आसमान पर छाये बादल ढलती हुई शाम को और गहरा कर रहे थे। आने वाले तूफान के अंदेशे से शहर की सड़कों सुन्सान थीं। तेज़ सरसराती हवाओं ने सर्दी को शिद्दत तक पहुँचा दिया था। एक संत, आती रात बिताने और बिगड़ते हुये मौसम से बचने के लिये जगह ढूँढता फिर रहा था। तभी उस सन्नाटे को तोड़ती एक आवाज़ ने उसे चौंका दिया “महाराज, ठहरने की जगह ढूँढ रहे हैं? क्या आप मेरे घर चलकर ठहरना चाहेंगे?” इससे पहले कि वह संत कुछ कह पाता, उस व्यक्ति ने आगे कहा “महाराज, प्रतीत होता है कि आप संत हैं? मैं आपसे क्या छुपाऊँ, मैं एक चोर हूँ। अगर आपको इससे कोई ऐतराज़ न हो तो मेरे घर ठहर कर मुझे धन्य कर सकते हैं।” संत दुविधा में फंस गया। मन में विचार चलने लगे “अगर इस चोर के यहाँ ठहरा तो लोग क्या कहेंगे, मेरी प्रतिष्ठा का क्या होगा? अगर नहीं ठहरा तो इस सर्दी और खराब मौसम में सुबह होने तक मेरा क्या होगा?” मरता क्या न करता, मन मार कर चोर के पीछे पीछे चल दिया। चोर ने संत को अपने घर लाकर उसकी बड़ी आव-भगत की। संत सोचने लगा “मेरे सामने इस चोर ने अपनी असलियत नहीं छुपाई पर मैं तो अपने मन में क्या क्या छुपाये बैठा हूँ। यह चोर जो है सो है पर मक्कार तो नहीं है।” आखिरकर संत अपने आप को रोक न सका, वह चोर के पैरों पर गिर पड़ा और कहने लगा “मैं जो दिखता हूँ वास्तव में वैसा हूँ नहीं; लालच, अभिमान और पाखँड मुझ में भरा है। मैं यह तो सदा सोचता हूँ कि लोग मेरे बारे क्या सोचेंगे पर कभी यह नहीं सोचता कि परमेश्वर मेरे बारे में क्या सोचेगा?”
मेरी और आपकी अन्दर की हालत कुछ ऐसी ही है। ज्ञान तो बहुत लोग बाँटते हैं पर स्वयं उस ज्ञान का अनुसरण कितने करते हैं? अपने द्वारा प्रचार की गई शिक्षाओं का पालन स्वयं कितने करते हैं? परमेश्वर का वचन चिताता है “सो हे दोष लगाने वाले, तू कोई क्यों न हो, तू निरुत्तर है। क्योंकि जिस बात में तू दूसरे पर दोष लगाता है, उसी बात में अपने आप को भी दोषी ठहराता है। इसलिये कि तू जो दोष लगाता है, आप ही वह काम करता है।” “और हे मनुष्य तू जो ऐसे ऐसे काम करने वालों पर दोष लगाता है और आप ही वह कम करता है, क्या यह समझता है कि परमेश्वर की दण्ड की आज्ञा से बच जायेगा?” (रोमियों २:१, ३)। भले ही आप माने या न माने पर सच्चाई यही है।
एक बड़ी सीधी और स्वाभाविक सी बात है कि खुद खोया हुआ आदमी दूसरों को क्या राह दिखायेगा? अन्धा अन्धों को क्या मार्ग बतायेगा? फिर भी आज ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो स्वयं संसार में लिप्त हैं पर दूसरों को बैराग का पाठ पढ़ाते हैं, जो स्वयं परमेश्वर की राह से कोसों से दूर हैं पर दूसरों को परमेश्वर को पाने का मार्ग बताते हैं। आये दिन ऐसे पाखंडियों की पोल खुलने के समाचार आते रहते हैं फिर भी अनेक लोग अपनी आँखों से उस पाखंड को देखते हुए भी उनके अनुसरण करने में ज़रा भी नहीं हिचकते।
हमारा अहंकार हमें इस बात को स्वीकारने से रोकता है कि मैं एक पापी हूँ। बस फर्क इतना ही है कि कुछ के पाप खुले हैं और कुछ के अभी तक छिपे हैं। गलती होना स्वाभाविक है, पर गलती मानकर माफी पा लेना समझदारी है। गलती को जान कर भी उसे छिपाना मक्कारी है और गलती को जान बूझ कर उसे सही साबित करने में लग जाना एक भयानक बेवकूफी है। आप जितना अपने बारे में जानते हैं उससे कहीं अधिक परमेश्वर आपके बारे में जानता है।
दो तरह के चश्मे दिमाग पर चढ़े होते हैं। अपने को देखने के और दूसरों को देखने के। बुज़ुर्ग अक्सर कहते हैं कि हमारा ज़माना शराफत का ज़माना था। पर हकीकत यह है कि उस ‘शराफत के ज़माने’ में पले-बड़े ये लोग भी ईमान्दारी को सिर्फ मक्कारी से ओढ़े रहते हैं। कितने ही ‘शरीफ’ बुज़ुर्ग आँखों पर मोटा चश्मा लगाये अख़बार, पत्रिकाओं, सड़क के किनारों पर लगे विज्ञापनों, टी०वी० और सिनेमा में अशलीलता देखने को नज़रें घुमाते फिरते हैं, इस फिराक में रहते हैं कि कहीं कुछ नंगापन देखने को मिल जाये। कहीं न कहीं हम सब किसी न किसी मक्कारी से भरे जीते हैं। मुँह मुसकुराता है पर मन कोसता है। मन मारकर ही तो साहब को सलाम ठोकना पड़ता है। मन मक्कारी से भरा है।
जब परेशानियाँ खत्म नहीं होतीं तब आदमी अपने आपको खत्म करने की कोशिश कर जाता है। वह यह नहीं समझता कि जान देने से सिर्फ शरीर से ही छुटकारा पाया जा सकता है पर पाप की परेशानी तो आपके साथ ही जायेगी। आपकी परेशानी का कारण परिस्थितियाँ नहीं पाप है। अगर छूटना ही है तो पाप से छूटना है।
समस्याएं हैं, पर क्या हैं वे समस्याएं? मूल समस्या तो यही है कि हम सही समस्या को समझ नहीं पा रहे हैं। जानते ज़रूर हैं कि समस्याएं हैं, एक का समाधान ढूंढो तो दूसरी आ पड़ती है, कभी खत्म नहीं होतीं। सच तो यह है कि पाप ही आपके जीवन की एक मात्र समस्या है, इस एक समस्या से बाकी सब समस्याएं हैं। यही आज तक इन्सान समझ नहीं पाया है।
निर्धन की समस्या है कि क्या खाऊँ कि भूख मिटे? धनवान की समस्या है कि क्या खाऊँ कि भूख लगे? चिन्ताएं और परेशानियाँ दोनो के पास हैं। न गरीब न अमीर, न अन्पढ़ और न पढ़ा लिखा, न उच्च पद पर बैठने वाला न निम्न स्तर पर काम करने वाला, न पाश्चत्य सभ्यता वाला न अन्य किसी सभ्यता वाला, कोई नहीं है जो समस्याओं से बचा हुआ है। हर देश, जाति, वर्ग का हर जन किसी न किसी समस्या से घिरा है और छुटकारा ढूंढ रहा है लेकिन फिर भी अपने पाप का अंगीकार करने को तैयार नहीं है। अहंकार की पट्टी अपनी आँखों पर बाँधे, अन्धेरे कुएं में पड़े अन्धे व्यक्ति की तरह बाहर निकलने को दीवारें टटोल रहा है पर उस पट्टी को उतारकर ऊपर की ओर देखने और बच निक्लने को तैयार नहीं है।
प्रश्न यह नहीं है कि पाप की मात्रा कितनी है? असल प्रश्न है कि पाप है या नहीं? सभोपदेशक ७:२० में लिखा है “एक भी धर्मी नहीं है जिससे पाप न हुआ हो।” वह अधर्मी की नहीं धर्मी की बात कर रहा है।
धर्म परिवर्तन से पाप की समस्या का समाधान नहीं होने वाला। धर्म परिवर्तन कोई सच्चा परिवर्तन नहीं ला पायेगा, पर मन परिवर्तन ही वास्तविक परिवर्तन ला पायेगा।
जीवन एक मैच की तरह चल रहा है। कब किस की गिल्ली उड़ जाये पता भी नहीं चलेगा। कभी कभी इतने शॉर्ट नोटिस पर यहाँ से जाना पड़ता है कि सोचने का मौका भी हाथ नहीं लगता। कब स्वर्गीय अम्पायर की ऊठी कि आप खेल से बाहर जाते दिखाई देंगे। ज़्यादतर तो मूँह लटकाये ही जाते हैं, थोड़े ही हैं जो हाथ उठाये हुए आनन्द से जाते हैं। आपका अपने बारे में क्या विचार है? कुछ भी अनहोनी हो जाए तो आप कैसे जाएंगे? कभी सोचा भी है कि जब जाएंगे तो कहाँ जाएंगे? सच तो यह है कि हर हारा हुआ इन्सान हमेशा की हार में जा पहुंचेगा। स्वर्गीय अम्पायर ने अपनी उंगली से आपकी असली दशा और आपके अन्जाम की दिशा दर्शायी है। यह उंगली सिर्फ पाप को ही प्रकट नहीं करती पर पाप के परिणाम को भी प्रकट करती है, और पाप के परिणाम से बच निकलने का मार्ग भी दिखाती है।
बस अब दिल का दरवाज़ा खोलने की देर है। सूर्य का प्रकाश तो आपके दरवाज़े पर आपका इंतिज़ार कर रहा है, केवल आपके दरवाज़ा खोलने की देर है, वह प्रकाश सारे अंधकार को क्षण भर में दूर कर डालेगा। प्रभु यीशु आपके पापों को हर लेने के लिये ही आया। इसलिए वह हर हारे और परेशान इन्सान से कहता है, मत डर मैं हूँ मेरे पास आओ।
अब मैं इन आखिरी लाईनों में आखिरी बात दिल से कहता हूँ। दिल चाहता है कि यह बातें आपके दिल पर लिख जायें, सिर्फ कलम से उतर कर कागज़ तक न रह जाएं। आप दिल से विश्वास करके मुँह से सिर्फ एक छोटी प्रार्थना में दो बातें कह जाएं। पहली बात मान लें; दूसरी बात माँग लें। पहले यह मान लें कि “मैं एक पापी हूँ”, और दूसरा अपने पापों की क्षमा माँग लें। प्रभु यीशु से प्रार्थना में कहें कि “हे यीशु मैं पापी हूँ, मैं बेचैन और परेशान हूँ, मुझपर दया करके मेरे पाप क्षमा करें, मेरे मन में आयें, मुझे अपने लहू से शुद्ध और पवित्र करें।”
यही एक ऐसी प्रार्थना है जो आपको एक ऐसी ज़िन्दगी जीने का मौका देती है जो आपने कभी जी नहीं होगी। ज़रा यह प्रार्थना एक सच्चे दिल से करके तो देखिये....
मेरी और आपकी अन्दर की हालत कुछ ऐसी ही है। ज्ञान तो बहुत लोग बाँटते हैं पर स्वयं उस ज्ञान का अनुसरण कितने करते हैं? अपने द्वारा प्रचार की गई शिक्षाओं का पालन स्वयं कितने करते हैं? परमेश्वर का वचन चिताता है “सो हे दोष लगाने वाले, तू कोई क्यों न हो, तू निरुत्तर है। क्योंकि जिस बात में तू दूसरे पर दोष लगाता है, उसी बात में अपने आप को भी दोषी ठहराता है। इसलिये कि तू जो दोष लगाता है, आप ही वह काम करता है।” “और हे मनुष्य तू जो ऐसे ऐसे काम करने वालों पर दोष लगाता है और आप ही वह कम करता है, क्या यह समझता है कि परमेश्वर की दण्ड की आज्ञा से बच जायेगा?” (रोमियों २:१, ३)। भले ही आप माने या न माने पर सच्चाई यही है।
एक बड़ी सीधी और स्वाभाविक सी बात है कि खुद खोया हुआ आदमी दूसरों को क्या राह दिखायेगा? अन्धा अन्धों को क्या मार्ग बतायेगा? फिर भी आज ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो स्वयं संसार में लिप्त हैं पर दूसरों को बैराग का पाठ पढ़ाते हैं, जो स्वयं परमेश्वर की राह से कोसों से दूर हैं पर दूसरों को परमेश्वर को पाने का मार्ग बताते हैं। आये दिन ऐसे पाखंडियों की पोल खुलने के समाचार आते रहते हैं फिर भी अनेक लोग अपनी आँखों से उस पाखंड को देखते हुए भी उनके अनुसरण करने में ज़रा भी नहीं हिचकते।
हमारा अहंकार हमें इस बात को स्वीकारने से रोकता है कि मैं एक पापी हूँ। बस फर्क इतना ही है कि कुछ के पाप खुले हैं और कुछ के अभी तक छिपे हैं। गलती होना स्वाभाविक है, पर गलती मानकर माफी पा लेना समझदारी है। गलती को जान कर भी उसे छिपाना मक्कारी है और गलती को जान बूझ कर उसे सही साबित करने में लग जाना एक भयानक बेवकूफी है। आप जितना अपने बारे में जानते हैं उससे कहीं अधिक परमेश्वर आपके बारे में जानता है।
दो तरह के चश्मे दिमाग पर चढ़े होते हैं। अपने को देखने के और दूसरों को देखने के। बुज़ुर्ग अक्सर कहते हैं कि हमारा ज़माना शराफत का ज़माना था। पर हकीकत यह है कि उस ‘शराफत के ज़माने’ में पले-बड़े ये लोग भी ईमान्दारी को सिर्फ मक्कारी से ओढ़े रहते हैं। कितने ही ‘शरीफ’ बुज़ुर्ग आँखों पर मोटा चश्मा लगाये अख़बार, पत्रिकाओं, सड़क के किनारों पर लगे विज्ञापनों, टी०वी० और सिनेमा में अशलीलता देखने को नज़रें घुमाते फिरते हैं, इस फिराक में रहते हैं कि कहीं कुछ नंगापन देखने को मिल जाये। कहीं न कहीं हम सब किसी न किसी मक्कारी से भरे जीते हैं। मुँह मुसकुराता है पर मन कोसता है। मन मारकर ही तो साहब को सलाम ठोकना पड़ता है। मन मक्कारी से भरा है।
जब परेशानियाँ खत्म नहीं होतीं तब आदमी अपने आपको खत्म करने की कोशिश कर जाता है। वह यह नहीं समझता कि जान देने से सिर्फ शरीर से ही छुटकारा पाया जा सकता है पर पाप की परेशानी तो आपके साथ ही जायेगी। आपकी परेशानी का कारण परिस्थितियाँ नहीं पाप है। अगर छूटना ही है तो पाप से छूटना है।
समस्याएं हैं, पर क्या हैं वे समस्याएं? मूल समस्या तो यही है कि हम सही समस्या को समझ नहीं पा रहे हैं। जानते ज़रूर हैं कि समस्याएं हैं, एक का समाधान ढूंढो तो दूसरी आ पड़ती है, कभी खत्म नहीं होतीं। सच तो यह है कि पाप ही आपके जीवन की एक मात्र समस्या है, इस एक समस्या से बाकी सब समस्याएं हैं। यही आज तक इन्सान समझ नहीं पाया है।
निर्धन की समस्या है कि क्या खाऊँ कि भूख मिटे? धनवान की समस्या है कि क्या खाऊँ कि भूख लगे? चिन्ताएं और परेशानियाँ दोनो के पास हैं। न गरीब न अमीर, न अन्पढ़ और न पढ़ा लिखा, न उच्च पद पर बैठने वाला न निम्न स्तर पर काम करने वाला, न पाश्चत्य सभ्यता वाला न अन्य किसी सभ्यता वाला, कोई नहीं है जो समस्याओं से बचा हुआ है। हर देश, जाति, वर्ग का हर जन किसी न किसी समस्या से घिरा है और छुटकारा ढूंढ रहा है लेकिन फिर भी अपने पाप का अंगीकार करने को तैयार नहीं है। अहंकार की पट्टी अपनी आँखों पर बाँधे, अन्धेरे कुएं में पड़े अन्धे व्यक्ति की तरह बाहर निकलने को दीवारें टटोल रहा है पर उस पट्टी को उतारकर ऊपर की ओर देखने और बच निक्लने को तैयार नहीं है।
प्रश्न यह नहीं है कि पाप की मात्रा कितनी है? असल प्रश्न है कि पाप है या नहीं? सभोपदेशक ७:२० में लिखा है “एक भी धर्मी नहीं है जिससे पाप न हुआ हो।” वह अधर्मी की नहीं धर्मी की बात कर रहा है।
धर्म परिवर्तन से पाप की समस्या का समाधान नहीं होने वाला। धर्म परिवर्तन कोई सच्चा परिवर्तन नहीं ला पायेगा, पर मन परिवर्तन ही वास्तविक परिवर्तन ला पायेगा।
जीवन एक मैच की तरह चल रहा है। कब किस की गिल्ली उड़ जाये पता भी नहीं चलेगा। कभी कभी इतने शॉर्ट नोटिस पर यहाँ से जाना पड़ता है कि सोचने का मौका भी हाथ नहीं लगता। कब स्वर्गीय अम्पायर की ऊठी कि आप खेल से बाहर जाते दिखाई देंगे। ज़्यादतर तो मूँह लटकाये ही जाते हैं, थोड़े ही हैं जो हाथ उठाये हुए आनन्द से जाते हैं। आपका अपने बारे में क्या विचार है? कुछ भी अनहोनी हो जाए तो आप कैसे जाएंगे? कभी सोचा भी है कि जब जाएंगे तो कहाँ जाएंगे? सच तो यह है कि हर हारा हुआ इन्सान हमेशा की हार में जा पहुंचेगा। स्वर्गीय अम्पायर ने अपनी उंगली से आपकी असली दशा और आपके अन्जाम की दिशा दर्शायी है। यह उंगली सिर्फ पाप को ही प्रकट नहीं करती पर पाप के परिणाम को भी प्रकट करती है, और पाप के परिणाम से बच निकलने का मार्ग भी दिखाती है।
बस अब दिल का दरवाज़ा खोलने की देर है। सूर्य का प्रकाश तो आपके दरवाज़े पर आपका इंतिज़ार कर रहा है, केवल आपके दरवाज़ा खोलने की देर है, वह प्रकाश सारे अंधकार को क्षण भर में दूर कर डालेगा। प्रभु यीशु आपके पापों को हर लेने के लिये ही आया। इसलिए वह हर हारे और परेशान इन्सान से कहता है, मत डर मैं हूँ मेरे पास आओ।
अब मैं इन आखिरी लाईनों में आखिरी बात दिल से कहता हूँ। दिल चाहता है कि यह बातें आपके दिल पर लिख जायें, सिर्फ कलम से उतर कर कागज़ तक न रह जाएं। आप दिल से विश्वास करके मुँह से सिर्फ एक छोटी प्रार्थना में दो बातें कह जाएं। पहली बात मान लें; दूसरी बात माँग लें। पहले यह मान लें कि “मैं एक पापी हूँ”, और दूसरा अपने पापों की क्षमा माँग लें। प्रभु यीशु से प्रार्थना में कहें कि “हे यीशु मैं पापी हूँ, मैं बेचैन और परेशान हूँ, मुझपर दया करके मेरे पाप क्षमा करें, मेरे मन में आयें, मुझे अपने लहू से शुद्ध और पवित्र करें।”
यही एक ऐसी प्रार्थना है जो आपको एक ऐसी ज़िन्दगी जीने का मौका देती है जो आपने कभी जी नहीं होगी। ज़रा यह प्रार्थना एक सच्चे दिल से करके तो देखिये....
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