों के माध्यम से प्रभु यीशु मसीह के शिष्यों – जो कि सामूहिक रूप में प्रभु का चर्च, उसके बुलाए हुए कहलाते हैं, की आरंभिक गतिविधियों के इतिहास, घटनाओं, वृद्धि, कार्यों, और दायित्वों का वर्णन प्रदान करता है। और अंत में बाइबल तथा नए नियम का समापन होता है प्रकाशितवाक्य की पुस्तक के साथ जो संसार के अंत समय की भविष्यवाणियों का लेख है, उन अंत के दिनों का जिन में आज हम जी रहे हैं, जैसा कि हमारी आँखों के सामने पूरी हो रही विभिन्न अंत-समय की भविष्यवाणियों से प्रगट है (इनका एक विवरण मत्ती के 24 अध्याय में पढ़िए)। प्रकाशितवाक्य की पुस्तक में विस्तृत वर्णन है सारे संसार और उसमें जन्म लेने वाले प्रत्येक मनुष्य के होने वाले अवश्यंभावी न्याय का, और उसके बाद के अनन्त जीवन का वह चाहे स्वर्ग में परमेश्वर के साथ हो, या बिना परमेश्वर के नरक में हो यह प्रत्येक मनुष्य द्वारा इस पृथ्वी पर अपने लिए किए गए उस चुनाव के अनुसार होगा, जो निर्णय उन्होंने प्रभु यीशु मसीह और उसके द्वारा प्रदान किए जा रहे उद्धार की जानकारी मिलने पर लिया था, और जिसके साथ उन्होंने पृथ्वी का अपना सम्पूर्ण जीवन व्यतीत किया था, अपने इस निर्णय को सुधारने के सभी अवसरों के प्रदान किए जाने के बावजूद: “फिर मैं ने एक बड़ा श्वेत सिंहासन और उसको जो उस पर बैठा हुआ है, देखा, जिस के साम्हने से पृथ्वी और आकाश भाग गए, और उन के लिये जगह न मिली। फिर मैं ने छोटे बड़े सब मरे हुओं को सिंहासन के साम्हने खड़े हुए देखा, और पुस्‍तकें खोली गई; और फिर एक और पुस्‍तक खोली गई; और फिर एक और पुस्‍तक खोली गई, अर्थात जीवन की पुस्‍तक; और जैसे उन पुस्‍तकों में लिखा हुआ था, उन के कामों के अनुसार मरे हुओं का न्याय किया गया। और समुद्र ने उन मरे हुओं को जो उस में थे दे दिया, और मृत्यु और अधोलोक ने उन मरे हुओं को जो उन में थे दे दिया; और उन में से हर एक के कामों के अनुसार उन का न्याय किया गया। और मृत्यु और अधोलोक भी आग की झील में डाले गए; यह आग की झील तो दूसरी मृत्यु है। और जिस किसी का नाम जीवन की पुस्‍तक में लिखा हुआ न मिला, वह आग की झील में डाला गया (प्रकाशितवाक्य 20:11-15).

पृथ्वी पर के उनके जीवन के अंत होने के साथ ही, उनके द्वारा उनके अनंतकाल से संबंधित निर्णय लागू हो जाते हैं और अब वे अपरिवर्तनीय हैं। जिन्होंने प्रभु यीशु को और उनके द्वारा दिए जा रहे पापों की क्षमा के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया है, और उसके अनुसार अपने पापों से पश्चाताप कर लिया है, उससे अपने पापों की क्षमा मांग ली है, अपने जीवन उसे समर्पित कर दिए हैं, और उसकी तथा उसके वचन – बाइबल की आज्ञाकारिता में जीने का निर्णय ले लिया है, “तब सुनने वालों के हृदय छिद गए, और वे पतरस और शेष प्रेरितों से पूछने लगे, कि हे भाइयों, हम क्या करें? पतरस ने उन से कहा, मन फिराओ, और तुम में से हर एक अपने अपने पापों की क्षमा के लिये यीशु मसीह के नाम से बपतिस्मा ले; तो तुम पवित्र आत्मा का दान पाओगे। क्योंकि यह प्रतिज्ञा तुम, और तुम्हारी सन्‍तानों, और उन सब दूर दूर के लोगों के लिये भी है जिन को प्रभु हमारा परमेश्वर अपने पास बुलाएगा। उसने बहुत और बातों में भी गवाही दे देकर समझाया कि अपने आप को इस टेढ़ी जाति से बचाओ। सो जिन्हों ने उसका वचन ग्रहण किया उन्होंने बपतिस्मा लिया; और उसी दिन तीन हजार मनुष्यों के लगभग उन में मिल गए। और वे प्रेरितों से शिक्षा पाने, और संगति रखने में और रोटी तोड़ने में और प्रार्थना करने में लौलीन रहे (प्रेरितों 2:37-42), वे, परमेश्वर की संतान होने के नाते से “परन्तु जितनों ने उसे ग्रहण किया, उसने उन्हें परमेश्वर के सन्तान होने का अधिकार दिया, अर्थात उन्हें जो उसके नाम पर विश्वास रखते हैं। वे न तो लोहू से, न शरीर की इच्छा से, न मनुष्य की इच्छा से, परन्तु परमेश्वर से उत्पन्न हुए हैं (यूहन्ना 1:12-13), अपने पिता के पास उसके निवास-स्थान – स्वर्ग में रहने के लिए जाएंगे (कृपया रोमियों अध्याय 5 पढ़िए)। जिन्होंने प्रभु यीशु मसीह को और उसके साथ अनन्त जीवन स्वर्ग में व्यतीत करने के प्रस्ताव को ठुकरा दिया है, पृथ्वी पर उनके द्वारा किए गए उनके इस निर्णय के अनुसार, उन्हें फिर अनंतकाल के लिए, परमेश्वर की उपस्थिति से बाहर नरक भेज दिया जाएगा जो कि शैतान और उसके दूतों का स्थान है: “तब वह बाईं ओर वालों से कहेगा, हे श्रापित लोगो, मेरे साम्हने से उस अनन्त आग में चले जाओ, जो शैतान और उसके दूतों के लिये तैयार की गई है” (मत्ती 25:41 आयतें 31 से 46 देखिए)

इस तथ्य से कदापि मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है कि, जैसा उस का दावा है, केवल बाइबल ही एक मात्र परमेश्वर का वचन है जिसके इस दावे की पुष्टि के लिए संसार के प्राचीन लेखों से, जिनमें गैर-मसीही लेख तथा वर्णन भी हैं, ऐतिहासिक प्रमाणों, और पुरातत्व विज्ञान से भी अटल और अकाट्य प्रमाण विद्यमान हैं। स्वयं बाइबल भी अपने विषय यही कहती है:
2 शमूएल 23:1-2 दाऊद के अन्तिम वचन ये हैं: यिशै के पुत्र की यह वाणी है, उस पुरुष की वाणी है जो ऊंचे पर खड़ा किया गया, और याकूब के परमेश्वर का अभिषिक्त, और इस्राएल का मधुर भजन गाने वाला है: यहोवा का आत्मा मुझ में हो कर बोला, और उसी का वचन मेरे मुंह में आया।
2 तीमुथियुस 3:15-17 और बालकपन से पवित्र शास्त्र तेरा जाना हुआ है, जो तुझे मसीह पर विश्वास करने से उद्धार प्राप्त करने के लिये बुद्धिमान बना सकता है। हर एक पवित्रशास्‍त्र परमेश्वर की प्रेरणा से रचा गया है और उपदेश, और समझाने, और सुधारने, और धर्म की शिक्षा के लिये लाभदायक है। ताकि परमेश्वर का जन सिद्ध बने, और हर एक भले काम के लिये तत्‍पर हो जाए।
2 पतरस 1:21 क्योंकि कोई भी भविष्यद्वाणी मनुष्य की इच्छा से कभी नहीं हुई पर भक्त जन पवित्र आत्मा के द्वारा उभारे जा कर परमेश्वर की ओर से बोलते थे

केवल बाइबल ही वह एकमात्र पूर्णतः दोषरहित, अचूक एवं अटल, अनन्तकालीन, अपरिवर्तनीय, परमसिद्ध, परमेश्वर का वचन है, “तेरा सारा वचन सत्य ही है; और तेरा एक एक धर्ममय नियम सदा काल तक अटल है” (भजन 119:160) जो सदा काल के लिए स्वर्ग में स्थापित है, “हे यहोवा, तेरा वचन, आकाश में सदा तक स्थिर रहता है” (भजन 119:89) – इसलिए वह किसी के भी द्वारा कभी भी न तो बदला जा सकता है और न ही कभी नष्ट किया जा सकता है, किसी भी प्रकार से नहीं, कोई चाहे कुछ भी कहता रहे या कैसे भी दावे करता रहे। बाइबल प्रभु यीशु का लिखित प्रगटीकरण है, जो कि बाइबल की विषय-वस्तु और अंतर्वस्तु हैं, और इसीलिए बाइबल को ‘जीवित वचन’ भी कहा जाता है: “आदि में वचन था, और वचन परमेश्वर के साथ था, और वचन परमेश्वर था। यही आदि में परमेश्वर के साथ था। सब कुछ उसी के द्वारा उत्पन्न हुआ और जो कुछ उत्पन्न हुआ है, उस में से कोई भी वस्तु उसके बिना उत्पन्न न हुई। उस में जीवन था; और वह जीवन मुनष्यों की ज्योति थी” (यूहन्ना 1:1-4)। केवल प्रभु यीशु ही एक मात्र हैं जो परमेश्वर होते हुए भी, अपने आप को शून्य करके मानव जाति के उद्धार के लिए संसार में देहधारी हो कर आए, और एक सामान्य मनुष्य के समान जीवन बिताया तथा दुःख उठाए: वरन अपने आप को ऐसा शून्य कर दिया, और दास का स्‍वरूप धारण किया, और मनुष्य की समानता में हो गया। और मनुष्य के रूप में प्रगट हो कर अपने आप को दीन किया, और यहां तक आज्ञाकारी रहा, कि मृत्यु, हां, क्रूस की मृत्यु भी सह ली” (फिलिप्पियों 2:7-8); परन्तु जितनों ने उसे ग्रहण किया, उसने उन्हें परमेश्वर के सन्तान होने का अधिकार दिया, अर्थात उन्हें जो उसके नाम पर विश्वास रखते हैं। वे न तो लोहू से, न शरीर की इच्छा से, न मनुष्य की इच्छा से, परन्तु परमेश्वर से उत्पन्न हुए हैं। और वचन देहधारी हुआ; और अनुग्रह और सच्चाई से परिपूर्ण हो कर हमारे बीच में डेरा किया, और हम ने उस की ऐसी महिमा देखी, जैसी पिता के एकलौते की महिमा” (यूहन्ना 1:12-14); “सो जब हमारा ऐसा बड़ा महायाजक है, जो स्‍वर्गों से हो कर गया है, अर्थात परमेश्वर का पुत्र यीशु; तो आओ, हम अपने अंगीकार को दृढ़ता से थामें रहे। क्योंकि हमारा ऐसा महायाजक नहीं, जो हमारी निर्बलताओं में हमारे साथ दुखी न हो सके; वरन वह सब बातों में हमारी समान परखा तो गया, तौभी निष्‍पाप निकला। इसलिये आओ, हम अनुग्रह के सिंहासन के निकट हियाव बान्‍धकर चलें, कि हम पर दया हो, और वह अनुग्रह पाएं, जो आवश्यकता के समय हमारी सहायता करे” (इब्रानियों 4: 14-16)। क्योंकि परमेश्वर में कभी कोई परिवर्तन नहीं होता है, उसे कभी भी किसी भी प्रकार से बदला, या झूठा अथवा कपटी, या नष्ट नहीं किया जा सकता है इसी लिए उसके लिखित प्रगटीकरण बाइबल को भी कभी भी, किसी के भी द्वारा, बदला, या झूठा अथवा दोगला, या नष्ट नहीं किया जा सकता है।

बाइबल अपने आप में अनुपम है, यह संसार के कैसे भी, कहीं के भी, कभी के भी, किसी के भी द्वारा लिखे गए धार्मिकता संबंधी लेखों से बिलकुल भिन्न और अतुल्य है; क्योंकि यह ऐसी पुस्तक नहीं है जिसे ज्ञान के लिए पढ़ा जाता है, वरन यह परमेश्वर का जीवित वचन है जो अपने पाठक के जीवन को पढ़ता है और उसके जीवन को उसके सामने अन्दर-बाहर संपूर्णतः खोल कर रख देता है। यह किसी धर्म से संबंधित पुस्तक नहीं है, वरन यह पापों से पश्चाताप और प्रभु यीशु में विश्वास करने तथा यह स्वीकार कर लेने से संबंधित है कि प्रभु यीशु ने अनंत उद्धार का एकमात्र संभव मार्ग एक ही बार में सदा के लिए उपलब्ध करवा दिया है। बाइबल ऐसे अनेकों व्यक्तित्वों के बारे में नहीं है जिन्हें यद्यपि ईश्वरीय गुणों वाला माना जाता है फिर भी जिनमें बताया गया है कि उन में परस्पर अहंकार से संबंधित तथा भावनात्मक समस्याएँ हैं, जिनमें परस्पर एक-दूसरे पर वर्चस्व और सामर्थ्य प्रमाणित करने की स्पर्धा देखी जाती है, जो मनुष्यों से उपासना पाने की होड़ में रहते हैं, जो मादक पेय और पदार्थों का सेवन करते हैं, तथा कामुक भावनाएं जागृत करने वाली गतिविधियों में आनन्द लेते हैं – अर्थात वे सभी बातें पाई जाती हैं जिन्हें मनुष्यों को करने के लिए मना किया जाता है जिससे मनुष्य धर्मी और भला बन सके। और इन ईश्वरीय गुणों वाले व्यक्तित्वों द्वारा मनुष्यों के पवित्र हो जाने के लिए निर्धारित धर्म के कामों, रीतियों, अनुष्ठानों, तपस्याओं आदि के करने पर भी ये व्यक्तित्व कभी यह देखने को तैयार नहीं होते हैं कि कोई भी मनुष्य किसी प्रकार से उनके समान या उनके स्तर तक पहुँच सके। यदि कोई मनुष्य कभी अपने किसी प्रयास से उनके स्तर के निकट पहुँचने लगता है तो तुरंत ही षड्यंत्र बनाए और कार्यान्वित किए जाते हैं जिससे वह मनुष्य किसी प्रकार से पाप में गिरकर फिर से नाशमान अस्तित्व में पहुँच जाए। वरन, बाइबल उस एकमात्र सच्चे और सिद्ध पवित्र परमेश्वर के बारे में है जो बुराई के साथ रहना या समझौता करना तो बहुत दूर की बात है, उसे देख भी नहीं सकता है, “तेरी आंखें ऐसी शुद्ध हैं कि तू बुराई को देख ही नहीं सकता, और उत्पात को देखकर चुप नहीं रह सकता; फिर तू विश्वासघातियों को क्यों देखता रहता, और जब दुष्ट निर्दोष को निगल जाता है, तब तू क्यों चुप रहता है?” (हबक्कूक 1:13)। परन्तु फिर भी वह पतित मानव जाति से इतना प्रेम करता है कि उसे बचा कर पुनः उसी सिद्ध स्वरूप में, जिसमें उसने मनुष्य को रचा था, लाना चाहता है, “फिर परमेश्वर ने कहा, हम मनुष्य को अपने स्वरूप के अनुसार अपनी समानता में बनाएं; और वे समुद्र की मछलियों, और आकाश के पक्षियों, और घरेलू पशुओं, और सारी पृथ्वी पर, और सब रेंगने वाले जन्तुओं पर जो पृथ्वी पर रेंगते हैं, अधिकार रखें। तब परमेश्वर ने मनुष्य को अपने स्वरूप के अनुसार उत्पन्न किया, अपने ही स्वरूप के अनुसार परमेश्वर ने उसको उत्पन्न किया, नर और नारी कर के उसने मनुष्यों की सृष्टि की। और परमेश्वर ने उन को आशीष दी: और उन से कहा, फूलो-फलो, और पृथ्वी में भर जाओ, और उसको अपने वश में कर लो; और समुद्र की मछलियों, तथा आकाश के पक्षियों, और पृथ्वी पर रेंगने वाले सब जन्तुओ पर अधिकार रखो” (उत्पत्ति 1: 26-28); “परन्तु जब हम सब के उघाड़े चेहरे से प्रभु का प्रताप इस प्रकार प्रगट होता है, जिस प्रकार दर्पण में, तो प्रभु के द्वारा जो आत्मा है, हम उसी तेजस्‍वी रूप में अंश अंश कर के बदलते जाते हैं” (2 कुरिन्थियों 3:18), और उसके लिए प्रावधान भी कर दिया है। यह वह पुस्तक है जो प्रोत्साहित करती है कि सारे संसार में जाकर मानव जाति के हित के सुसमाचार को सभी को बताया जाए, न कि मनुष्यों के लिए लाभकारी बातों को अपने तक सीमित कर के, छुपा कर रखा जाए, जिससे कि उनसे फिर लोगों से लाभ उठाया जाए या शोषण किया जाए।

बाइबल इस लिए भी संसार की किसी भी पुस्तक या लेख से अनुपम तथा अतुल्य है क्योंकि यह:
·         मनुष्य द्वारा अपने लिए अर्जित किए गए नाशमान लाभ के बारे में नहीं, वरन उस अनन्त जीवन तथा स्वर्गीय आशीषों के बारे में है जिन्हें परमेश्वर ने अपने प्रेम और अनुग्रह में मानव जाति को बिना किसी कीमत के प्रदान करना प्रस्तावित किया है।
·         लोगों को वर्गों और जातियों में बाँट कर उन्हें विभाजित कर के पृथक रखने के बारे में नहीं, वरन सभी लोगों को उद्धार तथा नया जन्म पाए हुए परमेश्वर की एक समान संतान बनाकर परमेश्वर के परिवार में एक करके जोड़ देने के बारे में है।
·         सांसारिक साम्राज्यों को स्थापित करने तथा औरों पर प्रभुता करने के बारे में नहीं, वरन प्रभु यीशु के समान नम्रता और प्रेम के साथ औरों की सहायता और सेवा करने के बारे में है।
·         संघर्षों और युद्धों को जीतने के बारे में नहीं, वरन दिलों को जीतने तथा लोगों के हृदयों में परमेश्वर के सिंहासन को लगाने के बारे में है।
·         नाश्मान वस्तुओं के ज्ञान को प्राप्त करने और उनमें उन्नत होने के बारे में नहीं, वरन उद्धार पाने परमेश्वर के प्रेम और अनुग्रह से एक ही बार सदा काल के लिए पाप के दुष्परिणाम से बचाए जाने के बारे में है;
·         क्योंकि यह सृजी गई वस्तुओं के बारे में नहीं, वरन सृजनहार प्रभु परमेश्वर के बारे में है जो मानवजाति को बचाने के लिए मनुष्य बन गया;
·         पापियों का नाश करने के बारे में नहीं, वरन उनसे प्रेम करने और उन्हें एक ही बार में अनन्तकाल के लिए बचा लेने के बारे में है।

इसलिए, बाइबल की तुलना संसार के किसी भी अन्य लेख से कर के बाइबल को गौण दिखाने का प्रयास करना ऐसे है जैसे रॉकेट विज्ञान पर एक उच्च प्रशंसा एवं मान्यता प्राप्त पाठ्य-पुस्तक को लेकर उसका इसलिए तिरस्कार कर के उसे एक ओर रख दिया जाए, क्योंकि उस पुस्तक में वर्णमाला के “क, ख, ग, घ...’ और बच्चों की कविताओं के सीखने के बारे में कुछ नहीं लिखा गया है बाइबल को लेकर ऐसा कोई भी विश्लेषण करने, कोई भी ऐसी तुलना करने या इस प्रकार का कोई भी निष्कर्ष निकालने के लिए कोई आधार है ही नहीं, कदापि नहीं।

संसार का कोई भी ज्ञान, कोई भी लेख, कभी बाइबल के कहीं भी निकट नहीं पहुँच सकता है क्योंकि बाइबल ही एक मात्र स्वर्ग की पुस्तक है, जो पृथ्वी के मनुष्यों को उनके छुटकारे के लिए प्रदान की गई है।