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सोमवार, 27 अप्रैल 2020

पवित्र आत्मा पाना भाग 3 – विशेष प्रयास – प्रेरितों और अगुवों के सहायता से (3)



2. क्या पवित्र आत्मा प्रेरितों या कलीसिया के अगुवों की सहायता से मिलता है?

(भाग 3 – तीन उदाहरणों की समझ)


अब उपरोक्त संबंधित बातों के आधार पर इन तीन उदाहरणों को समझते हैं: पहली बात जो पहले ही कही जा चुकी है – इन में से किसी ने भी कभी भी पवित्र आत्मा को पाने के लिए कोई प्रार्थना, प्रयास, या इच्छा नहीं दिखाई; उन्हें जब पवित्र आत्मा दिया गया, वह परमेश्वर के समय, विधि और इच्छानुसार दिया गया। केवल एक ने ही पवित्र आत्मा को दूसरों को देने की सामर्थ्य पाने की इच्छा व्यक्त थी, शमौन टोनहा करने वाले ने, और उसका वास्तविक उद्धार ही नहीं हुआ था, और उसके यह कहने के लिए उसकी तीव्र निंदा की गई, उससे पश्चाताप करने के लिए कहा गया! दूसरी बात, यहूदियों से भिन्न ये तीनों वर्ग – सामरी, अन्य-जाति, और युहन्ना बपतिस्मा देने वाले के शिष्य, इन तीनों के मसीही विश्वास में आने और पवित्र आत्मा पाने का उल्लेख केवल प्रेरितों के कार्य – जो कि पहली मसीही मण्डली के आरंभिक कार्यों का इतिहास है, में ही दिया गया है। एक बार जब इन सभी वर्गों में से लोग आकर विश्वास के द्वारा प्रभु की कलीसिया, उसकी देह के साथ जुड़ गए, तो इसके बाद कभी भी किसी भी पत्री के लेखों में (जो सभी कलीसियाओं के सुधार और विकास के लिए पवित्र आत्मा के द्वारा अनेकों बातों, धारणाओं, परम्पराओं आदि को छोड़ने, सुधारने, या अपनाने के लिए बताए गए निर्देश हैं), कहीं भी यह शिक्षा नहीं दी गई है कि मसीही विश्वास में आने के बाद किसी भी विश्वासी को पवित्र आत्मा प्राप्त करने के लिए अलग से कुछ भी करने की आवश्यकता है, और न ही कहीं भिन्न मसीही विश्वासियों की भिन्न पृष्ठभूमि से होने के किसी महत्व के होने का कोई उल्लेख किया गया है। तीसरी बात, इन तीनों गैर-यहूदी समूहों के लोगों को उदाहरण बनाकर कभी भी, परमेश्वर के वचन में कहीं भी यह शिक्षा नहीं दी गई है, कि इनके समान ही, पवित्र-आत्मा पाने के लिए कलीसिया के किसी प्रेरित, या अगुवे, या किसी विशेष जन की किसी मध्यस्थता की कोई आवश्यकता है। पत्रियों में कलीसिया के अगुवों की जिम्मेदारियों को तो बताया और सिखाया गया है, किन्तु कहीं यह नहीं कहा गया है कि उन्हें लोगों को पवित्र आत्मा प्राप्त करने में सहायक भी होना चाहिए। चौथी बात, इन तीनों को आधार बना कर बाइबल में कभी भी कहीं पर भी ऐसी कोई शिक्षा तो दूर, हलका सा कोई संकेत भी नहीं आया है कि ये घटनाएं उदाहरण हैं कि पवित्र आत्मा पाने के लिए कुछ प्रतीक्षा, या कुछ विशेष करना पड़ता है, पवित्र आत्मा उद्धार पाते ही तुरंत ही नहीं मिल जाता है।

अर्थात, प्रेरितों के कार्य में उल्लेखित ये घटनाएं, उन विभिन्न गैर-यहूदी वर्गों के कलीसिया में यहूदियों के साथ ही मिला कर एक कर दिए जाने का प्रतिनिधित्व मात्र करने के उदाहरण थीं। एक बार जब कलीसिया सब प्रकार के लोगों से मिल कर एक बन गई तो फिर उन्हें किसी भी आधार पर अलग-अलग देखने की कोई आवश्यकता नहीं रह गई। इनमें तीसरी घटना में, पौलुस द्वारा यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले के शिष्यों से पूछा गया एक महत्वपूर्ण प्रश्न है, जो कि आरम्भ में दिए गए तर्क – पवित्र आत्मा वास्तविकता में उद्धार पाते, मसीही विश्वास में आते ही मिल जाता है, की एक और पुष्टि है। पौलुस ने पूछा, “...क्या तुम ने विश्वास करते समय पवित्र आत्मा पाया? उन्होंने उस से कहा, हम ने तो पवित्र आत्मा की चर्चा भी नहीं सुनी” (प्रेरितों के काम 19:2)। अर्थात पौलुस को यही स्वाभाविक आशा थी कि जब वे लोग मसीही विश्वास में आए थे, तो उन्होंने तब ही पवित्र आत्मा प्राप्त कर लिया होगा। किन्तु आगे के वार्तालाप (पद 3-7) से स्पष्ट होता है कि वास्तव में वे सच्चे मसीही विश्वास में आए ही नहीं थे, इसलिए पवित्र आत्मा पाने का तो प्रश्न ही नहीं उठता था। और जब वे पौलुस की सेवकाई के द्वारा वास्तव में वे लोग मसीही विश्वास में आए, तो उन्होंने पवित्र आत्मा भी तभी तुरंत ही पा लिया।

इसलिए इन उदाहरणों का यह कहने और सिखाने के लिए प्रयोग करना कि पवित्र आत्मा अलग से मिलता है, इस बात से संबंधित तथ्यों की गलत समझ रखना और व्याख्या करना है। यह ऐसे गलत निष्कर्ष निकलना और सिखाना है, जिनका परमेश्वर के वचन के आधार पर कोई समर्थन नहीं है। जब इन घटनाओं को भी उनके सही संदर्भ में और परमेश्वर के वचन की अन्य सम्बंधित शिक्षाओं के साथ देखा जाता है तो सत्य उजागर हो जाता है।

- क्रमशः

अगला लेख: क्या पवित्र आत्मा अगुवों या प्रेरितों द्वारा हाथ रखने से मिलता है?


रविवार, 26 अप्रैल 2020

पवित्र आत्मा पाना भाग 3 – विशेष प्रयास – प्रेरितों और अगुवों के सहायता से (2)



2. क्या पवित्र आत्मा प्रेरितों या कलीसिया के अगुवों की सहायता से मिलता है?

(भाग 2 – यहाँ पर ध्यान रखने योग्य संबंधित शिक्षाएं)


 किन्तु इस बात को थोड़ा सा विस्तार से देखने से पहले, कुछ संबंधित बातों पर ध्यान करने की आवश्यकता है:
समस्त कलीसिया की एकता: इसके लिए कृपया इफिसियों 2:12-22 ध्यान से, प्रार्थना पूर्वक, और बारंबार पढ़िए। इफिसियों के इस खंड में दी गई शिक्षा का सार यही है कि प्रभु यीशु द्वारा समस्त संसार के लिए उपलब्ध करवाए गए उद्धार और परमेश्वर के साथ मेल-मिलाप से पहले, संसार के मनुष्यों के मध्य परमेश्वर की व्यवस्था, उसकी शिक्षाएं और बातें, तथा परमेश्वर तक पहुँच की प्रणाली केवल यहूदियों के पास ही उपलब्ध थी। यह बात यहूदियों के लिए बड़े घमण्ड का विषय था, और इसके अंतर्गत वे अपने आप को संसार के अन्य सभी लोगों से बहुत बढ़कर समझते थे। किन्तु अब, प्रभु यीशु मसीह के द्वारा किए गए कार्य के उपरान्त, यह सारी बातें संसार के सभी लोगों के लिए उपलब्ध हो गई हैं, अब इन पर यहूदियों ही का एकाधिकार नहीं रहा है – अब सभी मसीही विश्वासी जन मसीह यीशु में विश्वास में आ जाने पर एक कर दिए गए हैं, मसीह यीशु में हो जाने के बाद यहूदियों और गैर-यहूदियों में कोई भिन्नता नहीं रही है, और सभी एक साथ मिलकर प्रभु यीशु और भविष्यद्वक्ताओं की शिक्षाओं की नींव पर पवित्र आत्मा के द्वारा परमेश्वर का निवास स्थान बनाए जा रहे हैं (इफिसियों 2:20-22) – एक ही शिक्षा पर, एक ही आत्मा के द्वारा, एक ही परमेश्वर के लिए, एक ही प्रकार के लोग, एकत्रित, कार्यान्वित, और उपयोगी किए जा रहे हैं (इफिसियों 4:4-6), बिना किसी भी प्रकार के किसी भी भेदभाव के।

एक किए जाने से पूर्व के सामाजिक वर्ग: मसीही विश्वासियों की प्रथम मण्डली स्थापित होने के समय में, इस्राएल के निवासियों के दृष्टिकोण से समाज के लोगों को मुख्यतः चार प्रकार के वर्गों में देखा जाता था – (1) यहूदी, जो परमेश्वर की चुनी हुई प्रजा थे; जिनके पास परमेश्वर की व्यवस्था, विधियां, वचन थे; जिनके पास परमेश्वर का मंदिर और उसकी उपासना और आराधना का दायित्व था; और इसलिए वे अपने आप को मनुष्यों में सर्वोच्च स्तर का समझते थे, उन्हें लगता था कि उनके समान कोई अन्य न तो है और न हो सकता है। (2) सामरी लोग, जो न तो पूर्णतः यहूदी थे, और न ही पूर्णतः अन्य-जाति वरन बीच में कहीं थे। यहूदी उन्हें अपने समान नहीं मानते थे, और वे सामरी, स्वयं को याकूब की संतान होने, तथा यहूदी व्यवस्था, आराधना, और विधियों के पालन करने वाले होने के कारण (यूहन्ना 4:9, 12, 20, 25), यहूदियों ही के समान अपने आप को अन्य-जाति लोगों से भिन्न समझते थे। (3) अन्य-जाति या गैर यहूदी, जिन्हें परमेश्वर के जन या कृपा के पात्र होने के योग्य भी नहीं समझा जाता था; यहूदी उन से कोई भी व्यवहार रखना अधर्म समझते थे (प्रेरितों 10:28)। (4) यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले के अनुयायी, जिनमें से निकलकर पतरस, अन्द्रियास आदि प्रभु के पास आए थे (यूहन्ना 1:35-42); यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले के चेले यहूदी तो थे, किन्तु यूहन्ना की शिक्षाओं के पीछे चल निकलने के कारण यहूदी मुख्य धारा से पृथक देखे जाते थे। इन सभी वर्गों के लोगों के पास परमेश्वर ने यहूदियों में से आए मसीही विश्वासियों, अर्थात, फिलिप्पुस, पतरस, यूहन्ना, और पौलुस को सुसमाचार के साथ भेजा, और उन यहूदी मसीहियों की सेवकाई में होकर उन लोगों ने भी वही पवित्र आत्मा पाया जो आरंभ में यहूदी विश्वासियों ने पाया था। उन के लिए यह होना परमेश्वर के वचन में प्रभु यीशु की बात की पुष्टि तथा परमेश्वर की इच्छानुसार हुआ कार्य कहा गया (प्रेरितों 11:15-18)।

कहने का अभिप्राय यह है कि परमेश्वर ने यहूदियों से भिन्न या नीचे समझे जाने वाले प्रत्येक वर्ग के लोगों को, यहूदियों के द्वारा ही, अपने साथ मिला लिया – जो इफिसियों 2:20-22 के व्यावहारिक प्रयोग का उदाहरण है – सब को एक देह में एक साथ, परमेश्वर का एक ही मंदिर होने के लिए जोड़ लिया। ऐसा करना इसलिए आवश्यक था, जिससे यहूदियों में से मसीही विश्वासी बने शिष्य भी यह स्वयं ही देख, समझ और मान लें कि अब प्रभु में होने के बाद न तो वे कोई विशेष हैं, और न ही गैर-यहूदी उनसे निचले स्तर के हैं (प्रेरितों 10:28, 35; 11:1-4, 18)। यदि यह बात और कार्य यहूदी मसीही विश्वासियों के समक्ष और उन ही के माध्यम से नहीं होता, और इसके विषय उन आरंभिक यहूदी विश्वासियों, प्रेरितों और कलीसिया के अगुवों, तथा अन्य मसीही विश्वासियों की समझ और धारणाएं नहीं सुधारी जाती और बदलतीं, तो उन और उन के बाद के यहूदी विश्वासियों के लिए यह स्वीकार करना बहुत कठिन होता कि गैर-यहूदी भी प्रभु यीशु में होकर उन ही के समान के स्तर के हो गए हैं, और उनके पास भी अब वही और वैसा ही पवित्र-आत्मा, तथा परमेश्वर की संतान होने का आदर है। और यदि यह नहीं होता तो उस स्थिति में, कलीसिया में आरम्भ ही से बहुत बड़ा विभाजन और मत-भेद हो जाता, जिसे बाद में पाट पाना बहुत कठिन होता। इस सन्दर्भ में, यह ध्यान देने योग्य बात है कि इतने प्रमाणों और स्पष्टीकरणों के बावजूद, आरंभिक कलीसिया में यह मतभेद तुरंत ही नहीं गया, भेदभाव फिर भी होता रहा (प्रेरितों 6:1); शैतान प्रभु के लोगों के मध्य विभाजन और झगड़े खड़े करने का कोई अवसर नहीं छोड़ता है।

- क्रमशः

अगला लेख: तीनों उदाहरणों की समझ

शनिवार, 25 अप्रैल 2020

पवित्र आत्मा पाना भाग 3 – विशेष प्रयास – प्रेरितों और अगुवों के सहायता से (1)



2. क्या पवित्र आत्मा प्रेरितों या कलीसिया के अगुवों की सहायता से मिलता है?

(भाग 1 – तीन उदाहरण)


कुछ अन्य उदाहरण जिनकी गलत व्याख्या और प्रयोग के द्वारा यह प्रमाणित करने का प्रयास किया जाता है कि पवित्र आत्मा अलग से पाया जाता है, प्रभु यीशु पर विश्वास करने से तुरंत ही नहीं मिल जाता है, हैं :
·         पतरस और यूहन्ना द्वारा सामरिया के लोगों को पवित्र आत्मा दिया जाना (प्रेरितों 8:14-17);
·         पतरस द्वारा अन्यजाति कुरनेलियुस के घर जा कर प्रचार करना, और उन अन्य-जाति लोगों का पवित्र आत्मा पाना (प्रेरितों अध्याय 10, 11);
·         पौलुस के द्वारा, यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले के शिष्यों को पवित्र आत्मा दिया जाना (प्रेरितों 19:1-7)।

किन्तु यहाँ भी यदि हम गलत व्याख्या करने से संबंधित उपरोक्त दोनों गलतियों में न पड़ने का ध्यान रखें, तो बात प्रगट हो जाती है कि ये उदाहरण भी कदापि यह नहीं सिखा रहे हैं कि पवित्र आत्मा अलग से, या प्रयास से, अथवा किसी प्रभु के सेवक की मध्यस्थता से दिया जाता – ध्यान कीजिए कि इन तीनों स्थितियों में से किसी एक भी स्थिति में पवित्र आत्मा प्राप्त करने वालों में से किसी एक ने भी पवित्र आत्मा पाने के लिए कोई निवेदन या प्रार्थना, या कोई अलग और विशेष प्रार्थना अथवा प्रयास नहीं किया; और न ही किसी भी प्रेरित या प्रभु के शिष्य ने उन में से किसी से भी पवित्र आत्मा प्राप्त करने की इच्छा व्यक्त करने के लिए कुछ कहा। उन सभी को पवित्र आत्मा स्वतः ही परमेश्वर की ओर से दिया गया; उन के अपने किसी आग्रह के अंतर्गत नहीं।

केवल एक था जिसने यह पवित्र आत्मा लोगों को देने का विशेष गुण मांगा था – सामरिया का शमौन टोनहा करने वाला, और कहने को तो उसने भी विश्वास किया और बपतिस्मा लिया था (प्रेरितों 8:13) किन्तु वह वास्तविक उद्धार पाया हुआ नहीं था! और उसकी इस इच्छा के लिए पतरस ने उसकी तीव्र भर्त्सना की, उसे अधर्म के बंधन में जकड़ा हुआ बताया, परमेश्वर से क्षमा प्राप्त करने के लिए पश्चाताप करने को कहा (प्रेरितों 8:18-23)। इस एक व्यक्ति के अतिरिक्त बाइबल में कोई अन्य नहीं है जिसने कभी पवित्र आत्मा के लिए कोई विशेष आग्रह किया हो, और न ही कोई प्रेरित अथवा शिष्य है जिसने किसी को कभी यह शिक्षा दी हो कि जिन्होंने उद्धार पाया है उन्हें पवित्र आत्मा पाने के लिए अलग से कुछ विशेष प्रयास, या प्रार्थना, या प्रतीक्षा करनी चाहिए। यह शिक्षा बाइबल के अनुसार है ही नहीं!
- क्रमशः

अगला लेख: यहाँ पर ध्यान रखने योग्य संबंधित शिक्षाएं

शुक्रवार, 24 अप्रैल 2020

पवित्र आत्मा पाना – 2 – विशेष प्रयास – माँगने से – लूका 11:13 (भाग 3)



क्या पवित्र आत्मा प्राप्त करने के लिए कुछ विशेष करना पड़ता है?

1. क्या पवित्र आत्मा प्रभु से मांगने से मिलता है? (लूका 11:13)

(संबंधित चौथी बात एवं निष्कर्ष)

(4) उपरोक्त बातों के आधार पर वह बहुत ही महत्वपूर्ण चौथी बात जिसे हमें बड़े ध्यान से समझना है और फिर जिसका हमें सावधानी से पालन करना चाहिए, वह है कि मसीही विश्वासी होने का दावा करने वालों में अवश्य ही कुछ ऐसे भी होंगे जो प्रभु और उसके वचन की परख के अनुसार सच्चे मसीही विश्वासी नहीं हैं, इसलिए उनमें पवित्र आत्मा की उपस्थिति कदापि नहीं होगी। इन अंत के दिनों के लिए प्रभु ने पहले से ही सचेत कर दिया है कि ऐसे बहुतेरे ‘विश्वासी’ आएँगे जो “भक्ति का भेस तो धरेंगे, किन्तु उसकी शक्ति को नहीं मानेंगे” (2 तीमुथियुस 3:5)। ऐसे लोग प्रभु यीशु के प्रति चाहे कितनी भी भक्ति या विश्वास रखने का दावा करते रहें, कितने भी समय से मसीही मंडली का भाग रहे हों, मंडली में कितने भी सक्रिय रहे हों; उनके द्वारा कैसे भी और कितने भी अद्भुत काम और प्रचार क्यों न हुए हों (मत्ती 7:21-23), वे वास्तव में प्रभु के शिष्य, उस के सच्चे समर्पित और आज्ञाकारी जन हैं ही नहीं। ऐसे लोग चाहे कितना भी मांग लें, किन्तु उन्हें पवित्र आत्मा तब तक मिलेगा ही नहीं जब तक कि वे सच्चे पश्चाताप, पापों के अंगीकार और क्षमा प्राप्ति, जीवन समर्पण, और वचन की आज्ञाकारिता के साथ वास्तव में प्रभु के जन न हो जाएं। इसके विपरीत ऐसे लोग भी होंगे जिन्होंने आरंभ से ही सच्चे मन से पश्चाताप किया, वास्तव में प्रभु यीशु के आज्ञाकारी हो गए, और प्रभु को सच में अपना जीवन समर्पण कर दिया; और इसलिए प्रभु का पवित्र आत्मा उनके मसीही विश्वास में आते ही तुरंत ही उनके अन्दर निवास तथा कार्य करने लग गया।

अब, वचन की संबंधित शिक्षाओं और वास्तविकता पर ध्यान किए बिना, मात्र बाहरी स्वरूप और दिखावे के लिए उनके द्वारा किए जाने वाले कार्यों के आधार पर, इस तथ्य की यह व्याख्या करना कि किसी को पवित्र आत्मा शीघ्र दे दिया जाता है, और किसी को विलम्ब से; इसलिए जिसे नहीं दिया गया है वह इसके लिए प्रार्थना, उपवास, या अन्य प्रयास करे और प्रभु से माँगे, प्रभु के सामने गिड़गिड़ाए, उन से प्रभु के नाम में झूठ बोल कर बात का बिलकुल गलत अर्थ प्रस्तुत करना है; लोगों को पवित्र आत्मा पाने के विषय बिलकुल गलत शिक्षा, जो कि परमेश्वर के वचन से बिलकुल मेल नहीं खाती है, देना और भरमाना है; उन्हें सच्चाई को पहचानने और उस का सामना करने में सहायता कर के बच जाने के स्थान पर, उन्हें नरक में धकेलना है। और ऐसा करने वाले सभी प्रचारकों, शिक्षकों, पादरियों, और कलीसिया के अगुवों से परमेश्वर हिसाब लेगा, वे बचेंगे नहीं (यहेजकेल 33:1-9)।

इसके विपरीत, बाइबल के तथ्यों के आधार पर, सभी प्रचारकों, शिक्षकों, पादरियों, और कलीसिया के अगुवों को सभी लोगों को यह समझाना और बताना चाहिए कि क्योंकि पवित्र आत्मा सभी मसीही विश्वासियों में उन के वास्तव में विश्वास में आते ही, बिना कोई अन्य प्रयास किए, स्वतः ही आ जाता है, और सदा उन के साथ बना रहता है, कभी छोड़ कर नहीं जाता है, इसलिए यदि उन्हें लगता है कि उनके अन्दर पवित्र आत्मा नहीं है, तो इसके दो ही अर्थ हो सकते हैं – या तो उन्होंने उसे पाया ही नहीं है; अर्थात उनका मसीही विश्वास में होने का दावा सही नहीं है, और उन्हें इसके लिए उपयुक्त पश्चाताप और समर्पण करना चाहिए। या फिर वे पवित्र आत्मा की आज्ञाकारिता और समर्पण में नहीं जी रहे हैं, जिस कारण से वह उनके जीवन में कार्यकारी नहीं हो रहा है। इसलिए या तो वे अपने उद्धार पाने को सुनिश्चित कर लें, या फिर यदि उनका उद्धार सच्चा है तो अपनी इच्छा के अनुसार करना छोड़ कर, परमेश्वर के वचन और पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन के अनुसार करना आरम्भ कर दें (गलातियों 5:25), जिससे वह उनके जीवन में कार्यकारी तथा प्रभावी हो सके। आवश्यकता पवित्र आत्मा को मांगने की नहीं है, आवश्यकता है सच में उद्धार पाने और फिर उसके प्रति समर्पित और आज्ञाकारी रहने की है।

 इसलिए लूका 11:13 को आधार बनाकर यह कहना कि पवित्र आत्मा प्रभु से मांगने से मिलता है, इसलिए हमें प्रभु से प्रार्थना का के पवित्र आत्मा मांगना चाहिए, प्रभु के कथन की गलत व्याख्या और समझ है। इस पद के आधार पर यह गलत शिक्षा देना अनुचित है। इस पद को उसके सही सन्दर्भ तथा सम्बंधित पदों के साथ देखने से ही उसकी बात की वास्तविकता समझी जा सकती है।

- क्रमशः

अगला विषय: विशेष प्रयास – प्रेरितों और अगुवों की सहायता – भाग 1

गुरुवार, 23 अप्रैल 2020

पवित्र आत्मा पाना – 2 – विशेष प्रयास – माँगने से – लूका 11:13 (भाग 2)



क्या पवित्र आत्मा प्राप्त करने के लिए कुछ विशेष करना पड़ता है?

1. क्या पवित्र आत्मा प्रभु से मांगने से मिलता है? (लूका 11:13)

(संबंधित तीसरी बात)


(3) तीसरी बात, इस देने और लेने को एक अन्य उदाहरण से भी समझिए; जब एक रोगी किसी डॉक्टर के पास जाकर उस से अपने रोग से चंगाई मांगता है, तो क्या चंगाई कोई डॉक्टर की मेज़ पर रखी वस्तु या उसकी जेब में रखी कोई टॉफी है जिसे डॉक्टर रोगी को पकड़ा देता है, और कहता “ले, दे दी तुझे चंगाई?” उसके पास सहायता प्राप्त करने के लिए आए उस रोगी को डॉक्टर अवश्य ही चंगाई देना चाहता है, देने के लिए तैयार भी है, किन्तु रोगी द्वारा उस चंगाई को प्राप्त करने की एक विधि, एक प्रक्रिया है, जिसके पालन के किए बिना, उस डॉक्टर के द्वारा वह चंगाई दे देना और रोगी के द्वारा उस चंगाई को प्राप्त कर लेना संभव नहीं है – इस प्रक्रिया में डॉक्टर रोगी की कुछ जांच करवाता है, उसके लिए उपयुक्त दवा लिखता है, कुछ परहेज़ बताता है, रोगी को इलाज के लिए उन दवाओं और परहेजों को एक निर्धारित समय तक तथा दिए गए निर्देशानुसार नियमित लेना होता है – अर्थात उस प्रक्रिया का सही पालन करना होता है, तब ही उसे चंगाई प्राप्त होती है। इसी प्रकार से, प्रभु भी अपने शिष्यों को उनकी सहायता के लिए पवित्र आत्मा देना चाहता है और देता है, क्योंकि मनुष्यों के लिए यही प्रभु यीशु की ओर से ठहराई गई पवित्र आत्मा की सेवकाई है (यूहन्ना 14:16-17, 26; 16:7-15)। अब फिर ध्यान कीजिए, जैसे लूका 11 में, वैसे ही यहाँ यूहन्ना 14 और 16 में भी यह बात चेलों के लिए ही कही गयी है।

अर्थात पवित्र आत्मा प्राप्त करना उनके लिए ही संभव है जो वास्तव में प्रभु के चेले हैं; किसी परिवार विशेष में जन्म लेने अथवा मनुष्यों द्वारा परमेश्वर के नाम में बनाए गए कुछ रीति-रिवाजों और अनुष्ठानों को पूरा करने के द्वारा नहीं, वरन वे जो अपने पापों के लिए हृदय से किए गए सच्चे पश्चाताप और प्रभु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, प्रभु को जीवन पूर्णतः समर्पण कर के, उस के वचन की आज्ञाकारिता के अनुसार प्रभु के लिए जीवन जीने के संकल्प कर लेने के द्वारा प्रभु का अनुसरण करने और उस के चेले बन जाने का निर्णय लिया है।

यह भी सच है कि हर एक जो शिष्य होने का दावा करता है वह वास्तव में शिष्य नहीं होता है। कई तो प्रभु के साथ केवल अपनी शारीरिक आवश्यकताओं के लिए जुड़ते हैं (यूहन्ना 6:26-27); बहुतों ने तो मसीही सेवकाई को शारीरिक कमाई का माध्यम बना लिया है, वे प्रभु के नाम को सांसारिक संपत्ति जमा करने के लिए प्रयोग करते हैं (रोमियों 16:18; 1 तीमुथियुस 6:5; 2 तीमुथियुस 3:4; तीतुस 1:11; 2 पतरस 2:3, 13; यहूदा 1:12, 16)। बहुतेरे प्रभु के साथ जुड़ते तो हैं किन्तु प्रभु पर सच्चा विश्वास नहीं करते हैं (यूहन्ना 6:36, 64; 8:30-31); और कई प्रभु की सभी शिक्षाओं को स्वीकार करने और उन सभी का पालन करने के लिए तैयार नहीं होते हैं (यूहन्ना 6:66)। कई लोग मंडलियों में प्रभु के जन बनकर तो रहते हैं पर वास्तव में होते शैतान के जन हैं (2 कुरिन्थियों 11:13-15), और मंडलियों में फूट, झगड़ों और परेशानियों का कारण होते हैं (प्रेरितों 20:29-31; 1 यूहन्ना 2:18-19; 2 तीमुथियुस 3:5, 8; 4:14; 3 यूहन्ना 1:9-11)। प्रभु ने स्पष्ट बताया है कि वास्तव में उनका चेला कौन है (यूहन्ना 8:31-32; 14:21, 23), और इन आयतों से यह स्पष्ट है कि सच्चा शिष्य या विश्वासी वही है जो प्रभु के वचन की आज्ञाकारिता में, प्रभु की इच्छा के अनुसार, और प्रभु को समर्पित जीवन व्यतीत करता है; न कि वह जो प्रभु के नाम में अपनी इच्छा के अनुसार चलता और करता रहता है।

प्रभु तो प्रत्येक मनुष्य के हाल को जानता है, उसे पता है कि कौन उसका है और कौन नहीं (यूहन्ना 2:25; 2 तीमुथियुस 2:19)। अब स्वाभाविक प्रश्न है कि क्या प्रभु परमेश्वर ऐसे सभी पवित्र आत्मा मांगने वालों को, जो प्रभु के लोग होने का स्वांग तो भरते हैं किन्तु वास्तव में हैं नहीं, पवित्र आत्मा यूं ही दे देगा? जिनके जीवनों में प्रभु के वचन और आज्ञाकारिता का स्थान नहीं है वे प्रभु के पवित्र आत्मा को कैसे प्राप्त करने पाएंगे? क्या इन्हें भी पवित्र आत्मा पाने के लिए वास्तव में उद्धार या नया जन्म पाए हुए प्रभु के प्रति सच्चे, आज्ञाकारी, और समर्पित शिष्य नहीं होना होगा? और ऐसा होने की प्रक्रिया तो एक ही है, वही जो इस लेख के आरंभ में उद्धार या नया जन्म पाने के लिए दी गई है। तात्पर्य यह कि, प्रभु अवश्य ही अपने विश्वासियों को पवित्र आत्मा देता है, किन्तु केवल उन्हें जिन्होंने वास्तव में उद्धार पाया है, जिनका सच में नया जन्म हो गया है, जो वास्तव में प्रभु की दृष्टि में उसके चेले हो गए हैं; अन्यथा नहीं।

- क्रमशः
अगला विष्य: संबंधित चौथी बात

बुधवार, 22 अप्रैल 2020

पवित्र आत्मा पाना – 2 – विशेष प्रयास – माँगने से – लूका 11:13 (भाग 1)



क्या पवित्र आत्मा प्राप्त करने के लिए कुछ विशेष करना पड़ता है?

1. क्या पवित्र आत्मा प्रभु से मांगने से मिलता है? (लूका 11:13)

(संबंधित पहली दो बातें)


बाइबल में कहीं भी ऐसा कोई निर्देश नहीं दिया गया है कि पवित्र आत्मा प्राप्त करने के लिए किसी भी मसीही विश्वासी को कोई विशेष प्रयास, प्रतीक्षा, प्रार्थना, योग्यता, या अवसर की आवश्यकता नहीं होती है। अकसर लूका 11:13 को आधार बना कर यह दावा किया जाता है कि स्वयं प्रभु यीशु ने कहा है कि पवित्र आत्मा माँगने से मिलता है। किन्तु ऐसा कहना बाइबल की इस बात की व्याख्या करने में भी वही दो गलतियाँ करना है, जो सामान्यतः बाइबल की लगभग सभी बातों की अनुचित व्याख्या एवं अनुचित प्रयोग करने के साथ की जाती है – पहली गलती, बात को उसके सन्दर्भ से बाहर ले कर, केवल कुछ ही शब्दों के अनुसार उसकी व्याख्या करना; तथा दूसरी गलती, उस बात या विचार से संबंधित बाइबल की अन्य शिक्षाओं एवं पदों का ध्यान न रखते हुए, बिना उन शिक्षाओं का उस व्याख्या में समावेश किए, एक विशेष धारणा को समर्थन देने के लिए केवल कुछ चुने हुए शब्दों, वाक्यांशों, और पदों का प्रयोग करना।

आईए प्रभु से मांगने के द्वारा पवित्र आत्मा मिलने की लूका 11:13 की बात को उसके सन्दर्भ में और अन्य संबंधित शिक्षाओं के साथ रख कर देखते हैं, और तब उनके अनुसार निष्कर्ष लेते हैं:

(1) लूका 11:13 को उसके सन्दर्भ, अर्थात लूका 11:1-13, के साथ देखने पर जो पहली बात हमारे सामने आती है, वह है, कि इस खण्ड में प्रभु यीशु मसीह द्वारा कही गई यह बात, उनके चेलों (लूका 11:1) के साथ हो रहे प्रभु के संवाद का भाग है – अभिप्राय यह है कि प्रभु यीशु ने पवित्र आत्मा मिलने की बात हर किसी के लिए नहीं कही, और न ही हर उस व्यक्ति के लिए कही है जो कोई भी प्रभु का जन होने, उस पर विश्वास करने का दावा करे; वरन प्रभु ने यह केवल उन के लिए ही कही है जो वास्तव में प्रभु के चेले हैं। इस बात को और इसके अर्थ एवं तात्पर्यों को समझना बहुत आवश्यक है। यदि इसे यूहन्ना 7:37-39 के साथ मिलाकर देखें तो यह और स्पष्ट हो जाता है कि पवित्र आत्मा केवल प्रभु यीशु मसीह पर विश्वास करने वालों, अर्थात प्रभु यीशु के शिष्यों को ही दिया जाना था, और वह भी भविष्य में; न कि उसी समय जब प्रभु ने यह बातें कहीं थी। आगे चलकर, क्रूस पर चढ़ाए जाने के लिए पकड़वाए जाने से पहले प्रभु ने सहायक के रूप में एक बार फिर केवल शिष्यों को ही, आने वाले समय में, पवित्र आत्मा दिए जाने की प्रतिज्ञा दी थी (यूहन्ना अध्याय 14, 16)। और अंततः जब प्रेरितों दो अध्याय में पवित्र आत्मा दिया गया तो वह केवल प्रभु के विश्वासियों या शिष्यों को ही दिया गया (प्रेरितों 2:1-4), जब कि वहां उस समय अनेकों “भक्त यहूदी” (प्रेरितों 2:5) विद्यमान थे। (इसकी और पुष्टि, कि यह केवल चेलों ही के लिए है, आगे के भागों भी दी गई है)।

(2) दूसरी बात जो हम देखते हैं, वह है कि प्रभु यहाँ शिष्यों को उदाहरण के द्वारा यह समझा रहे हैं कि यदि सांसारिक पिता अपनी संतान के लिए उत्तम दे सकता है, तो परमेश्वर पिता सर्वोत्तम, यहाँ तक कि पवित्र आत्मा भी क्यों नहीं दे देगा? प्रभु अपने शिष्यों को यहाँ लूका 11:5-13 पद में समझा रहा है कि वे अपनी आवश्यकताओं के लिए चिंतित न हों, वरन सदा अपना भरोसा परमेश्वर पर रखें कि समय और परिस्थिति के अनुसार, परमेश्वर पिता उनकी आवश्यकताओं को पूरा करता रहेगा। इस बात को पद 10-13 में वह और विशिष्ट रीति से समझाता है कि जैसे सांसारिक पिता अपनी संतान को यथासंभव अच्छा ही देते हैं, वैसे ही परमेश्वर पिता भी अपनी संतान को उनके लिए सदा सर्वोत्तम ही देगा। परमेश्वर द्वारा अपने लोगों को भली वस्तुएं देने की कोई सीमा नहीं है, यहाँ तक कि जो उसे मांगने का साहस रखने वाले होंगे वह उन्हें वह पवित्र आत्मा को भी, अर्थात परमेश्वर स्वयं अपने आप को, भी दे देगा।

ध्यान कीजिए, यहाँ पर इस पूरे वार्तालाप में ऐसा कहीं कोई संकेत नहीं है कि प्रभु चेलों को कोई निर्देश या आज्ञा दे रहे हैं कि “भविष्य में मेरे जो शिष्य परमेश्वर से उसे माँगेंगे केवल उन्हें ही पवित्र आत्मा प्राप्त होगा; या जो माँगेगा उसे ही पवित्र आत्मा दिया जाएगा।” अपने स्वर्गारोहण से पहले जब प्रभु ने इन्हीं चेलों से सेवकाई पर निकलने से पहले पवित्र आत्मा मिलने की प्रतीक्षा करने के लिए कहा, तब भी न तो किसी चेले ने प्रभु की इस पहले कही गई बात को लेकर कोई असमंजस व्यक्त किया या प्रश्न उठाया, और न ही किसी ने प्रभु की लूका 11:13 की बात के आधार पर प्रभु से तुरंत ही पवित्र आत्मा मांग लिया, जिससे कि वे सेवकाई पर निकल सकें। इससे प्रगट है कि प्रभु की इस बात यह अभिप्राय था ही नहीं, जो आज के कुछ प्रचारक इसे दे रहे हैं, कि पवित्र आत्मा माँगने से मिलता है। इसलिए इस बात को यह स्वरूप देना और सिखाना कि “प्रभु ने कहा है कि मांगने से ही पवित्र आत्मा मिलेगा” प्रभु के वचन का दुरुपयोग और अनुचित व्याख्या तथा शिक्षा देना है, भक्ति और आदर के भेस में वचन को झूठा ठहराना है।

यह पद एक तुलनात्मक उदाहरण के द्वारा किया गया चित्रण है कि सांसारिक पिता उत्तम देते हैं, इसलिए स्वाभाविक है कि स्वर्गीय परमेश्वर पिता सर्वोत्तम देगा; यहाँ तक कि पवित्र आत्मा भी देने को तैयार है – उसके प्रेम और दान देने की कोई सीमा नहीं है, वह मानव जाति के लिए स्वयं को भी उपलब्ध करने को तैयार है, यदि कोई लेने को तैयार हो।

- क्रमशः
अगला विष्य:  संबंधित तीसरी बात

सोमवार, 20 अप्रैल 2020

पवित्र आत्मा पाना - 1 - परिचय; कब, कैसे और किसे



पवित्र आत्मा पाने से संबंधित बातें - परिचय

यह लेख किसी मसीही मत या समुदाय की शिक्षाओं पर न तो आधारित है, और न ही किसी भी मत या समुदाय की शिक्षाओं को बढ़ावा देने, उनका प्रचार करने के लिए है। इस लेख का उद्देश्य केवल और पूर्णतः बाइबल के वचनों और शिक्षाओं के आधार पर परमेश्वर पवित्र आत्मा के विषय सामान्यतः प्रचलित गलत शिक्षाओं का विश्लेषण कर के उन शिक्षाओं के सत्य और असत्य को उजागर करना है।

जैसा कि आप यहाँ लिखी हुई बातों को पढ़ते हुए स्वयं ही समझ जाएंगे, परमेश्वर पवित्र आत्मा का प्रत्येक मसीही विश्वासी के जीवन में बहुत बड़ा महत्व है, और प्रत्येक मसीही विश्वासी के जीवन में पवित्र आत्मा की प्रभु यीशु मसीह की ओर से स्थापित बहुत बड़ी तथा अनिवार्य भूमिका है (यूहन्ना 16:7-13)। बिना पवित्र आत्मा की सामर्थ्य और मार्गदर्शन के कोई भी मसीही विश्वासी परमेश्वर के वचन बाइबल की शिक्षाओं को उनकी वास्तविकता में न तो समझ सकता है (1 कुरिन्थियों 2:11-14), और न उनमें दृढ़ एवं स्थापित हो सकता है (यूहन्ना 14:26), और न ही प्रभु के लिए कार्यकारी और उपयोगी हो सकता है (गलातियों 5:22-23 – जहां पवित्र आत्मा होगा, वहीं उसके फल भी होंगे)। क्योंकि बहुधा लोग पवित्र आत्मा की सामर्थ्य और उपयोगिता को समझते और स्वीकार नहीं करते हैं, इसलिए उनके मसीही जीवन आत्मिकता में निष्क्रिय और अप्रभावी, तथा प्रभु के लिए अनुपयोगी रहते हैं; और यह सामर्थ्यहीन एवं निष्क्रिय मसीही जीवन व्यतीत करते रहने के कारण लोग अपनी अनंतकाल तक के लिए उपयोगी आत्मिक आशीषें अर्जित करने से भी वंचित रह जाते हैं।

ऐसा इसलिए क्योंकि परमेश्वर पवित्र आत्मा के विषय सामान्यतः बहुत सी भ्रांतियां भी पाई जाती हैं, जिसके कारण मसीही विश्वासियों में असमंजस रहता है। बहुधा पवित्र आत्मा के नाम से दी जाने वाली गलत शिक्षाओं, लोगों पर उन गलत शिक्षाओं के विषय अनुचित ज़ोर देने के द्वारा, और उन लोगों के विचित्र तथा परमेश्वर के वचन से पूर्णतः असंगत व्यवहार के द्वारा, दुर्भाग्यवश इन गलतफहमियों को और भी अधिक बढ़ावा मिलता रहता है, जिस से लोग पवित्र आत्मा से संबंधित सही बातों और शिक्षाओं से और दूर होते रहते हैं। इन गलत शिक्षाओं के कारण कई मसीही तो पवित्र आत्मा की बातों के महत्व को सुनना, देखना या इस पर कोई वार्तालाप अथवा चर्चा ही नहीं करना चाहते हैं, क्योंकि उन्हें यह लगता है कि यह एक विशेष समुदाय की शिक्षा है, और जो उस समुदाय से संबंधित नहीं हैं, उनके लिए इसमें पड़ने की आवश्यकता भी नहीं है – किन्तु यह भी गलत है। जैसे परमेश्वर पवित्र आत्मा से संबंधित गलत शिक्षाओं को सिखाना और मानना गलत है, वैसे ही पवित्र आत्मा की बिलकुल अनदेखी कर देना, उस पर ध्यान न देना भी उतना ही गलत है।

यह लेख परमेश्वर पवित्र आत्मा से संबंधित सभी बातों पर नहीं है, वरन केवल पवित्र आत्मा को प्राप्त करने से संबंधित कुछ आधारभूत शिक्षाओं पर ही है; जिन को हम यहाँ निम्न शीर्षकों के अंतर्गत देखेंगे:

पवित्र आत्मा कब, कैसे, और किसे मिलता है?
क्या पवित्र आत्मा प्राप्त करने के लिए कुछ विशेष करना पड़ता है?
1. क्या पवित्र आत्मा प्रभु से मांगने से मिलता है? – (लूका 11:13); संबंधित चार बातें
2. क्या पवित्र आत्मा प्रेरितों या कलीसिया के अगुवों की सहायता से मिलता है?
(भाग 1 – तीन उदाहरण - प्रेरितों 8:14-17; अध्याय 10, 11; 19:1-7)
(भाग 2 – यहाँ पर ध्यान रखने योग्य संबंधित शिक्षाएं)
(भाग 3 – तीन उदाहरणों की समझ)
3. क्या पवित्र आत्मा अगुवों या प्रेरितों द्वारा हाथ रखने से मिलता है?
4. क्या पवित्र आत्मा प्राप्त करने के लिए प्रतीक्षा करनी पड़ती है?
5. पवित्र आत्मा पाने के लिए कुछ विशेष करना – निष्कर्ष
पवित्र आत्मा का बपतिस्मा क्या है?
पवित्र आत्मा से भरना या परिपूर्ण होना क्या है?
उपसंहार

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पवित्र आत्मा कब, कैसे, और किसे मिलता है?

परमेश्वर के वचन बाइबल की यह स्पष्ट शिक्षा है कि जैसे ही व्यक्ति मसीह यीशु में विश्वास में आता है, अर्थात जैसे ही व्यक्ति पापों से पश्चाताप करके, उनके लिए प्रभु यीशु से क्षमा मांग कर, अपना जीवन प्रभु यीशु को समर्पित करता है, प्रभु के अनुग्रह के द्वारा उद्धार पाता है, उसी पल से वह परमेश्वर की संतान हो जाता है (यूहन्ना 1:12-13), और उसी क्षण उसे न केवल प्रभु परमेश्वर की ओर से पवित्र आत्मा दे दिया जाता है (प्रेरितों 19:2; इफिसियों 1:13-14), वरन साथ ही में वह व्यक्ति पवित्र आत्मा का मंदिर बन जाता है और परमेश्वर पवित्र आत्मा उसमें सदा के लिए निवास करने लगता है (1 कुरिन्थियों 3:16; 6:19) – बिना किसी भेद-भाव के, प्रत्येक वास्तविक उद्धार पाने वाले मसीही विश्वासी में। साथ ही बाइबल की शिक्षाओं के आधार पर कृपया यह भी ध्यान कर लीजिए कि ‘अन्य-भाषाएँ’ बोलना पवित्र आत्मा पा लेने का प्रमाण कदापि नहीं है – क्योंकि अन्य-भाषा बोलना और आत्मिक वरदान अपने आप में एक वृहद विषय है, जिस पर हम अभी कोई चर्चा नहीं कर रहे हैं, इस लिए इस लेख में इसके विषय और कुछ नहीं कहा गया है। यदि प्रभु की इच्छा में हुआ और प्रभु ने अगुवाई और मार्गदर्शन दिया, तो इस के विषय फिर आगे कभी चर्चा करेंगे।

जिस पल व्यक्ति उद्धार पाता है, उसी पल से वह व्यक्ति प्रभु का हो जाता है (2 कुरिन्थियों 5:15, 17)। क्योंकि बिना पवित्र आत्मा के कोई भी वास्तव में यीशु को प्रभु नहीं कह सकता है (1 कुरिन्थियों 12:3), इसलिए परमेश्वर के वचन के अनुसार यह असंभव है कि कोई वास्तव में उद्धार पाए, वास्तविक मसीही विश्वासी हो जाए, वास्तव में यीशु को अपना प्रभु अर्थात स्वामी माने और कहे (लूका 6:46), किन्तु उसमें पवित्र आत्मा न हो। जो भी वास्तव में मसीह यीशु में विश्वास में होगा, पवित्र आत्मा भी उसे संचालित करने और सुरक्षित रखने के लिए उसमें अवश्य ही होगा (रोमियों 8:1-2, 9)। यदि ऐसा नहीं होगा तो फिर परमेश्वर का वचन झूठा हो जाएगा – जो कि नामुमकिन है।

क्योंकि पवित्र आत्मा परमेश्वर है इसलिए उसे किसी भी मानवीय अनुष्ठान अथवा विधि-विधान, या कार्यवाही के आधीन न तो लाया जा सकता है, और न ही इन बातों से उसे नियंत्रित अथवा निर्देशित किया जा सकता है। पवित्र आत्मा को अंशों में नहीं बाँटा जा सकता है, उसे या उसकी उपलब्ध मात्रा को घटाया या बढ़ाया नहीं जा सकता है, और न ही उसे किश्तों में उपलब्ध करवाया जा सकता है। इसलिए यदि वह किसी में है – तो है, अपनी संपूर्णता और परिपूर्णता में है; और नहीं है तो बिलकुल नहीं है! इसलिए वह सभी सच्चे मसीही विश्वासियों में सदा ही समान ही होता है, न किसी में कम और न किसी में अधिक; परमेश्वर कभी भी पवित्र आत्मा नाप-नाप कर नहीं देता है (यूहन्ना 3:34)। किन्तु, जैसा हम आगे देखेंगे, प्रत्येक सच्चे मसीही विश्वासी में पवित्र आत्मा की उपस्थिति होने पर भी, उस विश्वासी व्यक्ति के व्यवहारिक मसीही जीवन में होने वाला पवित्र आत्मा का प्रभावी प्रगटीकरण, उद्धार पाए हुए उस व्यक्ति के मसीही जीवन की आत्मिक परिपक्वता के अनुपात में होता है, और इसलिए वह कम या अधिक प्रतीत हो सकता है – पवित्र आत्मा अपनी सामर्थ्य ,अथवा गुणवत्ता या मात्रा में किसी में भी कम या अधिक नहीं होता है, वरन व्यक्ति का पवित्र आत्मा की आज्ञाकारिता और अधीनता में होकर कार्य और व्यवहार करना कम या अधिक होता है।

संक्षेप में, पवित्र आत्मा प्रत्येक सच्चे मसीही विश्वासी को उद्धार पाते ही तुरंत ही परमेश्वर की ओर से उसके मसीही जीवन को व्यतीत करने में सहायता, सुरक्षा, और सामर्थ्य देने के लिए दे दिया जाता है, और उस के जीवन भर उस में बना रहता है।
यह एक बहुत महत्वपूर्ण तथ्य है कि पवित्र आत्मा प्रत्येक वास्तव में उद्धार पाए हुए सच्चे मसीही विश्वासी में सदा ही विद्यमान है; लेकिन इस से भी अधिक महत्वपूर्ण तथ्य जिसे हम सभी को बड़े ध्यान से समझना है, और जिस के तात्पर्य को व्यावहारिक मसीही विश्वास में निःसंकोच लागू करना है, उपरोक्त तथ्य को विपरीत रीति से कहना है – कि जो वास्तव में उद्धार पाया हुआ और सच्चा मसीही विश्वासी नहीं है, उसमें पवित्र आत्मा भी विद्यमान नहीं है, और न कभी किसी भी प्रयास द्वारा होगा।
 मसीही विश्वासी परमेश्वर के वचन की आज्ञाकारिता में, मसीही विश्वास की बातों के पालन में, और पवित्र आत्मा के प्रति समर्पण में जितना परिपक्व होगा, पवित्र आत्मा की सामर्थ्य, फल, और कार्य भी उसके जीवन में उतने अधिक प्रगट होंगे।