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शनिवार, 6 फ़रवरी 2010

सम्पर्क दिसम्बर २००९: अपने में झाँकता आदमी

एक लड़का, ४ या ५ साल का रहा होगा, अपने एक पड़ौसी के लड़के को पीट रहा था। उसके बाप ने देखा तो डाँटते हुए उसे घर में बुलाया और पूछा "क्यों मार रहा था उसे?" लड़के ने जवाब दिया "वो माँ की गाली दे रहा था।" बाप बोला "दो और मारता" और अपने काम में व्यस्त हो गया। थोड़ी देर में एक अधेड़ औरत गुस्से में चीखती हुई आई "तुम्हारे लड़के ने मोहल्ले में जीना मुश्किल कर दिया है, इसकी हिम्मत तो देखो, यह दोबारा हमारे घर घुस कर मेरे लड़के को दो चाँटे मारकार यहाँ दौड़ा आया है।" बाप ने गुस्से में लड़के से पूछा "अबे तू फिर क्यों मारकार आया?" लड़के ने बड़ी मासूमियत से जवाब दिया "आपने ही तो अभी कहा था कि उसे दो और मारता।" अब बाप की हालत देखते ही बनती थी।

वह लड़का मैं था और ऐसे माहौल में पला बड़ा हुआ था जहाँ पर बहुत घमंड करना, मारना-पीटना और गाली देना एक आम बात थी। हमारे घर में मौत का भयानक साया था। मेरे ५ भाई बहन और थे जिनमें से कोई भी नहीं बचा था, जवानी में मैंने कदम रखा ही था कि मेरे पिताजी भी चल बसे।

मुझे खुद भी मालूम नहीं था कि मैं क्यों जी रहा था? किसके लिये जी रहा था? अपनों से मैंने बहुत परायापन पाया था इसलिये मुझे अपने भी अपने नहीं लगते थे। कोई अपना नहीं था और जो एक दो थे वो भी मुझे अपने से नहीं लगते थे। रिशते तो सिर्फ नाम के थे, उन रिश्तों में कोई पहचान नहीं थी और उनमें बड़ा खारापन था। मुझे खुद अपने आप से नफरत होती थी और इसलिये मैं बार-बार मरने की कोशिश करता था। ज़िन्दगी का सफर मुझे ज़्यादा भाता नहीं था। कल की आस में आज के पन्नों को पलटकर और बेबसी की चादर ऒढ़कर कुछ नये सपनों के साथ सो जाता था।

मेरे थके हारे जीवन को,
अब एक नया जीवन चाहिये था
एक नयी ताज़गी चाहिये थी,
एक नयी खुशी चाहिये थी।
धर्म के लेबल लगे इस इन्सान को,
छुटकारा चाहिये था,
हालातों से, लतों से और,
अपनी आदतों से हारे हुए,
इस इन्सान क्मो अब आज़ादी चाहिये थी,
अपने पुराने पन से उक्ताए हुए,
इस इन्सान को अब कुछ नया चाहिये था।

अच्छा बनने की इच्छा तो थी पर बात बन नहीं पाती थी (रोमियों ७:१८)। मैं अपने बारे में यही सोचता था कि मैं सही हूँ और पाप और श्राप को मैं कुछ नहीं समझता था। पर कहीं, किसी की कही एक बात से, बात बन गई - ’पाप’, हाँ तेरे पाप ही सारी बेचैनी का श्राप हैं। पाप का यह श्राप पाप की क्षमा से साफ हो जायेगा, जो क्षमा सिर्फ यीशु ही दे पायेगा। बस इस एक प्रार्थना से बात बन गयी - "हे यीशु, मुझ पापी पर दया कर।" मेरा धर्म तो नहीं बदला, पर सच मानो ज़िन्दगी बदल गयी। वह खुशी मिला जैसी कभी सोची भी नहीं थी।

यूँ तो मेरा बीता कल मेरे काले कारनामों से भरा है। अब भी जब कभी मुझ से पाप हो जाता है तो मैं खुद की नज़रों में बहुत छोटा हो जाता हूँ और मुझे अपने आप से नफरत होने लगती है। जाने क्यों मैं पाप कर जाता हूँ। जानता हूँ कि नहीं करना है, पर पता नहीं फिर भी क्यों कर जाता हूँ। चाहता हूँ नहीं करना, पर यह मेरी बेबसी है। मेरा मन मुझे संभलने नहीं देता। सच तो यह है कि बहुत बार मैंने प्रभु से वायदे किये, पर फिर वही कर बैठता हूँ जो नहीं करना चाहिये। पर आज भी यीशु का लहू मुझे सब पापों से शुद्ध करता है।

आज मेरी देह की हालत खस्ता है और मेरा जिस्म अब खुद मेरी उम्र बयान करता है। अब मेरी सारी डिग्रियाँ अर्थहीन हो गईं हैं और मुझे याद भी नहीं रहता कि मैंने क्या क्या पढ़ा और क्या क्या पाया। बस याद रहता है कि अब यहाँ से चलना है। अब इसी इंतिज़ार में जीता हूँ, की जाने कब दिल का रिश्ता धड़क्न से टूटेगा, जाने कब सब का सब यहीं छूटेगा और मेरे दोस्त एक सफेद चादर में लपेट कर मुझे यहाँ से विदाई दे आएंगे। मुझे मालूम है कि धीरे धीरे मुझे मेरे अपने भी भूल जाएंगे। ऐसे ही यादों में मैं भी कहीं रह जाऊंगा।
एक भीड़ साथ चली थी। आज चलते चलते देखता हूँ कितने ही जो साथ चले थे वे अब नहीं रहे। कुछ थे जो राह से भटक गये, कुछ बदल गये, पर मेरा परमेश्वर नहीं बदला, न ही उसने मुझे कभी छोड़ा। कुछ हैं जो मेरे लिये हाथ उठाकर अपनी प्रार्थनाओं में मुझे फिर से उठा लेते हैं; सिर्फ उन्हीं की संगति में आकर मैं सम्भल जाता हूँ।

ये मसीह के मासूम लहू से लिखा,
फरमान मेरे लिये था,
देख! मैं सब कुछ नया कर देता हूँ।

जिस आसमान से आग बरसे
अब मुहे वो आसमान नहीं चाहिये,
एक नया आकाश और पृथ्वी चाहिये,
जहाँ प्यार बरसे और जहाँ प्यार बरसे।

मेरे धर्म ने मुझे परमेश्वर से मिलने नहीं दिया,
मुझे ऐसा धर्म नहीं चाहिये,
नहीं चाहियें वे धर्म के लोग,
जो हैवानों की तरह इन्सानों को काटते-कटवाते हैं।

मेरे धर्म ने मेरे लिये कभी खून नहीं बहाया,
हर धर्म ने दूसरों का ही खून बहाया है,
मुझे एक ऐसा परमेश्वर चाहिये,
जिसने मेरे लिये अपना खून बहाया।

इंसान एक मज़ार है,
जिसमें मरी हुई इन्सानियत दफन है,
मरी हुई इन्सानियत को ढोता इन्सान,
अपने कर्म से हैवानियत को भी मात दे गया,
मुझे ऐसा इन्सान नहीं चहिये,
अब मुझे एक नया इन्सान चाहिये।

हर जगह आदमी ही आदमी हैं,
फिर भी आदमी अकेला है,
मन में उसके सन्नाटा चीखता है,
परेशानियाँ खाती हैं और डर सताता है,
इसलिये अब एक नया मन चाहिये।


हर दिन अपने स्वभाव से लड़ना पड़ता है। सालों से इस हार जीत के खेल में हार ज़्यादा और जीत कम हैं। पर एक आशा आज भी सीने में ज़िन्दा है: मेरा प्रभु मुझे ना ही छोड़ेगा और ना ही त्यागेगा। उम्र और वक्त के साथ काफी परेशानियाँ बदलती और बढ़ती रहती हैं। अनेकों चिंताएं भी साथ पलती और पनपती हैं। उम्मीदें लहराती हैं, सोचते हैं अच्छा ही होगा। पर सब कुछ हमारे सोचने जैसा नहीं होता। पर प्रभु का वचन आश्वस्त करता है: "सब बातें मिलकर भलाई ही पैदा करती हैं।" हार में भी भलाई छिपी रहती है। मेरी हार मुझे हमेशा याद दिलाती है कि तू अपनी सामर्थ से एक दिन भी सही से नहीं निकाल सकता। इसलिये प्रभु के सामने हाथ फैलाए रहता हूँ। "जब मैं निर्बल होता हूँ तभी बलवन्त होता हूँ।" प्रभु के वचन से मिल यही एक विश्वास आज भी मेरे जीवन में जीवित है।

मुझे परमेश्वर से कोई गिला शिकवा नहीं, जो भी है वो अपने आप से है। अगर मैं परेशान हूँ तो सिर्फ अपने आप से और अपने स्वभाव से। इसलिये मुझे इन्सान ही समझिएगा, इससे कुछ ज़्यादा समझाने से नुक्सान ही होगा। जो मुझे इससे ज़्यादा समझेगा वह धोखा ही खायेगा। मैं जो करना चाहता हूँ वह आज तक कर नहीं पाया। जैसा जीवन मैं जीना चाहता था वैसा जी नहीं पाया। मुझे परमेश्वर ने बहुत कुछ दिया - आदर दिया, प्यार दिया और आशीषें दीं पर मैं ने उसमें से बहुत ज़्यादा व्यर्थ गवाँ दीं। मुझे अपने ऊपर शर्म आती है और अफसोस सताता है कि हाय! मैं ने ऐसा क्यों किया। मेरे पास अब बस यही दुआ बची है कि प्रभु! मेरे पास जो जीवन बचा है उसे मैं व्यर्थ न गवाँ दूँ।

सारी उम्र पाने की आदत मन में पालता रहा पर अब जाते जाते कुछ देकर जाना चाहता हूँ। चाहता हूँ कि कुछ ऐसा तो देकर जाऊं जो लोगों के दिलों और ज़िन्दगियों में खुशी भर जाये।


मैं अपनी औकात जनता हूँ, जानता हूँ कि आज बिना प्रभु के मेरी कोई कीमत है ही नहीं। बस एक प्रार्थना बची है।

गिरने की गहराइयों को,
नापा है मैंने,
गिरने से डरता हूँ,
इसलिये निवेदन यह करता हूँ,
तब तक थामे रहना,
जब छूटेगा प्राणों से यह तन,
तक लागा रहे,
तुमसे मेरा यह मन।

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