मेरा जन्म सहारनपुर (यू.पी.) में एक इसाई परिवार में हुआ। मेरे दादा के पास काफी ज़मीन जायदाद थी, उनके पांच बेटों में सबसे बड़े मेरे पिताजी थे। दादाजी के मरणोप्रांत मेरे चारों चाचाओं ने जायदाद के बंटवारे की मांग की। मेरे पिताजी इस बंटवारे के पक्ष में नहीं थे, लेकिन उन्हें इस मांग के आगे झुकना पड़ा और जायदाद को भाइयों में बांटना पड़ा। इस कारण हमारा बड़ा घर एक छोटी जगह में सिमट गया। भाईयों के अलग होने से दुखी होकर मेरे पिताजी बहुत शराब पीने लगे, जिसके चलते उन्होंने घर, ज़मीन के काम, खेतीबाड़ी और यहाँ तक तक कि हमें भी नज़रांदाज़ करना शुरू कर दिया। परिणमस्वरूप जिन लोगों को हमारी ज़मीन पर काम के लिये लगाया गया था, उन्होंने धोखे से हमारी सारी ज़मीन हड़प ली। इससे हमारी माली हालत भी बहुत सकते में आ गई, जो बचत का कुछ पैसा था वह सब पिताजी की नशे की आदत के कारण खत्म हो गया।
इन सब परिस्थितियों के बावजूद भी हम लगातार चर्च जाते थे और मैं चर्च की गतिविधियों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेती थी। मैं रोज़ बाइबल पढ़ती और सन्डे स्कूल क्लास में जाती थी। अगर कोई मुझसे किसी धार्मिक काम करने के विष्य में कहता तो मैं उसे बड़े उत्साह से करती थी।
अगर कहीं कोई विशेष सभा होती थी तो मैं वहाँ भी अपनी माँ के साथ जाती थी। पर यह सब करके भी मेरे अन्दर कोई खुशी या परमेश्वर के उद्धार का आनन्द नहीं था। इन सब बातों को मैं एक धर्म के रीति-रिवाज़ की तरह ही पूरा करती थी, जिसने मुझे एक तरह के बन्धन में बाँध दिया था। मेरा जीवन इसी तरह चल रहा था।
एक दिन परमेश्वर के घर से आते समय मेरी एक विश्वासी मित्र मुझे मिली और उसने मुझसे एक सवाल पूछा, "क्या तुम मानती हो कि तुम एक पापी हो?" उसके इस सवाल से मैं बड़ी हैरान हुई और मैंने बड़े घमंड से उत्तर दिया, "नहीं, मैं पापी नहीं हूँ; मैं कैसे पापी हो सकती हूँ जबकि मैं बराबर चर्च जाती और बाइबल पढ़ती हूँ और मैंने कभी कोई गलत काम नहीं किया है? मैं विश्वास करती हूँ कि मैं एक अच्छी लड़की हूँ और स्वर्ग में मेरा एक स्थाई घर है।" तब मेरी मित्र ने मुझे बाइबल में से एक आयत दिखाई - रोमियों ३:२३, जहाँ लिखा था "सबने पाप किया है और परमेश्वर की महिमा से रहित हैं।" फिर उसने मुझे परमेश्वर के वचन में से १५-२० आयतें और भी दिखाईं। मैं बाइबल को बहुत लम्बे समय से पढ़ती आ रही थी, लेकिन उस दिन वह सारे वचन मेरे पास एक नई रीति से आये। मैंने हर एक वचन को बड़े ध्यान से सुना और परमेश्वर के आत्मा ने मेरे दिल से बातें कीं। तब मेरे मित्र ने मुझसे पूछा, "क्या तुम प्रभु यीशु को अपना व्यक्तिगत उद्धारकर्ता करके ग्रहण करना चाहती हो? यदि हाँ तो मेरे पीछे-पीछे प्रार्थना को दोहरा सकती हो।" मैंने कहा "हाँ मैं तैयार हूँ।" जब मैं अपने पापों से पश्चाताप की प्रार्थना कर रही थी तो मैंने अपने आप को बहुत हल्का महसूस कर रही थी। जैसे ही मैंने प्रार्थना को अन्त किया तो मैंने एहसास किया कि एक बड़ा बोझ मेरे हृदय से हट गया है और बयान से बाहर एक अदभुत खुशी ने मुझे घेर लिया है; तब मुझे वास्तविक उद्धार का निश्चय हुआ। उस दिन मैं बहुत खुशी से भरी और बदली हुई अपने घर पहुँची। उस दिन के बाद से मैं प्रभु में बढ़ती गई। अब परमेश्वर के वचन को पढ़ने के मायने मेरे लिये बिल्कुल अलग हो गये।
लेकिन यह सब मेरे परिवार को, विशेषकर मेरे पिताजी को बिल्कुल अच्छा नहीं लगा। जब मैंने परमेश्वर के घर में विश्वासियों की मण्डली में जाना शुरू किया तो मेरे पिताजी इसका विरोध करने लगे। वे कहते थे कि हम तो पुराने इसाई हैं तो फिर तुम्हें यह सब करने की क्या ज़रूरत है? फिर मेरे निर्णय को बदलने के लिये सबसे छोटे चाचा को फरीदाबाद से बुलवाया गया। लेकिन प्रभु की दया से मैं अपने निर्णय पर दृढ़ रही। जब वे मुझे समझाने में असफल रहे तो वे ज़बरदस्ती मुझे रोकने की कोशिश करने लगे। इस मुशकिल स्थिती पर विजय पाने के लिये मैं प्रार्थना-उपवास करती थी। जैसे ही प्रार्थना और अराधना सभा का समय नज़दीक आता था, मैं अपने पिताजी से रो रो कर गिड़गिड़ाती थी कि मुझे जाने दीजिये। मेरे आँसुओं को देखकर वह मान जाते, परन्तु यह कहकर कि बस! यह आखिरी बार है। मण्डली की बहिनें हमेशा मेरी इन मुशकिलों में मेरे साथ खड़ी रहीं। वे कई बार हमारे घर आतीं और मेरे पिताजी को मनवाकर मुझे अपने साथ परमेश्वर के घर लेकर जाती थीं।
१९९० में मुझे बोर्ड की परिक्षाओं में बैठना था लेकिन परिक्षाओं की तारीखें देहरादून में आयोजित होने वाली एक विशेष सभा के दिन के साथ अड़चन डाल रहीं थीं। लेकिन प्रभु की दया से मैंने प्रभु और उसकी आज्ञाओं को पहला स्थान दिया, देहरादून जाकर मैंने सभा में भाग भी लिया और अगले दिन अपनी परिक्षा भी दी। प्रभु उनको कभी निराश नहीं करता जो उसपर भरोसा रखते और उससे प्रेम रखते हैं। प्रभु ने मुझे मेरी परिक्षाओं में बहुत अच्छे अंक दिये। इस तरह मेरा जीवन प्रभु यीशु के प्रेम में और अधिक बढ़ता गया।
मेरे विश्वास की वास्तविक परख मण्डली की एक विश्वासी बहन के विवाह के बाद हुई क्योंकि उसके विवाह के बाद मण्डली के ज़िम्मेदार भाई और बहन मेरे विवाह के लिये भी बात करने लगे। लेकिन मुझे इस विष्य में कोई ज़्यादा रुचि नहीं थी क्योंकि मैं अपने घर की हालत जानती थी। मैं नहीं चाहती थी कि कोई भी मेरे लिये इस तरह का खतरा मोल लेकर मेरी चिन्ता करे। इसके विपरीत मैं यह सोचती थी कि मेरे घर की हालत देखकर मुझसे विवाह कौन करेगा? पर मुझे मालूम पड़ गया था कि मण्डली के ज़िम्मेदार भाई और अन्य बड़ी बहिनें मेरे विवाह की बात सोच रहे हैं। इसीलिये मुझे एक दिन घर से बुलाया गया, मुझे मालूम था कि मुझे क्यों बुलाया है। सो मैंने पहले से ही तय कर लिया था कि जब वो मुझसे पूछेंगे तो मेरा जवाब ’ना’ ही होगा। परन्तु प्रभु ने मुझसे इफिसियों ६:५ से बात की, "अपने प्रचीनों के आधीन रहो।" इस तरह से मैंने अश्विनी से विवाह करने के बारे में अपनी सहमति दे दी और मुझे इस विष्य में प्रार्थना करने को कहा गया।
मैं प्रार्थना करने को तो राज़ी थी पर यह सोचकर डर रही थी कि अगर मेरे माँ-बाप को इसका पता चलेगा तो क्या होगा? इस विष्य पर प्रार्थना करने के दौरान, प्रभु ने मुझे यर्मियाह ३१:२१ और भजन ४५ से प्रतिज्ञा दी और इससे मुझे यह स्पष्ट हो गया कि यह परमेश्वर की ओर से है। तब मैंने विवाह के इस प्रस्ताव को बिना किसी शक के ग्रहण कर लिया। मैंने देखा कि प्रभु अपने बच्चों को कभी भी किसी उलझन में नहीं रखता। इसलिये उसने पहले मेरी होने वाली सास को फिर मेरे होने वाले पति को भी इस विवाह के लिये अपने वचन से शान्ति दी। प्रभु का धन्यवाद हो कि जनवरी ६, १९९४ को अश्वनी से मेरा विवाह हो गया।
मेरी सास मेरे लिये बहुत ही हिम्मत का कारण थी। जब भी मुझे पढ़ाई में अच्छे अंक मिलते थे तो मुझ से ज़्यादा वह खुश होती थी, और वह मुझे और अधिक उत्साहित करती थी। उसने मुझे बहुत सी आत्मिक बातें सिखाईं। वह एक बहुत अच्छी प्रभु की भक्त थीं और लगातार, अन्त तक प्रभु की सेवा में बिना किसी समझौते के लगीं रहीं। अपने आखिरी दिनों में, मैं उनके साथ डॉक्टर के पास गयी थी, तो उन्होंने मुझसे कहा, "बेटी प्रभु ने जैसे हम से प्रेम किया है वैसे ही तुम उससे पूरे हृदय से प्रेम करना।" यह बात सीधे मेरे दिल में उतर गई। इसके दो दिन बाद एक सड़क दुर्घटना के कारण वे प्रभु के पास चली गईं। अब मैं प्रभु की उस सेवकाई में लगी हूँ जो मेरी सास करती थीं। यह एक बड़ा आनन्द है जो प्रभु की सेवा से मिलता है।
मैं आपको प्रभु की महिमा के लिये बताना चाहती हूँ कि मेरा वैवाहिक जीवन बहुत अद्भुत है। पिछले १५ सालों में हमारे परिवार में प्रभु की दया से किसी एक समय भी कोई झगड़ा नहीं हुआ। यदि कोई समस्या होती भी है तो हम उसे खाने की मेज़ पर सुलझाकर एक दूसरे की तरफ देखकर हंसते हुए खुशी से खाने का आनन्द लेते हैं। मेरे पति एक आदर्श पति, पिता और पुत्र हैं। सरकार में एक बड़े पद पर काम करने के बावजूद, प्रभु की दया से उनमें दीनता है। वह प्रभु की सेवा भी करते हैं और हमारे साथ समय भी बिताते हैं, और हमारे तीनों बेटों को प्रभु के भय में बढ़ना सिखाते हैं।
मैं परमेश्वर का धन्यवाद करती हूँ कि उसने मुझे परमेश्वर का भय मानने वाला परिवार दिया है। मैं प्रभु के उन सब लोगों का धन्यवाद करती हूँ जो मुझे और मेरे परिवार को अपनी प्रार्थनाओं में याद करते हैं। परमेश्वर मेरे जीवन की छोटी-बड़ी सब बातों में विश्वासयोग्य रहा है और आगे भी अन्त तक रहेगा। परमेश्वर उनके लिये भला है जो उसपर भरोसा रखते हैं। प्रभु की स्तुति हो!
- विनीता ए. मसीह, नजफगढ़, नई दिल्ली
इन सब परिस्थितियों के बावजूद भी हम लगातार चर्च जाते थे और मैं चर्च की गतिविधियों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेती थी। मैं रोज़ बाइबल पढ़ती और सन्डे स्कूल क्लास में जाती थी। अगर कोई मुझसे किसी धार्मिक काम करने के विष्य में कहता तो मैं उसे बड़े उत्साह से करती थी।
अगर कहीं कोई विशेष सभा होती थी तो मैं वहाँ भी अपनी माँ के साथ जाती थी। पर यह सब करके भी मेरे अन्दर कोई खुशी या परमेश्वर के उद्धार का आनन्द नहीं था। इन सब बातों को मैं एक धर्म के रीति-रिवाज़ की तरह ही पूरा करती थी, जिसने मुझे एक तरह के बन्धन में बाँध दिया था। मेरा जीवन इसी तरह चल रहा था।
ये सब कैसे हुआ
एक दिन परमेश्वर के घर से आते समय मेरी एक विश्वासी मित्र मुझे मिली और उसने मुझसे एक सवाल पूछा, "क्या तुम मानती हो कि तुम एक पापी हो?" उसके इस सवाल से मैं बड़ी हैरान हुई और मैंने बड़े घमंड से उत्तर दिया, "नहीं, मैं पापी नहीं हूँ; मैं कैसे पापी हो सकती हूँ जबकि मैं बराबर चर्च जाती और बाइबल पढ़ती हूँ और मैंने कभी कोई गलत काम नहीं किया है? मैं विश्वास करती हूँ कि मैं एक अच्छी लड़की हूँ और स्वर्ग में मेरा एक स्थाई घर है।" तब मेरी मित्र ने मुझे बाइबल में से एक आयत दिखाई - रोमियों ३:२३, जहाँ लिखा था "सबने पाप किया है और परमेश्वर की महिमा से रहित हैं।" फिर उसने मुझे परमेश्वर के वचन में से १५-२० आयतें और भी दिखाईं। मैं बाइबल को बहुत लम्बे समय से पढ़ती आ रही थी, लेकिन उस दिन वह सारे वचन मेरे पास एक नई रीति से आये। मैंने हर एक वचन को बड़े ध्यान से सुना और परमेश्वर के आत्मा ने मेरे दिल से बातें कीं। तब मेरे मित्र ने मुझसे पूछा, "क्या तुम प्रभु यीशु को अपना व्यक्तिगत उद्धारकर्ता करके ग्रहण करना चाहती हो? यदि हाँ तो मेरे पीछे-पीछे प्रार्थना को दोहरा सकती हो।" मैंने कहा "हाँ मैं तैयार हूँ।" जब मैं अपने पापों से पश्चाताप की प्रार्थना कर रही थी तो मैंने अपने आप को बहुत हल्का महसूस कर रही थी। जैसे ही मैंने प्रार्थना को अन्त किया तो मैंने एहसास किया कि एक बड़ा बोझ मेरे हृदय से हट गया है और बयान से बाहर एक अदभुत खुशी ने मुझे घेर लिया है; तब मुझे वास्तविक उद्धार का निश्चय हुआ। उस दिन मैं बहुत खुशी से भरी और बदली हुई अपने घर पहुँची। उस दिन के बाद से मैं प्रभु में बढ़ती गई। अब परमेश्वर के वचन को पढ़ने के मायने मेरे लिये बिल्कुल अलग हो गये।
लेकिन यह सब मेरे परिवार को, विशेषकर मेरे पिताजी को बिल्कुल अच्छा नहीं लगा। जब मैंने परमेश्वर के घर में विश्वासियों की मण्डली में जाना शुरू किया तो मेरे पिताजी इसका विरोध करने लगे। वे कहते थे कि हम तो पुराने इसाई हैं तो फिर तुम्हें यह सब करने की क्या ज़रूरत है? फिर मेरे निर्णय को बदलने के लिये सबसे छोटे चाचा को फरीदाबाद से बुलवाया गया। लेकिन प्रभु की दया से मैं अपने निर्णय पर दृढ़ रही। जब वे मुझे समझाने में असफल रहे तो वे ज़बरदस्ती मुझे रोकने की कोशिश करने लगे। इस मुशकिल स्थिती पर विजय पाने के लिये मैं प्रार्थना-उपवास करती थी। जैसे ही प्रार्थना और अराधना सभा का समय नज़दीक आता था, मैं अपने पिताजी से रो रो कर गिड़गिड़ाती थी कि मुझे जाने दीजिये। मेरे आँसुओं को देखकर वह मान जाते, परन्तु यह कहकर कि बस! यह आखिरी बार है। मण्डली की बहिनें हमेशा मेरी इन मुशकिलों में मेरे साथ खड़ी रहीं। वे कई बार हमारे घर आतीं और मेरे पिताजी को मनवाकर मुझे अपने साथ परमेश्वर के घर लेकर जाती थीं।
१९९० में मुझे बोर्ड की परिक्षाओं में बैठना था लेकिन परिक्षाओं की तारीखें देहरादून में आयोजित होने वाली एक विशेष सभा के दिन के साथ अड़चन डाल रहीं थीं। लेकिन प्रभु की दया से मैंने प्रभु और उसकी आज्ञाओं को पहला स्थान दिया, देहरादून जाकर मैंने सभा में भाग भी लिया और अगले दिन अपनी परिक्षा भी दी। प्रभु उनको कभी निराश नहीं करता जो उसपर भरोसा रखते और उससे प्रेम रखते हैं। प्रभु ने मुझे मेरी परिक्षाओं में बहुत अच्छे अंक दिये। इस तरह मेरा जीवन प्रभु यीशु के प्रेम में और अधिक बढ़ता गया।
मुझे उसने क्या दिया
मेरे विश्वास की वास्तविक परख मण्डली की एक विश्वासी बहन के विवाह के बाद हुई क्योंकि उसके विवाह के बाद मण्डली के ज़िम्मेदार भाई और बहन मेरे विवाह के लिये भी बात करने लगे। लेकिन मुझे इस विष्य में कोई ज़्यादा रुचि नहीं थी क्योंकि मैं अपने घर की हालत जानती थी। मैं नहीं चाहती थी कि कोई भी मेरे लिये इस तरह का खतरा मोल लेकर मेरी चिन्ता करे। इसके विपरीत मैं यह सोचती थी कि मेरे घर की हालत देखकर मुझसे विवाह कौन करेगा? पर मुझे मालूम पड़ गया था कि मण्डली के ज़िम्मेदार भाई और अन्य बड़ी बहिनें मेरे विवाह की बात सोच रहे हैं। इसीलिये मुझे एक दिन घर से बुलाया गया, मुझे मालूम था कि मुझे क्यों बुलाया है। सो मैंने पहले से ही तय कर लिया था कि जब वो मुझसे पूछेंगे तो मेरा जवाब ’ना’ ही होगा। परन्तु प्रभु ने मुझसे इफिसियों ६:५ से बात की, "अपने प्रचीनों के आधीन रहो।" इस तरह से मैंने अश्विनी से विवाह करने के बारे में अपनी सहमति दे दी और मुझे इस विष्य में प्रार्थना करने को कहा गया।
मैं प्रार्थना करने को तो राज़ी थी पर यह सोचकर डर रही थी कि अगर मेरे माँ-बाप को इसका पता चलेगा तो क्या होगा? इस विष्य पर प्रार्थना करने के दौरान, प्रभु ने मुझे यर्मियाह ३१:२१ और भजन ४५ से प्रतिज्ञा दी और इससे मुझे यह स्पष्ट हो गया कि यह परमेश्वर की ओर से है। तब मैंने विवाह के इस प्रस्ताव को बिना किसी शक के ग्रहण कर लिया। मैंने देखा कि प्रभु अपने बच्चों को कभी भी किसी उलझन में नहीं रखता। इसलिये उसने पहले मेरी होने वाली सास को फिर मेरे होने वाले पति को भी इस विवाह के लिये अपने वचन से शान्ति दी। प्रभु का धन्यवाद हो कि जनवरी ६, १९९४ को अश्वनी से मेरा विवाह हो गया।
मेरी सास मेरे लिये बहुत ही हिम्मत का कारण थी। जब भी मुझे पढ़ाई में अच्छे अंक मिलते थे तो मुझ से ज़्यादा वह खुश होती थी, और वह मुझे और अधिक उत्साहित करती थी। उसने मुझे बहुत सी आत्मिक बातें सिखाईं। वह एक बहुत अच्छी प्रभु की भक्त थीं और लगातार, अन्त तक प्रभु की सेवा में बिना किसी समझौते के लगीं रहीं। अपने आखिरी दिनों में, मैं उनके साथ डॉक्टर के पास गयी थी, तो उन्होंने मुझसे कहा, "बेटी प्रभु ने जैसे हम से प्रेम किया है वैसे ही तुम उससे पूरे हृदय से प्रेम करना।" यह बात सीधे मेरे दिल में उतर गई। इसके दो दिन बाद एक सड़क दुर्घटना के कारण वे प्रभु के पास चली गईं। अब मैं प्रभु की उस सेवकाई में लगी हूँ जो मेरी सास करती थीं। यह एक बड़ा आनन्द है जो प्रभु की सेवा से मिलता है।
मैं आपको प्रभु की महिमा के लिये बताना चाहती हूँ कि मेरा वैवाहिक जीवन बहुत अद्भुत है। पिछले १५ सालों में हमारे परिवार में प्रभु की दया से किसी एक समय भी कोई झगड़ा नहीं हुआ। यदि कोई समस्या होती भी है तो हम उसे खाने की मेज़ पर सुलझाकर एक दूसरे की तरफ देखकर हंसते हुए खुशी से खाने का आनन्द लेते हैं। मेरे पति एक आदर्श पति, पिता और पुत्र हैं। सरकार में एक बड़े पद पर काम करने के बावजूद, प्रभु की दया से उनमें दीनता है। वह प्रभु की सेवा भी करते हैं और हमारे साथ समय भी बिताते हैं, और हमारे तीनों बेटों को प्रभु के भय में बढ़ना सिखाते हैं।
मैं परमेश्वर का धन्यवाद करती हूँ कि उसने मुझे परमेश्वर का भय मानने वाला परिवार दिया है। मैं प्रभु के उन सब लोगों का धन्यवाद करती हूँ जो मुझे और मेरे परिवार को अपनी प्रार्थनाओं में याद करते हैं। परमेश्वर मेरे जीवन की छोटी-बड़ी सब बातों में विश्वासयोग्य रहा है और आगे भी अन्त तक रहेगा। परमेश्वर उनके लिये भला है जो उसपर भरोसा रखते हैं। प्रभु की स्तुति हो!
- विनीता ए. मसीह, नजफगढ़, नई दिल्ली
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें