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सोमवार, 1 फ़रवरी 2010

सम्पर्क दिसम्बर २००९: सम्पादकीय

"हर बात का एक अवसर और प्रत्येक काम का जो आकाश के नीचे होता है, एक समय है। जन्म का समय और मरने का भी समय; बोने का समय और बोये हुए को उखाड़ने का भी समय है" (सभोपदेशक ३:१,२)।

हर दिन को २४ घंटे जीने के लिये दिये गये हैं और हर साल को १२ महीने। अब इस साल ने अपना समय पूरा कर लिया है और फिर इस साल को हर साल की तरह हमेशा-हमेशा के लिये इतिहास के कब्रिस्तान में दफना दिया जायेगा। ऐसे ही स्वयं इस पृथ्वी का भी एक निश्चित समय है। जैसे ही समय पूरा होगा, पृथ्वी भी नहीं रहेगी। जब यीशु इस पृथ्वी पर था, तो उसे भी एक निश्चित समय दिया गया था। आपके जन्म का भी एक निश्चित समय था और मृत्यु का भी एक निश्चित समय है। मैं और आप भी समय की सीमा में बंधे हैं। अब सवाल यह है कि हम इस समय का कैसे उपयोग करते हैं? क्योंकि समय बहुमूल्य है और कोई इतना अमीर नहीं जो इसे वापस खरीद सके।

कितने ही अपनों को एक सफेद चादर में लपेटकर अंतिम विदाई दे चुके हैं। अभी और हैं जो लाईन में लगे हैं जिनका समय इस साल में पूरा होने वाला है। आते समय में, जैसे होता आया है, संसार भी सुधरेगा नहीं. बदलेगा नहीं पर बिगड़ेगा ज़रूर, चाहे कितना ही नये साल की शुभकामनाएं लेते और देते रहियेगा। सच मानियेगा, अगर हम नहीं बदले तो हमारे हालात भी नहीं बदलेंगे।

ज़्यादतर लोग परमेश्वर को एक बदला लेने वाले परमेश्वर के रूप में मानते हैं जो दुष्टों का नाश करे। पर परमेश्वर तो दया दिखाने वाला परमेश्वर है। अगर परमेश्वर मेरे पापों का हिसाब लेता तो मैं आज यह सब लिखने के लिये यहाँ बचा न होता। बदले का भाव हमें गुस्से से भरता है। जब गुस्सा बढ़ता है तो दिमाग़ पटरी से उतर जाता है और फिर आदमी तर्क और विवेक को उतार कर एक तरफ रख देता है, तथा उसकी असली सूरत सामने आकर खड़ी हो जाती है।

एक सिपाही गली से गुज़र रहा था कि एक नये बनते मकान से एक ईंट उसके ऊपर गिरी। बस यूँ समझिये कि वह बाल-बाल ही बचा। गुस्से में तमतमाया वह लपककर मकान में घुसा, यह ठानकर कि जिसने ईंट गिराई है, उसी के सिर पर दे मारूंगा। तेज़ी से वह सीढ़ी से ऊपर पहुंचा ही था कि तभी चारपाई पर लेटे दारोग़ा ने आवाज़ दी, "अबे यह कौन ऊत का पूत है जो बिना पूछे ही ऊपर चढ़ा आ रहा है?" दारोग़ा को देखते ही सिपाही का सारा गुस्सा हवा हो गया, चेहरे पर दीनता आ गई और घबरा कर बोला, "सर कुछ नहीं, आपकी यह ईंट नीचे गिर गई थी, ऊपर देने आया हूँ।" ऐसे ही हम भी मन से तो दीन नहीं होते, पर जो दीनता दिखाते हैं वह एक मजबूरी होती है।

हमारे स्वभाव में बदले का भाव भरा होता है। बात बात पर मन कहता है कि "एक बार तो उसे सिखा ही दे।" पर भय के कारण क्रोध कमज़ोर पड़ जाता है। हमें ग़लत करने से अगर कोई चीज़ रोकती है तो वह परमेश्वर का डर नहीं बल्कि पुलिस, कानून, सज़ा और समाज का डर है।

ज़रा मेरे साथ लूका ९:५४-५६ देखियेगा। इस वार्तालाप को मैं अपने शब्दों में कह रहा हूँ: चेलों ने कहा, "प्रभु अगर आप कहें तो आग बरसा कर इन सामरियों को सिखा दें?" लेकिन प्रभु कहता है, "तुम नहीं जानते कि तुम कैसी आत्मा के हो। क्या परमेश्वर का आत्मा किसी का भी नाश करना चाहता है? किसी से भी बदला लेना चाहता है?" शायद हम एक बदला लेने वाले परमेश्वर को मानते हैं, न कि दया दिखाने वाले और क्षमा देने वाले परमेश्वर को। किसी को माफ करना आसान नहीं है। सिर्फ शब्दों की माफी तो काफी नहीं है। माफी तब तक माफी नहीं जब तक दिल से माफ न करें।

क्या आपके मन में किसी के प्रति विरोध भरा है, और आपका मन चाहता है कि ऐसे इन्सान को प्रभु सिखा दे? लेकिन ध्यान कीजिये प्रभु क्या कहता है, उनके लिये जो क्षमा के लायक भी नहीं थे - "हे पिता, इन्हें क्षमा कर, क्योंकि यह नहीं जानते कि यह क्या कर रहे हैं" (लूका २३:३४)। प्रभु ने यह उन शत्रुओं के लिये कहा जो उससे माफी माँग भी नहीं रहे थे, तौभी वह क्रूस पर से उनके लिये परमेश्वर से दया माँग रहा था। यह परमेश्वर के आत्मा का काम है।

इब्रानियों १२:२४ में वह कहता है, "...जो हाबिल के लहू से उत्तम बातें कहता है।" हाबिल का लहू क्या कहता है? उत्पत्ति ४:१० में कहता है, "तेरे भाई का लहू भूमि से मेरी ओर चिल्लाकर मेरी दोहाई दे रहा है।" हाबिल का लहू परमेश्वर से दोहाई दे रहा था कि हे प्रभु मेरा पलटा ले। पर सिर्फ यीशु का लहू ही है जो आज भी अपने शत्रुओं के लिये यही पुकरता है "हे पिता इन्हें माफ कर।" वह सज़ा नहीं क्षमा देना चाहता है।

यदि यीशु का आत्मा मुझ में है तो यीशु का स्वभाव मुझमें क्यों नहीं है? अगर बद्ला लेने का स्वभाव नहीं बदला तो मेरा जीना ही व्यर्थ है। कहीं किसी के प्रति कड़वाहट से भरे हैं तो प्रभु को पुकार कर उससे कहें, "हे प्रभु मुझे इससे निकाल।" अगर आप इस कड़वाहट और क्रोध से निकल गये तो वास्तव में यह नया साल ऐसा साल होगा जो आपके लिये सब कुछ नया कर जायेगा।

परमेश्वर ही से नहीं पर आपको उससे भी माफी माँगनी है जिसके लिये आपके मन में कड़वाहट भरी है। पत्नि हो या पति हो, चाहे मण्डली का कोई भाई य बहन हो। बड़ी बात तो तब है जब आप पहल कर के माफी माँग लें। अगर दूसरे ने पहले होकर माफी माँग ली और फिर आप एक औपचारिकता के रूप में ही कहते रह गये कि "चलो मुझे भी माफ कर दो" तो यकीन मनियेगा के बाज़ी तो वही मार ले गया। समय किसी का इन्तिज़ार नहीं करता, आप्भी ’समय’ का इन्तिज़ार न करें, कहीं सोचने में ही समय और साल हाथ से फिसल जायें।

परमेश्वर ने अपको आज़ादी दी है और वह आपकी आज़ादी का आदर भी करता है। इसलिये आज वह हमारे सामने दो बातें रखता है - आशीश और श्राप, और फिर एक प्यार भरी सलाह भी देता है कि तू आशीश को ही चुन ले (व्यवस्थाविवरण ३०:१९)।...पहले जाकर अपने भाई से मेल मिलाप कर (मत्ती ५:२४)। आप आज क्या करने जा रहे हैं? कहीं परमेश्वर की आवाज़ को टालने तो नहीं जा रहे?

आपके प्यार और प्रार्थानाओं से सम्पर्क का यह अंक आप तक लाया जा सका, आशा है कि आगे भी आपका सहयोग हमें मिलता रहेगा ताकि सम्पर्क के माध्यम से हमारा सम्पर्क आपसे बन रहे। सम्पर्क परिवार की ओर से आपको नववर्ष की शुभकमनाएं।
सम्पादक

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