मेरा नाम अभयेन्द्र कुमार सिंह है। मैं रुड़की विश्वविद्यालय में मैकनिकल इंजीनियरिंग के तृतीय वर्ष का २१ वर्षीय छात्र हूँ। मेरा जन्म फीजी देश में हुआ, जो प्रशान्त महसागर में ३३८ टापुओं का एक समूह है। मेरी माँ एक धार्मिक और काफी पूजा-पाठ करने वाली स्त्री थी। फिर भी मेरे परिवार में बहुत पारिवारिक समस्याएं रहती थीं। मेरा बड़ा भाई दुष्ट आत्माओं द्वारा जकड़ा हुआ था जिसके कारण हमारे घर में बहुत क्लेश होता था। अचानक १९९४ में मेरे इसी बड़े भाई ने आत्म हत्या कर ली। इस बात ने मुझे बुरी तरह झिंझोड़ दिया और मेरे मन में ईश्वर के प्रति आस्था को कुचल डाला।
उन मुश्किल के दिनों में जब मैं हाई स्कूल का छात्र था, तब कुछ लोगों ने मेरे स्कूल में बाईबल के नए निय्म की कुछ प्रतियाँ बाँटीं। मैं जब जब उस नए नियम को पढ़ता था तब तब मुझे एक अजीब सी शाँति मिलती थी। इसके बाद मैं अपने कुछ दोस्तों के साथ एक प्रार्थना घर में जाने लगा। वहाँ पर सन्देश सुनने और नया नियम पढ़ने से मुझे प्रभु यीशु मसीह के प्रेम का एहसास होने लगा। प्रभु यीशु मसीह के क्रूस की गाथा मुझे बड़ी अजीब लगती थी। परन्तु धीरे धीरे मुझे बाईबल की इस सच्चाई पर विश्वास हो गया कि मैं एक पापी हूँ और प्रभु मेरे पापों के लिए क्रूस पर मारे गए, गाड़े गए और तीसरे दिन जी उठे। तब मैंने अपने पापों का पश्चाताप किया और प्रभु यीशु को अपने दिल में ग्रहण किया। मुझे विश्वास हो गया कि प्रभु ने मेरे सारे पापों को माफ कर दिया है। उसी क्षण मेरे जीवन में एक अद्भुत शान्ति आ गई।
उन्हीं दिनों मेरी बड़ी बहन ने भी प्रभु यीशु पर विश्वास करके अपने पापों से पश्चाताप किया, जिससे प्रभु यीशु पर मेरा विश्वास और भी मज़बूत हो गया। मैं हर रविवार को प्रभु के लोगों की संगति में जाने लगा। वहाँ मुझे बड़ा अद्भुत आनन्द मिलता था। परमेश्वर के अनुग्रह से १९९८ में जब मैं रुड़की विश्वविद्यालय में पढ़ने के लिए आया तो यहाँ पर भी मुझे प्रभु के लोगों की संगति मिल गई। यह सब पढ़ कर आप सोच रहे होंगे मैं प्रभु में आगे ही बढ़ते जा रहा था; लेकिन ऐसा नहीं था। अब मैं आपको अपने जीवन के उस दुखदायी हिस्से के बारे में बताना चाहता हूँ।
इन सब आशीशों के बाद भी मेरे जीवन में कई गलत समझौते सालों तक पनपते रहे, पर मैं उनको लापरवाही से लेता रहा। इन समझौतों के चलते मैं धीरे धीरे परमेश्वर के लोगों की संगति से दूर होने लगा और मेरा समय बुरे दोस्तों के साथ मौज मस्ती में बीतने लगा। मैंने शैतान को अपने जीवन में काम करने का खुला द्वार दे दिया, जिसके चलते मैं एक भयानक पाप में फँस गया जिसके बारे में बताते हुए मुझे आज भी बहुत शर्म आती है। मैं जानता था कि परमेश्वर की नज़रों में मैं दोषी हूँ, परन्तु फिर भी इस पाप में मैं गिरता चला गया। मेरे जीवन के इन भयानक दिनों में मैं बहुत मानसिक तनाव से दब गया, लेकिन मेरा दिल इतना कठोर हो चुका था कि मैं अपनी इस दुर्दशा से छुटकारा पाने के लिये प्रभु की ओर अपने हाथ नहीं फैला रहा था।
इन्हीं दिनों मेरे पिताजी का देहान्त हो गया और मेरा देश भी एक बड़े राजनैतिक संकट में पड़ गया। यह सारी विपरीत परिस्थितियाँ मिलकर मेरे सहने से बाहर हो रही थीं। गर्मियों की छुट्टियों में अपने परिवार से मिलने मैं फिजी गया लेकिन उन दिनों में भी मैंने परमेश्वर से और उसके वचन से मिलने का कोई प्रयास नहीं किया। अपनी मूर्खता में मैं यही सोचता रहा कि मैं खुद अपनी आत्म शक्ति से अपने पापों और विपरीत परिस्थितियों पर काबू पा लूँगा। मैं यह भूल गया कि शैतान और अंधकार की शक्तियाँ मेरी आत्म शक्ति से कहीं अधिक शक्तिशाली हैं।
जब मैं छुट्टियों के बाद वापस अपने विश्वविद्यलय लौट के आया तो वही पाप मुझे फिर से जकड़ने लगे। ऐसी बुरी हालत में भी प्रभु यीशु ने मुझे नहीं छोड़ा और मुझे अपना ही सर्वनाश करने से रोके रखा। इस बार प्रभु ने अपनी बड़ी दया से उन दोस्तों की संगति से अलग कर दिया जो मेरे पतन का कारण थे। अचानक वही दोस्त मेरे शत्रु बन गये और मैं बिल्कुल अकेला पड़ गया। इस अकेलेपन में मैं एक बार फिर परमेश्वर के वचन को पढ़ने लग गया और वह वचन मुझे उस गिरी हुई दशा से फिर से उठाने लगा।
मैंने फिर से अपने विश्वासी भाइयों की संगति में जाना शुरु कर दिया जो मेरे बुरे दिनों में भी, जब मैं प्रभु और उसके लोगों की संगति से दूर रहा, मेरे लिये प्रार्थना करते रहे। प्रभु ने मुझ भगौड़े बेटे को उसी प्रेम से फिर स्वीकार किया जैसे उसने मुझे पहले ग्रहण किया था। उसके वचन और संगति ने मुझे फिर से उभार कर खड़ा कर दिया।
आज जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूँ तो मेरा दिल खुशी से भर जाता है, यह सोच कर कि मैं कहाँ तक गिरा और उसने मुझे कहाँ से उठा लिया। कितना सच है उसका यह कथन “मैं तुझे कभी नहीं छोड़ूँगा और न कभी त्यागूँगा (इब्रानियों १३:५)।”
उन मुश्किल के दिनों में जब मैं हाई स्कूल का छात्र था, तब कुछ लोगों ने मेरे स्कूल में बाईबल के नए निय्म की कुछ प्रतियाँ बाँटीं। मैं जब जब उस नए नियम को पढ़ता था तब तब मुझे एक अजीब सी शाँति मिलती थी। इसके बाद मैं अपने कुछ दोस्तों के साथ एक प्रार्थना घर में जाने लगा। वहाँ पर सन्देश सुनने और नया नियम पढ़ने से मुझे प्रभु यीशु मसीह के प्रेम का एहसास होने लगा। प्रभु यीशु मसीह के क्रूस की गाथा मुझे बड़ी अजीब लगती थी। परन्तु धीरे धीरे मुझे बाईबल की इस सच्चाई पर विश्वास हो गया कि मैं एक पापी हूँ और प्रभु मेरे पापों के लिए क्रूस पर मारे गए, गाड़े गए और तीसरे दिन जी उठे। तब मैंने अपने पापों का पश्चाताप किया और प्रभु यीशु को अपने दिल में ग्रहण किया। मुझे विश्वास हो गया कि प्रभु ने मेरे सारे पापों को माफ कर दिया है। उसी क्षण मेरे जीवन में एक अद्भुत शान्ति आ गई।
उन्हीं दिनों मेरी बड़ी बहन ने भी प्रभु यीशु पर विश्वास करके अपने पापों से पश्चाताप किया, जिससे प्रभु यीशु पर मेरा विश्वास और भी मज़बूत हो गया। मैं हर रविवार को प्रभु के लोगों की संगति में जाने लगा। वहाँ मुझे बड़ा अद्भुत आनन्द मिलता था। परमेश्वर के अनुग्रह से १९९८ में जब मैं रुड़की विश्वविद्यालय में पढ़ने के लिए आया तो यहाँ पर भी मुझे प्रभु के लोगों की संगति मिल गई। यह सब पढ़ कर आप सोच रहे होंगे मैं प्रभु में आगे ही बढ़ते जा रहा था; लेकिन ऐसा नहीं था। अब मैं आपको अपने जीवन के उस दुखदायी हिस्से के बारे में बताना चाहता हूँ।
इन सब आशीशों के बाद भी मेरे जीवन में कई गलत समझौते सालों तक पनपते रहे, पर मैं उनको लापरवाही से लेता रहा। इन समझौतों के चलते मैं धीरे धीरे परमेश्वर के लोगों की संगति से दूर होने लगा और मेरा समय बुरे दोस्तों के साथ मौज मस्ती में बीतने लगा। मैंने शैतान को अपने जीवन में काम करने का खुला द्वार दे दिया, जिसके चलते मैं एक भयानक पाप में फँस गया जिसके बारे में बताते हुए मुझे आज भी बहुत शर्म आती है। मैं जानता था कि परमेश्वर की नज़रों में मैं दोषी हूँ, परन्तु फिर भी इस पाप में मैं गिरता चला गया। मेरे जीवन के इन भयानक दिनों में मैं बहुत मानसिक तनाव से दब गया, लेकिन मेरा दिल इतना कठोर हो चुका था कि मैं अपनी इस दुर्दशा से छुटकारा पाने के लिये प्रभु की ओर अपने हाथ नहीं फैला रहा था।
इन्हीं दिनों मेरे पिताजी का देहान्त हो गया और मेरा देश भी एक बड़े राजनैतिक संकट में पड़ गया। यह सारी विपरीत परिस्थितियाँ मिलकर मेरे सहने से बाहर हो रही थीं। गर्मियों की छुट्टियों में अपने परिवार से मिलने मैं फिजी गया लेकिन उन दिनों में भी मैंने परमेश्वर से और उसके वचन से मिलने का कोई प्रयास नहीं किया। अपनी मूर्खता में मैं यही सोचता रहा कि मैं खुद अपनी आत्म शक्ति से अपने पापों और विपरीत परिस्थितियों पर काबू पा लूँगा। मैं यह भूल गया कि शैतान और अंधकार की शक्तियाँ मेरी आत्म शक्ति से कहीं अधिक शक्तिशाली हैं।
जब मैं छुट्टियों के बाद वापस अपने विश्वविद्यलय लौट के आया तो वही पाप मुझे फिर से जकड़ने लगे। ऐसी बुरी हालत में भी प्रभु यीशु ने मुझे नहीं छोड़ा और मुझे अपना ही सर्वनाश करने से रोके रखा। इस बार प्रभु ने अपनी बड़ी दया से उन दोस्तों की संगति से अलग कर दिया जो मेरे पतन का कारण थे। अचानक वही दोस्त मेरे शत्रु बन गये और मैं बिल्कुल अकेला पड़ गया। इस अकेलेपन में मैं एक बार फिर परमेश्वर के वचन को पढ़ने लग गया और वह वचन मुझे उस गिरी हुई दशा से फिर से उठाने लगा।
मैंने फिर से अपने विश्वासी भाइयों की संगति में जाना शुरु कर दिया जो मेरे बुरे दिनों में भी, जब मैं प्रभु और उसके लोगों की संगति से दूर रहा, मेरे लिये प्रार्थना करते रहे। प्रभु ने मुझ भगौड़े बेटे को उसी प्रेम से फिर स्वीकार किया जैसे उसने मुझे पहले ग्रहण किया था। उसके वचन और संगति ने मुझे फिर से उभार कर खड़ा कर दिया।
आज जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूँ तो मेरा दिल खुशी से भर जाता है, यह सोच कर कि मैं कहाँ तक गिरा और उसने मुझे कहाँ से उठा लिया। कितना सच है उसका यह कथन “मैं तुझे कभी नहीं छोड़ूँगा और न कभी त्यागूँगा (इब्रानियों १३:५)।”
सारी शक्ति विश्वास में होती है अन्य किसी में नहीं !!
जवाब देंहटाएंपल पल सुनहरे फूल खिले , कभी न हो कांटों का सामना !
जिंदगी आपकी खुशियों से भरी रहे , दीपावली पर हमारी यही शुभकामना !!
संगीता जी, लेख पढ़ने और आपकी टिप्पणी के लिए धनयवाद।
जवाब देंहटाएंनम्र निवेदन है, केवल विश्वास की शक्ति ही नहीं वरन उसके साथ साथ किस पर विश्वास किया जाता है, यह भी देखना है।
सार्थक विश्वास यथार्थ पर ही आधारित हो सकता है, अन्यथा विश्वास निरर्थक और व्यर्थ है।
प्रभु यीशु ही वह अनन्त शाशवत सत्य है जो यथार्थ और सार्थक विश्वास की कसौटी पर खरा उतरता है।