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रविवार, 3 अप्रैल 2011

संपर्क फरवरी २०११ - आइए ना, यहाँ आईना है

मेरा नाम पुष्पा है, मेरा जन्म फरीदाबाद के एक पंजाबी परिवार में हुआ। हमारा परिवार १९४७ में भारत-पाकिस्तान बंटवारे के समय मुल्तान सूबे से भारत के फरीदबाद (हरियाणा) में आकर बस गया था।

शुरू से ही मैं धार्मिक प्रवृति की थी और उपवास करती थी। सन १९८४ की बात है जब मैं कक्षा ८ में पढ़ रही थी, एक दिन मैं अपनी एक सहेली के घर गई, परन्तु वह घर पर नहीं थी। लेकिन उसकी माँ ने मुझसे प्रभु यीशु के बारे में बात करने के इरादे से कुछ देर रुकने को कहा। वह कहने लगी कि क्या मैं तुम्हारे साथ प्रार्थना कर सकती हूँ? मैंने उनसे हाँ कह दिया। मुझे उनकी प्रार्थना कुछ अलग सी लग रही थी, क्योंकि वे आँखें बन्द करके, बिना किसी को आधार बनाए वह किससे माँग रही थी, मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था। लेकिन जो भी उन्होंने प्रभु यीशु के बारे में बताया, वह मैंने साधारण विश्वास से मान लिया। वह सब बातें मैंने अपने घर आकर अपनी बड़ी बहनों के साथ बांटीं। क्योंकि मैं घर में सबसे छोटी थी इसलिए मैं उनके साथ अपनी बातों को बांट लिया करती थी।

एक दिन मेरी सहेली की माँ रविवार की सुबह मुझे और मेरी दो बहनों को परमेश्वर के भवन में लेकर गईं। वहाँ हमने और भी विस्तार से प्रभु यीशु के प्यार के बारे में एक प्रभु के भक्त से सुना। वहां मैंने और मेरी दो बहनों ने उसी दिन प्रभु को अपना व्यक्तिगत उद्धारकर्ता के रूप में ग्रहण किया। फिर हमने प्रभु के वचन को भी पढ़ना शुरू कर दिया।

हमारे मोहल्ले में, जहाँ हम रहते थे कुछ विश्वासी बहनें सप्ताह में एक बार प्रार्थना के लिये इकट्ठी हुआ करतीं थीं। वहाँ हमें भी जाने का मौका मिलता था। बहनों की उस सभा में सब बहने अपनी बाइबल खोलकर बताती थीं कि प्रभु ने उनसे बात की है। पर मुझे यह समझ नहीं आता था कि प्रभु कैसे बातें करता है? जब मैंने एक बहन से पूछा तो उन्होंने मुझे समझाया कि किस प्रकार प्रभु बातें करते हैं इसलिए मैंने भी प्रार्थना करना शुरू कर दिया "प्रभु आप मुझ से भी बातें कीजिए और मेरे पाप माफ कर दीजिए।" एक बार जब मैं प्रभु का वचन पढ़ रही थी तो मेरे सामने यशायाह ४४:२२ का पद आया जिसमें लिखा था, "मैंने तेरे अपराधों को काली घटा के समान और तेरे पापों को बादल के समान मिटा दिया है, मेरी ओर फिर लौट आ, क्योंकि मैंने तुझे छुड़ा लिया है।" मुझे यह पढ़कर बहुत अच्छा लगा। पहली बार मैंने एहसास किया कि प्रभु ने मुझसे बात की। उसके बाद मैंने प्रतिदिन प्रभु के भय में जीना शुरू कर दिया। मुझे यह निश्चित हो गया था कि मेरे पाप माफ हो गये हैं और अब प्रभु की दृष्टि में कुछ पाप करने में मुझे भय लगने लगा।

एक बार की बात है, हमारे यहाँ मेला लगता था, जिसमें मैंने एक दुकान से आईना चुरा लिया था। पर जब मैं घर आई तो मेरी आत्मा में बहुत बेचैनी होने लगी और मैंने एहसास किया कि मुझे चोरी नहीं करनी चाहिए थी। सो मैंने वह आईना दुकानदार को वापस करने का निर्णय कर लिया। लेकिन मेरे सामने समस्या यह थी कि यदि मैं दुकानदार के सामने गई तो वह मुझे बहुत मारेगा। तो मैंने सोचा कि जिस तरह मैंने चोरी की थी वैसे ही चुपके से मैं उसे वहीं रख दूँगी। लेकिन प्रभु ने ऐसा नहीं होने दिया और मैंने उस दुकानदार को सब कुछ बता कर वह आईना लौटा दिया और उससे माफी माँगी। वह व्यक्ति बहुत खुश हुआ कि दुनिया में ऐसे भी बच्चे हैं जो चोरी की चीज़ वापस भी कर सकते हैं। एक बार मेरी किसी आँटी से बहस हो गई, जबकि उसमें मेरी कोई गलती नहीं थी, फिर भी उसके बाद मैंने उनसे माफी माँग ली। यह सब देखते हुए मेरे माता-पिता ने मुझे और मेरी बहनों को रविवार की सभाओं में जाने से नहीं रोका, क्योंकि वे सोचते थे कि हमारे बच्चे कुछा गलत काम तो कर नहीं रहे हैं।

इस तरह हम प्रभु की संगति में जाने लगे और हमें वहाँ जाकर कुछ-कुछ समझ में भी आने लगा था। हमें वहाँ समझाया गया कि यदि हम उपवास के साथ परमेश्वर से कुछ माँगें तो वह ज़रूर सुनता है। एक बार मेरी ९वीं कक्षा का परिणाम आना था परन्तु मैंने एक पेपर ठीक से नहीं लिखा था, इसी कारण मेरे मन में डर था कि कहीं फेल न हो जाऊँ सो मैंने उपवास के साथ प्रभु के चरणों में जाने का फैसला लिया। मैंने फैसला किया कि जब तक प्रभु मेरे परिणाम के बारे में मुझे तसल्ली नहीं देगा, तब तक मैं परिणाम सुनने स्कूल नहीं जाऊंगी। मैं उपवास के साथ प्रभु से प्रार्थना करती रही। तभी प्रभु ने भजन संहिता के एक पद मेरी सफलता के बारे में बात की। वचन के उसी पद पर विश्वास रखते हुए कि प्रभु ही मुझे सफलता देंगे, मैं परिणाम सुनने स्कूल की ओर चल दी। अभी मैं रास्ते में ही थी कि मुझे पता चला कि मैं काफी अच्छे अंकों से पास हो गई हूँ। मैंने वहीं पर प्रभु क धन्यवाद किया। इस तरह प्रभु छोटी-छोटी बातों से मेरे विश्वास को बढ़ाता रहा।

उसके बाद परिवार की ओर से मेरे विश्वास की वास्तविक परख शुरू हो गई। जब मैंने परिवार के रीति-रिवाज़ों को मानने से मना कर दिया, तो मेरे पिता ने, जो बड़े सख्त स्वभाव के व्यक्ति थे, मुझ पर बहुत पाबन्दी लगा दी। वे सोचते थे कि मेरी बड़ि बहन तो उनके हाथ से निकल चुकी है, यह अभी छोटी है और वे मुझे इस मार्ग पर नहीं चलने देंगें। मेरी बहन और छोटा भाई मेरे माता-पिता को दुखी नहीं देखना चाहते थे। इसलिए उन्होंने परमेश्वर के भवन में जाना बन्द कर दिया। मेरी बड़ी बहन तो नौकरी करती थी इसलिए वह तो वहीं से सभाओं में चली जाती थी, परन्तु मेरा आना-जाना बन्द हो गया था। लेकिन जैसे ही कभी मुझे बाज़ार जाने का मौका मिलता, मैं वहीं से सभाओं में चली जाती थी। ऐसा करते हुए मैं कई बार पकड़ी गई परन्तु प्रभु ने मुझे नहीं छोड़ा। जब भी कोई त्यौहार का मौका होता, तो यह जानकर कि पापा ज़बर्दस्ती करेंगे, हम दोनो बहनें बाथरूम में छिप जाती थीं। कई बार मुझे बहुत मार पड़ी। एक दिन उन्होंने मुझे डाँटते हुए कहा, "क्या अब भी तू अपनी बहन के नक्शे-कदम पर चलेगी?" पता नहीं कैसे मेरे मूँह से निकल गया, "मैं अपनी बहन के नहीं परन्तु यीशु के पीछे चलूँगी।"

उसके बाद मेरी बड़ी बहन के विवाह की बात आई। मेरी बहन ने ठान लिया था कि वह किसी विश्वासी लड़के से ही विवाह करेगी। लेकिन मेरे पापा ने ऐसा करने से मना कर दिया। परन्तु हमारी बहुत प्रार्थनाओं के बाद वे मेरी बहन का एक विश्वासी लड़के से विवाह करने के लिए मान गए। हमारे यहाँ इस तरह का यह पहला विवाह था, और इसके कारण मेरे पिता को समाज का सामना करन पड़ा। मन मारकर उन्होंने मेरी बहन का विवाह कर दिया। मेरी बहन के पति का स्वभाव काफी मिलनसार होने के कारण मेरे पिता का स्वभाव मेरे प्रति भी नरम हो गया था। विवाह के चार साल बाद मेरी बहन के पति प्रभु के पास चले गए। मेरे पिता को बहुत दुख हुआ। इसी कारण वे मुझे शनिवार और रविवार को मेरी बहन के घर भेज दिया करते थे कि मैं अपनी बहन के दुख में हाथ बंटा सकूँ।

इसके बाद मेरे पिता ने मेरी बहन से मेरे विवाह के बारे में पूछना शुरू कर दिया। प्रभु का धन्यवाद हो कि उसके बाद १९९७ में मेरा विवाह भी एक विश्वासी से हो गया। वे हमेशा ही प्रभु के काम के लिए समय-असमय तैयार रहते हैं। प्रभु ने मेरे विवाह के बाद न केवल आत्मिक आशीशें दीं बल्कि सब प्रकार कि आशीषें दीं। प्रभु ने हमें एक बेटी और एक बेटा आशीष के रूप में दिये। इन सब के लिए मैं प्रभु का धन्यवाद करती हूँ। इन सब के बाद भी जब कभी मैं इस संसार में अपने आप को अकेला महसूस करती हूँ तो तभी प्रभु यीशु का सामर्थी हाथ और उसकी अद्भुत शांति को अपने अन्दर महसूस करती हूँ जो वर्णन से बाहर है। कई बार मैंने अपने प्रभु पर अविश्वास किया लेकिन उसने मुझे आज तक नहीं छोड़ा। वह आज तक मेरे साथ भला रहा है। प्रभु का धन्यवाद हो, मैं जो उसकी बेटी नहीं थी, मुझे उसने संसार से चुनकर अपनी बेटी बना लिया।

- पुष्पा
फरीदाबाद (हरियाणा)

गुरुवार, 31 मार्च 2011

संपर्क फरवरी २०११ - उसने कहा मैंने सुना

गांव को पुलिस ने घेर रखा था। एक एक घर की तलाशी ली जा रही थी। पिछले दिनों की लूटपाट का माल घरों से पकड़ा जा रहा था। समीर साहब बहुत घबराए हुए थे। लूट्पाट की छोटी मोटी चीज़ें होतीं तो छिपा लेते, पर पांच बोरे शक्कर के कहां छुपाएं? पकड़े गए तो सीधे अन्दर जाएंगे। अन्धेरा होने का इन्तेज़ार करते रहे। रात के अन्धेरे में एक-एक बोरा करके पिछवाड़े के कुएं में डालने लगे। पाँचवे बोरे तक समीर साहब इतना थक चुके थे कि उसे कुएं में डालते डालते खुद भी कुएं में जा पड़े। बहुत शोर मचाया, बीवी चिल्लाई, गांव वाले इकट्ठे हो गए, किसी तरह उन्हें बाहर निकाला। चोट काफी लगी थी और सुबह होते-होते समीर साहब की चिड़िया फुर्र हो गयी और मियाँ दफना दिए गए। बाद में जब लोगों ने उस कुएँ का पानी पिया तो पानी मीठा था। लोगों ने सोचा, "यह पानी मीठा कैसे हो गया?" ज़रूर समीर खुदा का खास बन्दा होगा। शाम तक उस चोर की कब्र फूलों और मोमबत्तियों से सज गई। उस चोर की कब्र पर हर साल उसी दिन मेला लगने लगा और लोग उसे पूजने लगे।

चमत्कार को नमस्कार


इन्सानों में किसी न किसी को पूजने का स्वभाव होता है, वो चाहे डर से पूजें या मतलब से। कई बार लोग आश्चर्यकर्मों को देखकर आदमी को पूजने लगते हैं।

अन्तिम दिनों में लोग चिन्ह चमत्कारों पर विश्वास करेंगे और ऐसे लोगों के पीछे हो लेंगे। प्रभु तो हम से पहले ही कह चुका है। प्रभु यीशु ने २०१० साल पहले अन्तिम समय की जो भविष्यवाणियाँ कीं थीं, उसमें से एक यह भी है, "क्योंकि झूठे मसीह और झूठे भविष्यद्वक्ता उठ खड़े होंगे, और बड़े चिन्ह और अद्भुत काम दिखाएंगे..." (मत्ती २४:२४)। सारे संसार में लोगों को कई प्रचारक चिन्ह-चमत्कारों से भरमा रहे हैं।

यह सच है कि परमेश्वर आश्चर्यकर्म करता और चंगाई देता है। पर उसमें भी उसकी कोई योजना होती है। वह हमें सिर्फ चंगाई देने और आश्चर्यकर्म दिखाने नहीं आया था। इसलिए हमारा विश्वास आशचर्यकर्मों पर नहीं, परमेश्वर के जीवित वचन पर होना चाहिये।

किताबों और शास्त्र (पवित्रशास्त्र) में अन्तर है। किताब पढ़ते ही वह पुरानी हो जाती है। पर पवित्रशास्त्र को जब हम रोज़-रोज़ और बार बार पढ़ते हैं तो वह हमें नया बनाने लगता है। वह हममें उतरने लगता है और हमें अपनी समानता में अंश-अंश करके बदलता जाता है। हर बार वह हमारे लिये नया बनता जाता है और हमें नया बनाता जाता है। जब पाप का विचार हमारे मन पर वार करता है तब यह शास्त्र हमारे मन के लिये शस्त्र बन जाता है। जब हम इससे दुष्टता पर वार करते हैं तब यह हमारे लिये सुरक्षा बन जाता है। जब निराशा हम पर वार करती है तब यह शस्त्र हमारी निराशा पर वार करता है और कहता है, "मत डर मैं हूँ" (मत्ती१४:२७)। यह शास्त्र मुझसे कहता है, मैं तेरी हर हार को जीत में बदल दूँगा।

इसी वचन से मैं परमेश्वर के स्वभाव को समझता हूँ। अगर परमेश्वर मेरे स्वभाव का होता तो क्या होता? तब तो यह दुनिया बहुत पहले ही खत्म हो गई होती और स्वर्ग में उल्लू बोल रहे होते। एक नरक से क्या काम चलता, कई नरक खड़े करने पड़ते। प्रभु का धन्यवाद हो, परमेश्वर मेरे जैसे स्वभाव का नहीं है।

परमेश्वर का वचन मुझे परमेश्वर के स्वभाव को बताता है। वह उसकी क्षमा, प्यार और दया को बताता है। उसके क्षमा करने वले स्वभाव के कारण ही मैं बचा रह पाता हूँ। उसके इस प्यार को, उसकी दया और उसकी क्षमा को मैंने इस वचन से ही जाना है। परमेश्वर का वचन सिर्फ इतिहास का हिस्सा ही नहीं है, पर इसमें तो मेरे और आपके छिपे हुए जीवन का इतिहास भी लिखा है।

जो आईना असली चेहरा दिखाता है, वह बुरा लगता है, उसे कौन देखना चाहता है? सच्चा आईना वह है जो मेरी असली सूरत दिखाता है, पर वह हमें पसन्द नहीं आता। मैं तो सिर्फ आपके सामने आईना रख रहा हूँ।

सूरज को छिपाया जा सकता है, कितना आसान है - आप आँखें बंद कर लें, अंधेरा आ जाएगा और सूरज छिप जाएगा। भले ही आप कहते रहें कि उजाले में खड़े हैं, मगर अन्दर तो अन्धेरा ही है। अगर आप दिमाग़ के सोचने के दरवाज़े बंद कर लें, तो कितने ही उजाले सामने रख दें, सब अंधेरे में बदल जाएगा।


मूर्ख, ज्ञानी, प्रज्ञानी


तीन प्रकार के लोग होते हैं: मूर्ख, ज्ञानी और प्रज्ञानी। परमेश्वर का वचन बताता है कि मूर्ख वे हैं जो सुनते तो हैं पर मानते नहीं, गिरते तो हैं पर उठते नहीं। वे गलती करके अपनी गलती से सीखते नहीं, पर वही गलती करते हैं, "कुत्ता अपनी छांट की ओर और धोई हुई सुअरनी कीचड़ में लोटने के लिये फिर चली जाती है" (२ पतरस २:२२)। ज्ञानी वह होते हैं जो गलती करते तो हैं, पर गलतियों से सीख लेते हैं, उन्हें फिर नहीं करते, "क्योंकि धर्मी चाहे सात बार गिरे तौभी उठ खड़ा होता है" (नीतिवचन २४:१६)। परमेश्वर के वचन में कितनों की गलतियां दर्ज हैं, उन गलतियों के दुखदायी परिणाम भी उसमें दर्ज हैं। प्रज्ञानी वे हैं जो दुसरों की गलतियों से सीख लेते हैं, परमेश्वर के वचन में दर्ज बातों को पढ़कर उनसे सीख लेते हैं और बच निकलते हैं।


वो खबर जिससे आप बेखबर हो


हर रोज़ खूनी खबरों से लथपथ अखबार हर सुबह हमारे दरवाज़े पर डाल दिया जाता है। अगर खबर में खून खराबे की खबर न हो तो खबर खबर नहीं लगती। पर परमेश्वर के वचन में आपके लिए वो खबर है जिससे आप बेखबर हैं। जी हाँ, जीवन की खबर है; हाँ, बहुतायत के जीवन की खबर जिससे कि आप जीवन पाएं और बहुतायत का जीवन पाएं। परमेश्वर के वचन में बदलने की सामर्थ है, अगर वह आपके दिल में उतर आए तो जीवन ले आएगा। उसमें तो वो ज़िन्दगी है जिसमें आदमी मरकर भी जीता है।


हार जीत में बदल गई


अगर आप हालात से हिम्मत हार रहे हैं, तो यह हिम्मत हारना एक तरह से हार को निमंत्रण देना है। पर सच तो यह है कि अभी हम हारे नहीं हैं। अगर परमेश्वर के वचन में हारे हुए लोगों की जीत कहानी न होती तो फिर मुझे जीने का उत्साह कहाँ से मिलता? आपको मालूम है, जब मैं इस वचन में अपने जीवन की कहानी को देखता हूँ तो इस वचन से मुझ जैसे हारे हुए को एक नयी आशा मिलती है। मेरा प्रभु मुझे कभी नहीं छोड़ेगा, और न त्यागेगा (इब्रानियों १३:५)। वह मेरी हर हार को जीत में बदल देगा।

आप इस सम्पर्क को पढ़ रहे हैं, मुझे खुशी है। क्योंकि इसमें मैं आपको एक खुशी की खबर देने जा रहा हूँ जो आज, कल और युगानुयुग के लिए है। आप आशीशित हैं क्योंकि आप इसे पढ़ रहे हैं। शैतान और दुष्टात्माएं नहीं चाहतीं कि आप इसे पढ़ें और विश्वास करें। यह बात ध्यान से सुन लीजिएगा; यह बात मेरी नहीं है, परमेश्वर की है और उसकी आत्मा की है। इसे न मानकर, आप मेरा अपमन नहीं करेंगे, वरन उसका अपमान करेंगे। अगर आप इस खुशी की खबर को पढ़कर अपने पास रख लेंगें तो यह खुशी बढ़ेगी नहीं बल्कि घटेगी। अगर आप इस खुशी को अपने अन्दर जीवित रखना चाहते हैं तो इस जीवन की खुशी को हर रोज़ बाँटना है। तब देखियेगा, यह बढ़ने लगेगी। क्या आप ऐसा करेंगे?

यदि आप कहते हैं कि मुझे यह बात बतानी नहीं आती; और यदि आप कहते हैं कि मैं क्या बाँटूं, मेरे पास तो कुछ नहीं है? ध्यान से दिखियेगा, यह आपके हाथ में क्या है? इसी को बाँट दीजिएगा, इसे बाँटने से यह खुशी बढ़ जाएगी और फल लाएगी।

क्या परमेश्वर के वचन ने आपसे कुछ कहा है? अगर यह वचन आपको चुभ रहा है तो आप में कहीं आत्मिक आग बची हुई है। भले ही आपका जीवन धुँआ ही क्यों न दे रहा हो, यह धुँआ ही सबूत है कि आप में आग अभी बाकी है। इसलिए प्रभु का वचन कहता है, "वह कुचले हुए सरकण्‍डे को न तोड़ेगा और धूआं देती हुई बत्ती को न बुझाएगा" (मत्ती १२:२०)।

रविवार, 27 मार्च 2011

संपर्क फरवरी २०११ - उलझे सवालों का सुलझा जवाब

इस सदी का मशहूर नास्तिक बर्टरैंड रस्सल अपने शब्द जाल कुछ इस तरह से बुनता है। एक बच्चा अपाहिज पैदा हुआ और वह अपना सारा जीवन दूसरों के सहारे बिस्तर पर बिताएगा। वह कहता है, परमेश्वर ऐसे बच्चों के साथ कैसे-कैसे खेल खेलता है। परमेश्वर इतना कठोर तो नहीं हो सकता। वह तो कोई जल्लाद ही होगा। न मानना ही परमेश्वर को मानने से भला है। दुखों ने ही तो परमेश्वर की उत्पत्ति की है। यदि दुख न रहें तो फिर परमेश्वर को कौन पूछेगा? दुख मिटा दो परमेश्वर खुद मिट जाएगा। उसने कहा कि सारे धर्मस्थलों को तुड़वाकर अस्पताल और स्कूल बनवा दो। इस संसार की दयनीय दशा देखकर लगता है कि यदि इसका बनाने वाला है तो वह हिटलर और मुसलोनी से भी ज़्यादा क्रूर है। जब तक परमेश्वर इन्सानी दिमाग़ में जीवित रहेगा, तब तक हत्याएं, उग्रवाद और हर तरह के कुकर्म होते रहेंगे।

अब सवाल यह है कि ये सब दुष्कर्म परमेश्वर करवाता है या हमारे धर्म?

धर्म के मानने और न मानने वालों का अगर बीता इतिहास देखा जाए तो एक सा ही है, जिन्होंने इन्सान और इन्सानियत को पूरी तरह तबाह करने में कोई कमी नहीं छोड़ी। इसलिये संसार में हर रोज़ इन्सानियत का कत्ल हो रहा है। हमारे धर्मों ने इन्सान को इन्सान नहीं रहने दिया। उन्होंने उसे एक ऐसी मशीन बना दिया है जो न सोच सकती है और न सही गलत का एहसास कर सकती है। अक्सर हमारे आज के धर्म हमारी सही सोचने की सामर्थ को समाप्त कर देते हैं। धर्म को मानने वालों ने धर्म के नाम पर निर्दोष लोगों का खून बहाकर बड़ा दर्दनाक इतिहास लिखा है।

धर्म के लिये मरो या मार डालो। लोगों को अपना धर्म ही परमेश्वर दिखता है। अंधकार की शक्तियां लोगों को ऐसा अन्धा कर देती हैं कि भले ही इन्सान और इन्सानियत नाश क्यों न जाए, भले ही उन्हें धर्म के लिये कितना ही अधर्म क्यों न करना पड़े। क्या हमारे धर्मों की यही धारणा है? धर्मों की आपसी कड़वाहट अगर खत्म नहीं हुई तो यह इन्सानियत को ही खत्म कर डालेगी। या तो यह कड़वाहट ही रहेगी या फिर इन्सानियत ही।


आदमी में अपने आप को बरबाद करने की पूरी काबलियत है


लोग मर रहे हैं, मारे जा रहे हैं। बच्चे पैदा होते ही मार दिये जाते हैं या फिर उन्हें मां की कोख में ही मार दिया जाता है। हमारा सारा समाज ही सड़ा हुआ समाज बनता जा रहा है। हमने संसार को उसके आखिरी विनाश पर ला खड़ा किया है। हमने उसका पानी, बर्फ, हवा, पेड़-पौधे सब का सब दूषित कर दिया है। हम सब यह जानते हैं, पर फिर भी हम सब अपने में मस्त हैं।

आदमी ने न जाने क्या-क्या खो दिया है। उसने प्यार खो दिया, चैन खो दिया और इसना इतना खोया कि वह खुद खो गया है। उसने विश्वास खो दिया और अब किसी को किसी पर विश्वास ही नहीं रहा।

एक राजनेता के बेटे ने अपने बाप से कहा, "डैडी मुझे भी राजनीति सिखाओ।" बाप ने कहा, "चल राजनीति का पहिला सबक सीख ले। यहाँ आकर खड़ा हो और यहाँ से नीचे कूद।" बेटे ने कहा, "नहीं डैडी, चोट लग जाएगी।" बाप ने कहा, "अबे कूद, मैं हूँ न।" बेटे ने कहा, "नहीं डैडी"; बाप ने फिर कहा, "अबे कूद जा, मैं संभल लूंगा।" जैसे ही बेटा कुछ हिम्मत बांधकर कूदा, बाप झट से हट गया। बेटा बड़ी मुशकिल से उठा और झुंझलाकर बोला, "ये आपने क्या किया?" बाप बोला, "यही तो राजनीति का पहिला सबक है - कि राजनीति में अपने बाप पर भी विश्वास न करो।" ऐसे राजनेता हम पर राज करते हैं।

हम सोचते हैं कि हम अपनी परेशानियों को सुलझा लेंगे और अपनी समस्याओं को खुद ही ठीक कर लेंगे। हर एक देश सोचता है कि हम मिलकर सारे संसार की समस्याओं को सुलझा लेंगे, पर ऐसा होता नहीं। यू.एन.ओ. के बड़े-बड़े नेता शान्ति का सन्देश देते हैं, तरीके सुझाते हैं और शान्ति वार्ताएं करते हैं। पर उनके घर और उनके जीवनों में ही शन्ति नहीं है पर वे शान्ति बांटते फिरते हैं।


आदमी मिट्टी का है और मिट्टी देने के लिये उसे कुछ गज़ ज़मीन ही तो चाहिये


ज़्यादातर ज़िन्दगियां इसी सोच में बीतती हैं कि क्या खाएंगे? क्या पहिनेंगे? क्या कमाएंगे? बच्चों को कैसा बनाएंगे? क्या यही ज़िन्दगी है? यह जिस्म आदमी को सिर्फ भूख मिटाने के लिये नहीं दिया गया, अब वह भूख चाहे पेट की हो या अभिलाषाओं की। आदमी के पास एक अनजानी प्यास है। उसे पैसे की प्यास है जिसे पाकर भी वह अपने आप को प्यासा पाता है। ऊंचा पद पाने की प्यास है पर उसे पाकर भी वह वैसा ही प्यासा है। लगातार सोचता है कि ऐसा क्या पाऊं जिसे पाकर मेरी प्यास बुझे? आदमी इतना अधूरा सा क्यों है? आदमी इतना मजबूर सा क्यों है? वह जैसा जीना चाहता है वैसा जी नहीं पाता। आदमी ने बहुत कुछ पाया और बहुत कुछ कमाया पर फिर भी उसे लगता है कि अभी कुछ और बाकी है जो नहीं पाया है। हर आदमी जानता है कि आदमी मिट्टी है और वह मिट्टी में ही मिल जाएगा। उसे मिट्टी देने के लिये कुछ गज़ ज़मीन से ज़्यादा और क्या चाहिये? वह जानता है कि सब कुछ छोड़कर जाएगा, पर फिर भी वह जोड़ने की जुगाड़ में ही लग रहता है कि और क्या पा लूं?

इस सदी की सबसे बड़ि त्रासदी है, या यूँ कहीये इस सदी पर सबसे बड़ी लानत यह है कि आदमी खुशी और प्यार के लिये तरसता है। संसार में, घर और परिवार में शान्ति नहीं है। हर ज़िन्दगी की अजीब सी कहानी है। आदमी कितना अधूरा है, कितना मजबूर है। वह करे तो क्या करे? पाप उसके सीने पर चढ़कर एक भारीपन बनाए रखता है। आदमी का दिल इतना उलझा रहता है कि वह अपनी आखिरी सांस तक बेचैनी को झेलता है। गरीब की परेशानी है कि जब भूख लगे तो क्या खाऊँ? अमीर की परेशानी है - क्या खाऊँ कि भूख लगे? समस्या दोनो के पास है। एक जीवन रोटी के लिये तरसता है और दूसरा भूख के लिये।

मौत का डर तो आदमी में है पर परमेश्वर का डर नहीं रहा। कब्र, कफन, शमशान और लाश जैसे शब्द सुनते ही सिहरन उठती है और उन्हें सुनकर एक डर सताता है।

कब्र के आगे आपके साथ कोई नहीं जाएगा। कब्र के पार तो आप के पाप ही आपका साथ निभाएंगे। जो कुछ आप बोओगे वही तो काटोगे। कैक्टस बोओगे तो गुलाब नहीं काटोगे, धतूरा बोओगे तो उससे आप सेब नहीं काटोगे। आप पाप बोकर उससे हमेशा की मौत काटोगे। पर कौन है जिसने पाप को बोया और उसकी सज़ा किसी और ने काटी हो? वह कौन है जो आपकी शर्मनाक हालत पर आपको अपनाने से न शर्माता हो?

एक प्रचारक ने कहा, "इस संसार में ऐसा कोई जन है जिस ने कभी झूठ न बोला हो" भीड़ में से एक आदमी ने अपना हाथ ऊँचा किया, "हाँ ऐसे एक नहीं अनेक लोग हैं।" प्रचारक ने पूछा, "कौन हैं?" उस व्यक्ति ने उत्तर दिया, "जन्म के गूँगे; जिन्होंने कभी बोला ही नहीं, तो वे झूठ क्या बोलेंगे?" तब प्रचारक ने कहा कि एक जन्मे के गूँगे की माँ ने उससे पूछा, "यहाँ तीन लड्डू रखे थे, एक कहाँ गया? किसने खाया?" गूँगे ने इशारे से कहा, "मैंने नहीं खाया।" वह शब्दों से नहीं पर इशारों से ही झूठ बोल गया। क्या आप सोचते हैं कि जो जज झूठ बोलने पर अपराधी को सज़ा सुना देता है, उस जज ने सव्यं कभी झूठ नहीं बोला होगा? इसलिये परमेश्वर का वचन कहता है एक भी धर्मी नहीं, एक भी नहीं (रोमियों ३:१०); मैं भी नहीं, आप भी नहीं।


एक हारा हुआ इन्सान जीत के जीवन में आ खड़ा हुआ


मैं अपने आप से और अपने परिवार से बहुत नाउम्मीद आदमी था। ऐसा नहीं था कि पैसा नहीं था; पर प्यार नहीं था खुशी और चैन नहीं था। आपको मालूम है मेरा सब कुछ बदल गया। धर्म बदलने की तो ज़रूरत नही पड़ी, पर एक दुआ मेरे लिये वो दवा बन गई जिसने सब कुछ बदल डाला। मेरी नफरत को प्यार में, हार को जीत में और निराशा को आशा में बदल डाला। देखा तो सब कुछ नया हो गया। यह मेरा नया जन्म था। सिर्फ एक दुआ से यह हुआ और यह दुआ थी, "हे यीशु मुझ पापी पर दया करें और मेरे पापों को क्षमा करें।" यही दुआ आपके लिये भी ऐसे ही दवा का काम कर सकती है।

मैं अपने प्रचार को रंग देने के लिये यह बातें नहीं कह रहा हूँ; पर सच कह रहा हूँ, मन की सच्चाई से कह रहा हूँ। आप माने या न माने इस बेचैनी को निकालने का बस यही एक रास्ता है - अपनाएं या न अपनाएं, यह आप पर है। आप माने या न माने, फैसला आपके हाथ में ही है; आप अपना फैसला ले सकते हैं।


वो फैसला जो फासले मिटा दे


मैं मानता हूँ कि किसी का धर्म परिवर्तन करना या कराना एक भयानक पाप है। हाँ, जीवन बदल जाए, आप अपने पापों से छुटकारा पाकर पार उतर जाएं और आनन्द और शान्ति से भर जाएं, एक ऐसा परिवर्तन ज़रूर आना चाहिये।

कहीं ऐसा न हो जो नहीं होना चाहिये, वह अचानक हो जाए। आप कह सकते हैं कि यह तो प्रचार मात्र है। मैं आपको नहीं जानता, पर सच जानिये इस सन्देश पर आपका नाम लिखा है। यह पत्रिका परमेश्वर के पत्र के रूप में आपके लिये है। मैं आप से बात कर रहा हूँ, आपसे जो परमेश्वर की दया से इन लाईनों को पढ़ रहे हैं। यदी आप ठीक हैं, भले-चंगे हैं और चैन से हैं तो आपको परमेश्वर की क्या ज़रूरत है और आपको उससे क्या लेना देना? हाँ, अगर आप परेशान हैं, हारे हुए हैं और अपनी लतों से लदे हुए हैं, तो आपके लिये परमेश्वर तैयार खड़ा है।

आप सोचते हैं कि आप कोई महत्वपूर्ण व्यक्ति नहीं हैं; शायद संसार भी आपको कोई खास महत्व न देता हो, पर आप परमेश्वर के लिये बहुत ही महत्वपूर्ण हो। इतने कि उसने आपके लिये क्रूस पर अपनी जान दे दी, आपके लिये अपना लहू बहा दिया। वह आपके लिये वो कर सकता है जो आप अपने लिये सोच भी नहीं सकते। वह आपके माँगने और सोचने से कहीं बढ़कर आपके लिये कर सकता है (इफिसियों ३:२०)।

परमेश्वर मनुष्यों को बचाने में लगा है, चाहे वे किसी जाति का, किसी भी धर्म का और कोई भी क्यों न हो - वह सब को प्यार करता है। हम तो उसी से प्यार करते हैं जो हमें प्यार करता है, पर वह तो उन्हें भी प्यार करता है जो उससे नफरत करते हैं। उसके इसी प्यार ने वो वार किया है जो आज तक कोई नहीं कर पाया। यह जो आप पढ़ रहें हैं, मात्र उपदेश नहीं है।

अगर आप अपने आप को पापी नहीं मानते, तो आप किसी को कोई धोखा नहीं देते। सच तो यह है कि आप अपने आप को ही धोखा दे रहे हैं।

यह वक्त अगर फिसल गया तो फिर आपके हाथ की पकड़ में कभी नहीं आएगा। शायद फिर आपको पाप से पश्चाताप करने का मौका ही न मिल पाए। मैं आपसे फरियाद करता हूँ कि अभी ही एक प्रार्थना करें, "हे यीशु मुझ पापी पर दया करो, मेरे पाप क्षमा करो।"

क्षमा पाने की शर्त तो बस यही है कि आप क्षमा मांग लें। परमेश्वर हमें कैसे माफ कर सकता है? एक दिल से निकली दुआ कभी खाली नहीं जाती। सिर्फ इतनी दुआ माफी के लिये काफी है, "हे यीशु मुझ पापी पर दया करें, मेरे पाप क्षमा करें।"

बुधवार, 23 मार्च 2011

संपर्क फरवरी २०११ - जो समझना न चाहे, उसे कौन समझाए

एक साहब थे समाज सुधारक। बेचारे बड़ी मेहनत से समझा रहे थे एक शराबी को कि शराब कितनी बेकार चीज़ है। उन्होंने कहा, "मान लीजिए किसी गधे के सामने दो बाल्टी रखी जाएं। उनमें से एक में पानी हो और दूसरे में शराब, तो गधा कभी शराब नहीं पीएगा। वह पानी ही पीएगा। क्या मेरी यह बात समझ रहे हो?" शराबी बोला, "जी समझ रहा हूँ।" समाज सुधारक ने पूछा, "क्या समझ रहे हो?" शराबी बोला, "जो आप समझा रहे हो वही तो समझ रहा हूँ - कि वो सब गधे हैं जो शराब नहीं पीते।" उस समाज सुधारक ने अपना सिर पकड़ लिया। अगर आप समझना न चाहें तो फिर कौन समझा सकता है।

ज़रा इस बात को समझिये - अब यह नए ताज़े १२ महीनों से भरा साल हमारे सामने है। भंडार घर में यह हम सबके लिये १२ बंडलों में बंधा हुआ रखा है। इन १२ महीनों में ५२ हफते, ८ हज़ार ७ सौ ६० घंटे, ५ लाख २५ हज़ार ६ सौ मिनिट, ३ करोड़ १५ लाख ३६ हज़ार सैकेंड यह सब आपके लिये हैं। मैं और आप इस बहुमूल्य समय के उपहार के योग्य नहीं थे फिर भी हमें दिया गया है। आप इन में से २४ घंटे ही एक बार में ले पाएंगे। यह आप पर निर्भर करता है कि आप इनका सदुपयोग करते हैं या दुरूपयोग। हममें से कोई भी इतना सामर्थी नहीं कि जो इन बीते पलों में से एक को भी वापस ला सके।

आपको मालूम है जितनी देर में आप एक सांस ले रहे हैं उतनी देर में १० आदमी अपनी आखिरी सांस लेकर दुनिया से विदा हो रहे हैं। यह साल आपको उपहार के रूप में दिया गया है। गरीब हो या अमीर, कमज़ोर हों या मज़बूत, हारे हुए हों या जीते हुए, किसी भी धर्म के हों और किसी भी जाति के हों, प्रभु किसी से भी कोई भेद नहीं रखता। जो समय एक बार चला गया तो वह हमेशा के लिये चला गया। अब तो बस आगे देखने का वक्त है।

चलिये मैं और आप इस नए साल को एक नयी ताज़गी के साथ शुरू करें। हर एक गलती को सही करने का अवसर आ गया है।
सज़ा को क्षमा में बदलने का,
नफरत को प्यार में बदलने का,
श्राप को आशीश में बदलने का,
मौका आ गया है।

जी हां मौका है माफी देने का और माफी पाने का। अगर चुके तो बहुत कुछ चूक जाएगा। अन्दर झांक कर देखो तो सही कितनों से कितनी नफरत से भरे हैं, कड़वाहट से भरे हैं। पुरानी कड़वाहट को हमेशा के लिये यहीं दफन कर दें।

"जा पहले अपने भाई से मेल मिलाप कर ले" (मत्ती ५:२४)। हिम्मत है या कायरों की तरह परमेश्वर की आवाज़ को टालकर इस नए साल की आशीशों को फिर से रौंदेंगे? क्या आप समझ रहे हैं, या समझना ही नहीं चाहते? अगर ज़िद पर अड़े खड़े रहे तो फिर कोई कुछ नहीं कर पाएगा।

कहीं हममें से कुछ लोग हमेशा के लिये विदा न हो जाएं। जब तू परमेश्वर की आवाज़ सुने तो अपने दिल को सख्त न करना (इब्रानियों ३:१५)।

हम परमेश्वर के प्यार को इस कागज़ के टुकड़े पर आपके लिये सजाकर लाए हैं। अब यह आप पर है कि आप इसे ठुकराएं या अपनाएं।

जब मैंने परमेश्वर की आवाज़ को सुना तो देर न की। (भजन ११९:६०)।

सोमवार, 21 फ़रवरी 2011

संपर्क का नया अंक अब आप के अवलोकन एवं पठन हेतु इन्टरनेट पर उपलब्ध है.

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धन्यवाद
संपर्क परिवार

शनिवार, 20 फ़रवरी 2010

सम्पर्क दिसम्बर २००९: आज उसकी आवाज़

एक बच्चों की कहानी है जो बड़ों को भी बहुत कुछ समझा जाती है। एक राजा का मंत्री था, उसमें एक बात बड़ी अजीब थी: हर बात में एक बात हर बार कहता था, "सब बातें मिलकर भलाई को पैदा करती हैं।" राजा इस इमानदार और सच्चे मंत्री की इस बात को बेवकूफी समझकर हमेशा उसपर हंसता था।

एक दिन राजा अपने सैनिक के साथ तलवार चलाने का अभ्यास कर रहा था, अभ्यास के समय सैनिक की चूक के कारण तलवार राजा के हाथ पर लगी और उसकी उंगली कटकर अलग हो गयी। वहाँ खड़े मंत्री ने हमेशा की तरह कहा, "सब बातें मिलकर भलाई को पैदा करती हैं।" झुँझुलाए हुए राजा ने गुस्से में आदेश दिया, "इस नालायक को बन्दीगृह में डाल दो; अपनी भलाई यह वहीं भोगता रहेगा।" कुछ महीनों उपरान्त राजा शिकार पर निकला और घने जंगलों में अपने साथियों से कहीं अलग भटक गया और एक आदिवासी कबीले में जा फंसा। आदिवासी काफी समय से अपने कुलदेवता को नरबलि चढ़ाने की चाह में थे और अब स्वयं ही उनके हाथ एक बलि योग्य आदमी पड़ गया। उन्होंने देर नहीं की, तुरन्त राजा को नरबलि करने की तैयारी करने लगे। बलि देने के लिये राजा को वेदी पर लाया गया और उसकी बलि चढ़ने ही वाली थी कि एक आदिवासी की नज़र राजा के हाथ और कटी उंगली पर पड़ी। वह तुरन्त चिल्लाया, "रुको, यह संपूर्ण बलि नहीं है, इसका अंग कटा है, कुलदेवता क्रोधित हो जाएंगे।" राजा को उसकी कटी उंगली के कारण छोड़ दिया गया, और वह अपने राज्य की ओर चल पड़ा।

राज्य में वापस पहुँचकर उसने अपने मंत्री को बंदीगृह से बाहर बुलवाया और बोला, "मंत्रीजी, अब मैं मान गया कि सचमुच में सब बातें मिलकर भलाई को उत्पन्न करती हैं। अगर यह उंगली न कटी होती तो गर्दन ही कट गयी होती। पर तुम्हारे बारे में एक बात समझ नहीं आई, इतने दिन तुम बंदीगृह में रहे, उससे तुम्हारा क्या भला हुआ?" मंत्री बोला, "महाराज, प्रभु जो करता है भला ही करता है, क्योंकि वह भला परमेश्वर है। अगर मैं बंदीगृह में न होता तो आपके साथ शिकार पर होता और उन आदिवासियों के हाथों से आप तो बच गये लेकिन मैं अवश्य बलि चढ़ाया जाता! इसलिये सब बातें मिलकर भलाई ही पैदा करतीं हैं।"

शायद आज के बुरे हालात में मुझे कोई भलाई नज़र नहीं आती, लेकिन मैं कल देखूँगा कि हर बात को मेरे प्रभु ने भलाई में बदल डाला।

जॉन बनियन बारह साल इंग्लैंड की जेल में रहा। वह बारह साल जेल से अपने छुटकारे के लिये प्रार्थना करता रहा, पर उन बारह सालों तक उसकी प्रार्थना नहीं सुनी गई। पर परमेश्वर ने जेल को भी उसके लिये भलाई में बदल दिया। उन्हीं बारह सालों में परमेश्वर ने उससे एक किताब लिखवाई - "Pilgrim's Progress" (मसीही मुसाफिर) जिसको बाइबल के बाद सबसे अधिक पढ़ी जाने वाली किताब कहा जाता है।

यहाँ नहीं वहाँ

कुछ किताबें हैं जो बताती हैं कि इस जीवन में सबसे अच्छा जीवन कैसे मिलेगा; पैसा कैसे मिलेगा; अच्छा पद कैसे मिलेगा; सुखी परिवार कैसे मिलेगा आदि। यदि आप एक मसीही विश्वासी नहीं हैं तो ऐसी कोई किताब किसी बुक स्टॉल से खरीदकर पढ़ लें, शायद कोई तुक्का बैठ जाये।

हम अपने जीवन के बारे में बहुत से सपने संजोकर रखते हैं, पर जैसा हम चाहते हैं वैसा सब कुछ मिलता नहीं। प्रभु यीशु मसीह ऐसा कोई दावा नहीं करता कि इस जीवन में आपको पैसा, पद और सफलता ही मिलेगी। पर वह एक आने वाले सबसे उत्तम जीवन का दावा करता है। एक ऐसा जीवन जिसके बारे में अपके दिमाग़ ने कभी सोचा नहीं, आपकी आँखों ने कभी देखा नहीं और कानों ने जिसके बारे में सुना नहीं, ऐसा भविष्य उसने आपके लिये सजाकर रखा है (१ कुरिन्थियों २:९-१०)।

अंधेरा कमरा और काली बिल्ली

हमें सब कुछ जानने की ज़रूरत नहीं है, पर ज़रूरत है उसे जानने की जो सब कुछ जानता है; और उसे उसके वचन से ही जाना जा सकता है। अगर हम परमेश्वर की खोज अपने ज्ञान से करने की कोशिश करते हैं तो यह ऐसे होगा जैसे,"एक अन्धेरी रात में एक अंधा अन्धेरे कमरे में एक काली बिल्ली को ढूँढ रहा है।" जो अन्धकार में जी रहा है उसे नहीं मालूम कि उसका जीवन कहाँ जा रहा है। वह पैसे में, पद में, परिवार में, मौज-मस्ती में खोया हुआ है। अन्त: जब उसकी आँखें खुलेंगी तो वह अपने आप को वहाँ पाएगा जहाँ वह कभी जाना नहीं चाहता था, पर तब तक बहुत देर हो चुकी होगी और लौटने के सारे रास्ते बन्द हो गए होंगे।

संसार का ईश्वर हमें अन्धा कर देता है और संसार के प्रकश की चमक भी अन्धा कर देती है; जैसे पैसे की चमक, पद की चमक, सैक्स की चमक, सम्पत्ति की चमक। पर परमेश्वर का वचन हमारी आँखों को ज्योर्तिमय करता है, ताकि हम अपने आप को साफ-साफ देख सकें। एक दिन यह आकाश पर चमकता सूरज भी काला हो जायेगा और इस संसार का उजाला हमें धोखा दे जाएगा, फिर बहुतों के लिये हमेशा का अन्धकार ही बचेगा।

शब्द शब्द नहीं सामर्थ हैं

प्रभु ने अपने शब्दों में अनूठा प्यार पिरोया है। जब कोई आदमी कहता है, "मत डर यार, मैं हूँ" तो उसके शब्दों से कुछ नहीं होता। पर जब मेरे सामने बाइबल के शब्द आते हैं, "मत डर, मैं हूँ", तो मुझे एक नई सामर्थ मिल जाती है। यह आवाज़ मेरी रूह को छूती है और मुझे मेरी असलियत का एहसास दिलाती है। परमेश्वर के वचन ने हमेशा मुझे हौंसला दिया है। उसने मेरी हर हार को भी जीत में बदल डाला है। मैं गिर कर भी संभल जाता हूँ क्योंकि एक हाथ मेरे साथ है - परमेश्वर का हाथ; और मुझे मालूम है कि मौत भी उसके हाथ से मेरा हाथ नहीं छुड़ा पायेगी।

गज़ब किया

मेरा प्रभु गज़ब का परमेश्वर है। उसकी हर बात गज़ब है। प्यार है तो गज़ब, काम है तो गज़ब, जन्म है तो गज़ब, जीवन है तो गज़ब, और मौत है तो वह भी गज़ब और उसके मौत के बाद की बात भी गज़ब है। उसकी क्षमा को बयान करने के लिये हमारे सारे शब्द भी बहुत कम हैं।

शब्दों के वार पत्थर के टुकड़ो से कहीं ज़्यादा लम्बे समय तक दर्द देते हैं। बहुत से लोग अक्सर ऐसे शब्दों के पत्थर बिना सोचे समझे दूसरों पर फेंकते हैं जिनका दर्द दूसरे लोग ज़िन्दगी भर सहते हैं।

यूहन्ना ८ में फरीसी लोग एक स्त्री के लिये पत्थर लाए थे। इसी अध्याय के अन्त में उन्होंने प्रभु के लिए पत्थर उठाये। लेकिन जिनके हाथ में प्रभु के लिए पत्थर थे, प्रभु के पास उनके लिए भी प्यार था और क्षमा थी। आज भी जिनके हाथ में उसके लिए पत्थर हैं, प्रभु के पास उनके लिए भी क्षमा और प्यार है।

जो आपसे नहीं हो सकता, वह सब परमेश्वर आपके लिए कर सकता है। वह आपकी हर हार को जीत में बदल सकता है। बस उसके वायदों और वचन पर विश्वास कीजिए। अगर कहीं शंका है तो उसे परख कर देखिये (भजन ३४:८)।

अजब रहा सिल्सिला,
ज़िन्दगी का,
गज़ब रहा सिल्सिला,
ज़िन्दगी का,
कहाँ कहाँ पर गिराया मैंने,
कहाँ कहाँ पर उठाया उसने,
सिल्सिला मेरी ज़िन्दगी का।


अजब किया

पिछले ४००० वर्षों से परमेशवर के वचन को मिटाने की पूरी कोशिश की गयी, पर फिर भी दुनिया में यह इकलौती किताब है जो सैंकड़ों सालों से सब से ज़्यादा पढ़ी जाती रही है।

शैतान इस किताब से नफरत करता है। इसलिये जितने हमले इस किताब पर किये गये, उतने संसार की किसी भी और किताब पर नहीं किये गये। कितने ही लोगों ने इसे मिटाने की भरपूर कोशिश की, यहाँ तक कि पोप ने १६वीं सदी तक इसे छिपाये रखा, लेकिन इसे नष्ट करना तो दूर, दबा कर भी नहीं रखा जा सका। शैतान आज भी कितने लोगों को उभारता है कि इसमें मिलावट करके इसकी पवित्रता को बिगाड़ दे। कितने ही लोग तो इसके वचनों का ग़लत अर्थ निकालकर लोगों को सिखाते हैं कि इसकी शिक्षाओं का प्रभाव उलट या ग़लत हो, लेकिन तौभी इस जीवित वचन के द्वारा आज भी प्रतिदिन अनेकों जीवन बदले जाते हैं।

परमेश्वर का वचन एक ग़ैरमज़हबी किताब है, क्योंकि यह किसी मज़हब के बारे में नहीं बताती। इस ज़िन्दा किताब में परमेश्वर चलता, फिरता और बोलता हुआ दिखाई देता है। इस किताब में परमेश्वर ने प्यार ही प्यार पिरोया है; अगर इस किताब में से प्यार निकाल दो तो इस किताब की जान ही चली जायेगी।

अधिकतर विश्वासियों को यह शक सताता है कि हमारा उद्धार हुआ है या नहीं, खास कर नये विश्वासियों को। सालों तक मेरे अन्दर भी यह शक बन रहा। शैतान शक से डराता है कि तेरे पाप क्षमा नहीं हुए। यह इसलिये होता है कि हम परमेश्वर के वचन को समझ नहीं पाते।

पाप की माफी के लिये उसका क्रूस पर दिया गया बलिदान ही काफी है। हमें वह ऐसा बना देता जैसा हम अपने बारे में सोच भी नहीं सकते। परमेश्वर के प्रेम को ठुकराकर हम परमेश्वर का कोई नुकसान नहीं करते, इससे जो भी नुकसान होता है वह हमारा ही होता है।

"यदि आज उसके शब्द सुनो तो अपने मन को कठोर न करो" (इब्रानियों ४:७)।

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2010

सम्पर्क दिसम्बर २००९: कहाँ से कहाँ तक

मेरा जन्म सहारनपुर (यू.पी.) में एक इसाई परिवार में हुआ। मेरे दादा के पास काफी ज़मीन जायदाद थी, उनके पांच बेटों में सबसे बड़े मेरे पिताजी थे। दादाजी के मरणोप्रांत मेरे चारों चाचाओं ने जायदाद के बंटवारे की मांग की। मेरे पिताजी इस बंटवारे के पक्ष में नहीं थे, लेकिन उन्हें इस मांग के आगे झुकना पड़ा और जायदाद को भाइयों में बांटना पड़ा। इस कारण हमारा बड़ा घर एक छोटी जगह में सिमट गया। भाईयों के अलग होने से दुखी होकर मेरे पिताजी बहुत शराब पीने लगे, जिसके चलते उन्होंने घर, ज़मीन के काम, खेतीबाड़ी और यहाँ तक तक कि हमें भी नज़रांदाज़ करना शुरू कर दिया। परिणमस्वरूप जिन लोगों को हमारी ज़मीन पर काम के लिये लगाया गया था, उन्होंने धोखे से हमारी सारी ज़मीन हड़प ली। इससे हमारी माली हालत भी बहुत सकते में आ गई, जो बचत का कुछ पैसा था वह सब पिताजी की नशे की आदत के कारण खत्म हो गया।

इन सब परिस्थितियों के बावजूद भी हम लगातार चर्च जाते थे और मैं चर्च की गतिविधियों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेती थी। मैं रोज़ बाइबल पढ़ती और सन्डे स्कूल क्लास में जाती थी। अगर कोई मुझसे किसी धार्मिक काम करने के विष्य में कहता तो मैं उसे बड़े उत्साह से करती थी।

अगर कहीं कोई विशेष सभा होती थी तो मैं वहाँ भी अपनी माँ के साथ जाती थी। पर यह सब करके भी मेरे अन्दर कोई खुशी या परमेश्वर के उद्धार का आनन्द नहीं था। इन सब बातों को मैं एक धर्म के रीति-रिवाज़ की तरह ही पूरा करती थी, जिसने मुझे एक तरह के बन्धन में बाँध दिया था। मेरा जीवन इसी तरह चल रहा था।

ये सब कैसे हुआ

एक दिन परमेश्वर के घर से आते समय मेरी एक विश्वासी मित्र मुझे मिली और उसने मुझसे एक सवाल पूछा, "क्या तुम मानती हो कि तुम एक पापी हो?" उसके इस सवाल से मैं बड़ी हैरान हुई और मैंने बड़े घमंड से उत्तर दिया, "नहीं, मैं पापी नहीं हूँ; मैं कैसे पापी हो सकती हूँ जबकि मैं बराबर चर्च जाती और बाइबल पढ़ती हूँ और मैंने कभी कोई गलत काम नहीं किया है? मैं विश्वास करती हूँ कि मैं एक अच्छी लड़की हूँ और स्वर्ग में मेरा एक स्थाई घर है।" तब मेरी मित्र ने मुझे बाइबल में से एक आयत दिखाई - रोमियों ३:२३, जहाँ लिखा था "सबने पाप किया है और परमेश्वर की महिमा से रहित हैं।" फिर उसने मुझे परमेश्वर के वचन में से १५-२० आयतें और भी दिखाईं। मैं बाइबल को बहुत लम्बे समय से पढ़ती आ रही थी, लेकिन उस दिन वह सारे वचन मेरे पास एक नई रीति से आये। मैंने हर एक वचन को बड़े ध्यान से सुना और परमेश्वर के आत्मा ने मेरे दिल से बातें कीं। तब मेरे मित्र ने मुझसे पूछा, "क्या तुम प्रभु यीशु को अपना व्यक्तिगत उद्धारकर्ता करके ग्रहण करना चाहती हो? यदि हाँ तो मेरे पीछे-पीछे प्रार्थना को दोहरा सकती हो।" मैंने कहा "हाँ मैं तैयार हूँ।" जब मैं अपने पापों से पश्चाताप की प्रार्थना कर रही थी तो मैंने अपने आप को बहुत हल्का महसूस कर रही थी। जैसे ही मैंने प्रार्थना को अन्त किया तो मैंने एहसास किया कि एक बड़ा बोझ मेरे हृदय से हट गया है और बयान से बाहर एक अदभुत खुशी ने मुझे घेर लिया है; तब मुझे वास्तविक उद्धार का निश्चय हुआ। उस दिन मैं बहुत खुशी से भरी और बदली हुई अपने घर पहुँची। उस दिन के बाद से मैं प्रभु में बढ़ती गई। अब परमेश्वर के वचन को पढ़ने के मायने मेरे लिये बिल्कुल अलग हो गये।

लेकिन यह सब मेरे परिवार को, विशेषकर मेरे पिताजी को बिल्कुल अच्छा नहीं लगा। जब मैंने परमेश्वर के घर में विश्वासियों की मण्डली में जाना शुरू किया तो मेरे पिताजी इसका विरोध करने लगे। वे कहते थे कि हम तो पुराने इसाई हैं तो फिर तुम्हें यह सब करने की क्या ज़रूरत है? फिर मेरे निर्णय को बदलने के लिये सबसे छोटे चाचा को फरीदाबाद से बुलवाया गया। लेकिन प्रभु की दया से मैं अपने निर्णय पर दृढ़ रही। जब वे मुझे समझाने में असफल रहे तो वे ज़बरदस्ती मुझे रोकने की कोशिश करने लगे। इस मुशकिल स्थिती पर विजय पाने के लिये मैं प्रार्थना-उपवास करती थी। जैसे ही प्रार्थना और अराधना सभा का समय नज़दीक आता था, मैं अपने पिताजी से रो रो कर गिड़गिड़ाती थी कि मुझे जाने दीजिये। मेरे आँसुओं को देखकर वह मान जाते, परन्तु यह कहकर कि बस! यह आखिरी बार है। मण्डली की बहिनें हमेशा मेरी इन मुशकिलों में मेरे साथ खड़ी रहीं। वे कई बार हमारे घर आतीं और मेरे पिताजी को मनवाकर मुझे अपने साथ परमेश्वर के घर लेकर जाती थीं।

१९९० में मुझे बोर्ड की परिक्षाओं में बैठना था लेकिन परिक्षाओं की तारीखें देहरादून में आयोजित होने वाली एक विशेष सभा के दिन के साथ अड़चन डाल रहीं थीं। लेकिन प्रभु की दया से मैंने प्रभु और उसकी आज्ञाओं को पहला स्थान दिया, देहरादून जाकर मैंने सभा में भाग भी लिया और अगले दिन अपनी परिक्षा भी दी। प्रभु उनको कभी निराश नहीं करता जो उसपर भरोसा रखते और उससे प्रेम रखते हैं। प्रभु ने मुझे मेरी परिक्षाओं में बहुत अच्छे अंक दिये। इस तरह मेरा जीवन प्रभु यीशु के प्रेम में और अधिक बढ़ता गया।

मुझे उसने क्या दिया

मेरे विश्वास की वास्तविक परख मण्डली की एक विश्वासी बहन के विवाह के बाद हुई क्योंकि उसके विवाह के बाद मण्डली के ज़िम्मेदार भाई और बहन मेरे विवाह के लिये भी बात करने लगे। लेकिन मुझे इस विष्य में कोई ज़्यादा रुचि नहीं थी क्योंकि मैं अपने घर की हालत जानती थी। मैं नहीं चाहती थी कि कोई भी मेरे लिये इस तरह का खतरा मोल लेकर मेरी चिन्ता करे। इसके विपरीत मैं यह सोचती थी कि मेरे घर की हालत देखकर मुझसे विवाह कौन करेगा? पर मुझे मालूम पड़ गया था कि मण्डली के ज़िम्मेदार भाई और अन्य बड़ी बहिनें मेरे विवाह की बात सोच रहे हैं। इसीलिये मुझे एक दिन घर से बुलाया गया, मुझे मालूम था कि मुझे क्यों बुलाया है। सो मैंने पहले से ही तय कर लिया था कि जब वो मुझसे पूछेंगे तो मेरा जवाब ’ना’ ही होगा। परन्तु प्रभु ने मुझसे इफिसियों ६:५ से बात की, "अपने प्रचीनों के आधीन रहो।" इस तरह से मैंने अश्विनी से विवाह करने के बारे में अपनी सहमति दे दी और मुझे इस विष्य में प्रार्थना करने को कहा गया।

मैं प्रार्थना करने को तो राज़ी थी पर यह सोचकर डर रही थी कि अगर मेरे माँ-बाप को इसका पता चलेगा तो क्या होगा? इस विष्य पर प्रार्थना करने के दौरान, प्रभु ने मुझे यर्मियाह ३१:२१ और भजन ४५ से प्रतिज्ञा दी और इससे मुझे यह स्पष्ट हो गया कि यह परमेश्वर की ओर से है। तब मैंने विवाह के इस प्रस्ताव को बिना किसी शक के ग्रहण कर लिया। मैंने देखा कि प्रभु अपने बच्चों को कभी भी किसी उलझन में नहीं रखता। इसलिये उसने पहले मेरी होने वाली सास को फिर मेरे होने वाले पति को भी इस विवाह के लिये अपने वचन से शान्ति दी। प्रभु का धन्यवाद हो कि जनवरी ६, १९९४ को अश्वनी से मेरा विवाह हो गया।

मेरी सास मेरे लिये बहुत ही हिम्मत का कारण थी। जब भी मुझे पढ़ाई में अच्छे अंक मिलते थे तो मुझ से ज़्यादा वह खुश होती थी, और वह मुझे और अधिक उत्साहित करती थी। उसने मुझे बहुत सी आत्मिक बातें सिखाईं। वह एक बहुत अच्छी प्रभु की भक्त थीं और लगातार, अन्त तक प्रभु की सेवा में बिना किसी समझौते के लगीं रहीं। अपने आखिरी दिनों में, मैं उनके साथ डॉक्टर के पास गयी थी, तो उन्होंने मुझसे कहा, "बेटी प्रभु ने जैसे हम से प्रेम किया है वैसे ही तुम उससे पूरे हृदय से प्रेम करना।" यह बात सीधे मेरे दिल में उतर गई। इसके दो दिन बाद एक सड़क दुर्घटना के कारण वे प्रभु के पास चली गईं। अब मैं प्रभु की उस सेवकाई में लगी हूँ जो मेरी सास करती थीं। यह एक बड़ा आनन्द है जो प्रभु की सेवा से मिलता है।

मैं आपको प्रभु की महिमा के लिये बताना चाहती हूँ कि मेरा वैवाहिक जीवन बहुत अद्‍भुत है। पिछले १५ सालों में हमारे परिवार में प्रभु की दया से किसी एक समय भी कोई झगड़ा नहीं हुआ। यदि कोई समस्या होती भी है तो हम उसे खाने की मेज़ पर सुलझाकर एक दूसरे की तरफ देखकर हंसते हुए खुशी से खाने का आनन्द लेते हैं। मेरे पति एक आदर्श पति, पिता और पुत्र हैं। सरकार में एक बड़े पद पर काम करने के बावजूद, प्रभु की दया से उनमें दीनता है। वह प्रभु की सेवा भी करते हैं और हमारे साथ समय भी बिताते हैं, और हमारे तीनों बेटों को प्रभु के भय में बढ़ना सिखाते हैं।

मैं परमेश्वर का धन्यवाद करती हूँ कि उसने मुझे परमेश्वर का भय मानने वाला परिवार दिया है। मैं प्रभु के उन सब लोगों का धन्यवाद करती हूँ जो मुझे और मेरे परिवार को अपनी प्रार्थनाओं में याद करते हैं। परमेश्वर मेरे जीवन की छोटी-बड़ी सब बातों में विश्वासयोग्य रहा है और आगे भी अन्त तक रहेगा। परमेश्वर उनके लिये भला है जो उसपर भरोसा रखते हैं। प्रभु की स्तुति हो!

- विनीता ए. मसीह, नजफगढ़, नई दिल्ली