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शुक्रवार, 27 मार्च 2020

उद्धार तथा पाप से मुक्ति – क्या और कैसे?



उद्धार प्राप्त करने का अर्थ है पाप के दुष्परिणामों – अनन्त काल की मृत्यु, अर्थात पृथ्वी के इस जीवन के उपरान्त अनन्त काल के लिए परमेश्वर से दूर हो कर नरक में, जहां से कभी कोई लौट कर वापस नहीं आ सकता है “और इन सब बातों को छोड़ हमारे और तुम्हारे बीच एक भारी गड़हा ठहराया गया है कि जो यहां से उस पार तुम्हारे पास जाना चाहें, वे न जा सकें, और न कोई वहां से इस पार हमारे पास आ सके” (लूका 16:26), चले जाने से बच जाना। बचाए जाने का अर्थ प्रभु यीशु मसीह में होकर अनन्त काल के लिए परमेश्वर के सम्मुख धर्मी ठहरना और परमेश्वर के साथ मेल-मिलाप  हो जाना है “सो जब हम विश्वास से धर्मी ठहरे, तो अपने प्रभु यीशु मसीह के द्वारा परमेश्वर के साथ मेल रखें।” “क्योंकि बैरी होने की दशा में तो उसके पुत्र की मृत्यु के द्वारा हमारा मेल परमेश्वर के साथ हुआ फिर मेल हो जाने पर उसके जीवन के कारण हम उद्धार क्यों न पाएंगे?” (रोमियों 5:1, 10)। उद्धार पाने या बचाए जाने के साथ ही प्राप्त होने वाले अन्य लाभ हैं परमेश्वर की संतान बन जाना “परन्तु जितनों ने उसे ग्रहण किया, उसने उन्हें परमेश्वर के सन्तान होने का अधिकार दिया, अर्थात उन्हें जो उसके नाम पर विश्वास रखते हैं। वे न तो लोहू से, न शरीर की इच्छा से, न मनुष्य की इच्छा से, परन्तु परमेश्वर से उत्पन्न हुए हैं” (यूहन्ना 1:12-13), तथा मसीह यीशु के संगी वारिस बन जाना “और यदि सन्तान हैं, तो वारिस भी, वरन परमेश्वर के वारिस और मसीह के संगी वारिस हैं, जब कि हम उसके साथ दुख उठाएं कि उसके साथ महिमा भी पाएं” (रोमियों 8:17)।

प्रत्येक मनुष्य पाप करने के स्वभाव और प्रवृति के साथ जन्म लेता है “मनुष्य है क्या कि वह निष्कलंक हो? और जो स्त्री से उत्पन्न हुआ वह है क्या कि निर्दोष हो सके?” (अय्यूब 15:14); और “देख, मैं अधर्म के साथ उत्पन्न हुआ, और पाप के साथ अपनी माता के गर्भ में पड़ा” (भजन 51:5)। पाप करना और अधर्मी होना हमारे अन्दर जन्म से विद्यमान प्रवृत्ति है जो हमारे आदि माता-पिता हव्वा और आदम के पाप के परिणामस्वरूप मनुष्य जाति में वंशानुगत रीति से है “इसलिये जैसा एक मनुष्य के द्वारा पाप जगत में आया, और पाप के द्वारा मृत्यु आई, और इस रीति से मृत्यु सब मनुष्यों में फैल गई, इसलिये कि सब ने पाप किया” (रोमियों 5:12)। जैसे कि एक डूबता हुआ मनुष्य अपने सिर के बालों से अपने आप को खींच कर स्वयं को पानी से बाहर नहीं निकाल सकता है, वैसे ही पाप से अपवित्र एवं अशुद्ध मनुष्य अपने किसी भी प्रयास से अपने आप को पवित्र एवं शुद्ध नहीं कर सकता है हम तो सब के सब अशुद्ध मनुष्य के से हैं, और हमारे धर्म के काम सब के सब मैले चिथड़ों के समान हैं। हम सब के सब पत्ते के समान मुर्झा जाते हैं, और हमारे अधर्म के कामों ने हमें वायु के समान उड़ा दिया है(यशायाह 64:6)। जैसे उस डूबते हुए मनुष्य को बचने के लिए बाहर से किसी की सहायता चाहिए होती है, उसी प्रकार से पाप में डूबे हुए मनुष्य को भी पाप से उभरने के लिए पाप से बाहर के किसी की सहायता की आवश्यकता होती है “जूफा से मुझे शुद्ध कर, तो मैं पवित्र हो जाऊंगा; मुझे धो, और मैं हिम से भी अधिक श्वेत बनूंगा” (भजन 51:7)।

पवित्र एवं निष्पाप परमेश्वर पाप के साथ संगति या समझौता नहीं कर सकता है – यह उसके स्वभाव तथा चरित्र के प्रतिकूल है “जब तुम मेरी ओर हाथ फैलाओ, तब मैं तुम से मुंह फेर लूंगा; तुम कितनी ही प्रार्थना क्यों न करो, तौभी मैं तुम्हारी न सुनूंगा; क्योंकि तुम्हारे हाथ खून से भरे हैं। परन्तु तुम्हारे अधर्म के कामों ने तुम को तुम्हारे परमेश्वर से अलग कर दिया है, और तुम्हारे पापों के कारण उस का मुँह तुम से ऐसा छिपा है कि वह नहीं सुनता।” “वे उस समय यहोवा की दोहाई देंगे, परन्तु वह उनकी न सुनेगा, वरन उस समय वह उनके बुरे कामों के कारण उन से मुंह फेर लेगा” (यशायाह 1:15; 59:2; मीका 3:4)। किन्तु वह अपनी सर्वश्रेष्ठ सृष्टि, मनुष्य, से बहुत प्रेम करता है और उस के साथ संगति रखना चाहता है – यद्यपि मनुष्य अब पाप में गिर चुका है। परमेश्वर न केवल प्रेमी है, वरन वह न्यायी भी है। वह पाप की यूं ही अनदेखी नहीं कर सकता है, परमेश्वर के न्याय की मांग है कि प्रत्येक पापी को अपने ही पाप के लिए परमेश्वर द्वारा निर्धारित दण्ड – मृत्य, अर्थात उससे पृथक हो जाने को सहना ही होगा “देखो, सभों के प्राण तो मेरे हैं; जैसा पिता का प्राण, वैसा ही पुत्र का भी प्राण है; दोनों मेरे ही हैं। इसलिये जो प्राणी पाप करे वही मर जाएगा। जो प्राणी पाप करे वही मरेगा, न तो पुत्र पिता के अधर्म का भार उठाएगा और न पिता पुत्र का; धर्मी को अपने ही धर्म का फल, और दुष्ट को अपनी ही दुष्टता का फल मिलेगा” (यहेजकेल 18:4, 20)। यदि मनुष्य को यह दण्ड सहना पड़े, तो फिर वह परमेश्वर के साथ संगति में कभी लौटने नहीं पाएगा; किन्तु परमेश्वर, अपने बड़े प्रेम के कारण, मनुष्य से संगति रखना चाहता है।

इस असंभव प्रतीत होने वाली विडंबना का समाधान भी परमेश्वर ने ही बनाया, जिससे उसके न्याय की मांग भी पूरी हो जाए और वह मनुष्य के साथ संगति भी रख सके। परमेश्वर ने स्वयं मनुष्य बनकर इस पृथ्वी पर प्रभु यीशु मसीह के रूप में जन्म लिया “आदि में वचन था, और वचन परमेश्वर के साथ था, और वचन परमेश्वर था। और वचन देहधारी हुआ; और अनुग्रह और सच्चाई से परिपूर्ण हो कर हमारे बीच में डेरा किया, और हम ने उस की ऐसी महिमा देखी, जैसी पिता के एकलौते की महिमा” (यूहन्ना 1:1, 14), और एक सामान्य मनुष्य के समान जीवन जीते हुए भी एक निष्पाप तथा निष्कलंक जीवन बिताया “क्योंकि हमारा ऐसा महायाजक नहीं, जो हमारी निर्बलताओं में हमारे साथ दुखी न हो सके; वरन वह सब बातों में हमारी समान परखा तो गया, तौभी निष्‍पाप निकला।” “सो ऐसा ही महायाजक हमारे योग्य था, जो पवित्र, और निष्‍कपट और निर्मल, और पापियों से अलग, और स्वर्ग से भी ऊंचा किया हुआ हो” (इब्रानियों 4:15; 7:26); “न तो उसने पाप किया, और न उसके मुंह से छल की कोई बात निकली” (1 पतरस 2:22); “और तुम जानते हो, कि वह इसलिये प्रगट हुआ, कि पापों को हर ले जाए; और उसके स्‍वभाव में पाप नहीं” (1 यूहन्ना 3:5)। प्रभु यीशु ने कभी कोई भी पाप नहीं किया, वे आजीवन पाप से अनजान रहे। फिर भी, प्रभु यीशु ने समस्त मानवजाति के सभी पापों को अपने ऊपर ले लिया, संसार के सभी मनुष्यों के पाप को अपना कर वे सभी मनुष्यों के लिए कलवारी के क्रूस पर पाप बन गए “जो पाप से अज्ञात था, उसी को उसने हमारे लिये पाप ठहराया, कि हम उस में हो कर परमेश्वर की धामिर्कता बन जाएं” (2 कुरिन्थियों 5:21), और मनुष्यों के स्थान पर उन्होंने स्वयं मृत्यु “क्योंकि मसीह का प्रेम हमें विवश कर देता है; इसलिये कि हम यह समझते हैं, कि जब एक सब के लिये मरा तो सब मर गए। और वह इस निमित्त सब के लिये मरा, कि जो जीवित हैं, वे आगे को अपने लिये न जीएं परन्तु उसके लिये जो उन के लिये मरा और फिर जी उठा” (2 कुरिन्थियों 5:14-15); तथा परमेश्वर से दूर होने को सह लिया “तीसरे पहर के निकट यीशु ने बड़े शब्द से पुकारकर कहा, एली, एली, लमा शबक्तनी अर्थात हे मेरे परमेश्वर, हे मेरे परमेश्वर, तू ने मुझे क्यों छोड़ दिया?” (मत्ती 27:46)। उन्होंने स्वेच्छा से तथा सब कुछ जानते हुए क्रूस पर अपना बलिदान दिया “पिता इसलिये मुझ से प्रेम रखता है, कि मैं अपना प्राण देता हूं, कि उसे फिर ले लूं। कोई उसे मुझ से छीनता नहीं, वरन मैं उसे आप ही देता हूं: मुझे उसके देने का अधिकार है, और उसे फिर लेने का भी अधिकार है: यह आज्ञा मेरे पिता से मुझे मिली है” (यूहन्ना 10:17-18)। वे मारे गए, गाड़े गए, और तीसरे दिन मृतकों में से जी उठ कर अपने ईश्वरत्व को प्रमाणित किया “उसी को, जब वह परमेश्वर की ठहराई हुई मनसा और होनहार के ज्ञान के अनुसार पकड़वाया गया, तो तुम ने अधर्मियों के हाथ से उसे क्रूस पर चढ़वा कर मार डाला। परन्तु उसी को परमेश्वर ने मृत्यु के बन्‍धनों से छुड़ाकर जिलाया: क्योंकि यह अनहोना था कि वह उसके वश में रहता।” “क्योंकि उसने एक दिन ठहराया है, जिस में वह उस मनुष्य के द्वारा धर्म से जगत का न्याय करेगा, जिसे उसने ठहराया है और उसे मरे हुओं में से जिलाकर, यह बात सब पर प्रामाणित कर दी है” (प्रेरितों 2:23-24; 17:31)।

क्योंकि केवल प्रभु यीशु ही हैं जिन्होंने मानवजाति के पापों का स्थाई और उचित समाधान प्रदान किया है, इसलिए मनुष्यों के लिए उद्धार भी केवल प्रभु यीशु मसीह में हो कर ही है, किसी अन्य के द्वारा नहीं, “और किसी दूसरे के द्वारा उद्धार नहीं; क्योंकि स्वर्ग के नीचे मनुष्यों में और कोई दूसरा नाम नहीं दिया गया, जिस के द्वारा हम उद्धार पा सकें” (प्रेरितों 4:12)। अब संसार के सभी मनुष्यों के लिए प्रभु यीशु द्वारा कलवारी के क्रूस पर किए गए कार्य के द्वारा उद्धार का मार्ग खुला है, और यह सभी के लिए मुफ्त में उपलब्ध भी है “पर जैसा अपराध की दशा है, वैसी अनुग्रह के वरदान की नहीं, क्योंकि जब एक मनुष्य के अपराध से बहुत लोग मरे, तो परमेश्वर का अनुग्रह और उसका जो दान एक मनुष्य के, अर्थात यीशु मसीह के अनुग्रह से हुआ बहुतेरे लागों पर अवश्य ही अधिकाई से हुआ। और जैसा एक मनुष्य के पाप करने का फल हुआ, वैसा ही दान की दशा नहीं, क्योंकि एक ही के कारण दण्ड की आज्ञा का फैसला हुआ, परन्तु बहुतेरे अपराधों से ऐसा वरदान उत्पन्न हुआ, कि लोग धर्मी ठहरे। क्योंकि जब एक मनुष्य के अपराध के कारण मृत्यु ने उस एक ही के द्वारा राज्य किया, तो जो लोग अनुग्रह और धर्म रूपी वरदान बहुतायत से पाते हैं वे एक मनुष्य के, अर्थात यीशु मसीह के द्वारा अवश्य ही अनन्त जीवन में राज्य करेंगे। इसलिये जैसा एक अपराध सब मनुष्यों के लिये दण्ड की आज्ञा का कारण हुआ, वैसा ही एक धर्म का काम भी सब मनुष्यों के लिये जीवन के निमित धर्मी ठहराए जाने का कारण हुआ” (रोमियों 5:15-18)।

अब अपने पापों से क्षमा तथा उद्धार पाने के लिए किसी भी मनुष्य को प्रभु यीशु पर विश्वास करके, उनसे अपने पापों की क्षमा मांगकर अपना जीवन उन्हें समर्पित करने के अतिरिक्त और कुछ भी करने की कोई भी आवश्यकता नहीं है “उन्होंने कहा, प्रभु यीशु मसीह पर विश्वास कर, तो तू और तेरा घराना उद्धार पाएगा” (प्रेरितों 16:31)। उद्धार हर किसी के लिए, वह चाहे किसी भी धर्म (चाहे वे इसाई धर्म का पालन करने वाले ही क्यों न हों), जाति, स्थान, रंग, शिक्षा, सांसारिक स्तर, या कुछ भी, कोई भी हो – केवल स्वयं पश्चाताप, अर्थात अपने पापी होने और पाप के दुष्परिणामों का सच्चे मन से एहसास करके, अपने पापों को स्वीकार करने, तथा स्वेच्छा से प्रभु यीशु से उन पापों के लिए क्षमा मांगने और उसे अपना जीवन समर्पित करने के द्वारा ही संभव है “पतरस ने उन से कहा, मन फिराओ, और तुम में से हर एक अपने अपने पापों की क्षमा के लिये यीशु मसीह के नाम से बपतिस्मा ले; तो तुम पवित्र आत्मा का दान पाओगे” (प्रेरितों 2:38), अन्यथा नहीं । उद्धार पाने या बचाए जाने को ही नया जन्म पाना भी कहते हैं – सांसारिक और नश्वर जीवन में से निकल कर आत्मिक और अविनाशी जीवन में जन्म ले लेना; और बिना नया जन्म पाए कोई भी स्वर्ग में न तो प्रवेश कर सकता है और न ही उसे देख भी सकता है “यीशु ने उसको उत्तर दिया; कि मैं तुझ से सच सच कहता हूं, यदि कोई नये सिरे से न जन्मे तो परमेश्वर का राज्य देख नहीं सकता। नीकुदेमुस ने उस से कहा, मनुष्य जब बूढ़ा हो गया, तो क्योंकर जन्म ले सकता है? क्या वह अपनी माता के गर्भ में दुसरी बार प्रवेश कर के जन्म ले सकता है? यीशु ने उत्तर दिया, कि मैं तुझ से सच सच कहता हूं; जब तक कोई मनुष्य जल और आत्मा से न जन्मे तो वह परमेश्वर के राज्य में प्रवेश नहीं कर सकता” (यूहन्ना 3:3-5); “हे भाइयों, मैं यह कहता हूं कि मांस और लोहू परमेश्वर के राज्य के अधिकारी नहीं हो सकते, और न विनाश अविनाशी का अधिकारी हो सकता है।” “क्योंकि अवश्य है, कि यह नाशमान देह अविनाश को पहिन ले, और यह मरनहार देह अमरता को पहिन ले। और जब यह नाशमान अविनाश को पहिन लेगा, और यह मरनहार अमरता को पहिन लेगा, तब वह वचन जो लिखा है, पूरा हो जाएगा, कि जय ने मृत्यु को निगल लिया” (1 कुरिन्थियों 15:50,53-54)। यह उद्धार अर्थात बचाया जाना या नया जन्म प्राप्त करना किसी धर्म का पालन करने से अथवा परिवार के अनुसार मिलने वाली, या उत्तराधिकार में प्राप्त होने वाली, या वंशागत बात नहीं है; और न ही यह किन्हीं कर्मों को करने या कोई रीति-रिवाज़ पूरे करने अथवा परंपराओं या विधि-विधानों के निर्वाह द्वारा होता है, यह केवल परमेश्वर के अनुग्रह के द्वारा और विश्वास, केवल मसीह यीशु में विश्वास से ही संभव है “जब हम अपराधों के कारण मरे हुए थे, तो हमें मसीह के साथ जिलाया; (अनुग्रह ही से तुम्हारा उद्धार हुआ है।) और मसीह यीशु में उसके साथ उठाया, और स्‍वर्गीय स्थानों में उसके साथ बैठाया। कि वह अपनी उस कृपा से जो मसीह यीशु में हम पर है, आने वाले समयों में अपने अनुग्रह का असीम धन दिखाए। क्योंकि विश्वास के द्वारा अनुग्रह ही से तुम्हारा उद्धार हुआ है, और यह तुम्हारी ओर से नहीं, वरन परमेश्वर का दान है। और न कर्मों के कारण, ऐसा न हो कि कोई घमण्‍ड करे” (इफिसियों 2:5-9)।

प्रत्येक व्यक्ति को अपने पापों के लिए स्वयं नया जन्म लेना होता है। जो भी प्रभु यीशु पर स्वेच्छा तथा सच्चे मन से विश्वास करके, उनसे अपने पापों के लिए स्वयं क्षमा मांगता है, अपना जीवन उन्हें समर्पित कर के, उनका शिष्य होकर, उनकी आज्ञाकारिता में जीवन व्यतीत करने की ठान लेता है, केवल वही पापों से क्षमा प्राप्त करके उनके दुष्परिणामों से बचाया जाता, अर्थात उद्धार पाता है, और परमेश्वर की संतान होने, तथा उसके साथ अनन्त काल के लिए स्वर्ग में रहने का आदर प्राप्त करता है “क्योंकि पाप की मजदूरी तो मृत्यु है, परन्तु परमेश्वर का वरदान हमारे प्रभु मसीह यीशु में अनन्त जीवन है” (रोमियों 6:23)।

यही उद्धार या बचाया जाना है - पापों से मुक्ति तथा मृत्यु, अर्थात पापों के कारण मिलने वाली नरक की अनन्त घोर पीड़ा, और परमेश्वर से सदा काल के लिए पृथक होने, से निकलकर प्रभ यीशु मसीह पर लाए गए विश्वास के द्वारा परमेश्वर के साथ अनन्त काल के परमानन्द के अनन्त जीवन में प्रवेश करना।

इसलिए उद्धार प्राप्त करने के लिए, परमेश्वर के एकमात्र सच्चे, अचूक और अटल, दोषरहित, और अपरिवर्तनीय वचन – बाइबल के अतिरिक्त किसी अन्य पर लेश-मात्र भी भरोसा न करें, और अपने अनन्तकाल को सुरक्षित कर लेने के लिए ऊपर दिए गए कदम को विश्वास के साथ उठाएं। यह करने से आपके पास खो देने के लिए सिवाय आपके पापों और नरक में अनन्तकाल के अतिरक्त और कुछ नहीं है, वरन आपके पास अनन्तकाल के लिए स्वर्ग में पा लेने के लिए सब कुछ है। आप यह अभी इसी समय कर सकते हैं; आपको इसके लिए किसी अन्य व्यक्ति की उपस्थिति अथवा सहायता की भी कोई आवश्यकता नहीं है। नया जन्म या उद्धार पाने  के लिए आपको बस सच्चे समर्पित मन से, एक सीधी सी प्रार्थना करनी है, जो कुछ इस प्रकार से हो सकती है, “प्रभु यीशु मैं आप में तथा आपके द्वारा कलवरी के क्रूस पर मेरे पापों की कीमत चुकाए जाने में विश्वास करता हूँ। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, और मुझे स्वीकार कर लें। मैं अपना जीवन आपको पूर्णतः समर्पित करता हूँ। कृपया मेरी सहायता करें की मैं अपना जीवन आपकी तथा आपके वचन – बाइबल की आज्ञाकारिता में व्यतीत कर सकूँ।” बस इतना ही, कोई रीति-रिवाज़ नहीं, किसी प्रकार के कोई कर्म या कार्य नहीं, किसी व्यक्ति के प्रति किसी भी प्रकार की कोई कृतज्ञता नहीं, बस सच्चे मन और खराई से, सामान्य विश्वास के द्वारा, प्रभु यीशु के साथ संबंध में आ जाना।

गुरुवार, 19 मार्च 2020

मसीही विश्वास का आधार – संक्षेप में



बाइबल परमेश्वर का एकमात्र, अनंत, पूर्णतया दोष-रहित, कभी गलत नहीं ठहरने वाला, कभी न बदलने या बदला जा सकने वाला वचन है: “तेरा सारा वचन सत्य ही है; और तेरा एक एक धर्ममय नियम सदा काल तक अटल है” (भजन 119:160)। यह अनन्त काल के लिए स्वर्ग में स्थापित है: “हे यहोवा, तेरा वचन, आकाश में सदा तक स्थिर रहता है (भजन 119:89), और स्वयं प्रभु यीशु के अपने शब्दों में, अंत के समय, हम इसी वचन के द्वारा जांचे जाएंगे: “जो मुझे तुच्छ जानता है और मेरी बातें ग्रहण नहीं करता है उसको दोषी ठहराने वाला तो एक है: अर्थात जो वचन मैं ने कहा है, वही पिछले दिन में उसे दोषी ठहराएगा” (यूहन्ना 12:48).

बाइबल को वचन भी कहा जाता है और यह स्वयं परमेश्वर का लिखित रूप में प्रकटीकरण है: “आदि में वचन था, और वचन परमेश्वर के साथ था, और वचन परमेश्वर था” (यूहन्ना 1:1)। प्रभु यीशु मानव रूप में परमेश्वर का अवतार, जीवित वचन हैं, “और वचन देहधारी हुआ; और अनुग्रह और सच्चाई से परिपूर्ण हो कर हमारे बीच में डेरा किया, और हम ने उस की ऐसी महिमा देखी, जैसी पिता के एकलौते की महिमा” (यूहन्ना 1:14), और वे उनकी उपाधिपरमेश्वर का पुत्र के द्वारा भी जाने जाते हैं जो बस प्रभु को संबोधित करने की एक उपाधि है; यह परमेश्वर के साथ उनके किसी पारिवारिक संबंध को नहीं दिखाती है: “स्वर्गदूत ने उसको उत्तर दिया; कि पवित्र आत्मा तुझ पर उतरेगा, और परमप्रधान की सामर्थ्य तुझ पर छाया करेगी इसलिए वह पवित्र जो उत्पन्न होनेवाला है, परमेश्वर का पुत्र कहलाएगा” (लूका 1:35)। बाइबल की विषय-वस्तु प्रभु यीशु हैं, और उनके बारे हमारी जानकारी के लिए जो भी आवश्यक है वह सब बाइबल में दिया गया है। अपने पृथ्वी के समय में प्रभु यीशु ने पापों से पश्चाताप और परमेश्वर के राज्य के बारे में प्रचार किया: “…यीशु ने गलील में आकर परमेश्वर के राज्य का सुसमाचार प्रचार किया। और कहा, समय पूरा हुआ है, और परमेश्वर का राज्य निकट आ गया है; मन फिराओ और सुसमाचार पर विश्वास करो ” (मरकुस 1:14-15); और वे सब के लिए भलाई करते रहेपरमेश्वर ने किस रीति से यीशु नासरी को पवित्र आत्मा और सामर्थ्य से अभिषेक किया: वह भलाई करता, और सब को जो शैतान के सताए हुए थे, अच्छा करता फिरा; क्योंकि परमेश्वर उसके साथ था” (प्रेरितों 10:38).

उनके अपने शब्दों में, प्रभु यीशु इस संसार में पापियों को बचाने आए थे: “मैं धर्मियों को नहीं, परन्तु पापियों को मन फिराने के लिये बुलाने आया हूं” (लूका 5:32)। वे संसार को पापों के दुष्परिणाम से बचाने के लिए आए थे: “क्योंकि परमेश्वर ने जगत से ऐसा प्रेम रखा कि उसने अपना एकलौता पुत्र दे दिया, ताकि जो कोई उस पर विश्वास करे, वह नाश न हो, परन्तु अनन्त जीवन पाए। परमेश्वर ने अपने पुत्र को जगत में इसलिए नहीं भेजा, कि जगत पर दंड की आज्ञा दे परन्तु इसलिए कि जगत उसके द्वारा उद्धार पाए। जो उस पर विश्वास करता है, उस पर दंड की आज्ञा नहीं होती, परन्तु जो उस पर विश्वास नहीं करता, वह दोषी ठहर चुका; इसलिए कि उसने परमेश्वर के एकलौते पुत्र के नाम पर विश्वास नहीं किया” (यूहन्ना 3:16-18)। हमें हमारे पापों से बचाने के लिए, यद्यपि उन्होंने निष्पाप जीवन जीया था: “न तो उसने पाप किया, और न उसके मुंह से छल की कोई बात निकली” (1 पतरस 2:22), फिर भी उन्होंने संसार के सभी लोगों के समस्त पाप अपने ऊपर ले लिए, और अपने प्राण बलिदान कर के उनका दण्ड चुका दिया, और फिर अपने परमेश्वर होने के प्रमाण स्वरूप, वे तीसरे दिन मृतकों में से जीवित हो उठे: “उसी ने अपने आप को हमारे पापों के लिये दे दिया, ताकि हमारे परमेश्वर और पिता की इच्छा के अनुसार हमें इस वर्तमान बुरे संसार से छुड़ाए” (गलातियों 1:4); “…पवित्र शास्त्र के वचन के अनुसार यीशु मसीह हमारे पापों के लिये मर गया। ओर गाड़ा गया; और पवित्र शास्त्र के अनुसार तीसरे दिन जी भी उठा” (1 कुरिन्थियों 15:3-4)। अब, जो कोई भी, वह चाहे किसी भी देश, जाति, रंग, शैक्षिक स्तर, या सांसारिक ओहदे का हो या अन्य किसी भी सांसारिक आधार के होते हुए भी, अपनी इच्छा के द्वारा सच्चे और नम्र मन से प्रभु यीशु द्वारा पापों की क्षमा प्राप्त करने के लिए किए गए कार्य को स्वीकार कर लेता है, पश्चाताप कर के उन से पापों के लिए क्षमा माँगता है, और स्वेच्छा से अपना जीवन प्रभु यीशु को समर्पित कर देता है, वह तुरंत ही सदा काल के लिए पापों से क्षमा पा लेता है और परमेश्वर की संतान हो जाता है: “परन्तु जितनों ने उसे ग्रहण किया, उसने उन्हें परमेश्वर के सन्तान होने का अधिकार दिया, अर्थात उन्हें जो उसके नाम पर विश्वास रखते हैं। वे न तो लोहू से, न शरीर की इच्छा से, न मनुष्य की इच्छा से, परन्तु परमेश्वर से उत्पन्न हुए हैं” (यूहन्ना 1:12-13); इस एक साधारण से विश्वास के कार्य के द्वारा जिसमें किसी भी मानवीय कार्य, या अनुष्ठान, या किसी भी अन्य मनुष्य की कोई भी मध्यस्थता की कोई आवश्यकता नहीं है: “क्योंकि विश्वास के द्वारा अनुग्रह ही से तुम्हारा उद्धार हुआ है, और यह तुम्हारी ओर से नहीं, वरन परमेश्वर का दान है। और न कर्मों के कारण, ऐसा न हो कि कोई घमण्ड करे” (इफिसियों 2:8-9)। कोई भी, कभी भी, कहीं भी आप भी, इसी समय, अपने लिए यह कर सकते हैं: “यदि तू अपने मुंह से यीशु को प्रभु जान कर अंगीकार करे और अपने मन से विश्वास करे, कि परमेश्वर ने उसे मरे हुओं में से जिलाया, तो तू निश्चय उद्धार पाएगा। क्योंकि धामिर्कता के लिये मन से विश्वास किया जाता है, और उद्धार के लिये मुंह से अंगीकार किया जाता है” (रोमियों 10:9-10), सच्चे मन से की गई विश्वास की प्रार्थना के द्वारा, कि : “प्रभु यीशु कृपया मेरे पापों को क्षमा करें और मुझे स्वीकार कर लें। मैं अपना जीवन आपके हाथों में समर्पित करता हूँ।उद्धार का उनका यह प्रस्ताव पूर्णतः मुफ्त है तथा सभी के लिए खुला है, उनके पाप चाहे कैसे भी और कितने भी जघन्य क्यों न हों प्रभु की क्षमा मनुष्य की किसी भी निकृष्टता या पाप की सीमा से कहीं बढ़कर है।

प्रभु यीशु ही परमेश्वर तक पहुंचने का एकमात्र मार्ग हैं, “यीशु ने उस से कहा, मार्ग और सच्चाई और जीवन मैं ही हूं; बिना मेरे द्वारा कोई पिता के पास नहीं पहुंच सकता” (यूहन्ना 14:6); पापों से बचने का वे ही एकमात्र मार्ग हैं: “और किसी दूसरे के द्वारा उद्धार नहीं; क्योंकि स्वर्ग के नीचे मनुष्यों में और कोई दूसरा नाम नहीं दिया गया, जिस के द्वारा हम उद्धार पा सकें” (प्रेरितों 4:12)। उनका राज्य इस जगत का नहीं है: “यीशु ने उत्तर दिया, कि मेरा राज्य इस जगत का नहीं, यदि मेरा राज्य इस जगत का होता, तो मेरे सेवक लड़ते, कि मैं यहूदियों के हाथ सौंपा न जाता: परन्तु अब मेरा राज्य यहां का नहीं ” (यूहन्ना 18:36)। यह संसार और इस संसार की सभी बातें तथा सभी सांसारिक लोग नाश हो जाएंगे: “तुम न तो संसार से और न संसार में की वस्तुओं से प्रेम रखो: यदि कोई संसार से प्रेम रखता है, तो उस में पिता का प्रेम नहीं है। क्योंकि जो कुछ संसार में है, अर्थात शरीर की अभिलाषा, और आंखों की अभिलाषा और जीविका का घमण्ड, वह पिता की ओर से नहीं, परन्तु संसार ही की ओर से है। और संसार और उस की अभिलाषाएं दोनों मिटते जाते हैं, पर जो परमेश्वर की इच्छा पर चलता है, वह सर्वदा बना रहेगा” (1 यूहन्ना 2:15-17); इसलिए प्रभु यीशु तैयारी कर रहे हैं कि उनके चेले उनके साथ सदा काल के लिए स्वर्ग में रहें: “तुम्हारा मन व्याकुल न हो, तुम परमेश्वर पर विश्वास रखते हो मुझ पर भी विश्वास रखो। मेरे पिता के घर में बहुत से रहने के स्थान हैं, यदि न होते, तो मैं तुम से कह देता क्योंकि मैं तुम्हारे लिये जगह तैयार करने जाता हूं। और यदि मैं जा कर तुम्हारे लिये जगह तैयार करूं, तो फिर आकर तुम्हें अपने यहां ले जाऊंगा, कि जहां मैं रहूं वहां तुम भी रहो” (यूहन्ना 14:1-3)। अपने स्वर्गारोहण से ठीक पहले, प्रभु यीशु ने अपने चेलों को यह जिम्मेदारी दी कि वे सारे संसार में जाएं और किसी धर्म का नहीं तथा न ही किसी धर्म परिवर्तन का, वरन उनमें लाए गए विश्वास के द्वारा पापों से उद्धार के सुसमाचार (अच्छे समाचार) का प्रचार करें और सिखाएं, और संसार के सभी स्थानों के लोगों को प्रभु का चेला बनाएं, क्योंकि उन्होंने समस्त जगत के सभी लोगों के लिए उनके सभी पापों की कीमत को चुका दिया है: “यीशु ने उन के पास आकर कहा, कि स्वर्ग और पृथ्वी का सारा अधिकार मुझे दिया गया है। इसलिए तुम जा कर सब जातियों के लोगों को चेला बनाओ और उन्हें पिता और पुत्र और पवित्र आत्मा के नाम से बप्तिस्मा दो। और उन्हें सब बातें जो मैं ने तुम्हें आज्ञा दी है, मानना सिखाओ: और देखो, मैं जगत के अन्त तक सदैव तुम्हारे संग हूं” (मत्ती 28:18-20)

ध्यान कीजिए कि: मैं आज आकाश और पृथ्वी दोनों को तुम्हारे साम्हने इस बात की साक्षी बनाता हूं, कि मैं ने जीवन और मरण, आशीष और शाप को तुम्हारे आगे रखा है; इसलिए तू जीवन ही को अपना ले, कि तू और तेरा वंश दोनों जीवित रहें (व्यवस्थाविवरण 30:19) – इसलिए अपने लिए बुद्धिमत्ता से चुनाव कर लीजिए।

गुरुवार, 9 जनवरी 2020

प्रभु में विश्वास का प्राथमिक आधार – आश्चर्य कर्म, या परमेश्वर का वचन?



    प्रभु यीशु में हमारे विश्वास का प्राथमिक आधार प्रभु का वचन होना चाहिए, न कि उसके नाम में किए गए आश्चर्य कर्म। प्रभु यीशु ने अपनी सेवकाई का आरंभ प्रचार के द्वारा किया था, न कि आश्चर्य कर्मों के द्वारा (मरकुस 1:14-15)। जब प्रभु यीशु ने अपने बारह शिष्यों को चुना, उन्हें सामर्थ्य प्रदान की और उन्हें अपने प्रतिनिधि बनाकर उनकी प्रथम सेवकाई के लिए भेजा, तब प्रभु द्वारा उन्हें दी गई प्राथमिक आज्ञा थी कि वे जा कर प्रचार करें कि स्वर्ग का राज्य निकट है; आश्चर्य कर्म करने के लिए कहना प्रचार के बाद था (मत्ती 10:1, 5-8; मरकुस 3:14-15)। यहाँ पर ध्यान देने के लिए यह महत्वपूर्ण बात है कि जो उन आश्चर्य कर्मों के लिए संदेह करेंगे उनके विरुद्ध कुछ नहीं कहा गया है, परन्तु जो उस वचन का तिरस्कार करें उनके लिए एक भयानक भविष्य रखा है (मत्ती 10:14-15)। यहाँ पर एक और भी ध्यान देने योग्य महत्वपूर्ण बात है जिसे प्रभु यीशु ने उस समय के लिए कहा यदि ये शिष्य उनकी सेवकाई के कारण उच्च अधिकारियों के सामने ले जाए जाते। प्रभु ने उन्हें आश्वस्त किया कि ऐसी परिस्थिति में उनके बचाव के लिए, उन्हें पवित्र आत्मा की सामर्थ्य द्वारा, बता दिया जाएगा कि क्या ‘कहें’, बजाय इसके कि क्या आश्चर्य कर्म ‘करें’ (मत्ती 10:18-20).

    युहन्ना 17 पढ़िए, जो प्रभु की वह महायाजकीय प्रार्थना है, जो उन्होंने क्रूस पर चढ़ाए जाने के लिए पकड़े जाने से पहले की थी। इस प्रार्थना में ध्यान कीजिए कि कैसे प्रभु बारंबार उस वचन पर ज़ोर दे रहे हैं जो उन्होंने अपने शिष्यों को दिया था, और जिसे उन्हें अपनी सेवकाई के दौरान औरों को पहुंचाना था। प्रभु के स्वर्गारोहण से ठीक पहले, जो महान आज्ञा प्रभु ने अपने शिष्यों को दी, वह थी कि वे जा कर उस वचन का प्रचार करें जिसे प्रभु ने उन्हें सौंपा था (मत्ती 28:18-20; प्रेरितों 1:8)। प्रथम कलीसिया का जन्म, जो हम प्रेरितों 2 में देखते हैं, पतरस द्वारा किए गए प्रचार से हुआ था न कि किसी आश्चर्य’ कर्म के द्वारा ‘अन्य भाषाएं’ बोलने के चमत्कार ने तो लोगों में असमंजस और उपहास उत्पन्न किया, विश्वास नहीं; किन्तु वचन के प्रचार के द्वारा पश्चाताप, विश्वास, और उद्धार आया। हम देखते हैं कि बाद में, जो मसीही विश्वासी सताव के कारण यरूशलेम से खदेड़े गए, वे भी वचन का प्रचार करते हुए गए (प्रेरितों 8:1-4)। पौलुस ने तिमुथियुस को बल देकर कहा कि परमेश्वर के वचन को सही रीति से और ठीक-ठीक सिखाया जाना चाहिए (2 तिमुथियुस 2:2, 15) क्योंकि वचन ही है जो विश्वास के द्वारा उद्धार प्राप्त करने के लिए बुद्धिमान बना सकता है (2 तिमुथियुस 3:14-17)

    प्रभु यीशु मसीह वचन हैं; वह वचन जो परमेश्वर के साथ है; वह वचन जो परमेश्वर है; वह वचन जिसने देहधारी होकर हमारे बीच में डेरा किया (यूहन्ना 1:1, 14) – वह, जो जीवित वचन है, वही जो मसीही विश्वास का विषय और आधार है। आश्चर्य कर्म विश्वास का आधार नहीं हैं, वरन जो वचन या सुसमाचार लोगों को सुनाया जाता है उसकी पुष्टि करने के चिन्ह हैं (मरकुस 16:15-20); सदा से ही परमेश्वर का वचन ही मसीही विश्वास का आधार रहा है। इसीलिए शैतान हमें सदा ही परमेश्वर के वचन से दूर ले जाने का प्रयास करता है, और ऐसा करने के लिए आश्चर्य कर्म और अद्भुत चिन्हों को विश्वास का आधार बनाना उसके धोखे और बहकावे के कार्यों में बहुत सहायक होते हैं। लोग, परमेश्वर के वचन के अध्ययन और आज्ञाकारिता में संलग्न होने के स्थान पर, ऐसी लालसाओं में पड़ जाते हैं कि वे भी आश्चर्य कर्म करने वाले हो जाएं, या आश्चर्य कर्मों के द्वारा उन्हें कुछ लाभ मिल जाए, या आश्चर्य कर्म करने वाले कहलाए जाने के द्वारा उनका नाम और ख्याति हो जाए, आदि।

    आश्चर्य कर्म तो शैतान, उसके दूत, और उसका अनुसरण करने वाले भी कर सकते हैं (निर्गमन 7:11-12, 22; 8:7; प्रेरितों 16:16-18; 2 थिस्सलुनीकियों 2:9-10; प्रकाशितवाक्य 13:11-15), और यदि व्यक्ति परमेश्वर के वचन – “सत्य में दृढ़ता से स्थापित न हो, तो शैतान के धोखों और अद्भुत चिन्हों द्वारा बहकाए जाने के द्वारा उन के विनाश में जाने का खतरा बना रहता है, उसी विनाश में जिसमें इस प्रकार के चिन्ह और अद्भुत कार्य करने वाले अंततः जाएंगे (प्रकाशितवाक्य 19:20; 20:10).

    इसलिए हमारे लिए यह सुनिश्चित कर लेना अनिवार्य है कि परमेश्वर और प्रभु यीशु मसीह में हमारा विश्वास किसी चिन्ह अथवा आश्चर्य कर्म आदि पर आधारित नहीं है वरन परमेश्वर के वचन जो अचूक और दोषरहित है, पर विश्वास लाने और भरोसा रखने पर आधारित है। हमें परमेश्वर के वचन बाइबल  को प्रार्थना सहित पढ़ने और उस पर मनन करने में समय बिताना चाहिए,और उसमें होकर परमेश्वर से मार्गदर्शन के खोजी होना चाहिए (1 शमुएल 3:21; भजन 119:105)। परमेश्वर के वचन में दृढ़ और स्थापित होना ही शैतान के द्वारा बहकाए जाने से बचे रहने का अचूक उपाय है इसके लिए कुलुस्सियों 2 पर भी मनन करें।

मंगलवार, 29 अक्तूबर 2019

यीशु के मार/कोड़े खाने तथा यीशु के लहू द्वारा शारीरिक चंगाई





प्रश्न: क्या प्रभु यीशु मसीह के मार/कोड़े खाने से, और लहू से हम शारीरिक रोगों से चंगाई प्राप्त करते हैं?

उत्तर:
पवित्र शास्त्र की व्याख्या करते समय जो गलती सर्वाधिक तथा सामान्यतः की जाती है वह है बाइबल के किसी पद या खण्ड को, या पद के अंश को उसके संदर्भ के बाहर लेना; फिर उसे अपनी इच्छा या समझानुसार अर्थ प्रदान करना; और फिर उन गलत अर्थों को न केवल “परमेश्वर के सत्य’ समझकर मान लेना वरन उन्हें औरों को भी यही कहकर सिखाना; चाहे वे अर्थ संदर्भ की आवश्यकता तथा बाइबल में उस बात या शब्दों के प्रयोग के अनुसार सही न भी हों, जिससे कि फिर वे अवास्तविक एवं अस्वीकार्य हो जाते हैं। परमेश्वर का वचन बाइबल, 2 तिमुथियुस 2:15 में हमें सिखाता है किअपने आप को परमेश्वर का ग्रहणयोग्य (न कि मनुष्यों को) और ऐसा काम करने वाला ठहराने का प्रयत्न कर, जो लज्ज़ित होने न पाए और जो सत्य के वचन को ठीक रीति से काम में लाता हो; तथा ऐसे शिक्षकों के पीछे हो लेने के फंदे में पड़ने वाला न हो जो सही शिक्षा देने के स्थान पर लोगों को केवल वही सुनाते-सिखाते हैं जो कि वे लोग सुनना-सीखना चाहते हैं (2 तिमुथियुस 4:2-4)। शैतान द्वारा परमेश्वर के वचन के दुरूपयोग के षड़यंत्र में फंसने से बचने के लिए (वह तो इतना धूर्त है कि उसने प्रभु यीशु को भी इस फंदे में फंसाने का प्रयास कियामत्ती 4:1-11), हम सभी को 1 थिस्सलुनीकियों 5:21 “सब बातों को परखो: जो अच्छी है उसे पकड़े रहो का ध्यान रखना और उसका पालन करना चाहिए; तथा बेरिया के मसीही विश्वासियों के समान होना चाहिए जिनकी बाइबल में इसलिए प्रशंसा हुई है क्योंकि वे पहले सभी शिक्षाओं को पवित्र शास्त्र से जांचते थे और तब ही उन पर विश्वास करते थे (प्रेरितों 17:11-12) – चाहे उन्हें सिखाने वाला पौलुस प्रेरित ही क्यों न रहा हो।

प्रभु यीशु के मार/कोड़े खाने के द्वारा चंगाई के संदर्भ में, बाइबल के जिस पद का अकसर प्रयोग किया जाता है वह है यशायाह 53:5 “परन्तु वह हमारे ही अपराधों के कारण घायल किया गया, वह हमारे अधर्म के कामों के हेतु कुचला गया; हमारी ही शान्ति के लिये उस पर ताड़ना पड़ी कि उसके कोड़े खाने से हम चंगे हो जाएं।पतरस ने इसी पद में से अपनी पहली पत्री में उद्धृत किया – “वह आप ही हमारे पापों को अपनी देह पर लिये हुए क्रूस पर चढ़ गया जिस से हम पापों के लिये मर कर के धामिर्कता के लिये जीवन बिताएं: उसी के मार खाने से तुम चंगे हुए” (1 पतरस 2:24)। यह काफी रोचक ‘संयोग’ है कि, इन दो पदों के अतिरिक्त (वास्तव में, केवल एक ही पद), संपूर्ण बाइबल में और कोई पद है ही नहीं जिसमें “मार/कोड़े” तथा “चंगाई” शब्द एक साथ आए हों। साथ ही, हम इन दोनों ही पदों में यह भी देखते हैं कि जिस ‘चंगाई’ की बात हो रही है वह पाप के दुष्प्रभाव से आत्मिक चंगाई है; न कि किसी रोग, बीमारी, विकार, या अन्य किसी शारीरिक व्याधि से देह की चंगाई।

सामान्य उपयोग में, क्योंकि शब्द ‘चंगाई’ का प्रयोग मुख्यतः शारीरिक अस्वस्थताओं, तथा शरीर के रोगों के लिए होता है, इसलिए इस पर कुछ विशेष ध्यान दिए बिना, लोग बस यही मान लेते हैं कि इन पदों में भी जिस ‘चंगाई’ की बात हो रही है वह भी शारीरिक चंगाई ही है। दुर्भाग्यवश, बहुतेरे प्रचारक और शिक्षक भी यही चाहते हैं कि हम इसी गलती को मानें; इसलिए पवित्र शास्त्र के पदों को संदर्भ और वास्तविक लेख से बाहर लेकर और फिर उन पर आधारित व्याख्या करने के द्वारा वे इस गलत अर्थ और व्याख्या पर बल देते रहते हैं और उसे ही सिखाते रहते हैं। न तो वे स्वयँ व्याख्या करते समय पद के संदर्भ या खण्ड से संबंधित बातों पर ध्यान देते हैं, और न ही हमें प्रोत्साहित करते हैं कि हम किसी बात को स्वीकार करने या किसी निष्कर्ष पर आने से पहले, पूर्ण पद का अध्ययन उसके सही संदर्भ तथा संबंधित बातों में होकर करें।

एक अन्य बहुत महत्वपूर्ण और संबंधित तथ्य जिस पर ध्यान दिया जाना चाहिए यह है कि संपूर्ण बाइबल में कहीं पर भी, वाक्याँशउसके मार/कोड़े खाने से हम चंगे हो जाएंतथा  उसी के मार/कोड़े खाने से तुम चंगे हुएका कभी भी कहीं भी किसी करिश्माई शारीरिक चंगाई के लिए प्रयोग नहीं हुआ है; किसी भी भविष्यद्वक्ता, या प्रेरित, या परमेश्वर के जन के द्वारा कभी कहीं भी नहीं जबकि पुराने नियम में और नए नियम में करिश्माई शारीरिक चंगाइयों की घटनाओं की कोई कमी कतई नहीं है। हम नए नियम से शारीरिक चंगाई के कुछ उदाहरणों को देखते हैं:
·         पौलुस, तिमुथियुस को निर्देश देता है, “भविष्य में केवल जल ही का पीने वाला न रह, पर अपने पेट के और अपने बार बार बीमार होने के कारण थोड़ा थोड़ा दाखरस भी काम में लाया कर” (1 तिमुथियुस 5:23)। प्रगट है कि तिमुथियुस को बारंबार होने वाले किसी शारीरिक रोग के कारण परेशानी होती रहती थी, और पौलुस उससे थोड़ा थोड़ा दाखरसऔषधि के समान लेने के लिए कह रहा है क्यों यहाँ पर पौलुस ने तिमुथियुस से प्रभु यीशु के मार/कोड़े खाने के आधार पर चंगाई की माँग/दावा करने के लिए नहीं कहा?
·         स्वयँ पौलुस के शरीर में एक कांटा चुभाया गया के बारे में देखें पौलुस कहता हैऔर इसलिये कि मैं प्रकाशनों की बहुतायत से फूल न जाऊं, मेरे शरीर में एक कांटा चुभाया गया अर्थात शैतान का एक दूत कि मुझे घूँसे मारे ताकि मैं फूल न जाऊं। इस के विषय में मैं ने प्रभु से तीन बार बिनती की, कि मुझ से यह दूर हो जाए” (2 कुरिन्थियों 12: 7, 8)। पौलुस को इस समस्या के निवारण के लिए प्रभु से विनती क्यों करनी पड़ी; ऐसा करने के स्थान पर उसने प्रभु के मार/कोड़े खाने के आधार पर उपलब्ध चंगाई को क्यों नहीं माँग लिया? और जबकि प्रभु द्वारा विश्वास की प्रार्थना के प्रत्युत्तर में चंगाई देने के लिए पौलुस या तिमुथियुस के “विश्वास” पर तो संदेह किया ही नहीं जा सकता है!
·         हम प्रेरितों के काम में देखते हैं कि जब पतरस ने, प्रेरितों 3 में, मंदिर के प्रवेश द्वार पर बैठे जन्म के लंगड़े को चँगा किया, तो उसने लंगड़े मनुष्य से यह नहीं कहाप्रभु यीशु के मार/कोड़े खाने तुझे चँगा किया जाता है;” वरन, “तब पतरस ने कहा, चान्दी और सोना तो मेरे पास है नहीं; परन्तु जो मेरे पास है, वह तुझे देता हूं: यीशु मसीह नासरी के नाम से चल फिर” (प्रेरितों 3:6).

क्या बाइबल में कहीं पर भी, कोई भी, एक भी ऐसा उदाहरण है जहाँ वाक्याँश “प्रभु के मार/कोड़े खाने के द्वारा तुझे चँगा किया जाता है” का शारीरिक चंगाई प्राप्त होने के लिए उल्लेख आया है? यदि नहीं, तो फिर, इस वाक्याँश का इतनी बहुतायत से प्रचार और शिक्षा में इतना प्रयोग और व्याख्या, तथा लोगों द्वारा इसे इतना सहज स्वीकार तथा ग्रहण किया जाना क्यों है? और भी अधिक महत्वपूर्ण यह है कि, लोग इतने भोले और आसानी से धोखा खाने वाले क्यों बने रहते हैं; और उन भरमाने तथा बहकाने वालों से इसके लिए परमेश्वर के वचन में से स्पष्टिकरण क्यों नहीं मांगते हैं?

सीधा और सपष्ट तथ्य यह है कि ये पद मसीह द्वारा हमारे लिए सहे गए दुखों के लिए तो है, परन्तु हमारे पापों के दुखों के लिए है, जिन्हें उसने अपने ऊपर ले लिया था। क्योंकि उसने हमारे दण्ड को अपने ऊपर ले लिया, हमारे स्थान पर उसने कोड़े खाए, हमें हमारे पापों के दण्ड से छुटकारा मिला है, और पाप के द्वारा कुचली गई हमारी आत्मा को चंगाई प्राप्त हुई है (यशायाह 61:1; लूका 4:18)। वाक्याँशउसके मार/कोड़े खाने से हम चंगे हुए...” रोग या बीमारियों से मिली किसी शारीरिक चंगाई के लिए नहीं प्रयोग हुआ है, वरन हमारे पापों के दुष्प्रभावों से हमें मिलने वाली चंगाई के लिए प्रयोग किया गया है।

इसी प्रकार से, बाइबल में यह कहीं नहीं आया है कि यीशु का लहू हमें शारीरिक रोगों और बीमारियों से चंगा करता है। प्रभु यीशु के लहू को अन्य कई बातों के लिए प्रभावी बताया गया है वे सभी आत्मिक हैं और प्रभु परमेश्वर के साथ हमारे संबंधों के बारे में हैं, जैसे कि हमारा प्रायश्चित (रोमियों 3:25); हमारा धर्मी ठहरना (रोमियों 5:9); हमें परमेश्वर के निकट लाने, अर्थात उससे मेल करवाने (इफिसियों 2:13); हमारे विवेक को मरे हुए कामों से शुद्ध करने (इब्रानियों 9:14); हमें पवित्र स्थान में प्रवेश प्रदान करने के हियाव देने के लिए (इब्रानियों 10:19); हमारे छुटकारे (1 पतरस 1:18-19); पापों से शुद्ध करने (1 यूहन्ना 1:7); पापों से छुड़ाए जाने (प्रकाशितवाक्य 1:5) के लिए। परन्तु कहीं पर भी प्रभु यीशु के लहू के द्वारा किसी भी शारीरिक चंगाई होने या किए जाने का कोई उल्लेख नहीं है, और न ही कभी किसी प्रेरित या नए नियम के किसी भी लेखक ने शारीरिक चंगाई के लिए न तो “प्रभु यीशु के लहू” को प्रयोग किया है और न ही ऐसा करने की कोई शिक्षा दी है।

इसलिए लोगों को यह सिखाना कि हम बाइबल के किसी पद या अंश को, किसी ऐसे स्वरूप या उपयोग के लिए मांगे या उसका दावा करें, जो कि परमेश्वर के वचन में उसके प्रयोग या उसके संदर्भ के अनुसार नहीं है, और परमेश्वर का वचन जिसके विषय न तो कुछ सिखाता है और न ही करने के लिए कहता है, तो उसे परमेश्वर के वचन के अनुसार सही शिक्षा कैसे माना और स्वीकार किया जा सकता है? ऐसी सभी शिक्षाएँ और प्रयोग परमेश्वर के वचन से बाहर के हैं; वे सभी 2 तिमुथियुस 2:15 के निर्देश के अनुसार नहीं हैं, इसलिए गलत और अस्वीकार्य होने के आधार पर उनका तिरिस्कार किया जाना चाहिए।


शनिवार, 19 अक्तूबर 2019

मैं अपने आस-पास और कार्यस्थल में यीशु का प्रचार कैसे कर सकता हूँ?



यदि आप वास्तव में प्रभु यीशु में अपने विश्वास को अपने आस-पास तथा सहकर्मियों के साथ बाँटना चाहते हैं, तो जो सबसे पहला कार्य आपको करना चाहिए वह है अपनी इस इच्छा को परमेश्वर के सामने रखें और उससे माँगें कि वह आपको इसके लिए तैयार करे तथा इसके विषय आपका मार्गदर्शन करे। उससे माँगें कि वह आपको उन संभव अवसरों को पहचानने की समझ-बूझ दे, तथा सिखाए कि उन अवसरों का सदुपयोग कैसे किया जाए; वह आपको उन लोगों के पास लेकर जाए जो सुसमाचार को ग्रहण करने, या कम से कम सुनने के लिए तैयार हैं, बिना किसी अनुचित विवाद अथवा बहस में पड़े (1 कुरिन्थियों 16:9)। परमेश्वर से माँगें कि वह आपको इसके लिए आवश्यक साहस, उचित शब्द, और सही अभिव्यक्ति की क्षमता प्रदान करे जिससे आप इस कार्य को यथोचित रीति से करने पाएँ (यशायाह 50:4), और जब आप प्रभु की इस सेवकाई को उसकी इच्छानुसार करें तो परमेश्वर आपके बैरियों एवँ विरोधियों को बाँध कर नियंत्रण में रखे।

सहज रीति से, बिना विरोध को निमंत्रण दिए “प्रचार” करने का सबसे अच्छा तरीका है, उसे जी कर दिखाना और अपने व्यावाहरिक जीवन की गवाही से उसे प्रगट करना (प्रकाशितवाक्य 12:11), क्योंकि आपके शब्दों से कहीं अधिक ऊँचा और प्रभावी आपका जीवन ‘बोलता’ है। दो प्रकार से हैपहली यह कि, प्रभु ने आपके जीवन को कैसे बदला, उसने आपको अन्दर से कैसे बदला है, और आपके हृदय-परिवर्तन के समय से लेकर अब तक वह कैसे आपकी सहायता करता रहा है, कैसे आपके हित में कार्य करता रहा है; इन बातों की आपके अपने शब्दों में दी गई मौखिक गवाही; और आपकी दूसरी व्यावाहरिक गवाही है, आपके दैनिक जीवन में आए परिवर्तनों की गवाही जो आपके साथी और आस-पास वाले देखते हैं आपकी जीवन-शैली, रूचियाँ, बात-चीत, व्यवहार, सत्य-निष्ठा, तथा कार्य-नैतिकता एवँ प्रतिबध्दता इत्यादि। गवाही के पहली रीति के माध्यम से, आप अपने व्यक्तिगत अनुभवों को बाँटते हैं आप किसी को यह नहीं कहते हैं कि उन्हें क्या करना चाहिए या नहीं करना चाहिए ऐसा करने से विरोध और तर्क या विवाद उत्पन्न हो सकते हैं; वरन, आप केवल वह बताएँ जो प्रभु ने आपके जीवन में किया है, और/या प्रभु ने किसी विशेष परिस्थिति में कैसे आपकी सहायता की। क्योंकि ये आपके व्यक्तिगत अनुभव हैं, इसलिए कोई भी इन्हें आपके लिए गलत या अस्वीकार्य नहीं ठहरा सकता है, और प्रभु इन्हें औरों के हृदयों में कार्य करने के लिए उपयोग करेगा; उनके अन्दर जिज्ञासा को जागृत करेगा कि वे भी अपने जीवनों में इन्हें आज़माएँ। गवाही के दूसरी रीति के माध्यम के द्वारा, अर्थात आपकी जीवन शैली इत्यादि की गवाही के द्वारा, आप अपने जीवन को निःशब्द किन्तु व्यवाहारिक रीति से गवाही देने देते हैं, और जब भी कोई आपके जीवन की किसी बात के लिए कोई प्रश्न उठाए, तो आप उसके साथ अपने विश्वास तथा सुसमाचार को बाँटने के लिए सदा तैयार बने रहें (2 तिमुथियुस 4:2).

एक और कार्य जो आप कर सकते हैं वह है किसी कठिनाई, या क्लेश, या समस्या, या तनाव में पड़े हुए, या जिसे किसी सहायता या मार्गदर्शन की आवश्यकता हो, ऐसे व्यक्ति के पास जाकर उसके लिए प्रार्थना करना। आप नम्रता और प्रेम सहित उससे उसके साथ प्रार्थना करने की अनुमति माँग सकते हैं, और यदि वे अनुमति प्रदान करते हैं, तो प्रार्थना में बिना कोई ‘प्रचार’ किए, एक छोटी, सार्थक और सरल प्रार्थना करें, परमेश्वर से माँगें कि वह उनकी परिस्थिति या कठिनाई में उनकी सहायता एवँ मार्गदर्शन करे, और इस परेशानी की परिस्थिति में वे परमेश्वर की शान्ति को अनुभव करने पाएँ। आप ऐसा फोन पर वार्तालाप के माध्यम से भी कर सकते हैं। अपने बैरी-विरोधियों के लिए भी प्रार्थनाएं अवश्य करें, चाहे वे उन्हें बिना बताए, खामोशी से की गई प्रार्थनाएं हों (रोमियों 12:14-21), और परमेश्वर स्वयँ ही उचित समय पर उन पर प्रगट करेगा कि उनके बैर-विरोध के बावजूद, आप उनके लिए प्रार्थना करते रहें हैं।

किन्तु सदा सचेत रहें, शैतान आपके विरोध में समस्याएँ या विरोध खड़े करने, या आपको विभिन्न प्रकार के प्रलोभनों तथा परीक्षाओं में फंसाने का कोई अवसर हाथ से जाने नहीं देगा, (1 तिमुथियुस 4:1-2), जिससे आपकी गवाही बिगाड़ी जा सके तथा निष्क्रीय करी जा सके। इसलिए बहुत ध्यान रखें और चौकस रहें कि आप क्या देखते हैं (भजन 101:3; 119:37), कहते हैं (इफिसियों 4:29), करते हैं (1 पतरस 2:11-12), और जीवन कैसे जीते हैं तथा कैसा व्यवहार करते हैं (1 कुरिन्थियों 11:1)। सदा हर बात के लिए प्रभु से लिपटे रहें, कभी अपने बुद्धिमत्ता पर भरोसा न रखें और प्रार्थना में प्रभु से पहले पूछे या मांगे बिना कुछ भी नहीं करें (नीतिवचन 3:5-6); अन्यथा शैतान आपको बहका कर किसी गलती में डाल देगा (2 कुरिन्थियों 11:3).

इसका यह अर्थ नहीं है कि आपके प्रयास सदा ही सकारात्मक तथा रचनात्मक स्वीकार किए जाएँगे, या आपको कभी किसी विरोध का सामना नहीं करना पड़ेगा, और जीवन आपके लिए सदा ही निर्विवाद एवँ सुचारू रीति से चलता रहेगा ऐसा तो हो ही नहीं सकता है फिलिप्पियों 1:29; 2 तिमुथियुस 3:12; कोई न कोई नकारात्मक प्रतिक्रियाएं तो सदा ही होती रहेंगी। इसलिए, “पर तू सब बातों में सावधान रह, दुख उठा, सुसमाचार प्रचार का काम कर और अपनी सेवा को पूरा कर।” (2 तिमुथियुस 4:5)


गुरुवार, 3 अक्तूबर 2019

वह पाप जिसका फल मृत्यु नहीं है



प्रश्न:  बाईबल में 1 यूहन्ना 5 :16-17 में वह कौन सा पाप है जिसका फल मृत्यु नहीं है ?

उत्तर:
           इन पदों ने बहुतेरों को असमंजस में रखा हुआ है, और इनकी अनेकों व्याख्याएं की गई हैं। इसलिए कोई पूर्णतः स्पष्ट और सभी को स्वीकार्य उत्तर शायद संभव न हो। सामान्यतः 1 यूहन्ना 5:16-17 को समझने का प्रयास करते समय या व्याख्या करते समय, बाइबल में पाप और उसके दुष्परिणाम से संबंधित पदों, जैसे कि रोमियों 3:23 और रोमियों 6:23, तथा ऐसे ही अन्य पदों का ध्यान करते हुए व्याख्या दी जाती है या समझने का प्रयास किया जाता है।

           परन्तु हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि यूहन्ना ने जब यह पत्री लिखी थी तो अन्य पत्रियों और लेखों को संकलित करके तैयार हुआ नया नियम तब उसके पाठकों को उपलब्ध नहीं था, जैसा कि अब हमारे हाथों में है। इसलिए जिन लोगों को यह पत्री लिखी गई थी, उनके पास वे सब पद और शिक्षाएँ नहीं थे जो अब नए नियम में संकलित होकर हमारे पास हैं, और जिनके आधार पर अब हम इन पदों को समझने के प्रयास करते हैं। इसलिए वे लोग तब यूहन्ना द्वारा लिखी इस बात को उस प्रकार से नहीं देख और समझ सकते थे जैसा कि हम आज बहुधा देखते और समझते हैं; और न ही तब वे लोग इनमें कोई ऐसे अर्थ डाल सकते थे जो नए नियम में अन्य स्थानों पर लिखी बातों के आधार पर हैं, जिस प्रकार के अर्थों को इनमें डालकर इन्हें समझने के प्रयास आज हम करते हैं। इसलिए इन पदों का अर्थ उसी संदर्भ में देखा तथा समझा जाना चाहिए, जिस संदर्भ में उन लोगों ने तब पढ़ा और समझा होगा जब यूहन्ना ने यह पत्री उन्हें लिखी थी; क्योंकि वही अर्थ इन पदों का मूल या प्राथमिक अर्थ है, शेष सभी अर्थ और अभिप्राय उस मूल अर्थ के सहायक हैं, उनसे वह मूल अर्थ बदल नहीं सकता है।

           यूहन्ना की इस पत्री के आरंभिक अध्यायों को पढ़ने से प्रतीत होता है कि यूहन्ना ने यह पत्री ऐसे लोगों की मण्डली को लिखी थी जिनमें से कुछ तो मसीही विश्वास में ‘बालक’ थे, किन्तु अधिकांश मसीही विश्वास में दृढ़ और स्थापित थे, परिपक्व थे, और धार्मिकता से संबंधित बातों को जानते थे (1 यूहन्ना 2:7, 13, 14, 20, 21, 24, 27)। इसलिए बहुत संभव है कि वे पुराने नियम और मूसा में होकर इस्राएलियों को मिली व्यवस्था का कुछ ज्ञान और समझ रखते थे। परमेश्वर यहोवा को मानने वालों के लिए क्या पाप है और क्या नहीं है, इसकी समझ परमेश्वर के उस वचन के आधार पर थी जिसे हम आज पुराना नियम कहते हैं; और उसमें भी मुख्यतः “व्यवस्था” के आधार पर। जब हम पुराने नियम की धार्मिकता और व्यवस्था के आधार पर देखते हैं, तो व्यवस्था में कुछ पाप ऐसे थे जिनका कोई प्रायश्चित नहीं था, उनके लिए मृत्यु-दण्ड की आज्ञा थी; उदाहरण के लिए देखिए: निर्गमन 28:43; लैव्यवस्था 22:9; गिनती 1:51; गिनती 3:10; गिनती 3:38; गिनती 18:7; गिनती 18:22; गिनती 18:32; आदि। लैव्यवस्था 10:1-2 में हम देखते हैं कि नादाब और अबीहू को पश्चाताप करने का, या उनके लिए किसी को कोई विनती अथवा प्रायश्चित अर्पित करने का अवसर ही नहीं दिया गया, वे तुरंत ही मर गए। जो लोग पुराने नियम की धार्मिकता और परमेश्वर की व्यवस्था से अवगत थे, वे समझते थे कि व्यवस्था में ऐसे पाप उल्लेखित हैं जिनका परिणाम मृत्यु है, उनके लिए कोई प्रायश्चित या क्षमा का प्रावधान किया ही नहीं गया है, इसलिए उनकी क्षमा की कोई गुंजाइश ही नहीं है, उनके लिए क्षमा मिल ही नहीं सकती है।

           दूसरी बात, 1 यूहन्ना 5:16 में दो बार “विनती” शब्द का प्रयोग किया गया है। “विनती” के लिए जिन शब्दों का मूल यूनानी भाषा में प्रयोग किया गया है वे दोनों स्थानों पर अलग-अलग शब्द हैं। पहली बार प्रयुक्त शब्द है ‘aiteo’ जिसका अर्थ होता है ‘to ask (पूछना)’, या, ‘to request (निवेदन करना)’; और दूसरी बार प्रयुक्त शब्द है ‘erotao’ जिसका अर्थ होता है ‘to interrogate (पूछताछ करना, या जानकारी लेना)’। बाइबिल के अंग्रेज़ी के भिन्न अनुवादों में देखने से भी यही बात सामने आती है कि सभी अनुवादक इन्हें “प्रार्थना” का अर्थ रखने वाली “विनती” नहीं लिखते हैं। इन मूल शब्दों के अर्थों के आधार पर 1 यूहन्ना 5:16 को इस अभिप्राय से देख सकते हैं, “यदि कोई अपने भाई को ऐसा पाप करते देखे, जिस का फल मृत्यु न हो, तो विनती (‘aiteo’ - निवेदन) करे, और परमेश्वर, उसे, उन के लिये, जिन्हों ने ऐसा पाप किया है जिस का फल मृत्यु न हो, जीवन देगा। पाप ऐसा भी होता है जिसका फल मृत्यु है: इस के विषय में मैं विनती (‘erotao’ - पूछताछ करने या जानकारी एकत्रित करने) के लिये नहीं कहता।” यहाँ दूसरी बार प्रयुक्त “विनती” शब्द का अभिप्राय उस प्रकार से “प्रार्थना” करना नहीं है, जैसा कि हम सामान्यतः समझते हैं और जिसके अन्तर्गत परमेश्वर से कुछ माँगते हैं।

           यहाँ दो बहुत महत्वपूर्ण बातों पर ध्यान देना अत्यावश्यक है, जिनका इस पद की व्याख्या एवँ समझ पर सीधा-सीधा प्रभाव पड़ता है। पहली, जैसा कि इस पद के आरंभ में आया है, यूहन्ना द्वारा यह बात “अपने भाई” अर्थात किसी मसीही विश्वासी जन के लिए कही जा रही है; अर्थात ऐसे व्यक्ति के लिए जिसके मसीह यीशु में विश्वास लाने के द्वारा परमेश्वर के अनुग्रह से पाप क्षमा हो गए हैं और वह प्रभु की सन्तान बनकर अनन्त जीवन में प्रवेश कर चुका है (यूहन्ना 1:12-13)। मसीही विश्वासी होने के नाते, वह अब व्यवस्था की बातों और अनिवार्यताओं से बाहर है, व्यवस्था की आवश्यकताओं की उस पर कोई पकड़ शेष नहीं है (रोमियों 7:6; कुलुस्सियों 2:14); अब न तो व्यवस्था के आधार पर उसका आँकलन किया जा सकता है, और न ही वह व्यवस्था के अनुसार दोषी ठहराया जा सकता है या उसे कोई दण्ड दिया जा सकता है।

           दूसरी यह, कि इस पद के अन्त में लिखा है “...पाप ऐसा भी होता है जिसका फल मृत्यु है: इस के विषय में मैं बिनती करने के लिये नहीं कहता” और इसी वाक्य को लेकर सारा असमंजस, अनिश्चितता, दुविधा होती है। ध्यान देने तथा समझने योग्य बात यह है कि यहाँ पर यूहन्ना ने यह नहीं कहा है कि “क्योंकि उस व्यक्ति के वे पाप क्षमा ही नहीं किए जाएँगे, इसलिए मैं उनके लिए प्रार्थना करने के लिए नहीं कह रहा हूँ” – किन्तु सामान्यतः हम इस पद को पढ़ते समय यही अर्थ निकालते तथा मानते हैं, जबकि ऐसा लिखा ही नहीं गया है। किन्तु यदि हम यहाँ “विनती” के स्थान पर मूल यूनानी भाषा में प्रयुक्त शब्द ‘erotao’ के शब्दार्थ ‘to interrogate’ (पूछताछ करना, या जानकारी लेना) का उपयोग करें, तो फिर वाक्य बन जाता है “...पाप ऐसा भी होता है जिसका फल मृत्यु है: इस के विषय में मैं ‘पूछताछ’ करने के लिये नहीं कहता।” अब यूहन्ना के कहे इस वाक्य का अभिप्राय हो जाता है, “...पाप ऐसा भी होता है जिसका व्यवस्था के अनुसार फल मृत्यु है: परन्तु तुम्हें इसके विषय कोई पूछताछ करने की आवश्यकता नहीं है।” अब जब इसे ऊपर कही गई पहली “भाई” वाली बात के साथ जोड़ कर देखा जाए तो यहाँ यूहन्ना द्वारा कही गई बात हो जाती है, “...व्यवस्था के अनुसार ऐसा पाप तो है जिसके लिए मृत्यु है: परन्तु इसके लिए तुम्हें जानकारी लेने या पूछताछ करने की आवश्यकता नहीं है।” तात्पर्य यह कि, जब प्रभु ही ने उस व्यक्ति को क्षमा कर दिया है जो व्यवस्था के अनुसार क्षमा नहीं किया जा सकता था, उसे अपने मण्डली का सदस्य और अपनी सन्तान बनाकर अपने परिवार में सम्मिलित कर लिया है, तो फिर अब तुम्हें उसके पापों का लेखा-जोखा लेने, उसके विषय पूछताछ करने या जानकारी एकत्रित करने की क्या आवश्यकता है? उससे चाहे ऐसा भी पाप हो जाए जो व्यवस्था के अनुसार क्षमा योग्य नहीं है, परन्तु तुम्हारा उसके पाप के क्षमा-योग्य होने या न होने की बात से कोई लेना-देना नहीं है, इसलिए तुम उसकी पूछताछ मत करो।

           यदि इस पद, 1 यूहन्ना 5:16, को उससे पहले के पदों के संदर्भ में देखें, तो भी उन पदों में व्यक्त बात के साथ यह अभिप्राय सही बैठता है। 1 यूहन्ना 5:13-15 में यूहन्ना अपने पाठकों को समझा रहा है कि प्रभु यीशु मसीह में विश्वास करने से जो अनन्त जीवन मिला है, उसके कारण हमें यह हियाव भी दिया गया है कि हम परमेश्वर से माँग सकें, और हमें यह आश्वासन है कि परमेश्वर हमारे निवेदन सुनकर, यदि वे उसकी इच्छा के अनुसार हैं, तो उन्हें पूरा करेगा। क्योंकि यूहन्ना 3:16 के अनुसार परमेश्वर की इच्छा मसीह यीशु पर विश्वास करने वालों को जीवन प्रदान करने की है, और अब प्रभु यीशु मसीह में होकर व्यवस्था की बातें और दण्ड हम पर लागू नहीं हैं, इसलिए हम निःसंकोच परमेश्वर से उन लोगों को जीवन दान देने के लिए प्रार्थना कर सकते हैं, जो व्यवस्था के अनुसार इस जीवन दान के योग्य नहीं थे, और परमेश्वर उन लोगों को भी जीवन दान देगा।

           संभव है कि व्यवस्था के आधार पर कुछ लोगों को यह संकोच रहा हो कि जिस पाप के लिए परमेश्वर ने पहले ही किसी क्षमा का प्रावधान नहीं किया है और अपनी दी हुई व्यवस्था में मृत्यु निर्धारित कर दी है, उसी के लिए अब हम परमेश्वर से अपनी बात से पलटने और बदलने के लिए कैसे निवेदन कर सकते हैं? यूहन्ना यहाँ उन्हें हिम्मत दे रहा है कि यदि कोई ऐसा पाप कर भी दे, जिसका दण्ड व्यवस्था के अनुसार मृत्यु है, तो भी अब प्रभु यीशु मसीह में होकर उसकी क्षमा और जीवन दान के लिए अवसर उपलब्ध है, मार्ग खुला है।