घर में एक माँ अपने बच्चे के बचे हुये भोजन के आखिरी निवाले को फेंकती नहीं, पर खुद खा लेती है क्योंकि उसमें उसकी लागत और मेहनत लगी है। वही माँ किसी शादी के भोज में उसी बच्चे की भोजन वस्तुओं से भरी हुई प्लेट को, जो वह खा नहीं पाता, बड़े आराम से कहती है, “इसे कचरे में डाल दे।” कहते हैं ‘माल-ए-मुफ्त दिल-ए-बेरहम’ यानि मुफ्त के माल को बड़ी बेरहमी से उपयोग किया जाता है। यह आदमी का स्वभाव है।
प्रभु ने हमें इतना प्रेम दिया, ऐसा बेमिसाल और बयान से बाहर प्रेम किया। क्योंकि प्रभु ने हमें यह प्रेम मुफ्त में दिया इसलिये मैं और आप इस प्रेम की कीमत को नहीं पहचानते, उसकी कद्र नहीं करते। उसने हमें अद्भुत जीवन दिया, और मुफ्त में दिया पर हमने उसकी कीमत को नहीं जाना। उसने इतना अद्भुत वचन दिया, मुफ्त दिया पर हमने उसके बेशकीमती होने को नहीं जाना।
चिंता ऐसी चिता है जिस पर आते ही आदमी मुर्दा सा हो जाता है। चिंता एक शक है जो मन पर सवार होते ही कहता है, क्या होगा? कैसे होगा? शक की लहरों पर डोलता मन हर एक लहर से कभी इधर तो कभी उधर होता रहता है। जब हम चिंता को पहन लेते हैं तो वह हमारे चेहरे और हमारे व्यवहार पर साफ झलकती है। मुझे मेरी प्यारी सी पत्नि सुंदर दिखना बंद हो जाती है, अच्छे से अच्छे खाने का मज़ा चला जाता है, भूख मरने लगती है, नींद उड़ने लगती है और ‘कल क्या होगा’ सोच सोचकर जीने का विश्वास जाता रहता है। लेकिन “धर्मी जन विश्वास से जीता है” (इब्रानियों १०:३८)। चिंता करने से कल के दुःख तो कम नहीं होते पर कल के दुःखों का सामना करने की शक्ति ज़रूर कम हो जाती है।
परमेश्वर ने चिड़िया को यदि चिंता करने की समझ दी होती तो उसने कब की आत्महत्या कर ली होती। उसमें न ही समझ है और न ही ताकत। वह एक एक दाना ढूँढकर खाती है फिर उन्हीं दानों से अपने बच्चों को पालती है। तिनका तिनका ढूँढकर अपना घर बनाती है, और वह भी ऐसा जो किसी आंधी या दुशमन का सामना नहीं कर सकता। पर प्रभु एक ऐसी ही छोटी सी चिड़िया को उदाहरण बनाकर कहता है “इसलिए डरो नहीं, तुम गौरयों से बहुत बढ़कर हो” “... क्या तुम उनसे अधिक मूल्य नहीं रखते?” (मत्ती ६:२६, १०:३१)। ज़रा सोचो तो सही मैं तुम्हें कैसे छोड़ सकता हूँ?
यीशु की देह इस जगत में इस जगत के लिये अपनी जान देने के लिये ही जन्मी; क्योंकि वह जगत से प्यार करता था। वह इस जगत के सिर्फ भलों से ही नहीं पर एक डाकू से भी प्यार करता है। उसने उस डाकू के लिये भी अपनी जान दी जो दूसरों की जान लेता है। एक भी ऐसा नहीं जिसे प्रभु प्यार न करता हो। आप कैसे ही क्यों न हों प्रभु आपको प्यार करता है।
प्रभु की देह की जिस दिन हत्या की गई, वह सृष्टि का सबसे अंधकारपूर्ण दिन था। पर परमेश्वर ने वह दिन अनन्तकाल का ज्योतिर्मय दिन बना दिया। क्रूस के द्वारा जहाँ आदमी ने अपना सबसे बड़ा दुष्कर्म दिखाया, वहीं परमेश्वर ने अपना सबसे बड़ा प्रेम और सुकर्म दिखाया। आदमी तो ज़्यादा से ज़्यादा जान ले सकता था और वह उसने ले ली। लेकिन यीशु ज़्यादा से ज़्यादा अपनी जान दे सकता था जो उसने मेरे और आप के लिये अपना प्रेम प्रमाणित करने को दे दी ।
जब मैंने उसके इस बलिदान को स्वीकर कर स्वयं को उसके हाथ में सौंप दिया तो उसने यह निश्चय भी मुझे दिया कि जो भला काम वह मुझ में आरंभ कर रहा है, अर्थात मुझे अपनी समान्ता में बदलने का काम, उसे वह पूरा भी करेगा । वह तब तक चैन से नहीं बैठेगा जब तक मुझे निर्दोष, निष्कलंक, बेझुर्री और बेदाग़ करके अपनी समान्ता में न ले आये। क्योंकि एक दिन उसे मुझे अपने स्वर्गीय राज्य का एक निवासी बनाना है, अपने साथ अनन्त काल के लिये रखना है।
एक प्रभु के दास ने एक दिन में ४० लोगों को दफनाया जिनमें से एक उसकी पत्नि भी थी। उसी शाम जब वह बच्चों के साथ भोजन करने बैठा तो उस दास ने भोजन के लिये प्रभु को इस प्रकार धन्यवाद दिया, “प्रभु बाहर युद्ध और मौत है और अन्दर बहुत दुख है, पर मैं आभारी हूँ कि इस हाल में भी अपने मुझे धन्यवाद देने के योग्य बनाया है।”
कितनी बार हम दान तो लेते हैं और दान का आनन्द भी लेते हैं पर दाता को भूल जाते हैं। प्रार्थना में बहुत तेज़ और आरधना में बहुत धीमे होते हैं, प्रार्थना में शब्दों की कमी नहीं होती पर आराधना के लिये शब्द ढूँढते रह जाते हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि उसके एहसानों का एहसास हम में बहुत कम बचा हो?
“...यहोवा का धन्यवाद करो, क्योंकि वह भला है और उसकी करुणा सदा की है” (भजनसंहिता १०६:१)।
प्रभु ने हमें इतना प्रेम दिया, ऐसा बेमिसाल और बयान से बाहर प्रेम किया। क्योंकि प्रभु ने हमें यह प्रेम मुफ्त में दिया इसलिये मैं और आप इस प्रेम की कीमत को नहीं पहचानते, उसकी कद्र नहीं करते। उसने हमें अद्भुत जीवन दिया, और मुफ्त में दिया पर हमने उसकी कीमत को नहीं जाना। उसने इतना अद्भुत वचन दिया, मुफ्त दिया पर हमने उसके बेशकीमती होने को नहीं जाना।
चिंता ऐसी चिता है जिस पर आते ही आदमी मुर्दा सा हो जाता है। चिंता एक शक है जो मन पर सवार होते ही कहता है, क्या होगा? कैसे होगा? शक की लहरों पर डोलता मन हर एक लहर से कभी इधर तो कभी उधर होता रहता है। जब हम चिंता को पहन लेते हैं तो वह हमारे चेहरे और हमारे व्यवहार पर साफ झलकती है। मुझे मेरी प्यारी सी पत्नि सुंदर दिखना बंद हो जाती है, अच्छे से अच्छे खाने का मज़ा चला जाता है, भूख मरने लगती है, नींद उड़ने लगती है और ‘कल क्या होगा’ सोच सोचकर जीने का विश्वास जाता रहता है। लेकिन “धर्मी जन विश्वास से जीता है” (इब्रानियों १०:३८)। चिंता करने से कल के दुःख तो कम नहीं होते पर कल के दुःखों का सामना करने की शक्ति ज़रूर कम हो जाती है।
परमेश्वर ने चिड़िया को यदि चिंता करने की समझ दी होती तो उसने कब की आत्महत्या कर ली होती। उसमें न ही समझ है और न ही ताकत। वह एक एक दाना ढूँढकर खाती है फिर उन्हीं दानों से अपने बच्चों को पालती है। तिनका तिनका ढूँढकर अपना घर बनाती है, और वह भी ऐसा जो किसी आंधी या दुशमन का सामना नहीं कर सकता। पर प्रभु एक ऐसी ही छोटी सी चिड़िया को उदाहरण बनाकर कहता है “इसलिए डरो नहीं, तुम गौरयों से बहुत बढ़कर हो” “... क्या तुम उनसे अधिक मूल्य नहीं रखते?” (मत्ती ६:२६, १०:३१)। ज़रा सोचो तो सही मैं तुम्हें कैसे छोड़ सकता हूँ?
यीशु की देह इस जगत में इस जगत के लिये अपनी जान देने के लिये ही जन्मी; क्योंकि वह जगत से प्यार करता था। वह इस जगत के सिर्फ भलों से ही नहीं पर एक डाकू से भी प्यार करता है। उसने उस डाकू के लिये भी अपनी जान दी जो दूसरों की जान लेता है। एक भी ऐसा नहीं जिसे प्रभु प्यार न करता हो। आप कैसे ही क्यों न हों प्रभु आपको प्यार करता है।
प्रभु की देह की जिस दिन हत्या की गई, वह सृष्टि का सबसे अंधकारपूर्ण दिन था। पर परमेश्वर ने वह दिन अनन्तकाल का ज्योतिर्मय दिन बना दिया। क्रूस के द्वारा जहाँ आदमी ने अपना सबसे बड़ा दुष्कर्म दिखाया, वहीं परमेश्वर ने अपना सबसे बड़ा प्रेम और सुकर्म दिखाया। आदमी तो ज़्यादा से ज़्यादा जान ले सकता था और वह उसने ले ली। लेकिन यीशु ज़्यादा से ज़्यादा अपनी जान दे सकता था जो उसने मेरे और आप के लिये अपना प्रेम प्रमाणित करने को दे दी ।
जब मैंने उसके इस बलिदान को स्वीकर कर स्वयं को उसके हाथ में सौंप दिया तो उसने यह निश्चय भी मुझे दिया कि जो भला काम वह मुझ में आरंभ कर रहा है, अर्थात मुझे अपनी समान्ता में बदलने का काम, उसे वह पूरा भी करेगा । वह तब तक चैन से नहीं बैठेगा जब तक मुझे निर्दोष, निष्कलंक, बेझुर्री और बेदाग़ करके अपनी समान्ता में न ले आये। क्योंकि एक दिन उसे मुझे अपने स्वर्गीय राज्य का एक निवासी बनाना है, अपने साथ अनन्त काल के लिये रखना है।
एक प्रभु के दास ने एक दिन में ४० लोगों को दफनाया जिनमें से एक उसकी पत्नि भी थी। उसी शाम जब वह बच्चों के साथ भोजन करने बैठा तो उस दास ने भोजन के लिये प्रभु को इस प्रकार धन्यवाद दिया, “प्रभु बाहर युद्ध और मौत है और अन्दर बहुत दुख है, पर मैं आभारी हूँ कि इस हाल में भी अपने मुझे धन्यवाद देने के योग्य बनाया है।”
कितनी बार हम दान तो लेते हैं और दान का आनन्द भी लेते हैं पर दाता को भूल जाते हैं। प्रार्थना में बहुत तेज़ और आरधना में बहुत धीमे होते हैं, प्रार्थना में शब्दों की कमी नहीं होती पर आराधना के लिये शब्द ढूँढते रह जाते हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि उसके एहसानों का एहसास हम में बहुत कम बचा हो?
“...यहोवा का धन्यवाद करो, क्योंकि वह भला है और उसकी करुणा सदा की है” (भजनसंहिता १०६:१)।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें