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सोमवार, 21 दिसंबर 2009

सम्पर्क मई २००९: अंधेरों में उजाले ढूँढती ज़िन्दगी

“मैं प्रमाणित करता हूँ कि स्वर्ग निवासी श्री परमानन्द परमेश्वर ही वास्तविक और इकलौते परमेश्वर हैं और सारी मिलकियत के मालिक हैं।”
हस्ताक्षर:

सम्पर्क सम्पादक


क्या परमेश्वर को ऐसे किसी प्रमाणपत्र की आवश्यक्ता है? अगर मैं उसके अस्तितव का इन्कार करूँ तो उसके अस्तितव पर क्या कोई फर्क पड़ने वाला है? ज़रा इस बात को इस उदहरण से समझिये: क्या एक लावरिस, अनाथ बच्चा जिसने अपने माँ-बाप को कभी देखा न हो कह सकता है कि मेरा जन्म देने वाला कोई है ही नहीं? पर ऐसे कई बेवकूफ मौजूद हैं जो कहते हैं कि सृष्टि को जन्म देने वाला कोई है ही नहीं, परमेश्वर का वचन उन्हें मूर्ख की संज्ञा देता है-भजन ५३:१।

मैं धर्म पर विश्वास नहीं करता तो इसका मतलब यह नहीं कि मैं नास्तिक हूँ। क्या आस्तिक होने के लिये धर्म पर विश्वास करना ज़रूरी है? परमेश्वर धर्म को नहीं इन्सान को प्यार करता है, हर एक इन्सान को। परमेश्वर के लिये इन्सान महत्वपूर्ण है, धर्म नहीं। हमारे धर्मों ने हमें आपस में बाँट दिया है। धर्म इन्सानियत पर एक ऐसा बोझ हैं जिसमें इन्सानियत का ही दम घुटने लगा है। इन्सानी सोच धर्म की ज़ंज़ीरों से ऐसी बन्धी है कि आदमी उससे ऊपर उठकर सोचता ही नहीं। मान लीजिए दो धर्म हैं और दोनो एक दूसरे के प्रति जलन, बदले के भाव और घमण्ड से भरे हैं कि हम ही अच्छे और सच्चे हैं; तो दोनो में क्या फर्क है? हाँ उनके बाहरी रूप में, उनके नाम में, उनके रीति-रिवाज़ों में फर्क हो सकता है; पर भीतर से, मूल स्वरूप में तो सब एक सा ही है। धर्म हमें एक विशेष विचारधारा मानने और उसका पालन करने को विवश करता है।

धर्म तो मात्र एक आवरण है, आचरण नहीं। कोई किसी भी धर्म को मानता हो, इसाई, मुसलिम, हिन्दू, सिख या अन्य कोई भी धर्म; हर धर्म को मानने वाले अधिकांशतः एक सा ही स्वभाव रखते हैं, एक से ही कार्य करते हैं जैसे झूठ बोलना, धोखा देना, जलन-विरोध रखना, पत्नियों को पीटना, लालच और बुरी ललसाएं रखना आदि। उनके कर्म एक से हैं सिर्फ धर्म अलग-अलग हैं।

हमारे धर्म बहुत क्रूर हो गये हैं। उनमें दया, प्रेम, सहनशीलता और दीनता नहीं रही। अब उनमें बदले के भाव, घृणा और अहंकार भरा है - हम श्रेष्ट हैं और दूसरे तुच्छ हैं। आज दूसरे धर्म का इन्सान हमें दुश्मन दिखने लगा है। जो हमारे धर्म को नहीं मानते उन्हें हम विधर्मी मानने लगते हैं। कितनी संकीर्ण है यह सोच कि धर्मी वही है जो मेरे धर्म को मानता है। आदमी धर्म से अच्छा या बुरा नहीं होता पर कर्म से अच्छा या बुरा होता है।

जिस ज़मीन पर हम जी रहे हैं उस ज़मीन को हमने बरबाद कर डाला है। अब हम अपनी बरबादी पर खड़े हैं। कोई बचाव अब बचा ही नहीं है। ज़मीन और ज़मीर मरने पर हैं। अब बेवकूफी की दलीलें देने और तर्कों को बैठाने से समस्याओं का समाधान नहीं होने वाला। फिर भी इस गफलत में पड़े जीते हैं कि जैसे कभी मरेंगे नहीं। अन्तः हमें कड़ुवी सच्चाई का सामना करना ही पड़ेगा। अब इस संसार की दुष्टता की सीमाएं परमेश्वर के सहने से बाहर हो चुकी हैं।

रिक्शा वाला यदि रिश्वत नहीं लेता तो क्या ऐसी ईमानदारी को ईमानदारी कहेंगे? यह उसकी मजबूरी है। ऐसे ही कुछ लोग मजबूरी में ईमानदार हैं, क्योंकि उन्हें बेईमनी करने का मौका ही नहीं मिला। तो क्या ऐसे लोगों को ईमानदार कहा जा सकता है? कहते हैं कि अमीर आदमी गरीबों का शोषण करते हैं। पर सच्चाई इस से कुछ हट कर है, मामला बस मौके का है। ध्यान कीजिए, यदि आपके शहर में कोई नया आदमी फंस जाए तो क्या रिक्शेवाला उससे पाँच की बजाए पच्चीस नहीं लपेट लेगा? वह चूना लगाने में ज़रा भी चूक नहीं करेगा। ऐसे ही हर कोई, अमीर हो या गरीब, मौका पड़ने पर अपना दाँव खेल जाता है और अपनी पौ-बारह करने से नहीं चूकता।

शरीर है तो शरारत तो करेगा ही, चाहे छिपकर करे या खुलकर। ऊपर से आप जो भी हों जैसे भी हों पर अस्ल बात तो यह है कि आप अन्दर से कैसे हैं? व्यभिचार को बुरा तो सब कहते हैं पर मौका पड़ते ही, कुछ छुपकर तो कुछ खुलकर, उसका मज़ा भी ले लेते हैं। जब ज़मीर मर जाता है तो इन्सान सबसे ज़्यादा खतरे की ज़मीन पर आ खड़ा होता है। आज आदमी का ज़मीर मर गया है इसलिए आदमी इतना भयानक बन गया है कि अपने ही बच्चों की हत्या करवाने में नहीं हिचकता। माँ-बाप अपनी बेटी की सुपारी डॉकटर को देकर माँ के पेट में ही अपनी बेटी की हत्या निसंकोच करवा देते हैं।

मरते हुए बाप ने बेटे को नसीहत देनी चाही और अपनी ज़िन्दगी के अनुभव का निचोड़ उससे कहा कि “बेटा मैंने यही सीखा है कि पैसे से सुख नहीं खरीदा जा सकता।” बेटा बोला “पिताजी एक बात मैं भी आप से कहना चाहूँगा, फिर मौका हो न हो, यह तो सच है कि पैसे से सुख नहीं खरीदा जा सकता, पर पैसे से मनपसंद दुख तो खरीद सकते हैं। झोंपड़ी में भी दुख है और महल में भी दुख है, यदि दुख ही भोगना है तो फिर क्यों न महल में ही भोगें?” बाप के पास कोई जवाब नहीं था, वह खामोश अपने बेटे को देखता रहा और आते समय में उसके आचरण और भविश्य के बारे में सोचता रहा।

बाप और बेटे की सोच में फर्क है। बेटा बाप की बात से सहमत नहीं है। घर में तनाव है , पत्नि को पति की शकल देखकर गुस्सा चढ़ने लगता है। परिवार में सब कुछ है पर खुशी नहीं है। घर में दम घुटने सा लगा है। बाप बेटा, बेटी, पती-पत्नि में दूरी आने लगी है। रिशतेदारी पहले जैसी नहीं बची। रिशते झूठे पड़ते जा रहे हैं, रिशतों में मिलवाटी और दिखावटी अंदाज़ रह गया है। बस कहने भर को रिशते हैं। इसी मिलवट ने हमारा चैन खो दिया है, हमारी खराई खो दी है, बहुत से रिशते और पड़ौसी खो दिये हैं।

आज ३०,००० हज़ार करोड़ का मिलवटी सामान हमारे भारत के बाज़ार में फैला हुआ है। मिलवाटी युग है जहाँ प्यार में स्वार्थ मिल है, सत्य मे असत्य मिलकर परोसा जाता है। हवा, पानी, धर्म और सब सामान मिलवटी है। पैसा पाने की दौड़ में इन्सानियत कहीं खो गई है।

आज आदमी इस कदर घमंडी है कि अपने बुरे कामों पर भी अपने भले कामों की तरह ही घमंड करता है। ज़रा कुछ आमतौर पर उपयोग होने वाले वाक्यों में झाँक कर देखिये कि कैसी-कैसी बातों में वह घमंड करता है: “क्या बेवकूफ बनाया उसे”, “कितने बढ़िया तरीके से चूना लगाया है”, “ यार ऐसा कोई सगा नहीं जिसे हमने ठगा नहीं” आदि। इन वाक्यों में आपको क्या झलकता है?

आज आदमी की मानसिकता बदल गई है। वह सिर्फ अपने स्वार्थ की सोच से बंधा है। वह अपना और अपनों से आगे सोचना ही नहीं चाहता। बदले हुए संसार के साथ इन्सान इतना बदल गया है कि अब उसे इन्सान कहना मुशकिल है।

जीवन में कुछ कमी सी चुभती है, ऐसा लगता रहता है कि कहीं कुछ है जो अभी पाया नहीं है। पैसा पाया, पद पाया, और जो कुछ संसार दे सकता था वह सब पाया पर फिर भी जीवन का आनन्द नहीं पाया तो क्या पाया? कहीं संतुष्टी और चैन नहीं दिखता। इन्सान करे तो क्या करे?

अगर खाने में सब हो, नमक न हो,
तो सब बेकार है।
जीवन में सब कुछ हो, शांति न हो,
तो सब बेकार है।
घर में सब कुछ हो, खुशी न हो,
तो सब बेकार है।

यह सब पढ़कर जीवन में परिवर्तन न हो तो यह पढ़ना भी बेकार है।

मौत के दफ्तर में किसी दिन छुट्टी नहीं होती। हर घंटे में १११२ और हर मिनिट में १८ आदमी मर रहे हैं। आज उसका तो कल मेरा और परसों आपका वक्त आ सकता है। वक्त रुकता नहीं। यह शरीर तो शमशान की अमानत है और शमशान से आगे इसे कोई भी नहीं ले जा पाएगा। कुछ विद्वान लोग मौत के बाद की बात सुनकर मुस्कुराते हैं जैसे कि कोई बेवकूफी की बात कह दी हो। परन्तु इस जीवन के बाद भी एक जीवन है और यहाँ की मौत के आगे भी एक मौत है। आपके हर पाप आपके साथ जाएंगे। आपके इन्हीं पापों ने आपको न तो यहाँ चैन से जीने दिया और न मौत के बाद भी चैन लेने देंगे।

पाप आदमी के लिये ही नहीं, सारे संसार के लिये श्राप है। सारा संसार श्राप को भोग रहा है। इससे कोई घर नहीं बचा। पाप ने ही आदमी के इस जीवन को और इसके बाद के जीवन को नरक बना डाला है। आप चाहे किसी भी धर्म के क्यों न हों, अगर आपके जीवन में पाप है तो आपका जीवन श्राप है। पाप ऐसा श्राप है जो मौत के बाद भी पीछा नहीं छोड़ेगा।

स्वर्ग को आकाश में रखने की ज़रूरत नहीं है। स्वर्ग को मन में लाने की ज़रूरत है। स्वर्ग आपके जीवन और परिवार में भी आ सकता है। आप यदि पाप के साथ जी रहे हैं तो आप नरक के साथ जी रहे हैं। मैं नरक जाने की बात नहीं कर रहा हूँ, नरक तो हम यहीं भोगना शुरू कर देते हैं। अगर आप पाप कि क्षमा के साथ जी रहे हैं तो आप स्वर्ग के साथ जी रहे हैं। हमारे पाप हमारी सारी आशीशें सोख़ लेते हैं, बस एक बंजर रेगिस्तान सा जीवन ही जीने के लिये रह जाता है।

शायद कितने ही लोग जो इन पंक्तियों को पढ़ रहे हैं अपने आप से और अपने हालात से हार हुए होंगे। शायद कुछ ने बहुत बार खुद संवरने और हालात संवारने की नाकाम कोशिश भी करी होगी और अब सोचते होंगे कि करें तो क्या करें? अगर आप अपने आप से, अपने ग़लत कामों से, ग़लत आदातों से, क्रोध, सिग्रेट-बीड़ी-शराब से, घर के झगड़ों से, शरीर या मन की बीमारियों से, थक चुके हैं और कोई रास्ता आपको सूझ नहीं पड़ता तो सच मानिये यह संदेश आप ही के लिये है। आपकी सारी समस्याओं और आपकी बेचैनी का इलाज भी है।

शायद यह आपके लिये आखिरी समय और आखिरी संदेश हो सकता है। जब तक आप में साँस है तब तक आस है। पर साँस की कोई आस नहीं कि कब दग़ा दे जाये। आखिर कब तक इस समय को खोते रहोगे, कितना और? शायद आपने बहुत कुछ खो दिया है - समय, और समय के साथ मौके, और मौकों के साथ कितनी ही आशीशें। आखिर कब तक और क्यूँ? इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप किस धर्म को लेकर जीते हैं, आपने कैसे और कितने पाप किये हैं। यीशु में सबको क्षमा करने की सामर्थ है।

शायद आदमी सब छोड़ सकता है, शरीर को तो एक दिन छोड़ ही देगा, पर पाप और उसके श्राप को नहीं छोड़ सकता। पाप के श्राप और उस श्राप के डंक से केवल प्रभु यीशु ही छुड़ा सकता है। उसने आपके लिये वह सब कुछ कर दिया है जो पाप और उसके श्राप से छूटने के लिये आपको चाहिये। अब आपको कहीं जाने या कुछ और करने की ज़रूरत ही नहीं बची है। बस आपको अपने पाप की क्षमा ही तो माँगनी है, सिर्फ सच्चे मन से इतना ही तो कहना है कि “हे यीशु मुझ पापी पर दया करें, मेरे पाप क्षमा करें।”

नीत्शे एक प्रसिद्ध दार्शनिक और नास्तिक था जिसने एक विचारधारा को जन्म दिया कि जब कोई किसी पर करुणा या दया दिखाता है तो वह अपनी शक्ति गवाँ देता है। कहने का तात्पर्य था कि ‘न्याय’ यदि दया दिखाएगा तो अपनी न्याय देने की शक्ति गवाँ देगा। एक समय उसके जीवन में ऐसा भी आया कि यह दरशनशास्त्री पागल हो गया। जिस वर्ष नित्शे पागल हुआ, उसी वर्ष अडोल्फ हिटलर का जन्म हुआ। उसने भी इस विचारधारा को धारण कर लिया। वह दूसरों को तुच्छ समझकर उनका अपमान करता था। मजबूर, कमज़ोर, अपंग और लाचार लोगों को राष्ट्र पर बोझ समझकर उस बोझ को हटाना चाहता था और ऐसी ही कई योजनाएं बनाता था।

आज हिटलर मर चुका है पर उसकी सोच नहीं मरी। उसका मानना था कि झन्डा डण्डे के सहारे ही ऊँचा उठाया जा सकता है। ऐसे ही कई लोग हैं जो अपने परिवार में डण्डे के सहारे ही अपनी पत्नी और बच्चों पर अपना झन्डा जमाने की कोशिश करते हैं।

पर यीशु मसीह में यह बात बिलकुल उलट है - दण्ड से बचाने के लिये दया कितनी ज़रूरी है। पाप के दण्ड से बचने का एक ही मार्ग है - ‘दया’ और ‘क्षमा’ का। यीशु ने एक ऐसी योजना बनाई जिसमें वह खुद शून्य हो गया ताकि कोई नाश न हो सके। उसने धर्म के लिये नहीं, इन्सान के लिये अपनी जान दी। यीशु की दया से सज़ा क्षमा में बदल जाती है और श्राप की जगह आशीश समा जाती है। उसने अपनी जान क्रूस पर देकर हमारे पापों की सज़ा को क्षमा में बदल डाला। इस क्षमा को प्राप्त करने के लिये आपको इसाई धर्म अपनाने की ज़रूरत नहीं है। इसाई धर्म तो एक परम्परा है, परम सत्य नहीं। सत्य तो परम परमेश्वर है। हम उन्हें प्यार नहीं कर सकते जिन्होंने हमारा बुरा किया है। पर प्रभु यीशु ने उनसे भी प्यार किया जो प्यार करने के लायक भी नहीं थे।

यीशु को यहूदी लोग विधर्मी मनते थे। उन्हें लगता था कि वह हमारा धर्म बिगाड़ रहा है। यीशु उनके धर्म का विरोधी नहीं था, पर उनकी मक्कारी, जलन, बैर, बदले की भावना और धर्म के नाम पर स्वार्थ सिद्धी के लिये लोगों को गुमराह करने का विरोध करता था। यीशु तो स्वयं भी इसाई नहीं थे और न ही उन्होंने कभी इस शब्द का प्रयोग किया। उनके ३०० साल बाद तक तो इसाई धर्म नाम की कोई चिड़िया भी नहीं थी। यीशु ने इसाई धर्म का मार्ग नहीं, सच्चाई का मार्ग बताया।

मैं आपको झंझोड़ कर जगाना चाहता हूँ ताकि आप अपने बारे में सही सोच सकें और सही फैसला ले सकें।

२३ साल का एक जवान जीवन से पूरी तरह हार चुका था। उसकी मौत मांगती हुई ज़िन्दगी में कोई उम्मीद ही नहीं बची थी। मई १९६९ की एक गरम रात में उपर के अकेले और अन्धेरे कमरे में वह अपने घुटनों के बल जा गिरा। कुछ मिनिटों में वह बिलकुल बदला हुआ बाहर निकला। कैसे और किसने उसका सब कुछ बदल डाला? एक छोटी प्रार्थना ने यह करिश्मा कर दिया, जी हाँ एक प्रार्थना ने - “हे यीशु मुझ पापी पर दया करें।” सच्चे दिल से निकली बस एक पुकार ने उसके जीवन को बदल डाला।

वह २३ साल का जवान आज ६३ साल का बूढ़ा हो चुका है, और आपके लिये इन शब्दों को लिख रहा है। मैं काली स्याही से अपने काले कारनामे नहीं लिख सकता। ऐसे काले कारनामे कि समाज उन्हें लिखने की इजाज़त नहीं देता और न ही मेरे पास उन्हें लिखने की हिम्मत है। उस समय मैं ही अपने आपको माफ नहीं कर पाता था। पर मेरे प्रभु ने कुछ पलों में ही मेरे सारे पापों को केवल माफ ही नहीं किया पर उसने मुझे ही बदल डाला। वही परमेश्वर आज आप से इन शब्दों के सहारे बात कर रहा है।

क्यों न आज आप भी कह दें “हे यीशु मुझ पापी पर दया करें।”

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