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गुरुवार, 30 अप्रैल 2020

पवित्र आत्मा पाना भाग (5) – विशेष प्रयास – प्रतीक्षा करना (2); निष्कर्ष



4. क्या पवित्र आत्मा प्राप्त करने के लिए प्रतीक्षा करनी पड़ती है? भाग (2)

 पिन्तेकुस्त के दिन जब शिष्यों ने पवित्र आत्मा पाया, और फिर पवित्र आत्मा की सामर्थ्य से पतरस ने प्रचार किया, तो वहाँ उपस्थित उन भक्त यहूदी श्रोताओं ने पतरस से पूछा कि उद्धार पाने के लिए अब उन्हें क्या करना चाहिए (प्रेरितों 2:37); तब “पतरस ने उन से कहा, मन फिराओ, और तुम में से हर एक अपने अपने पापों की क्षमा के लिये यीशु मसीह के नाम से बपतिस्मा ले; तो तुम पवित्र आत्मा का दान पाओगे” (प्रेरितों 2:38)। ध्यान कीजिए, पतरस ने उन से कहा कि विश्वास करने पर वे पवित्र आत्मा का दान पाएंगे; विश्वास कर के फिर पवित्र आत्मा पाने के लिए प्रतीक्षा करने के लिए नहीं कहा। पतरस द्वारा प्रचार उसे पवित्र आत्मा मिलते ही पवित्र आत्मा की सामर्थ्य से किया गया था। उस के इस प्रचार के प्रभाव से इन पश्चाताप और विश्वास करने वालों के द्वारा अब मसीही विश्वासियों की मण्डली की स्थापना होने जा रही थी। उसके इस प्रचार और परिणामस्वरूप होने वाली घटना के साथ जुड़ी बातों को आने वाले समय में समस्त विश्व-व्यापी मसीही विश्वासियों की मण्डलियों की आधारभूत बातें बनना था, जैसे कि आज भी प्रेरितों 2 अध्याय की बातें और शिक्षाएं हमारे लिए हैं। इसलिए यदि पवित्र आत्मा पाने के लिए प्रतीक्षा करने की आवश्यकता थी, तो वहां उपस्थित पतरस और अन्य शिष्यों के सजीव और प्रत्यक्ष उदाहरण के साथ इस बात को बता तथा समझा कर, उसे पतरस के प्रचार की अन्य शिक्षाओं के साथ ही लिखवा कर, इस सिद्धांत या नियम को मण्डली के लिए स्थापित करवा देने के लिए इस से अच्छा और क्या अवसर हो सकता था? किन्तु ऐसा नहीं किया गया; न यहाँ, और न बाद में किसी अन्य पत्री अथवा नए नियम की शिक्षा में। वरन सदा यही कहा गया कि सच्चा पश्चाताप करने, और वास्तविक विश्वास करने से स्वतः ही पवित्र आत्मा तुरंत ही मिल जाएगा। इसी संदर्भ में यदि उपरोक्त तीन उदाहरणों पर पुनः ध्यान करें, तो भी यही सामने आता है कि पवित्र आत्मा मसीही विश्वास में आते ही सभी विश्वासियों को तुरंत ही दे दिया गया, बिना उस के लिए प्रतीक्षा करने के किसी भी उल्लेख के। यह बाइबल का प्रत्यक्ष सत्य है कि संपूर्ण नए नियम में कहीं पर भी, किसी को भी, कभी भी, पश्चाताप करने और मसीही विश्वास में आने के पश्चात पवित्र आत्मा प्राप्त करने के लिए प्रतीक्षा करने के लिए कभी नहीं कहा गया है।

आज कुछ लोगों ने, लूका और प्रेरितों के इन प्रतीक्षा संबंधी पदों को अपना गलत आधार बनाकर, प्रतीक्षा करने का अपना ही सिद्धांत इसलिए गढ़ लिया है जिस से अपने आप को एक बहुत कठिन स्थिति से निकलने का मार्ग दे सकें। क्योंकि, जैसा ऊपर लूका 11:13 से संबंधित बातों की चर्चा करते में हमें देखा, मंडली में कुछ लोग होते हैं, जो दिखते तो प्रभु यीशु के विश्वासी और अनुयायी हैं, किन्तु वास्तव में प्रभु के प्रति उनका समर्पण सच्चा नहीं होता है और वे वास्तव में मसीही विश्वास में नहीं होते हैं, इसलिए प्रभु की ओर से उन्हें पवित्र आत्मा कभी नहीं दिया जाता है। ऐसे लोगों से, क्योंकि या तो उन के पास कोई और स्पष्टीकरण अथवा उत्तर नहीं है, या फिर उन में सच बोलने का साहस नहीं है, चर्च के पादरी और अगुवे प्रायः यही कहते हैं, लूका 24:49, और प्रेरितों 1:4, 8 के अनुसार उन्हें पवित्र आत्मा पाने के लिए प्रतीक्षा करने और लूका 11:13 के अनुसार प्रभु से मांगने की आवश्यकता है। जब कि वास्तव में उन्हें आवश्यकता केवल सच्चे मन से पश्चाताप करने और प्रभु के प्रति सच्चा समर्पण करने तथा ईमानदारी के साथ प्रभु और उस के वचन की आज्ञाकारिता में आ जाने की है, न कि बाइबल के प्रतिकूल इन शिक्षाओं में फंस कर अपना समय बर्बाद करने की।

5. पवित्र आत्मा पाने के लिए कुछ विशेष करना – निष्कर्ष

हमारी पवित्र आत्मा प्राप्त करने की इस चर्चा के सन्दर्भ में, ऊपर जिन तीन उदाहरणों की चर्चा की गई है उन से संबंधित घटनाओं में ध्यान देने के लिए जो मुख्य बात है, वह है कि बाइबल की ये घटनाएं भी यह प्रमाणित नहीं करती हैं कि पवित्र आत्मा पाने के लिए किसी विशेष प्रयास या कार्य अथवा किसी मध्यस्थता की आवश्यकता है – जैसे कि प्रायः इन घटनाओं के आधार पर, बड़ा ज़ोर देकर लोगों को गलत शिक्षाएं दी जाती हैं, लोगों को भरमाया जाता है। बाइबल में कहीं भी ऐसा कोई भी उदाहरण नहीं है जिसके आधार पर इस दावे को सही दिखाया जा सके कि व्यक्ति को पवित्र आत्मा पाने के लिए प्रभु के सामने प्रार्थना में गिड़गिड़ाने, या कोई अन्य प्रयास करने, अथवा परमेश्वर के किसी विशिष्ट सेवक की सहायता लेने की, या कुछ समय प्रतीक्षा करने की ज़रा सी भी आवश्यकता है। जैसे उद्धार पाना है, वैसे ही परमेश्वर पवित्र आत्मा को पाना भी, किसी भी मनुष्य या मानवीय विधि-विधान, या कार्य के आधीन, किसी मनुष्य के कैसे भी नियंत्रण में कदापि नहीं हैं। यदि विश्वासी प्रभु की दृष्टि में सही है, तो मसीही विश्वास में आते और उद्धार पाते ही उसे प्रभु की ओर से उद्धार के साथ ही पवित्र आत्मा भी दे दिया जाता है, उसकी आत्मिक सुरक्षा और मसीही जीवन में निर्देशन, उस के दैनिक जीवन के सही संचालन, और उस की आत्मिक परवरिश के लिए।
- क्रमशः
अगला लेख: पवित्र आत्मा का बपतिस्मा क्या है? (1)

बुधवार, 29 अप्रैल 2020

पवित्र आत्मा पाना भाग (5) – विशेष प्रयास – प्रतीक्षा करना (1)



4. क्या पवित्र आत्मा प्राप्त करने के लिए प्रतीक्षा करनी पड़ती है? भाग (1)

लूका 24:49 और प्रेरितों 1:4, 8 के आधार पर यह कहा जाता है कि प्रभु यीशु ने स्वयं पवित्र आत्मा प्राप्त करने के लिए शिष्यों से प्रतीक्षा करने के लिए कहा है। इसलिए पवित्र आत्मा प्राप्त करने के लिए प्रभु का उपयुक्त समय आने की प्रतीक्षा करने को कहना वचन के अनुसार है, और प्रतीक्षा करनी चाहिए। किन्तु यहाँ पर भी इन पदों से यह निष्कर्ष निकालते समय फिर उन्हीं दो गलतियों को दोहराया जा रहा है – सन्दर्भ से बाहर लेना, और अन्य संबंधित शिक्षाओं का ध्यान न रखना। निःसंदेह, प्रभु ने अपने उन आरंभिक शिष्यों से पवित्र आत्मा पाने के लिए प्रतीक्षा करने के लिए कहा था, किन्तु उस प्रतीक्षा का मुख्य उद्देश्य उस समय के उन शिष्यों से प्रभु द्वारा उन्हें दी गई संसार भर में सुसमाचार प्रचार करने की महान आज्ञा के अंतर्गत सेवकाई आरंभ करने से पहले उसके लिए उचित तैयारी करना और सामर्थ्य पाना था, जो उन्हें उन में पवित्र आत्मा के आने से मिलनी थी, न कि बस यूं ही, उन के मसीही जीवन के लिए बिना किसी परमेश्वर द्वारा नियुक्त सेवकाई या उद्देश्य के पवित्र आत्मा पा लेने की प्रतीक्षा करना। यहाँ यह बात बिलकुल स्पष्ट है कि प्रभु ने पहले उन शिष्यों को अपनी सेवकाई निर्धारित कर के सौंपी, फिर उस सेवकाई के लिए उन शिष्यों की नियुक्ति की गई, और फिर उस सेवकाई के लिए उन निर्धारित और नियुक्त शिष्यों को सामर्थ्य प्रदान की गई – हर संबंधित बात, हर कदम प्रभु की ओर से निर्धारित और संचालित, प्रभु की इच्छा के अनुसार। जैसा आज लोग करने और सिखाने का प्रयास करते हैं, वह प्रभु द्वारा कही और की गई बात के अनुरूप कदापि नहीं है, लेश-मात्र भी नहीं। 

आज तो लोग बस चाहते हैं कि पहले एक बार सामर्थ्य मिल जाए फिर देखेंगे कि उस के द्वारा क्या किया जा सकता है। परमेश्वर कभी कुछ भी निरुद्देश्य या किसी के ‘मज़े लेने के लिए’ नहीं करता है। आज लोगों से कहा जाता है, उन्हें सिखाया जाता है कि पवित्र आत्मा पा लेने के आनंद और उल्लास के अनुभव के लिए, उस के लिए प्रार्थना और प्रतीक्षा करें! इस प्रकार से पवित्र आत्मा मांगने वाले उन लोगों में न तो इस की कोई समझ है कि परमेश्वर ने उन्हें क्यों बुलाया है; और न ही उन लोगों को इस बात का कोई एहसास है कि प्रभु की सेवकाई के लिए उन्हें क्या कीमत चुकानी पड़ सकती है; उन्हें बस यही बताया और सिखाया जाता है कि पवित्र आत्मा तथा उसके वरदानों को प्राप्त करने के अद्भुत अनुभव से होने वाले उत्साह और उल्लास के लिए उसे माँगें। यह वह प्रतीक्षा करना कदापि नहीं है जिसके लिए प्रभु ने अपने आरम्भिक चेलों से कहा था। प्रभु यीशु ने आने वाले समयों के सभी शिष्यों के लिए इसे कोई सिद्धांत या नियम बना कर स्थापित नहीं किया था। यदि यह कहा जाए कि यह प्रभु की ओर से नियम या सिद्धांत था, तो फिर यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि प्रेरितों 2:38 में पतरस के पहले प्रचार और पहले शिष्यों के बनने के साथ ही पतरस द्वारा इस नियम को तोड़ दिया गया, सिद्धान्त की अवहेलना की गई, निःसंकोच इसकी अनाज्ञाकारिता की गई – और यदि यह हुआ है तो फिर प्रभु की आशीष और समर्थन उस अनाज्ञाकारिता के साथ कैसे बनी रही, प्रभु ने अनाज्ञाकारी लोगों को अपनी कलीसिया में कार्य कैसे कर लेने दिया? किन्तु यदि प्रभु की आशीष और समर्थन रहा – जैसा की प्रत्यक्ष है, तो फिर यह भी स्पष्ट है कि वह अनाज्ञाकारिता नहीं थी; अर्थात वह प्रभु द्वारा दिया गया कोई ऐसा नियम या सिद्धांत नहीं था, वरन प्रतीक्षा करने के लिए कहना केवल उस समय के उन शिष्यों के लिए ही कही गई बात थी – और यही सत्य है।
- क्रमशः
अगला लेख: क्या पवित्र आत्मा प्राप्त करने के लिए प्रतीक्षा करनी पड़ती है? भाग (2); निष्कर्ष

मंगलवार, 28 अप्रैल 2020

पवित्र आत्मा पाना भाग (4) – विशेष प्रयास – हाथ रखना



3. क्या पवित्र आत्मा अगुवों या प्रेरितों द्वारा हाथ रखने से मिलता है?

न उपरोक्त घटनाओं में प्रेरितों द्वारा उन लोगों पर हाथ रखे जाने की बात भी आई है, जिसके उपरान्त उन्होंने पवित्र आत्मा प्राप्त किया; इसलिए यह भी कहा जाता है, और फिर से गलत, कि प्रेरितों या कलीसिया के अगुवों के द्वारा हाथ रखने से पवित्र आत्मा मिलता है। बाइबल के इस संबंधित तथ्य, ‘हाथ रखना,’ के कई अभिप्राय हैं। हमारी चर्चा के सन्दर्भ में महत्वपूर्ण बात यह है कि बाइबल में उपरोक्त तीन उदाहरणों के अतिरिक्त कभी भी पवित्र आत्मा के प्राप्त करने या दिए जाने के साथ यह कहीं जुड़ा हुआ नहीं है। इसलिए इस का केवल यही एक अर्थ है कहना और सिखाना वचन के अनुसार सही नहीं है। ‘हाथ रखना’ अपने आप में एक बड़ा विषय है, जिसके पुराने और नए नियम में भिन्न अभिप्राय हैं। नए नियम में यह आशीष देने (मत्ती 19:13, 15), चंगाई देने (मत्ती 9:18; लूका 13:13; प्रेरितों 9:12, 17), परमेश्वर द्वारा नियुक्त हो कर किसी विशेष दायित्व के सौंपे जाने (प्रेरितों 6:6; 13:3; 1 तीमुथियुस 4:14; 2 तीमुथियुस 1:6), और सेवकाई में साथ सहभागी बना लेने और स्वीकार कर लेने के द्वारा अपने साथ मिला लेने को भी दिखाता है (1 तीमुथियुस 4:14; 5:22)।

पवित्र आत्मा प्राप्त करने की उपरोक्त तीनों घटनाओं के सन्दर्भ में, ‘हाथ रखने’ का अभिप्राय उन सभी लोगों के प्रभु में एक हो जाने से है, अर्थात, उन यहूदी विश्वासियों और प्रेरितों के द्वारा उन विभिन्न गैर-यहूदियों पर हाथ रखे जाने से उन पर यह व्यक्त किया गया, कि अब वे भी उन प्रेरितों और अगुवों तथा मसीही मंडली के अन्य लोगों के साथ प्रभु में एक हैं, प्रभु में हो कर अन्य सभी के समान हैं (प्रेरितों 15:7-9)। ध्यान कीजिए, पतरस को तो कुरनेलियुस के घर के लोगों पर हाथ भी नहीं रखना पड़ा; उन लोगों के पतरस के द्वारा दिए गए सुसमाचार पर विश्वास करते ही, पवित्र आत्मा स्वयं ही उन पर उतर आया (प्रेरितों 10:44; 11:15)। रोचक बात है कि आगे चल कर प्रभु यीशु का भाई, याकूब, अपनी पत्री में शारीरिक रोग से चंगाई पाने के लिए कलीसिया के अगुवों से तेल लगा कर प्रार्थना करवाने के लिए तो कहता है (याकूब 5:14-15), और लिखता है कि विश्वास की प्रार्थना से चंगाई भी मिलेगी और पापों की क्षमा भी। परन्तु न तो याकूब, और न ही नए नियम का कोई अन्य लेखक कभी भी किसी भी स्थान पर, मसीह में विश्वास लाने वालों से यह कहता है कि वे कलीसिया के अगुवों से हाथ रखवा कर प्रार्थना करवाएँ और वे पवित्र आत्मा प्राप्त करेंगे। यह शिक्षा भी बाइबल में कहीं नहीं है, और इस शिक्षा को देने वाले बाइबल की बातों का गलत उपयोग और व्याख्या करते हैं, अनुचित करते हैं।
- क्रमशः
अगला लेख: क्या पवित्र आत्मा प्राप्त करने के लिए प्रतीक्षा करनी पड़ती है? (1)

सोमवार, 27 अप्रैल 2020

पवित्र आत्मा पाना भाग 3 – विशेष प्रयास – प्रेरितों और अगुवों के सहायता से (3)



2. क्या पवित्र आत्मा प्रेरितों या कलीसिया के अगुवों की सहायता से मिलता है?

(भाग 3 – तीन उदाहरणों की समझ)


अब उपरोक्त संबंधित बातों के आधार पर इन तीन उदाहरणों को समझते हैं: पहली बात जो पहले ही कही जा चुकी है – इन में से किसी ने भी कभी भी पवित्र आत्मा को पाने के लिए कोई प्रार्थना, प्रयास, या इच्छा नहीं दिखाई; उन्हें जब पवित्र आत्मा दिया गया, वह परमेश्वर के समय, विधि और इच्छानुसार दिया गया। केवल एक ने ही पवित्र आत्मा को दूसरों को देने की सामर्थ्य पाने की इच्छा व्यक्त थी, शमौन टोनहा करने वाले ने, और उसका वास्तविक उद्धार ही नहीं हुआ था, और उसके यह कहने के लिए उसकी तीव्र निंदा की गई, उससे पश्चाताप करने के लिए कहा गया! दूसरी बात, यहूदियों से भिन्न ये तीनों वर्ग – सामरी, अन्य-जाति, और युहन्ना बपतिस्मा देने वाले के शिष्य, इन तीनों के मसीही विश्वास में आने और पवित्र आत्मा पाने का उल्लेख केवल प्रेरितों के कार्य – जो कि पहली मसीही मण्डली के आरंभिक कार्यों का इतिहास है, में ही दिया गया है। एक बार जब इन सभी वर्गों में से लोग आकर विश्वास के द्वारा प्रभु की कलीसिया, उसकी देह के साथ जुड़ गए, तो इसके बाद कभी भी किसी भी पत्री के लेखों में (जो सभी कलीसियाओं के सुधार और विकास के लिए पवित्र आत्मा के द्वारा अनेकों बातों, धारणाओं, परम्पराओं आदि को छोड़ने, सुधारने, या अपनाने के लिए बताए गए निर्देश हैं), कहीं भी यह शिक्षा नहीं दी गई है कि मसीही विश्वास में आने के बाद किसी भी विश्वासी को पवित्र आत्मा प्राप्त करने के लिए अलग से कुछ भी करने की आवश्यकता है, और न ही कहीं भिन्न मसीही विश्वासियों की भिन्न पृष्ठभूमि से होने के किसी महत्व के होने का कोई उल्लेख किया गया है। तीसरी बात, इन तीनों गैर-यहूदी समूहों के लोगों को उदाहरण बनाकर कभी भी, परमेश्वर के वचन में कहीं भी यह शिक्षा नहीं दी गई है, कि इनके समान ही, पवित्र-आत्मा पाने के लिए कलीसिया के किसी प्रेरित, या अगुवे, या किसी विशेष जन की किसी मध्यस्थता की कोई आवश्यकता है। पत्रियों में कलीसिया के अगुवों की जिम्मेदारियों को तो बताया और सिखाया गया है, किन्तु कहीं यह नहीं कहा गया है कि उन्हें लोगों को पवित्र आत्मा प्राप्त करने में सहायक भी होना चाहिए। चौथी बात, इन तीनों को आधार बना कर बाइबल में कभी भी कहीं पर भी ऐसी कोई शिक्षा तो दूर, हलका सा कोई संकेत भी नहीं आया है कि ये घटनाएं उदाहरण हैं कि पवित्र आत्मा पाने के लिए कुछ प्रतीक्षा, या कुछ विशेष करना पड़ता है, पवित्र आत्मा उद्धार पाते ही तुरंत ही नहीं मिल जाता है।

अर्थात, प्रेरितों के कार्य में उल्लेखित ये घटनाएं, उन विभिन्न गैर-यहूदी वर्गों के कलीसिया में यहूदियों के साथ ही मिला कर एक कर दिए जाने का प्रतिनिधित्व मात्र करने के उदाहरण थीं। एक बार जब कलीसिया सब प्रकार के लोगों से मिल कर एक बन गई तो फिर उन्हें किसी भी आधार पर अलग-अलग देखने की कोई आवश्यकता नहीं रह गई। इनमें तीसरी घटना में, पौलुस द्वारा यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले के शिष्यों से पूछा गया एक महत्वपूर्ण प्रश्न है, जो कि आरम्भ में दिए गए तर्क – पवित्र आत्मा वास्तविकता में उद्धार पाते, मसीही विश्वास में आते ही मिल जाता है, की एक और पुष्टि है। पौलुस ने पूछा, “...क्या तुम ने विश्वास करते समय पवित्र आत्मा पाया? उन्होंने उस से कहा, हम ने तो पवित्र आत्मा की चर्चा भी नहीं सुनी” (प्रेरितों के काम 19:2)। अर्थात पौलुस को यही स्वाभाविक आशा थी कि जब वे लोग मसीही विश्वास में आए थे, तो उन्होंने तब ही पवित्र आत्मा प्राप्त कर लिया होगा। किन्तु आगे के वार्तालाप (पद 3-7) से स्पष्ट होता है कि वास्तव में वे सच्चे मसीही विश्वास में आए ही नहीं थे, इसलिए पवित्र आत्मा पाने का तो प्रश्न ही नहीं उठता था। और जब वे पौलुस की सेवकाई के द्वारा वास्तव में वे लोग मसीही विश्वास में आए, तो उन्होंने पवित्र आत्मा भी तभी तुरंत ही पा लिया।

इसलिए इन उदाहरणों का यह कहने और सिखाने के लिए प्रयोग करना कि पवित्र आत्मा अलग से मिलता है, इस बात से संबंधित तथ्यों की गलत समझ रखना और व्याख्या करना है। यह ऐसे गलत निष्कर्ष निकलना और सिखाना है, जिनका परमेश्वर के वचन के आधार पर कोई समर्थन नहीं है। जब इन घटनाओं को भी उनके सही संदर्भ में और परमेश्वर के वचन की अन्य सम्बंधित शिक्षाओं के साथ देखा जाता है तो सत्य उजागर हो जाता है।

- क्रमशः

अगला लेख: क्या पवित्र आत्मा अगुवों या प्रेरितों द्वारा हाथ रखने से मिलता है?


रविवार, 26 अप्रैल 2020

पवित्र आत्मा पाना भाग 3 – विशेष प्रयास – प्रेरितों और अगुवों के सहायता से (2)



2. क्या पवित्र आत्मा प्रेरितों या कलीसिया के अगुवों की सहायता से मिलता है?

(भाग 2 – यहाँ पर ध्यान रखने योग्य संबंधित शिक्षाएं)


 किन्तु इस बात को थोड़ा सा विस्तार से देखने से पहले, कुछ संबंधित बातों पर ध्यान करने की आवश्यकता है:
समस्त कलीसिया की एकता: इसके लिए कृपया इफिसियों 2:12-22 ध्यान से, प्रार्थना पूर्वक, और बारंबार पढ़िए। इफिसियों के इस खंड में दी गई शिक्षा का सार यही है कि प्रभु यीशु द्वारा समस्त संसार के लिए उपलब्ध करवाए गए उद्धार और परमेश्वर के साथ मेल-मिलाप से पहले, संसार के मनुष्यों के मध्य परमेश्वर की व्यवस्था, उसकी शिक्षाएं और बातें, तथा परमेश्वर तक पहुँच की प्रणाली केवल यहूदियों के पास ही उपलब्ध थी। यह बात यहूदियों के लिए बड़े घमण्ड का विषय था, और इसके अंतर्गत वे अपने आप को संसार के अन्य सभी लोगों से बहुत बढ़कर समझते थे। किन्तु अब, प्रभु यीशु मसीह के द्वारा किए गए कार्य के उपरान्त, यह सारी बातें संसार के सभी लोगों के लिए उपलब्ध हो गई हैं, अब इन पर यहूदियों ही का एकाधिकार नहीं रहा है – अब सभी मसीही विश्वासी जन मसीह यीशु में विश्वास में आ जाने पर एक कर दिए गए हैं, मसीह यीशु में हो जाने के बाद यहूदियों और गैर-यहूदियों में कोई भिन्नता नहीं रही है, और सभी एक साथ मिलकर प्रभु यीशु और भविष्यद्वक्ताओं की शिक्षाओं की नींव पर पवित्र आत्मा के द्वारा परमेश्वर का निवास स्थान बनाए जा रहे हैं (इफिसियों 2:20-22) – एक ही शिक्षा पर, एक ही आत्मा के द्वारा, एक ही परमेश्वर के लिए, एक ही प्रकार के लोग, एकत्रित, कार्यान्वित, और उपयोगी किए जा रहे हैं (इफिसियों 4:4-6), बिना किसी भी प्रकार के किसी भी भेदभाव के।

एक किए जाने से पूर्व के सामाजिक वर्ग: मसीही विश्वासियों की प्रथम मण्डली स्थापित होने के समय में, इस्राएल के निवासियों के दृष्टिकोण से समाज के लोगों को मुख्यतः चार प्रकार के वर्गों में देखा जाता था – (1) यहूदी, जो परमेश्वर की चुनी हुई प्रजा थे; जिनके पास परमेश्वर की व्यवस्था, विधियां, वचन थे; जिनके पास परमेश्वर का मंदिर और उसकी उपासना और आराधना का दायित्व था; और इसलिए वे अपने आप को मनुष्यों में सर्वोच्च स्तर का समझते थे, उन्हें लगता था कि उनके समान कोई अन्य न तो है और न हो सकता है। (2) सामरी लोग, जो न तो पूर्णतः यहूदी थे, और न ही पूर्णतः अन्य-जाति वरन बीच में कहीं थे। यहूदी उन्हें अपने समान नहीं मानते थे, और वे सामरी, स्वयं को याकूब की संतान होने, तथा यहूदी व्यवस्था, आराधना, और विधियों के पालन करने वाले होने के कारण (यूहन्ना 4:9, 12, 20, 25), यहूदियों ही के समान अपने आप को अन्य-जाति लोगों से भिन्न समझते थे। (3) अन्य-जाति या गैर यहूदी, जिन्हें परमेश्वर के जन या कृपा के पात्र होने के योग्य भी नहीं समझा जाता था; यहूदी उन से कोई भी व्यवहार रखना अधर्म समझते थे (प्रेरितों 10:28)। (4) यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले के अनुयायी, जिनमें से निकलकर पतरस, अन्द्रियास आदि प्रभु के पास आए थे (यूहन्ना 1:35-42); यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले के चेले यहूदी तो थे, किन्तु यूहन्ना की शिक्षाओं के पीछे चल निकलने के कारण यहूदी मुख्य धारा से पृथक देखे जाते थे। इन सभी वर्गों के लोगों के पास परमेश्वर ने यहूदियों में से आए मसीही विश्वासियों, अर्थात, फिलिप्पुस, पतरस, यूहन्ना, और पौलुस को सुसमाचार के साथ भेजा, और उन यहूदी मसीहियों की सेवकाई में होकर उन लोगों ने भी वही पवित्र आत्मा पाया जो आरंभ में यहूदी विश्वासियों ने पाया था। उन के लिए यह होना परमेश्वर के वचन में प्रभु यीशु की बात की पुष्टि तथा परमेश्वर की इच्छानुसार हुआ कार्य कहा गया (प्रेरितों 11:15-18)।

कहने का अभिप्राय यह है कि परमेश्वर ने यहूदियों से भिन्न या नीचे समझे जाने वाले प्रत्येक वर्ग के लोगों को, यहूदियों के द्वारा ही, अपने साथ मिला लिया – जो इफिसियों 2:20-22 के व्यावहारिक प्रयोग का उदाहरण है – सब को एक देह में एक साथ, परमेश्वर का एक ही मंदिर होने के लिए जोड़ लिया। ऐसा करना इसलिए आवश्यक था, जिससे यहूदियों में से मसीही विश्वासी बने शिष्य भी यह स्वयं ही देख, समझ और मान लें कि अब प्रभु में होने के बाद न तो वे कोई विशेष हैं, और न ही गैर-यहूदी उनसे निचले स्तर के हैं (प्रेरितों 10:28, 35; 11:1-4, 18)। यदि यह बात और कार्य यहूदी मसीही विश्वासियों के समक्ष और उन ही के माध्यम से नहीं होता, और इसके विषय उन आरंभिक यहूदी विश्वासियों, प्रेरितों और कलीसिया के अगुवों, तथा अन्य मसीही विश्वासियों की समझ और धारणाएं नहीं सुधारी जाती और बदलतीं, तो उन और उन के बाद के यहूदी विश्वासियों के लिए यह स्वीकार करना बहुत कठिन होता कि गैर-यहूदी भी प्रभु यीशु में होकर उन ही के समान के स्तर के हो गए हैं, और उनके पास भी अब वही और वैसा ही पवित्र-आत्मा, तथा परमेश्वर की संतान होने का आदर है। और यदि यह नहीं होता तो उस स्थिति में, कलीसिया में आरम्भ ही से बहुत बड़ा विभाजन और मत-भेद हो जाता, जिसे बाद में पाट पाना बहुत कठिन होता। इस सन्दर्भ में, यह ध्यान देने योग्य बात है कि इतने प्रमाणों और स्पष्टीकरणों के बावजूद, आरंभिक कलीसिया में यह मतभेद तुरंत ही नहीं गया, भेदभाव फिर भी होता रहा (प्रेरितों 6:1); शैतान प्रभु के लोगों के मध्य विभाजन और झगड़े खड़े करने का कोई अवसर नहीं छोड़ता है।

- क्रमशः

अगला लेख: तीनों उदाहरणों की समझ

शनिवार, 25 अप्रैल 2020

पवित्र आत्मा पाना भाग 3 – विशेष प्रयास – प्रेरितों और अगुवों के सहायता से (1)



2. क्या पवित्र आत्मा प्रेरितों या कलीसिया के अगुवों की सहायता से मिलता है?

(भाग 1 – तीन उदाहरण)


कुछ अन्य उदाहरण जिनकी गलत व्याख्या और प्रयोग के द्वारा यह प्रमाणित करने का प्रयास किया जाता है कि पवित्र आत्मा अलग से पाया जाता है, प्रभु यीशु पर विश्वास करने से तुरंत ही नहीं मिल जाता है, हैं :
·         पतरस और यूहन्ना द्वारा सामरिया के लोगों को पवित्र आत्मा दिया जाना (प्रेरितों 8:14-17);
·         पतरस द्वारा अन्यजाति कुरनेलियुस के घर जा कर प्रचार करना, और उन अन्य-जाति लोगों का पवित्र आत्मा पाना (प्रेरितों अध्याय 10, 11);
·         पौलुस के द्वारा, यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले के शिष्यों को पवित्र आत्मा दिया जाना (प्रेरितों 19:1-7)।

किन्तु यहाँ भी यदि हम गलत व्याख्या करने से संबंधित उपरोक्त दोनों गलतियों में न पड़ने का ध्यान रखें, तो बात प्रगट हो जाती है कि ये उदाहरण भी कदापि यह नहीं सिखा रहे हैं कि पवित्र आत्मा अलग से, या प्रयास से, अथवा किसी प्रभु के सेवक की मध्यस्थता से दिया जाता – ध्यान कीजिए कि इन तीनों स्थितियों में से किसी एक भी स्थिति में पवित्र आत्मा प्राप्त करने वालों में से किसी एक ने भी पवित्र आत्मा पाने के लिए कोई निवेदन या प्रार्थना, या कोई अलग और विशेष प्रार्थना अथवा प्रयास नहीं किया; और न ही किसी भी प्रेरित या प्रभु के शिष्य ने उन में से किसी से भी पवित्र आत्मा प्राप्त करने की इच्छा व्यक्त करने के लिए कुछ कहा। उन सभी को पवित्र आत्मा स्वतः ही परमेश्वर की ओर से दिया गया; उन के अपने किसी आग्रह के अंतर्गत नहीं।

केवल एक था जिसने यह पवित्र आत्मा लोगों को देने का विशेष गुण मांगा था – सामरिया का शमौन टोनहा करने वाला, और कहने को तो उसने भी विश्वास किया और बपतिस्मा लिया था (प्रेरितों 8:13) किन्तु वह वास्तविक उद्धार पाया हुआ नहीं था! और उसकी इस इच्छा के लिए पतरस ने उसकी तीव्र भर्त्सना की, उसे अधर्म के बंधन में जकड़ा हुआ बताया, परमेश्वर से क्षमा प्राप्त करने के लिए पश्चाताप करने को कहा (प्रेरितों 8:18-23)। इस एक व्यक्ति के अतिरिक्त बाइबल में कोई अन्य नहीं है जिसने कभी पवित्र आत्मा के लिए कोई विशेष आग्रह किया हो, और न ही कोई प्रेरित अथवा शिष्य है जिसने किसी को कभी यह शिक्षा दी हो कि जिन्होंने उद्धार पाया है उन्हें पवित्र आत्मा पाने के लिए अलग से कुछ विशेष प्रयास, या प्रार्थना, या प्रतीक्षा करनी चाहिए। यह शिक्षा बाइबल के अनुसार है ही नहीं!
- क्रमशः

अगला लेख: यहाँ पर ध्यान रखने योग्य संबंधित शिक्षाएं

शुक्रवार, 24 अप्रैल 2020

पवित्र आत्मा पाना – 2 – विशेष प्रयास – माँगने से – लूका 11:13 (भाग 3)



क्या पवित्र आत्मा प्राप्त करने के लिए कुछ विशेष करना पड़ता है?

1. क्या पवित्र आत्मा प्रभु से मांगने से मिलता है? (लूका 11:13)

(संबंधित चौथी बात एवं निष्कर्ष)

(4) उपरोक्त बातों के आधार पर वह बहुत ही महत्वपूर्ण चौथी बात जिसे हमें बड़े ध्यान से समझना है और फिर जिसका हमें सावधानी से पालन करना चाहिए, वह है कि मसीही विश्वासी होने का दावा करने वालों में अवश्य ही कुछ ऐसे भी होंगे जो प्रभु और उसके वचन की परख के अनुसार सच्चे मसीही विश्वासी नहीं हैं, इसलिए उनमें पवित्र आत्मा की उपस्थिति कदापि नहीं होगी। इन अंत के दिनों के लिए प्रभु ने पहले से ही सचेत कर दिया है कि ऐसे बहुतेरे ‘विश्वासी’ आएँगे जो “भक्ति का भेस तो धरेंगे, किन्तु उसकी शक्ति को नहीं मानेंगे” (2 तीमुथियुस 3:5)। ऐसे लोग प्रभु यीशु के प्रति चाहे कितनी भी भक्ति या विश्वास रखने का दावा करते रहें, कितने भी समय से मसीही मंडली का भाग रहे हों, मंडली में कितने भी सक्रिय रहे हों; उनके द्वारा कैसे भी और कितने भी अद्भुत काम और प्रचार क्यों न हुए हों (मत्ती 7:21-23), वे वास्तव में प्रभु के शिष्य, उस के सच्चे समर्पित और आज्ञाकारी जन हैं ही नहीं। ऐसे लोग चाहे कितना भी मांग लें, किन्तु उन्हें पवित्र आत्मा तब तक मिलेगा ही नहीं जब तक कि वे सच्चे पश्चाताप, पापों के अंगीकार और क्षमा प्राप्ति, जीवन समर्पण, और वचन की आज्ञाकारिता के साथ वास्तव में प्रभु के जन न हो जाएं। इसके विपरीत ऐसे लोग भी होंगे जिन्होंने आरंभ से ही सच्चे मन से पश्चाताप किया, वास्तव में प्रभु यीशु के आज्ञाकारी हो गए, और प्रभु को सच में अपना जीवन समर्पण कर दिया; और इसलिए प्रभु का पवित्र आत्मा उनके मसीही विश्वास में आते ही तुरंत ही उनके अन्दर निवास तथा कार्य करने लग गया।

अब, वचन की संबंधित शिक्षाओं और वास्तविकता पर ध्यान किए बिना, मात्र बाहरी स्वरूप और दिखावे के लिए उनके द्वारा किए जाने वाले कार्यों के आधार पर, इस तथ्य की यह व्याख्या करना कि किसी को पवित्र आत्मा शीघ्र दे दिया जाता है, और किसी को विलम्ब से; इसलिए जिसे नहीं दिया गया है वह इसके लिए प्रार्थना, उपवास, या अन्य प्रयास करे और प्रभु से माँगे, प्रभु के सामने गिड़गिड़ाए, उन से प्रभु के नाम में झूठ बोल कर बात का बिलकुल गलत अर्थ प्रस्तुत करना है; लोगों को पवित्र आत्मा पाने के विषय बिलकुल गलत शिक्षा, जो कि परमेश्वर के वचन से बिलकुल मेल नहीं खाती है, देना और भरमाना है; उन्हें सच्चाई को पहचानने और उस का सामना करने में सहायता कर के बच जाने के स्थान पर, उन्हें नरक में धकेलना है। और ऐसा करने वाले सभी प्रचारकों, शिक्षकों, पादरियों, और कलीसिया के अगुवों से परमेश्वर हिसाब लेगा, वे बचेंगे नहीं (यहेजकेल 33:1-9)।

इसके विपरीत, बाइबल के तथ्यों के आधार पर, सभी प्रचारकों, शिक्षकों, पादरियों, और कलीसिया के अगुवों को सभी लोगों को यह समझाना और बताना चाहिए कि क्योंकि पवित्र आत्मा सभी मसीही विश्वासियों में उन के वास्तव में विश्वास में आते ही, बिना कोई अन्य प्रयास किए, स्वतः ही आ जाता है, और सदा उन के साथ बना रहता है, कभी छोड़ कर नहीं जाता है, इसलिए यदि उन्हें लगता है कि उनके अन्दर पवित्र आत्मा नहीं है, तो इसके दो ही अर्थ हो सकते हैं – या तो उन्होंने उसे पाया ही नहीं है; अर्थात उनका मसीही विश्वास में होने का दावा सही नहीं है, और उन्हें इसके लिए उपयुक्त पश्चाताप और समर्पण करना चाहिए। या फिर वे पवित्र आत्मा की आज्ञाकारिता और समर्पण में नहीं जी रहे हैं, जिस कारण से वह उनके जीवन में कार्यकारी नहीं हो रहा है। इसलिए या तो वे अपने उद्धार पाने को सुनिश्चित कर लें, या फिर यदि उनका उद्धार सच्चा है तो अपनी इच्छा के अनुसार करना छोड़ कर, परमेश्वर के वचन और पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन के अनुसार करना आरम्भ कर दें (गलातियों 5:25), जिससे वह उनके जीवन में कार्यकारी तथा प्रभावी हो सके। आवश्यकता पवित्र आत्मा को मांगने की नहीं है, आवश्यकता है सच में उद्धार पाने और फिर उसके प्रति समर्पित और आज्ञाकारी रहने की है।

 इसलिए लूका 11:13 को आधार बनाकर यह कहना कि पवित्र आत्मा प्रभु से मांगने से मिलता है, इसलिए हमें प्रभु से प्रार्थना का के पवित्र आत्मा मांगना चाहिए, प्रभु के कथन की गलत व्याख्या और समझ है। इस पद के आधार पर यह गलत शिक्षा देना अनुचित है। इस पद को उसके सही सन्दर्भ तथा सम्बंधित पदों के साथ देखने से ही उसकी बात की वास्तविकता समझी जा सकती है।

- क्रमशः

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