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शुक्रवार, 15 मई 2009

सम्पर्क अक्टूबर २००३: सम्पादकीय

घिरे बादलों की वजह से जंगल तो काफी भीग चुका था, और शाम भी जल्दी उतर आयी थी। तीन विश्वासी काफी जल्दी से इस जंगल को पार कर रहे थे, ताकि अंधेरा होने से पहले वे अपने घर पहुंच जाएं। अचानक एक तीखा मोड़ मुड़ते ही सामने एक कंटीली झाड़ी पगडंडी पर पड़ी दिखी। पहले विश्वासी ने एक छोटी दौड़ ली और उस झाड़ी को तेज़ी से टाप गया; दूसरा उसके किनारे से बच कर निकल गया; पर तीसरा उस झाड़ी को रासते से हटाने लगा। पहला कुछ झुंझला कर बोला “यार किस चक्कर में पड़ गया। अंधेरा सिर पर खड़ा है।” तीसरा ने धीरज से जवाब दिया “अंधेरा होने वाला है, इसी लिए हटा रहा हूँ, कि कोई हमारे पीछे आने वाला इस झाड़ी में उलझ न जाये।” तीनों ही विश्वासी थे, पर वास्तविक व्यवाहरिक विश्वास का जीवन सिर्फ एक में ही था। हाँ मेरे प्यारे पाठक, आप क्या अपने लिये ही जीते हो, और क्या अपने लिये ही सोचते हो?

स्वार्थ हमारे बचपन का साथी है। हमें बस अपने मतलब से ही मतलब रहता है। स्कूल से सवेरे ही वापस लौटता लड़का बड़ा ही खुश था; माँ को बतलाया “ममी छुट्टी हो गयी।” माँ ने खुशी से कूदते बच्चे से पूछा, “बेटा छुट्टी क्यों हो गयी?” बेटा बोला, “ममी, हमारी मैडम की ममी मर गयी।” माँ ने अपना सिर पकड़ लिया। बेटे ने माँ का हाथ पकड़ कर हिलाते हुए पूछा, “ममी-ममी क्या हमारी मैडम के डैडी अभी ज़िंदा हैं?” उसे एक और छुट्टी का इन्तज़ार था। इसी तरह से हम भी अपने मतलब के बारे में ही सोचते हैं। आज कितने सीना ठोक के गवाही देते हैं कि जीवन बदल गया, पर उनके सोच और स्वभाव में वही पुराना स्वार्थ सजा है। सच मानिए, अनपढ़ लोग भी ऐसों की ज़िन्दगी को आसानी से पढ़ लेते हैं। आप अपने बारे में कुछ भी कहते सोचते रहें, लोग आपके बारे में क्या कहते सोचते हैं? आपका दूसरों को बताते रहना कि मैंने यह किया या वह किया, सब आपका घमंड है जो आप में से बह रहा है; लोग तो आपके जीवन को पढ़ते हैं।

कहा जाता है कि सिकन्दर जब हिन्दुस्तान को जीतने के लिए चला तो पहले वह एक डायोजनीज़ नामक यूनानी फकीर से मुलाकात के लिए गया। फकीर वास्तव में फकीरी की हालत में जीता था। सेहत से तो बिल्कुल चिल्गोज़े की औलाद सा दिखता था पर बात सटीक और कड़क करता था। सिकन्दर ने उसके पास पहुँच कर उसे अपना परिचय दिया, “क्या तुम जानते हो मैं सिकन्दर महान हूँ?” फकीर बोला, “जो अपने आप को महान सोचता है, वह व्यक्ति कभी महान हो ही नहीं सकता।” ऐसे सीधे और साफ शब्द सिकन्दर नें कभी नहीं सुने थे; बल्कि किसी की हिम्मत ही नहीं थी जो सिकन्दर को ऐसा जवाब दे सके। वह तो चापलुसों और खुशामद करने वालों से घिरा रहता था। उसे लगा यह पहला ऐसा आदमी है जो ऐसा साफ सच कहने की हिम्मत रखता है और अपनी बात बिना मिलावट के कह भी देता है। उस समय वह फकीर ज़मीन पर पड़ा धूप सेक रहा था। सिकन्दर ने फकीर से कहा, “डायोजनीज़, कहो मैं तुम्हारे लिए क्या करूँ? तुम बूढ़े हो रहे हो, क्या एक घर बनवाकर तुम्हारी सेवा के लिए नौकर रखवा दूँ?” डायोजनीज़ बोला, “ अगर कुछ करना चाहते हो तो मेरे लिए इतना करो कि ज़रा हट कर खड़े हो जाओ। मेरी धूप मुझ से न छीनो। तुम खतरनाक आदमी मालूम पड़ते हो। तुम बहुतों का बहुत कुछ छीनने निकले हो और बहुतों के जीवन छीन लोगे। संसार को जीत लोगे पर शान्ति से कभी न जी पाओगे।” सिकन्दर दिल सख़्त करके यह दिल को छूती हुई बात सुनकर भी उसे टाल गया और उसके पास से चला गया। हिन्दुस्तान से सिकन्दर की लाश लौटी, उसकी जीत एक तरफ रह गयी। वास्त्विक विश्वास हमें नम्र बनाता है, घमंडी नहीं - आपका अपने बारे में क्या विचार है? “मन फिराओ, क्योंकि परमेश्वर का राज्य निकट है।”

इन बुरे दिनों में सबसे बुरी बात यह है कि ज़्यादतर विश्वासी विश्वास योग्य और ईमान्दार नहीं हैं। खरे कम, खोटे ज़्यादा हैं। कुछ तो मण्डली पर कलंक बन कर रहते हैं और मण्डली पर बोझ बन कर जीते हैं। वे विरोध और जलन से भरे रहते हैं, जबकि एक वास्त्विक विश्वासी अपने शत्रुओं का भी बुरा नहीं सोच सकता क्योंकि बाईबल उससे कहती है कि शत्रुओं का भी भला कर, बुराई को भलाई से जीत ले। परमेश्वर का वचन हमें विरोध और जलन की जगह ही नहीं देता है। आप अच्छी तरह से जानते हैं कि आपके मन में किन-किन के प्रति विरोध और जलन भरी है, और कितनों का बुरा देखने का आप इंतिज़ार कर रहे हैं। आपके सीने में ऐसे संपोले हैं जिन्हें आपने यदि अभी नहीं निकाला तो एक दिन वे आपको भयानक ताड़ना में झोंक देंगे। शैतान शुरू से ही ऐसे संपोले भाईयों के जीवन में बोता आया है। बाईबल की प्रथम पुस्तक, उत्पत्ति में ही देख लें, उसने हाबिल और कैन में, इसहाक और इशमाएल में, याकूब और एसाव में, याकूब और उसके भाइयों में कैसा बैर बोया। यूसुफ के भाईयों ने उसे बेच डाला और मुसीबतों में ढकेल दिया। अन्ततः जब वह मिस्र का प्रधान मंत्री बना तो उसके पास अपने उन भाईयों से सब बातों बदला लेने की पूरी सामर्थ थी, मौका था और कारण था। अगर नहीं था तो बस बदला लेने का स्वभाव नहीं था। यूसुफ ने ऐसे भाईयों को जो माफी के लायक ही नहीं थे, न सिर्फ माफ किया वरन उसने सदा उनका भला ही किया। उसने बुराई को भलाई से जीत लिया।

मेरे प्यारे पाठक, क्या आपके पास ऐसा दिल है कि आप उन्हें माफ कर सकें जिन्होंने आपके साथ बहुत बुरा किया या कहा हो? यदि ऐसा करने की क्षमता नहीं है तो प्रभु से माँगिए और कहिए “हे प्रभु मुझे ऐसा दिल दें कि मैं उन्हें माफ कर सकूं और ऐसा मौका दें कि मैं इनकी कोई भलाई कर सकूं ।” ऐसा करने के अलावा एक सच्चे विश्वासी के पास कोई दूसरा रासता है ही नहीं। जो क्षमा दे नहीं सकते उन्हें परमेश्वर से क्षमा पाने का भी कोई हक नहीं है। क्रूस पर से की गयी प्रभु की पहली प्रार्थना उन्हें क्षमा देने की थी जो क्षमा करने के लायक कतई न थे और न ही क्षमा माँग रहे थे, वरन भयानक पीड़ा उठा रहे निर्दोश प्रभु का ठठा कर रहे थे। उनके लिए प्रभु के शब्द थे, “ऐ बाप इन्हें क्षमा कर।”

“झटपट मेल-मिलाप कर लें कहीं ऐसा न हो... (मत्ती ५:२९)।” कहीं कुछ ऐसा न हो जाए जो आपके सहने की सीमा से बाहर हो और मौका निकल जाए। “बिना मेल-मिलाप के और बिना पवित्रता के परमेश्वर को कदापि देख नहीं सकते...(इब्रानियों १२:१४)।” “धन्य हैं वे जो मेल करवाने वाले हैं, क्योंकि वो परमेश्वर के पुत्र कहलाएंगे (मत्ती ५:९)।” “हमें मेल-मिलाप की सेवा सौंप दी है। (२ कुरिन्थियों ५:१८)”

ये जगत परमेश्वर का शत्रु है “सारा जगत शैतान के चंगुल में है (१ युहन्ना ५:१९)” लेकिन “परमेश्वर ने जगत से ऐसा प्रेम किया कि अपना इकलौता पुत्र दे दिया ताकि जो कोई उस पर विश्वास करे वो नाश न हो परन्तु अनन्त जीवन पाए। (युहन्ना ३:१६)”

आखिर घटियापन की भी कोई हद होती है। कितने विश्वासी विरोध से, बैर से भरे पड़े हैं, पर प्रचार बड़े ज़ोर से करते हैं। आप परमेश्वर की आवाज़ सुन कर भी नहीं मानते तो तैयार रहिए, परमेश्वर का कुल्हाड़ा बस जड़ पर रखा है “मन न फिराएंगे तो मैं उन्हें बड़े क्लेश में डालूंगा (प्रकाशितवाक्य २:२२)”। जब ऐसा होगा तो उनका क्या होगा जो ढिटाई की आत्मा से बंधे हैं, ऐसे लोगों के लिए तगड़ी ताड़नाएं तैयार हैं।

एक विश्वासी ने प्रार्थना में प्रभु से अपना दुखः बयान किया कि “हे प्रभु लोग मुझे मण्डली में ग्रहण नहीं करते, और अब तो उन्होंने मुझे मण्डली से बाहर भी निकाल दिया है।” प्रभु ने कहा, “तेरे साथ तो यह आज किया गया है, मैं तो १० साल से उस मण्डली में जाने का प्रयास कर रहा हूँ, पर वे मुझे आने ही नहीं देते”! यह शायद आपको मज़ाक लगे, पर यह बात वचन के अनुसार सच है। लौदीकिया की मण्डली ने प्रभु को बाहर निकाल दिया था और वह अन्दर आने के लिए द्वार खटखटा रहा था (प्रकाशित्वाक्य ३:२०)। यह प्रभु की दया ही है कि वो छोड़कर चला नहीं गया। वह अब भी लोगों के दिलों पर खटखटा रहा है, इस इन्तज़ार में कि कोई तो होगा जो उसकी आवाज़ सुनकर अपने दिल का द्वार उसके लिए खोलेगा।

प्यारे पाठक, क्या आप आज उसकी आवाज़ सुनकर उसके वचन के लिए अपना दिल खोलेंगे? सच मानिएगा ऐसा करने से आपकी सारी हार एक नई जीत में बदल जाएगी। परमेश्वर ने आपके लिए एक बड़ी भलाई सजाकर रखी है, बस आप अपनी बुराई से फिरने को तैयार हों। परमेश्वर ने आपको आपकी हालत दिखाकर आपकी आँखें तो खोल दी हैं, बस अब प्रार्थना के लिए आप अपना मूँह खोल दीजिएगा।

अब प्रभु से दूरी न बनाए रखिएगा। ख़तरे काफी करीब हैं, बस मन की दूरी को आज दूर कर डालें। पाप का पिता, शैतान, बहुत पास ही खड़ा है। वह कभी नहीं चाहता कि आप मेल-मिलाप कर लें। यह तो सच है कि अपमान को पी कर क्षमा देना सहज नहीं। हमारा अहंकार हमें माफी देने और माफी मांगने से हमेशा रोकता है। किंतु प्रभु की सामर्थ से यह संभव है। प्रभु हमें कुछ ऐसा करने को नहीं कहता जो उसने स्वयं ना किया हो और जिसकी सामर्थ वह हमें ना देता हो। बस वही उसके हैं जो उसका वचन सुनते और मानते हैं (लूका ८:२१)। जो उसका वचन सुनकर मानते नहीं, उनका प्रभु से कोई रिशता नहीं है, प्रभु कहता है “जब तुम मेरी बात नहीं मानते तो तुम मुझे हे प्रभु हे, प्रभु क्यों कहते हो? (लूका ६:४६)” आप, हाँ आप ही, आज उसकी आवाज़ को सुनकर मानेंगे या टालेंगे?

मेहरबानी से प्रार्थना कीजिए कि हम सम्पर्क को सही समय पर आपके पास पहुंचा सकें। हमें आपके सुझाव और सुधार से भरे पत्रों का इन्तज़ार रहेगा।

बुधवार, 13 मई 2009

सम्पर्क दिसंबर २००६: कहानी कहती है

एक नास्तिक बड़ा धुँआधर भाषण दे रहा था। वह यह साबित करने में लगा हुआ था कि परमेश्वर, आत्मा-सात्मा यह सब बातें बक्वास हैं; “परमेश्वर” आदमी के डर की उपज है। उसने मेज़ पर हाथ मार कर पूछा, ‘यह क्या है?’ लोगों ने कहा ‘मेज़’। उसने कहा, ‘मेज़ इसलिए दिखाई दे रही है, क्योंकि यहाँ मेज़ है; अगर नहीं होती तो नहीं दिखती। हर वस्तु इसलिए दिखाई दे रही है, क्योंकि वह है। अगर परमेश्वर होता तो दिखता; क्योंकि नहीं है इसलिए दिखता नहीं है। आत्मा होती तो दिखती।’ तभी एक साधारण सा व्यक्ति उसकी बगल में आ खड़ा हुआ, और लोगों से बोला, ‘इन नास्तिक महाशय का सिर आपको दिखाई दे रहा है?’ लोगों ने कहा ‘हाँ।’ उसने कहा, ‘यह इसलिए दिखाई दे रहा है क्योंकि इन महाश्य के पास सिर है। अब इस सिर में आपको इनकी बुद्धी दिखाई दे रही है?’ लोगों ने कहा ‘नहीं।’ उसने कहा अगर होती तो दिखाई देती।’

यह कहानी इस बात को कहती है कि बहुत सी चीज़ें होती हैं पर दिखती नहीं। हवा होती है पर दिखती नहीं। हमें उसके काम और सामर्थ दिखाई देती है। प्रेम होता है पर दिखता नहीं; लेकिन हमें उसका काम दिखते हैं और अनुभव होता है। परमेश्वर है, पर दिखता नहीं; पर उसक प्यार और सामर्थ हर जगह दिखती है। परमेश्वर प्रेम है, उसमें दया है, क्षमा है और सामर्थ है।

स्वदेशी परमेश्वर, विदेशी परमेश्वर
अंग्रेज़ों की बनाई तसवीर में परमेश्वर अंग्रेज़ सा दिखाई देता है। चीनी लोगों की बनाई तसवीर में परमेश्वर चीनी सा दिखाई देता है। भार्तीय चित्रों में परमेश्वर हिन्दुस्तानी दिखता है। तो वास्तव में परमेश्वर का कौन सा रूप है? सच मानिए, न तो परमेश्वर स्वदेशी है, और न ही विदेशी। हम परमेश्वर को किसी भी जाति या धर्म के दायरे में नहीं बांध सकते। वह किसी विशेष धर्म का नहीं है और न ही उसका कोई विशेष धर्म है। परमेश्वर संसार के धर्मों से कहीं विशाल है।

सच तो यह है कि हम धर्म को पूजते हैं। धर्म और धर्मगुरू हमारा उपयोग मन माने ढंग से करते हैं। हर धर्म दूसरे धर्म को तुच्छ जानता है। पर परमेश्वर का वचन कहता है, “...परमेश्वर किसी को भी तुच्छ नहीं जानता (अय्युब ३६:५)।” परमेश्वर ने हमें इस पृथ्वी पर इन्सान बनाकर भेजा; पर हमने इन्सान को हिन्दू, मुस्लमान, सिख और इसाई बना डाला। अब आदमी कभी यह नहीं सोचता कि मैं एक इन्सान हूँ। बल्कि वह सोचता है कि मैं इसाई हूँ, हिन्दू हूँ, मुस्लमान हूँ, सिख हूँ। आज के इन्सान के इस स्वरूप ने सारी इन्सानियत को ही बरबाद कर डाला।

हमारे धर्मों का स्वभाव है कि वह हमारे मनों में दूसरे धर्मों के प्रति नफरत के बीज बोते हैं। इन्ही नफरत के बीजों का फल विश्व का हर देश उग्रवाद और आतंक्वाद के रूप में काट रहा है। धर्म तो एक से हैं, हाँ बिमारी तो एक ही है; बस नाम अलग अलग हैं।

कुछ वर्षों पहले की बात है, दो धर्मों के अनुयायियों के बीच मार-काट मची हुई थी। एक मुहल्ले में एक धर्म के लोगों ने दूसरे धर्म के मानने वाले परिवार को चारों ओर से घेर कर सुलगती आग में डाल दिया। सुलगते लोग, चीखते चिल्लाते, हाथ पैर मारते, ज़मीन को पीटते हुए जल रहे थे। चारों ओर दूसरे धर्म के लोग खड़े हुए देश्भक्ति और धर्मभक्ति के नारे लगा रहे थे। तभी उन्में से एक झुल्सा हुआ बच्चा आग से निकल्कर बाहर भागा। तुरन्त कुछ लोग उसके पीछे भागे और पकड़ कर फिर उसी आग में धकेल दिया। ज़रा सोचिए तो सही, ये कैसी भक्ति है? क्या परमेश्वर ऐसे भक्तों से और ऐसी भक्ति से प्रसन्न होगा? या फिर यह सब देखकर दु:खी होता होगा?
ज़ंज़ीरें भी ज़ेवर दिखती हैं
हमारे धर्म हमें आज़ादी का पैग़ाम देकर हमें ग़ुलाम बना लेते हैं। धर्मों के ये पिंजरे बड़ी होशियारी से बनाए जाते हैं। रीति रस्मों की ज़ंज़ीरों में बन्धे हम ज़िंदगी भर धर्म की बंधुआई में जीते हैं। हम इन रीति रस्मों की ज़ंज़ीरों को ज़ेवरों की तरह पहनते हैं, और कतई उतारना नहीं चाहते। जन्म से ही हम धर्म की कैद में जीते हैं। कैद की दीवारें चाहे ईंट पत्थर की हों या संगमरमर की, कैद तो कैद ही है। हथकड़ी लोहे की हो या सोने की, है तो हथकड़ी ही। ये द्वार नहीं, दीवारें हैं कैद की। आदमी धर्म की ऐसी ज़ंज़ीरों की गुलमी में जीवन की आज़ादी का आनन्द कभी न लेने पाएगा। हमारे आज के धर्मों का यही स्वभाव हमारी सद्-बुद्धी को अंधा कर डालता है।

एक धर्म और दूसरे धर्म के बीच जो फासले हैं, मनुष्य और दूसरे मनुष्य के मनों के बीच जो दूरियाँ हैं, प्रभु यीशु उन्हें दूर करने आया। वह हमें कोई नया धर्म देने नहीं आया पर एक नया जीवन देने आया। बहुतायत और आनन्द से भरपूरी का जीवन देने आया। पर जब भी यह मसीही जीवन, मसीही धर्म में बदल जाता है, तब यह भी और धर्मों की तरह ही हो जाता है।

इतनी बढ़िया एक्टिंग
आज की राजनीति में कोई काम कभी भी बिना लाभ के नहीं किया जाता। हर राजनीति की दुकान पर अलग-अलग सामान सजा कर रखा गया है। जैसे- दलित उत्थान, आरक्षण, मन्दिर-मसजिद, धर्म परिवर्तन, म़ज़दूर आंदोलन इत्यादि। ये सब सामान बेचकर वोट कमाए जाते हैं। इन्हीं वोटों से उन नेताओं पर नोटों की बारिश होती है। हमारे नेता, अभिनेताओं से भी ऊँचे कलाकार होते हैं। एक बार एक मश्हूर फिल्म अभिनेता से एक पत्रकार ने पूछा, ‘आप अभिनेता से नेता क्यों नहीं बन जाते?’ अभिनेता का जवाब था, ‘मैं इतनी बढ़िया एक्टिंग नहीं कर सकता जो नेता बन पाऊँ।’

देश के ये अगुवे देश पर किसी भी ऐसी आफत के आने का इन्तज़ार करते रहते हैं, जहाँ उन्हें पैसा कमाने और विरोधी दल पर दोष लगाने का मौका हाथ लगे। अगर वे किसी पर दया भी दिखाते हैं तो सिर्फ नाम कमाने के लिए। वे राजनीति तो पद, प्रतिष्ठा और पैसा पाने के लिए ही करते हैं। दोष लगाने के लिए दोष ढूँढते हैं। उन्हें स्वयं ऊँचा उठने के लिए, दूसरों को नीचा दिखाना ज़रूरी होता है। देश के जब ऐसे दोस्त हों तो फिर दुशमनों कि क्या ज़रूरत है!

धर्म और राजनीति में ही नहीं, पर हमारे परिवारों में भी एक बड़ा बुरा बिखराव पनप रहा है। एक दार्शनिक से एक पत्रकार ने पूछा, ‘आजकल पति-पत्नियों में अधिकांश्तः अच्छे संबन्ध नहीं देखे जाते। तलाकों की संख्या बहुत तेज़ी से बढ़ती जा रही है। इसका मुख्य काराण क्या है? दारश्निक ने बड़े नाटकिय ढंग से उत्तर दिया, ‘तलाक का मुझे एक ही कारण नज़र आता है, और वह है शादी। न शादी होगी, न तलाक होगा। न बांस होगा न बांसुरी बजेगी।’ लेकिन वास्तव में इस सम्स्या का मुख्य कारण तो हमारा बुरा स्वभाव, अहंकार, लालच और हमारा व्यभिचार है। सच्चाई तो यह है कि तलाक भी दो तरह के होते हैं। एक कानूनी तौर पर और दूसरा मन से - अर्थात पति-पत्नि साथ तो रहते हैं, पर मन से उन दोनों का तलाक हो चुका होता है। साथ तो इसलिए रहते हैं क्योंकि उनके पास बच्चे हैं। बच्चों का क्या होगा? समाज क्या कहेगा? या फिर कुछ आर्थिक या अन्य कारण हो सकते हैं। ऐसे परिवार बड़े तनाव में जीते हैं। इनमें से ७० प्रतिशत में झगड़े उनके आपसी अहंकार के कारण होते हैं, क्योंकि वे आपस में एक दूसरे से माफी मांगने और देने को तैयार नहीं होते। ३० प्रतिशत में व्यभिचार और अन्य कारण हो सकते हैं। हमारे इन्हीं पापों ने हमारे घरों को नर्क समान बना रखा है।

सास मरे तो साँस आए
एक जवान स्त्री घबराई और सहमी सी अपनी सहेली के पास आई, लम्बी सी साँसों से कहने लगी, ‘बहन क्या बताऊँ, आज एक ऐसी कहानी पढ़ी कि डर और दहशत से दिल अभी तक तेज़ धड़क रहा है। सच मान बहन कोई और यह कहानी पढ़ लेता तो उसका तो कब का हार्ट फेल हो गया होता।’ सहेली उसे शब्दों से सहलाती हुई बोली, ‘बहन घबरा मत, मैं तेरे लिए चाए बनाकर लाती हूँ, तब तक तू यह कहनी मेरी सास को सुना दे।’ बहु सोचती है कि जब उसकी सास मर जाएगी तो उसके घर में शान्ति आ जाएगी। वह इस शान्ति के इंतिज़ार में अशान्त जीती है। पर यही बहु खुद कुछ सालों में सास बन जाएगी और सिलसिला यूँ ही ज़ारी रहेगा। सास के मरने से शान्ति नहीं आ पाती, जब तक वह पुराना स्वभाव न मरे।

मुस्कुराहट या मक्कारी
परमेश्वर का वचन आपकी ही नहीं, मेरी भी छिपी हालात को प्रकट करता है। मैं एक घिसा-पिटा अड़तीस साल पुराना प्रचारक हूँ; इस प्रचारक के पास एक एकलौती और पुरानी पत्नि भी है। कभी कभी हम दोनों में काफी गहमा-गहमी हो जाती है। हाँ यह बात है कि प्रभु की दया से बात गाली-गलौज या मार-पीट तक कभी नहीं पहुँचती, बस आपसी बोल-चाल बन्द हो जाती है। लेकिन मन फिर भी पलटा देने और बदला लेने की युक्ति सुझाता रहता है कि इसे मैं कैसे सबक सिखा दूँ। ऊपर से तो सब शान्त दिखता है पर अन्दर मन में धक्का-मुक्की चलती रहती है। ऐसे समय में यदि कोई मेहमान हमारे घर आ जाए तो हमारे बदले रंग देखते ही बनते हैं। अचानक हम दोनों मूँह पर बड़ी मधुर मुस्कान लिए आपस में प्यार से बातें करने लगते हैं और प्यार भरे शब्दों से माहौल को महकाने लगते हैं। आए हुए मेहमान का बड़ी गर्मजोशी से स्वागत होता है, हाल चाल पूछे जाते हैं। जब मेहमान हमसे हमारा हाल और खैरियत पूछते हैं तो हम मुस्कुराते हुए कहते हैं, “हाँ भाई, प्रभु की दया से सब ठीक है।” पर अन्दर की सच्चाई तो कुछ और ही है, सब ठीक कहाँ है। वास्तव में हमारी मुस्कुराहट मक्कारी होती है। यह हमारे जीवन की सच्चाई है, पर हम इस मक्कारी को मक्कारी नहीं कहते। सच तो यह है कि हमारे स्वभाव में ही मक्कारी है। हमारे अन्दर के विचार और बाहर के व्यवहार में बहुत अन्तर होता है। परमेश्वर का वचन कहता है कि हम स्वभाव से ही पापी हैं। कोई फर्क नहीं पड़ता, हम किसी भी धर्म के हो सकते हैं, किसी भी पद और परिवार के हो सकते हैं, पर हम सब स्वभाव से पापी हैं।

बंदे का धंधा मन्दा चल रहा है
आदमी राजा हो या रंक, पर घमंड हमारे स्वभाव का एक स्थाई तत्व है। कहीं किसी ने यह कहनी कही- दो भिखारी आपस में बतिया रहे थे। एक भिखारी ने अपना रोना रोया, “भाई जी, बस क्या बताऊँ, धंधा तो मंदा चल रहा है। लोगों के सामने हाथ फैलते ही वो अपनी आंखें फैला लेते हैं। पैसे देते नहीं, उपदेश देने लगते हैं। न दान, न दया और न प्यार रहा है। पैसे पर ऐसी पकड़ आ गयी है कि कोई किसी को दान देने को तैयार ही नहीं। हमारी तो कोई इज्ज़त ही नहीं बची। पुलिस तो ऐसा व्यवहार करती है कि जैसे हमारे ही लिए रखी गई हो।” दूसरा भिखारी बोला, “तो धंधा क्यूँ नहीं बदल लेते?” पहला बोला, “ अबे यार, मैं इतनी जल्दी हार मानने वाला नहीं हूँ।” कितना अहंकार था इस भिखारी बंदे को अपने धंधे पर। अहंकार किसी को भी अछूता नहीं छोड़ता। हर आदमी सोचता है कि वो कुछ खास है, भले ही कुछ खासियत हो या न हो। हर कोई चाहता है कि उसकी बात को वज़न दिया जाए, उसे महत्व दिया जाए। आप अपने आप को खास आदमी समझते रहिये, पर इससे आप खास आदमी नहीं बन पाएंगे। हमें अपनी असलियत अवश्य समझ लेनी चाहिए। परमेश्वर का वचन कहता है, “...और सुन तो ले तेरा जीवन है ही क्या (याकूब ४:१४)।”

अत्याधुनिक विज्ञान आपका रंग, नाक, कान, और आँख बिल्कुल बदल सकता है, पर आपका स्वाभाव कभी नहीं बदल पाएगा। जलन, क्रोध, लोभ और व्यभिचार का पागलपन, जो अन्दर छिपा है, उससे कभी छुटकारा नहीं दिला पाएगा।

अन्दर का गणित
हम सबके अन्दर का गणित एक सा ही होता है। अन्दर से हम सब लालची, व्यभिचारी, क्रोधी, घमंडी और बदला लेने के भाव से भरे होते हैं। ये ही सब पाप हमारे जीवन की हर खुशी हम से छीन लेते हैं। इसलिए हर आदमी बेचैन और परेशान है। सारा संसार शान्ति लाने के प्रयास में जुटा है। शान्ति सभाएं, शान्ति के नारे, शान्ति की योजनाएं, शान्ति वार्ताएं और शान्ति संगठन। हर देश का हर एक नेता शान्ति लाने की बात करता है। सरकारें प्रयास करती हैं। धर्म और धर्म गुरू शान्ति देने के दावे करते हैं। पिछले छह हज़ार वर्षों में शान्ति लाने का हर प्रयास न केवल असफल ही हुआ है, वरन, सारे संसार में अशान्ति महामारी की तरह बड़े विकराल रूप से हर आदमी को बेचैन किये खड़ी है। इस बीमारी के बाहरी इलाज तो बहुत किये गये हैं, पर बेचैनी तो आदमी के मन की उपज है, इसलिए इलाज तो मन का होना चाहिए। अगर मन परिवर्तन नहीं हुआ तो कुछ भी परिवर्तन नहीं होने वाला।

हमारे समाज के हर हिस्से में बुराई भरी पड़ी है। कोई घर, कोई शहर, कोई प्रदेश या कोई देश ऐसा नहीं जो इससे ग्रसित न हो। वास्तव में बुराई हमारी व्यवस्था में नहीं, हमारे मन में है। परमेश्वर का वचन कहता है, बुराई तो मनुष्य के मन से निकलती है (मरकुस ७:२१-२३)। यह असाध्य रोग मन में ही है (यर्मियाह १७:९)। हर बुराई मानवीय मन के गर्भ में ही जन्म लेती है। इसलिए ज़रूरत मन मरम्मत की नहीं, मन परिवर्तन की है। इसीलिए परमेश्वर मन परिवर्तन की बात करता है, धर्म परिवर्तन की नहीं। क्योंकि मानव को धर्म की नहीं, मन परिवर्तन की ही आवश्यक्ता है। इसीलिए प्रभु कहता है, मैं तुम्हें एक नया मन दूँगा (यहेजकल ३६:२६)। ऐसा मन जो प्यार कर सकता है, दया कर सकता है और जो क्षमा कर सकता है। जो शान्त रह भी सकता है और शान्ति दे भी सकता है।

अंधकार के पास यह अधिकार है कि वह आदमी को अंधा कर डालता है, आंखों वालों को भी! पाप का अंधकार तो उन्हे ऐसा अंधा कर डालता है कि उन्हें पाप करते हुए एहसास ही नहीं होता कि वे पाप कर रहे हैं। अगर आपको क्रोध बहुत जलदी आता है, तो आप एक अहंकारी व्यक्ति हैं और आप में सहनशीलता नहीं है। आप में बदला लेने का भाव बहुत तीव्र है। इसी तरह आदमी लालच से, क्रोध से और व्यभिचार से भरा पड़ा है। उसे गाली देते हुए, व्यभिचार करते हुए और रिशवत लेते-देते हुए एहसास ही नहीं होता कि उसने कुछ ग़लत किया है या पाप किया है। हमें अपनी हर बुराई में कोई बुराई दिखाई नहीं देती। पाप के अंधेरे ने आदमी को ऐसा अंधा किया कि उसका सारा जीवन ही अंधेरा हो गया। सारा संसार ऐसे अंधेरों से भरा पड़ा है और अंधेरे से भरे संसार में अंधेर्गर्दी फैली पड़ी है। अब जो मनुष्य अंधेरे में जीता है, वह अंधेरे में मर कर हमेशा के अंधेरे में चला जाएगा।

शब्दों की आड़ में...
आज के इन्सान ने इन्सानियत को पैरों से कुचल डाला है। हैवानियत को पहन कर अपनी ही बरबादी के लिए तैयार खड़ा है। अब संसार अपने आखिरी सालों में जी रहा है। संसार के साथ वह कुछ होने जा रहा है जो समझने और सहने से बाहर होगा। सम्पर्क तो आपको जगाने और जताने के लिए लाया गया है कि आप परमेश्वर की बर्दाश्त को तुच्छ न जानो। सच मानिए, परमेश्वर साक्षी है, हम शब्दों की आड़ में छिप कर किसी धर्म का प्रचार कतई नहीं करते। एक ऐसे सत्य का प्रचार कर रहे हैं कि पापों की क्षमा पाने के लिए आपको कोई धर्म बदलने की कतई आवश्यक्ता नहीं है। धर्म की बाहरी पर्तों से आदमी के अंदर का आदमी कभी परिवर्तित नहीं होता। आप एक के बाद एक धर्म परिवर्तन करते जाएं, पर जीवन में एक भी परिवर्तन नहीं पाएंगे - भले ही आप जयिकशन से जैक्सन क्यों न बन जाएं।

गधों को माई बाप बोलो...
एक बुरी खुशी होती है जो बुराई करने से मिलती है, दूसरों को नुकसान पहुँचाने से मिलती है, दूसरों को बेवकूफ बनाने में मिलती है, दूसरों से अपनी झूठी प्रशंसा सुनने में मिलती है। गधे का अर्थ हमेशा गधा नहीं होता। कई बार कई आदमी भी गधे होते हैं। वे किताबों के सहारे बहुत सारा ज्ञान तो बटोर लेते हैं, भाषा को सुंदर शब्दों से संजो भी लेते हैं; परन्तु ऐसे ज्ञानवान लोग भी कई बार बड़ी नासमझी कर जाते हैं। एक अनपढ़ आदमी बहुत समझदार हो सकता है और एक पढ़ा-लिखा बहुत नासमझ; क्योंकि समझ और ज्ञान में अन्तर है। जब पढ़े लिखे गधों को बड़े पदों के साथ बड़ी प्रशंसा दी जाती है तो ऐसी प्रशंसा उनके अहंकार को बहुत भाती है। अगर ऐसा न होता तो मक्खन लगाना, यानि खुशामद करना इस संसार से कब का समाप्त हो जाता। प्रशंसा चाहे झूठी हो या सच्ची, हमारे अहंकार को उससे बड़ी खुशी मिलती है, लेकिन यह खुशी बुरी है। लोग जानते हैं कि मौका बार-बार हाथ नहीं लगता। इसलिए, जितना लग सके मक्खन लगा दो, गधों को माई-बाप बोलो और काम निकालो-क्या फर्क पड़ता है? इसी तरह कुछ लोग पद, पैसा, यश और कीर्ति कमाने के लिए सारा जीवन लगा देते हैं। “और दुष्ट, और बहकाने वाले धोखा देते हुए, और धोखा खाते हुए बिगड़ते चले जाएंगे (२ तिमुथियुस ३:१३)।”

अक्सर एक बड़ी भीड़ यीशु को घेरे खड़ी रहती थी। एक भ्रष्ट आयकर अधिकारी प्रभु यीशु को देखना चाहता था, पर भीड़ के कारण यीशु को देख नहीं पा रहा था। परमेश्वर का वचन इन शब्दों के सहारे एक सच्चाई को हमारे सामने रखता है। धर्म की बड़ी भीड़ ने प्रभु यीशु की सच्चाई को छिपा रखा है। लोग उस भीड़ को तो देख पाते हैं पर यीशु को नहीं - धर्म और धर्म के अनुयायियों को देख पाते हैं, पर सच्चाई को नहीं। सच तो यह है कि प्रभु यीशु पापियों के लिए आया, किसी विशेष धर्म के लोगों के लिए नहीं। न ही उसने किसी धर्म विशेष के लोगों से प्रेम किया, पर जगत से ऐसा प्रेम किया। वह हर एक धर्म के हर एक व्यक्ति को प्यार करता है क्योंकि वह किसी विशेष धर्म से बंधा नहीं है।

कहा जाता है कि अगला विश्व्युद्ध धर्म के नम पर ही लड़ा जाएगा। बदला लेने का यह भाव ही आतंक्वाद है। हमारे इन्हीं मानवीय पापों ने ही विश्व को विनाश के कगार पर खड़ा कर दिया है। परमेश्वर का वचन कहता है कि “यदि मन न फिराओगे तो इसी तरह नाश हो जाओगे” (लूका १३:५)। मन फिराने का अर्थ है पाप से क्षमा मांगना और विश्वास करना कि प्रभु यीशु पापों की क्षमा देता है। इसलिए ही उसने क्रूस पर अपनी जान दी फिर तीसरे दिन जी उठा, और उसका लहू हमें सब पापों से शुद्ध करता है।

अजीब जूता
आम आदमी सत्य से ज़्यादा जादू-टोने और गंडे-तावीज़ों इत्यादि पर अधिक विश्वास करता है। मैं एक घटना आपको अपने शब्दों में बताना चाहता हूँ। मैंने अकसर ट्रकों के आगे और पीछे पुराने जूते टंगे देखे हैं। पुराने जूतों को आगे-पीछे टांगने के पीछे के रहस्य को जानने के लिए मैंने एक ट्रक ड्राइवर से पूछा, ‘ड्राइवर साहब इस तरह ट्रकों पर पुराना जूता लटकाने का क्या मतलब है?’ ड्राईवर ने जवाब दिया, ‘जनाब, जूता लटकाने से एक्सीडैंटों से सुरक्षा मिलती है।’ मैंने कहा, जब एक्सीडैंट होता है, हर ड्राईवर जूता पहने होता है, हर ट्रक से टकराता व्यक्ति भी जूता पहिने होता है; फिर भी रोज़ एक्सीडैंट होते हैं?’ तब ड्राइवर साहब का बड़ा ही मज़ेदार जवाब था-‘जनाब, जूता पहनने से नहीं, लटकाने से उसकी तासीर बदल जाती है।’ बड़ा ही अजीब विश्वास है; रोज़ जूता टंगे ट्रकों का एक्सीडैंट देखता है, फिर भी सुरक्षा के विश्वास से जूता लटकाए फिरता है!

गालियाँ घोल कर पिलाईं...?
जब हम कहते हैं कि मुझे क्रोध आ गया, तो यह हमारी भाषा की गड़बड़ है। क्रोध बाहर से नहीं आता, क्रोध तो अन्दर से निकलता है। जब हालात बनते हैं, क्रोध बाहर निकल आता है। जैसे देखा गया है कि शराबी आदमी विपरीत हालात में गालियाँ बकने लगता है। क्या उस शराबी को शराब में गालियाँ घोल कर पिलाई गयी थीं? ऐसा नहीं था, गालियाँ तो उसके मन में पहले से ही बसीं थीं। शराब ने तो उन्हे केवल सहारा दिया और वह बाहर बह निकलीं। इसी रीति से जलन, द्वेश, घमंड और व्यभिचार आदि सब मन में ही भरा रहता है, बस मौका मिलने पर अन्दर से बाहर आ जाता है। पेट की गड़बड़ी तो डॉक्टर ठीक कर सकता है, पर मन की गड़बड़ी का कोई इलाज नहीं। आदमी को अच्छा बनाने के लिए हमारे धर्मों, शिक्षा और सरकार ने सारे जुगत और जुगाड़ किये हैं। संसार कितना ही विकसित क्यों न हो जाए और संसार के सारे शहर क्यों न सुधार दिये जाएं, पर आदमी और उसका मन कभी नहीं सुधरेगा। मन सुधारने की सामर्थ न तो किसी सरकार में है न किसी कानून में। आप जो यह मेरा लिखा हुआ पढ़ रहे हैं, आपको बहुत अच्छा लग सकता है, पर यह आपको अच्छा बना नहीं सकता। यह प्रचारक कोई उपचारक तो नहीं है।

हम यदि आप से कहें कि आप क्रोध, ईर्ष्या, द्वेश और लालच छोड़ दें, तो यह उसी तरह होगा जैसे किसी कैंसर के मरीज़ से कह जाए कि वह अपना कैंसर छोड़ दे। यदि वह छोड़ सकता होता, तो कभी का कैंसर को छोड़ चुका होता। स्वर्ग और पृथ्वी में एक ही नाम है जो सब कुछ सुधार सकता है, जो आपके जीवन को सँवार सकता है - यीशु नाम; “क्योंकि पृथ्वी के ऊपर और स्वर्ग के नीचे मनुष्यों में केवल एक नाम दिया गया है जिसके द्वारा उद्धार है” (प्रेरितों ४:१२)। सिर्फ एक प्रार्थना सब कुछ बदल देगी। परख कर तो देखिए, कह कर तो देखिए - ‘हे यीशु मुझ पापी पर दया करें; मेरे पाप यीशु नाम में क्षमा करें।’

ये ही पाप हैं जिन्होंने हमारे जीवन को, परिवारों को, समाज को, और संसार को नरक बना दिया है। ये ही पाप एक दिन हमें अनन्त नरक में भी धकेल देंगे। अनन्त का अर्थ है जिसका अन्त न हो, अनन्त में समय का अन्त होता है, स्थिति का नहीं; स्थिति सर्वदा बनी रहती है। लाखों लोग अपने परिवारों में अनचाही बेचैनी भोग रहे हैं। उनके मन में अब कोई उम्मीद नहीं बची और न ही उनको जीने की कोई इच्छा है। जीना उनके लिए एक मजबूरी है। मौत माँगती हुई ऐसी ज़िन्दगियों की यहाँ कोई कमी नहीं।

कुछ अपने स्वभाव से और अपनी आदतों से बहुत मजबूर हैं। जो नहीं देखना चाहिए उसे देख लेते हैं, जो नहीं बोलना चाहिए उसे बोल जाते हैं, जो नहीं सोचना चाहिए उसे सोचते हैं, जो नहीं करना चाहिए उसे कर जाते हैं; पर जो करना चाहिए, उसे टाल जाते हैं। वे अपने आप को कोसते हैं और आत्म ग्लानि की पीड़ा से भरा जीवन जीते है। उनको अपने भी अपने नहीं लगते। उनका मन सोचता है कि मैं किसी काम का नहीं और परिवार में कोइ मुझे प्यार नहीं करता, फिर मैं क्यों जी रहा हूँ? एक मुशकिल जाती नहीं कि दूसरी तैयार खड़ी होती है। शायद आप भी ऐसी ही परेशानियों के बोझ से थक चुके हों। इन बोझों ने आपकी सारी हंसी और खुशी को दबा दिया हो। ऐसे लोगों को प्रभु प्यार से बुलाता है और कहता है, “हे सब बोझ से दबे और थके लोगों मेरे पास आओ, मैं तुम्हें विश्राम दूँगा” (मत्ती ११:२८)। आप के पाप का उपचार यीशु के पास है; जहाँ पाप हटा कि बेचैनी भी हट जाएगी। परख कर देख लीजिए। यह लेख अब अपनी आखिरी पंकतियों में आ पहुँचा है। शायद कुछ देर में आप इसे भूल जाएंगे, और फिर दूसरा मौका आपके हाथ न आए। इसलिए पाप से माफी माँगने का यही एक सही मौका है। सच्चे दिल से की गयी एक प्रार्थना, बस इतना भर कहना, “हे यीशु मुझ पापी पर दया करें, मेरे पाप क्षमा करें” सब कुछ बदल देने के लिए काफी है।

कुछ लोग जो यह सम्पर्क पढ़ रहे हैं, उन्हें पाप की क्षमा से कुछ लेना-देना नहीं है। ये वे लोग हैं जो अपने अन्त की चिंता किए बगैर, खाते-पीते, मौज मनाते, पास खड़ी मौत के अन्जाम से बेखबर जी रहे हैं। पाप में तो उन्हे मज़ा आता है। कुछ के लिए पाप तो कमाई का साधन है, इसके बिना काम कैसे चलेगा?

मैं मर रहा हूँ
एक कैंसर से मरते मरीज़ ने संसार से विदाई लेते समय कुछ इस तरह कहा... “यहाँ से जाते समय, जिसके लिए ज़िंदगी लगा दी, वही सब पराया लगने लगा है। अब एहसास होता है कि अगर मैं एक मिनिट आँखें बन्द कर लेता हूँ तो उजाले के साठ सैकेंड मैंने खो दिए। इन्हीं आखिरी पलों में हर पल कीमती लगने लगा है। ईश्वर ने थोड़ा सा जीवन दिया, उसका हर पल कीमती है, पर सच तो यह है कि इन आखिरी पलों में - जैसे जैसे दिल की धड़कन धीमी होने लगती है, आँखें मुंदने लगती हैं, साँस के लिए भी सहारे की ज़रूरत महसूस होने लगती है, अपनों को आखिरी बार देखने के लिए भी पूरी ताकत लगा कर पलकों को खोलना पड़ता है, तब ही इन पलों की कीमत का एहसास होता है। मौत उम्र के साथ नहीं आती, यह तब जाना जब जाने का वक्त आ पहुँचा। एक ताबूत में रखकर कब्र में उतारने के अलावा अब कोई इन्सान इससे ज़्यादा मेरी मदद नहीं कर सकता। मैं मर रहा हूँ, सब मजबूर खड़े देख रहे हैं।” ऐसे पल मेरे और आपके जीवन में कभी भी आ सकते हैं। एक बार जो ज़िंदगी हाथ से फिसली, तो फिर कभी हाथ नहीं आएगी।

आखिरी मौका... कहीं खो न जाए
जब से यह सम्पर्क आपके हाथ में है, तब से परमेश्वर की आँख आप पर लगी है। सच मानिए यह संदेश आप ही के लिए है। परमेश्वर का वचन हमारे सारे पापों को हमें दिखा देता है, परन्तु हम उसी परमेश्वर से अपने पापों को छिपाने की कोशिश करते हैं जो पापों को ही नहीं पर हमारे विचारों के इशारों को भी दूर से समझ लेता है (भजन १३९:२)। कितने सोचते हैं कि हमारे वो पाप जो कभी किसी ने नहीं देखे, अब हमारे सीने में हमेशा के लिए दफन हो चुके हैं। पर सच तो यह है कि आपके मरते ही आपके पाप फिर जी उठेंगे, आपके पाप आपका पीछा नहीं छोड़ेंगे (गिनती ३२:२३)। हम तो आपके पास परमेश्वर के मन की अभिलाषा को पहुँचा रहे हैं। क्योंकि वह नहीं चाहता कि कोई नाश हो, पर चाहता है कि आपको पापों की क्षमा का मौका मिले। कुछ ही देर में ये शब्द कितनी आवाज़ों और विचारों में खो जाएंगे। आपकी एक प्रार्थना आपको सारे अपराधों और पापों से हमेशा के लिए छुटकारा दे सकती है। जी हाँ यही प्रार्थना ‘हे यीशु मुझ पापी पर दया करें’। पापों की क्षमा या सज़ा - इन्में से एक आप को लेना ही है, इसमें कोई अन्य मार्ग नहीं है। अब यह प्रार्थना करना, न करना, यह फैसला आपके हाथ में है।

गुरुवार, 30 अप्रैल 2009

सम्पर्क दिसंबर २००६: अंधकार से ज्योति की ओर

(यह लेख, सहारनपुर के श्री अनंग  केसरी राय की गवाही, अर्थात प्रभु यीशु में उनके व्यक्तिगत अनुभव की अभिव्यक्ति है।)


मेरा नाम अनंग केसरी राय है और मेरा जन्म अगस्त ११, १९६२ को जमशेदपुर (झारखंड) में एक उड़िया परिवार में हुआ। मैं बचपन से ही बहुत धार्मिक प्रवति का व्यक्ति था। यह नहीं कि मुझे शांति की खोज थी; क्योंकि मैं तो शान्ति-अशान्ति के बारे में सोचता ही नहीं था। बस अपनी माँ को पूजा पाठ करते देख मेरे हृदय में भी धार्मिक भावना जाग उठी। सुबह उठकर सबसे पहले स्नान करना, उसके बाद किसी के घर से फूल चोरी कर के लाना और चीनी या गुड़ का प्रसाद चढ़ाकर पूजा पाठ करना मेरी आदत बन गई थी और मैं निस्वार्थ भाव से करता था।

जब मैं दस साल का हुआ और कक्षा पाँच में पढ़ता था तो उस दौरान स्कूल में ही हमें हैज़े का टीका दिया गया, जिसके ग़लत असर से मेरी आंखों की रोशनी चली गयी। वैसे बच्पन से ही मेरी आँखों कि रोशनी कम थी और डॉक्टर का कहना था कि बारह साल का होने पर मुझे चश्मा लगेगा, लेकिन यह घटना दसवें साल में ही घट गयी। मेरे माता-पिता ने, जो मुझे बेहद प्यार करते थे, मेरे इलाज के लिए भरसक प्रयत्न किया। जो जहां भी बताता, वे वहाँ मुझे लेकर जाते, लेकिन कुछ भी ठीक नहीं हुआ। उनके बहुत प्रयास के बावजूद भी मेरी आँखें ठीक नहीं हुईं। मेरे इलाज की भागदौड़ में करीब पाँच साल बीत गये, और यह मेरे लिए बहुत दुखः का समय था। उस समय तो मैं प्रभु यीशु को नहीं जानता था, परन्तु प्रभु में आने के बाद समझ पाया कि यह मेरे लिए, यूहन्ना ९:१-३ के अनुसार, परमेश्वर की नियत योजना थी; जहाँ प्रभु ने अपने चेलों से, मुझ जैसे ही एक व्यक्ति के समबंध में कहा, “यह इसलिए अन्धा हुआ कि उसमें परमेश्वर के काम प्रकट हों।”

उस समय हमारे पड़ौस में एक इसाई परिवार रहता था। उन्होंने मेरे पिताजी को सलाह दी कि मुझे घर में बैठा कर रखने से अच्छा तो राँची स्थित एक नेत्रहीनों के स्कूल में भर्ती करना होगा। उनके दबाव में आकर, पिताजी ने मेरा दाखिला उस स्कूल में करवा दिया। यह स्कूल एक इसाई संस्था का था और उस समय इस स्कूल में हड़ताल चल रही थी। मेरा मन उस स्कूल में नहीं लगा अतः किसी तरह रो-धोकर एक महीने बाद ही मैं अपने घर आ गया। दोबारा मैं उस स्कूल में वापस जाना नहीं चाहता था और ना ही मेरी माँ मुझे भेजना चहती थी। लेकिन उस परिवार का दबाव फिर से मेरे पिताजी पर पड़ा और वे मुझे दोबारा उसी स्कूल में छोड़ आए। वहाँ हड़ताल खुल चुकी थी और पढाई भी शुरू हो चुकी थी। लेकिन मुझे नेत्रहीनों की पढ़ाई के अक्षरों (Braille Script) से बड़ी घबराहट होने लगी कि मैं इन्हें कैसे पढ़ूँगा? क्योंकि उस स्कूल में अलग अलग काम भी सिखाए जाते थे, सो मैं ने फैसला किया कि मैं पढ़ूँगा नहीं वरन कोई काम सीखूँगा। वहाँ एक क्लर्क, जिनके माध्यम से मेरा दाखिला हुआ था, ने कहा कि नहीं तुझे पढ़ना है। अतः मैंने पढ़ाई फिर शुरू कर दी।

मिशन स्कूल होने के नाते शुरू में आधे घंटे का समय होता था जिसमें बाईबल की बातें सिखाई जाती थीं। उसमें छोटी छोटी कहानियाँ जैसे उड़ाऊ पुत्र, धन्वान व्यक्ति और कंगाल लाज़र इत्यादि की कहनियाँ, सब मुझे बहुत अच्छी लगती थीं। इस तरह मेरा मन वहाँ लग गया और मैं अन्य नेत्रहीन छात्र-छात्राओं के साथ घुल-मिल गया। सुबह-शाम प्रार्थना होती थी, मैं उस प्रार्थना को भी सीख गया और बाईबल परीक्षा में ५० में से ४८ अंक भी प्राप्त किये। लेकिन मेरा मन इस बात को मानने को तैयार नहीं था कि यीशु ही परमेश्वर है, जैसे कि वहाँ के कुछ लोग बोलते थे। इसी बात पर वहाँ के लड़कों से मेरी बहस भी हो जाती थी। मेरी सोच थी कि सब ईश्वर एक हैं। मेरे मन में यह सवाल पहाड़ की तरह था कि अगर यीशु ही परमेश्वर है तो उसने मुझे हिन्दू परिवार में जन्म क्यों दिया? सीधे इसाई परिवार में देता जिससे धर्म बदलने की आवश्यक्ता ही नहीं होती। मैंने फैसला किया कि मैं कभी इसाई नहीं बनूँगा। आज जो मेरी पत्नि है वह भी इसी नेत्रहीन स्कूल में पढ़ती थी और प्रभु यीशु पर विश्वास करती थी, लेकिन उद्धार के बारे में उसे भी पता नहीं था। हम दोनो विवाह से पहले एक दूसरे को जानते थे। फिर भी मैंने फैसला लिया कि यदि हमारी शादी हुई तो मैं उसे गिरजे जाने से नहीं रोकूँगा, लेकिन खुद नहीं जाऊँगा।

उसके बाद बहुत शीघ्र मैंने अपनी पढ़ाई पूरी कर ली। उसी समय इन्दिरा गाँधी ने नेत्रहीन लोगों के लिए नौकरियों का प्रस्ताव पास करा रखा था और काफी नेत्रहीन सरकारी नौकरियों पर रखे जा रहे थे। मुझे भी नौकरी करने की इच्छा हुई, लेकिन इसके लिए मेरे पास कोई ट्रेनिंग होना बहुत ज़रूरी था। इसीलिए मैं १९८३ में दिल्ली आ गया। वहाँ एक इन्स्टीटयूट में ६ महीने की ट्रेनिंग के बाद मेरी नौकरी अमृतसर (पंजाब) की एक फैकट्री में लग गयी। वहाँ मुझे बहुत अकेलापन महसूस होने लगा। उस समय पंजाब में उग्रवादियों का दौर था; इसी के चलते यह फैकट्री सहरनपुर (यू०पी०) में आ गयी। सहारनपुर आ जाने के बाद तो मैं और भी बिगड़ता चला गया। मैं जो भी पैसा कमाता, उसे शराब और सिनेमा में उड़ा देता। यह मेरी आदत बन चुकी थी। जब भी मैं अकेला होता था तो अपने अन्दर एक खालीपन का एहसास करता था। उस समय तो उस खालीपन को मैं दोस्तों की संगति से या शराब से भर लेता था, लेकिन जब कोई मेरे साथ नहीं होता था तो उस खालीपन को भरना बहुत मुश्किल होता था। उन दिनों मेरे पास बाईबल के एक भाग - लूका रचित सूसमाचार की एक प्रति थी, जिसे मैं अपना डर दूर करने के लिए पढ़ता था, या फिर मेरे पास रेडियो था जिसमें मैं सुबह साढ़े चार बजे एक मसीही प्रोग्राम ‘विश्ववाणी’ को सुनता था, जिसमें पाँच मिनिट का एक सँदेश आता था ‘परमेश्वर का वचन’। क्योंकि उस समय कोइ सिनेमा के गीत तो आते नहीं थे, इसलिए मजबूरी थी, उसी को सुनता था। इस तरह से मेरा जीवन चल रहा था।

उसी दौरान एक लड़का, जो प्रभु यीशु पर विश्वास करता था, इसी फैकट्री में जिसमें मैं काम करता था, काम करने आया। उसने मुझ से मिलकर पूछा, ‘क्या आप प्रभु यीशु को जानते हैं?’ मैंने घमन्ड से भरा जवाब दिया, ‘हाँ मैं जानता हूँ, और मिशन स्कूल में भी पढ़ा हूँ।’ यद्यपि मैं प्रभु यीशु को पापों से क्षमा देने वाले परमेश्वर के रूप में नहीं जानता था। फिर उसने मुझ से कहा कि ‘हम आपके घर आना चाहते हैं।’ मैंने कहा कि ‘हाँ-हाँ आओ’ लेकिन मैं दिल से नहीं चाहता था कि वह मेरे घर आए। इसीलिए मैंने उसे अपने घर का सही पता नहीं दिया। लेकिन फिर भी न जाने कैसे वह और उसके साथ दो जन, रविवार मई २८, १९८९ को हमारे घर आ गये। उन्होंने एक मसीही गीत गाया ‘नीले गगन में चमकें तारे’। यह गीत सुनकर मुझे लगा कि जैसे यह हमारी तरफ के लोग हैं। फिर उन्होंने बाईबल में से एक पद पढ़ा जिसकी व्याख्या तो मुझे याद नहीं, पर पद आज भी याद है, “तू मेरी दृष्टि में अनमोल और प्रतिष्ठित ठहरा है और मैं तुझ से प्रेम करता हूँ” (यशायाह ४३:४)। फिर उन्होंने कहा कि हम आपको शाम कि एक मसीही संगति में ले जाना चाहते हैं, क्या आप चलोगे? मैंने कहा हाँ, और मैं उनके साथ चलने को तैयार हो गया। शाम को जब हम उनके साथ सभा में गये तो वहाँ पर भले ही मैं शब्दों का सन्देश न समझ सका, लेकिन उनके प्यार ने मेरा मन मोह लिया। उनके ऐसे मन-मोहक प्यार को अनुभव कर मैं सोचने लगा कि अगर इन लोगों में ऐसा प्यार है तो इनका प्रभु कितना प्यारा होगा। उसके बाद वही लड़का जो मुझे फैकट्री में मिला था, जहाँ भी ऐसी प्रभु की सभाएं होतीं, वह मुझे अपने साथ लेकर जाता था। ना चहते हुए भी मैं उसके साथ उसका दिल रखने को चल देता था कि कहीं उसे बुरा न लगे। वे लोग आते रहे, समझाते रहे; पर मन कहाँ फिरा था, वह तो उन्हीं पुराने यारों से जुड़ा था। मेरे मन में कभी यह चाह थी ही नहीं कि मैं यारों की मौज और शराब की मस्ती से अलग होऊँ। यह सिलसिला यूँ ही चलता रहा।

उसके बाद मेरी पत्नि का पहली बार माँ बनने का समय नज़दीक आ गया। लोगों ने मुझे डरा रखा था कि स्त्री के पहले प्रसव में ज़िन्दगी और मौत का सवाल होता है। मुझे अस्पताल के खर्चे के लिए २५०० रूपये की ज़रूरत थी और मेरे पास थे लगभग २५० रूपये। उस समय वेतन भी तन को पूरा न पड़ता था। कोई करीबी रिश्तेदार भी उस समय करीब नहीं था। न तो आँखें थीं न पैसा, और न ही कोई इन्सानी सहारा। हम सहमे से सोच रहे थे कि क्या करें? आदतन, मैं ऐसी परिस्थित्यों में यीशु से प्रार्थना कर लेता था और वैसा तब भी कर रहा था।

किसी ने हमारे पास इस घटना से कुछ दिन पहले पवित्रशास्त्र की एक प्रति-यूहन्ना रचित सूसमाचार, ब्रेल लिपि में भेजी। जब हम उसे पढ़ रहे थे तो उसमें एक पद आया “परमेश्वर ने जगत से ऐसा प्रेम किया कि उसने अपना इकलौता पुत्र दे दिया, ताकि जो कोई उस पर विश्वास करे, वह नाश न हो पर अनन्त जीवन पाए” (यूहन्ना ३:१६)। वैसे तो मैंने यह पद कई बार पढ़ा और सुना था, लेकिन उस समय यह पद मुझ से बातें करने लगा, और परमेश्वर मेरे अन्सुलझे सवालों का जवाब देने लगा। इलाज ऐसे हुआ, जैसे किसी बड़े अधिकारी की पत्नि का।

उस समय, जब मैं अपनी पत्नि के प्रसव के बारे में काफी चिंतित था, प्रभु ने हमारी फैकट्री के मालिक को जो काँग्रेस पार्टी का एम० एल० ए० था, के दिल को तैयार किया कि इस विषय में वो हमारी मदद करे। यद्यपि मालिक और नौकर का क्या सम्बन्ध होता है? तौभी उसने मुझे मुख्य चिकित्सा अधिकारी के नाम एक पत्र लिख कर दिया। जब मैं १ अगस्त १९८९ को अपनी पत्नि के साथ अस्पताल पहुँचा, मैं बहुत परेशान था और मन ही मन यह प्रार्थना कर रहा था कि प्रभु मेरी सहायता कर। शाम के समय संगति के कुछ भाई-बहन हमसे मिलने आए और उन्होंने प्रार्थना की। उसके बाद अस्पताल के अधिकारियों और कर्मचारियों का मेरे प्रति व्यवहार ही बदल गया और मेरी पत्नि का इलाज ऐसे हुआ, जैसे किसी बड़े अधिकारी की पत्नि का।

उस रात बारिश बहुत थी और मैं उस अस्पताल के आँगन में डरा सा अपने आप को अकेला महसूस कर रहा था। सब साथी जा चुके थे। पर प्रभु अब भी पास खड़ा बातें कर रहा था, और कह रहा था, देख मैं जीवित हूँ और तू मत डर। वह मेरे सामने साक्षात तो नहीं खड़ा था, लेकिन उसकी धीमी आवाज़ मेरे कानों में गूँज रही थी। और साथ ही मुझे बीते दिनों में सुने हुए सारे वो वचन याद आ रहे थे कि जब मूसा इस्राईलियों को मिस्र से छुड़ाकर लाया तो प्रभु ने उसे तीन चिन्ह दिये; जो उनके लिए इस बात का प्रमाण था कि परमेश्वर ने ही उस्र भेजा है। वे सारे चिन्ह अब मेरे सामने घट रहे थे, जो इस बात का सबूत था कि मेरा प्रभु जीवित है। मैंने १९७९ से १९८९ तक बाईबल को पढ़ा था और प्रार्थना भी करता था, लेकिन कभी यह एहसास नहीं किया था कि प्रभु यीशु जीवित है। लेकिन उस दिन मैं जान गया कि प्रभु जीवित है। यूहन्ना १७:३ में लिखा है कि प्रभु यीशु को जानना ही अनन्त जीवन है। उस दिन मैंने रो-रो कर प्रभु यीशु से अपने पापों की माफी माँगी और उसी समय से अपने आप को बहुत हलका महसूस किया। उसके बाद फिर कभी मुझे अकेलापन महसूस नहीं हुआ। उसी दिन प्रार्थना के बाद मुझे अपने आप में निश्चय मिला कि प्रभु ने मेरे पापों को माफ कर दिया है। मैं यह तो नहीं कह सकता कि प्रभु ने मुझे कोई वचन दिया, क्योंकि उस समय मेरे पास कोई बाईबल तो थी नहीं; लेकिन एक आवाज़ आई जिसने मुझे आश्वासन दिया कि, “जा पुत्र तेरे पाप क्षमा हुए।” उसके बाद रात १०:३५ पर परमेश्वर ने हमें एक बेटी का दान दिया। प्रभु का धन्यावाद हो कि मेरी बेटी का जन्म और मेरा नया जन्म एक ही दिन हुआ।

अगले दिन संगति के भाई-बहिनों को पता चला और वे लोग हमसे मिलने आए। उसी दिन अस्पताल के स्टाफ क्वार्टर्स में एक नर्स के यहाँ सुसामाचार की सभा रखी गयी। सभा में भाइयों ने मुझे कहा कि आप अपनी गवाही दो कि कैसे प्रभु यीशु ने आपके जीवन में काम किया। प्रभु का धन्यवाद हो कि उद्धार के अगले दिन ही प्रभु ने मुझे वहाँ पर गवाही का मौका दिया। मार्च २५, १९९० को मेरा बपतिस्मा हुआ जिसमें प्रभु ने मुझे जीवन भर की प्रतिज्ञा दी, “मैं तेरे कलश को माणिकों से और तेरे सब सिवानों को सुन्दर और मनोहर रत्नों से बनाऊँगा” (यशायाह ५४:१२)। उसके बाद प्रभु ने मेरी सेवकाई को अपने वचन के द्वारा मुझ पर प्रकट किया। अब मैं सहारनपुर में उसी फैकट्री में काम करता हूँ और जिस संगति में प्रभु मुझे उस दिन लाया था, उसी संगति के साथ रहकर प्रभु की सेवा करता हूँ।

एक बात और है जो मैं आपके साथ बाँटना चाहता हूँ। ऐसा नहीं है कि प्रभु यीशु में आने के बाद मेरी आँखें ठीक हो गईं या मुझे और बहुत सी संसारिक चीज़ें मिल गयीं। ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। समस्याएं तो आज भी मेरे साथ हैं, लेकिन उन समस्याओं में तसल्ली देने और मार्गदर्शन करने वाला मेरा प्रभु यीशु भी मेरे साथ है, जिसने वायदा किया है “मैं तुझे कभी न छोड़ूँगा, और न कभी त्यागूँगा” (इब्रानियों १३:५)।

आज मेरे पास एक आशा है कि यदि आज मौत आए या प्रभु यीशु आए तो मैं उसके साथ स्वर्ग में होऊँगा। अब मेरी पत्नि और दोनों बच्चे भी प्रभु में हैं। यह सब उसकी दया और अनुग्रह से सम्भव हुआ, न कि मेरे किसी अच्छे कामों के कारण। क्योंकि प्रभु यीशु ने मेरे पापों से मुझे छुटकारा दिया है। इसके लिए उसने मेरे और आपके पापों के लिए क्रूस पर अपनी जान दी और फिर मर कर तीसरे दिन जीवित हुआ। इसी जीवित परमेश्वर ने मुझे एक जीवित आशा और एक अद्भुत शांति दी है।

प्रिय पाठक, क्या आज आपके पास कोई आशा है कि मौत के बाद आपका क्या होगा? क्योंकि परमेश्वर का जीवित वचन कहता है, “क्योंकि पाप की मज़दूरी तो मृत्यु है, परन्तु परमेश्वर का वरदान प्रभु यीशु में अनन्त जीवन है” (रोमियों ६:२३)। आज ही प्रभु यीशु के पास आकर प्रार्थना करें कि हे प्रभु यीशु मैं आप पर विश्वास करता हूँ, इसलिए मुझ पापी पर दया करें और मेरे पापों को कलवरी क्रूस पर बहे हुए अपने लहु से धोकर क्षमा कर दें।

सम्पर्क दिसंबर २००६: उसकी बात

सारे संसार में एक इक्लौती और बड़ी अजीब पुस्तक है जिसको लिखने में सोलह सौ साल लगे। पच्पन से ज़्यादा समर्पित संत, परमेश्वर के शब्दों को सुनते, और मेरे और आपके लिए उनको इस पुस्तक में लिख देते थे। एक संत ने लिखा, कि यह बात मैं सुनता तो था, परन्तु कुछ न समझा। तब मैंने कहा, हे मेरे प्रभु, इन बातों का अन्त फल क्या होगा? उसने कहा, “हे दान्नियेल, चला जा (दान्नियेल ८:१२)।” “क्योंकि मैं तुमसे कहता हूँ, कि बहुत से भविश्यद्वक्ताओं और राजाओं ने चाहा, कि जो बातें तुम देखते हो देखें, पर न देखीं; और जो बातें तुम सुनते हो सुनें, पर न सुनीं (लूका १०:२४)।” पर मैं और आप इतने धन्य हैं कि इस पुस्तक ने हमें आदि से अन्त तक की बातें समझा दीं।

अजीब बात
परमेश्वर का वचन आज, कल और युगानुयुग एक सा है - सत्य तो ऐसा ही होता है। आज से पाँच हज़ार वर्ष पूर्व जब गणित का जन्म हुआ होगा, तब दो और दो चार होते थे। ज्ञान ने, विज्ञान ने लगभग सब कुछ ही बदल डाला, मनुष्य चाँद को भी पार कर सितारों तक जा पहुँचा, पर आज भी दो और दो को सवा चार नहीं कर पाया, और न कभी कर पाएगा। क्योंकि यह गणित का सत्य है। परमेश्वर का वचन अनन्त सत्य है, इसलिए यह आज, कल और युगानुयुग एक सा है। जो यह वचन कह रहा है, बस वैसा ही था, वैसा ही है और वैसा ही होगा।

जीवित बात
ज़रा और सुनिए, यह वचन सत्य ही नहीं, जीवित भी है। कहीं किसी भाई ने युँ कहा, “आदम मिट्टी का प्राणी था, और वह मिट्टी ही रहता, पर प्रभु ने उसमें जीवन की आत्मा फूँककर उसे जीवित बना दिया।” यह ऐसी जीवित पुस्तक ऐसी अदभुत है, कि जब भी मैं इसे पढ़ता हूँ, तो यह भी मेरे छिपे हुए जीवन को पढ़ना शुरू कर देती है। सच मानिए, यह आईने की तरह किसी का कोई लिहाज़ नहीं करती; जो जैसा है, उसे वैसा ही दिखाती है और वैसा ही उसके सामने रख भी देती है। आईने की तो अपनी कुछ सीमाएं हैं - वह केवल बाहरी स्वरूप दिखा पाता है, भीतरी नहीं। अगर आईने के सामने नारियल रख दिया जाए, तो वह उसकी बाहरी कठोरता को ही दिखा पाएगा, पर उस नारियल के अन्दर की मुलायम परत और मीठे जल को कभी नहीं दिखा पाएगा। पर परमेश्वर का वचन तो अन्दर की गहरी छिपी बातों को, भूले बिसरे कामों को, पाप के विचारों को, हर एक छिपी हालत को भी सामने लाकर रख देता है।

मन की बात
यह वचन न केवल अन्दर की बात प्रकट करता है, परन्तु उसके अनुसार व्यवहार भी करता है। बुराई के लिए मुझे डाँटता है, जब निराश और हारा हुआ होता हूँ तो प्यार से पुचकार कर हियाव देता है; कहता है, “मत डर, मैं हूँ, मैं तुझे कभी नहीं त्यागुँगा, कभी नहीं छोड़ूँगा।” मेरे प्रतिदिन के जीवन में मेरा मार्ग दर्शक बनता है, “तेरा वचन मेरे पाँव के लिए दीपक और मेरे पथ के लिए उजियाला है (भजन ११९:१०५)।” जब मैं भटक कर दूर निकाल जाता हूँ, तब यह मुझे लौटा कर राह पर भी ले आता है। ये जीवन से भरा वचन, मुझमें जीवन की भरपूरी ले आता है “तुम जीवन पाओ और बहुतायत का जीवन पाओ (यूहन्ना १०:१०)।”

कुशल की बात
ये वचन ऐसा ज़बर्दस्त है, फिर भी किसी से ज़बर्दस्ती नहीं करता। ये ना मौका देने में कभी कमी करता है और ना कभी दया करने में कोई कमी रखता है। “और नहीं चाहता कि कोई नाश हो, वरन यह कि सब को मन फिराने का अवसर मिले (२ पतरस ३:९)।” “...क्या ही भला होता कि तू ही, हाँ तू ही इस दिन कुशल की बात जानता...”। “...क्योंकि तूने वह अवसर जब तुझ पर कृपादृष्टि की गयी न पहचाना” (लूका १९:४४)। इसे कितने विश्वासी पढ़ते और सुनते तो हैं, पर लापरवाही से। अपनी शक्ल आईने में देखी और बिना संवरे, जैसे आए थे, वैसे ही चले गये (याकूब ३:२३)।

ध्यान की बात
“जो वचन पर मन लगाता है, वह कलयाण पाता है... (नीतिवचन १६:२०)।” एक पुरानी घटना को नये शब्दों के साथ सुनिए। एक पुराने विश्वासी, सभा के बाद मिले; बड़े उत्साहित थे। कहने लगे, “अरे भाई, आप तो देहरादून में भी रहे हैं। देहरादून का नाम लेते ही बासमती चावल याद आ जाता है, क्या बात है, घर पर बनाईये और मोहल्ला महकाईये। भाई वहाँ बासमती का क्या भाव चल रहा है?” मैंने कहा, “यहाँ का भाव तो मालुम नहीं, वहाँ का क्या बताऊँ।” मैं अपना वाक्य पूरा कर भी नहीं पाया था कि वह बोले, “क्या ज़माना था, क्या लीची होती थी। साहब देहरादून की काग़ज़ी लीची की क्या बात थी, मूँह में डालो, और गुठली ढूँढते रह जाओ। सन ७० में दो रुपए किलो मिलती थी। क्या बताएं साहब, वो दिन हवा हो गये, पाँच रुपए देहरादून का किराया था। दस का नोट सुबह तुड़वाओ, शाम तक खर्च होने में नहीं आता था।” मैंने पीछा छुड़ाने के लिए बात बदलते हुए पूछा, “भाई, पिछले हफ्ते मंडली में क्या वचन दिया गया था?” वो जनाब कुछ झेंपते हुए मुस्करा कर बोले, “भाई बूढ़ा हो गया हूँ, याद्दाश्त भी बूढ़ी और कमज़ोर हो गयी है; ध्यान नहीं आ रहा भाई।” मुझे ताज्जुब हुआ, छत्तीस साल पहले की चीज़ों के भाव तो याद रहे, पर छत्तीस घंटे पहले का वचन याद नहीं! याद रहता भी कैसे, ध्यान तो कहीं और लगा था। सच तो यह है कि हम प्रभु के वचन पर ध्यान नहीं धरते; ध्यान तो सँसार में ही धरा रहता है। ध्यान लगाने से ही ध्यान रहता है। इसे ही कहते हैं परमेश्वर के वचन की जुगाली करना, मनन करना। जब मनन करते हैं तो परमेश्वर की सामर्थ मेरे और आपके आत्मिक जीवन को बलवन्त करती है। तभी हम परिस्थित्यों का सामना कर पाते हैं।

क्या बात
विश्वासी के उस विश्वास पर जो उसका परमेश्वर के वचन पर होता है, शैतान सीधा वार करता है, ताकि हम परमेश्वर के वचन पर शक करने लगें। एक साधरण सा विश्वासी किसी पार्क में बैठा परमेश्वर का वचन पढ़ रहा था। वह इतना मस्त और मग्न था कि वचन पढ़ते पढ़ते चिल्लाकर बोल उठा “हाल्लेलुयाह! वाह परमेश्वर आपकी क्या बात है।” पास बैठे एक नास्तिक ने पूछा, “क्यों मियाँ, क्या बात हो गयी?” विश्वासी बोला, “देखो परमेश्वर की क्या बात है, न नाव थी न जहाज़; लेकिन सारे इस्राइलियों को पैदल ही लाल समुद्र पार करा दिया।” नास्तिक ने बड़े प्यार से विश्वासी के कंधे पर हाथ रखा और मुस्कुराकर कहा, “ मैं तुम्हारे विश्वास पर चोट नहीं पहुँचाना चाहता। पर सच तो यह है कि उस समय लाल समुद्र में आठ इन्च ही पानी था, इसिलिए न तो जहाज़ चलते थे न नाव, पैदल ही पार करना था।” विश्वासी बहुत भोला था, उसकी तरफ देखकर कहा, ‘अच्छा!’ और फिर परमेश्वर का वचन पढ़ने लग गया। अभी चंद पल ही बीते थे कि विश्वासी फिर चिल्लाया, ‘हल्लेलुयाह, क्या बात है परमेश्वर की।’ नास्तिक फिर चौंका, और विश्वासी से पूछा, ‘अबे अब क्या हो गया?’ विश्वासी ने कहा, ‘देखो, परमेश्वर की क्या बात है। आठ इंच पानी में उसने मिस्रियों की सारी सेना को डूबा मारा।’ अब नास्तिक निरुत्तर था।

परमेश्वर के वचन पर शक पैदा करने के लिए कई नास्तिक कई तर्क देते हैं, जैसे:- वचन बताता है कि दानिय्येल जब शेरों की मांद में डाला गया, तो परमेश्वर ने शेरों के मूँह बन्द कर दिये और वे उसे नहीं खा सके। नास्तिक तर्क देते हैं कि ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि शेरों के पेट भरे थे। पर कोई इन नास्तिकों से पूछे, कि जब दान्निय्येल के शत्रुओं को उन्ही शेरों की उसी मांद में डाला गया तो शेर उन्हें क्यों चट कर गये? ये सब तर्क, मात्र परमेश्वर के वचन पर शक पैदा करने के लिए ही दिये जाते हैं।

परमेश्वर ने सब नामों से बढ़कर यीशु के नाम को किया है (फिल्लिप्यों २:९), लेकिन एक और है जिसे उसने अपने इस नाम से भी ज़्यादा महत्त्व दिया है - “क्योंकि उसने अपने वचन को अपने बड़े नाम से अधिक महत्त्व दिया है” (भजन १३८:२)। अधिकांश विश्वासी पस्रमेश्वर के उस वचन को महत्त्व नहीं देते जिसे परमेश्वर अपने बड़े नाम से भी अधिक महत्त्व देता है। इसलिए बाईबल अध्ययन सभाओं में कुछ ही विश्वासी दिखाई देते हैं।

मेरी बात
ध्यान रहे, अच्छे स्कूल आपके बच्चों को कभी अच्छा नहीं बना पाएंगे। अच्छी संगति ही इन्सान को अच्छा बनाती है। हम अक्सर कुछ बहानों के चलते अपने बच्चों को बाईबल अध्ययन सभाओं में नहीं लाते - जैसे: ठंड लग जाएगी, गर्मी बहुत है, होम्वर्क बहुत है और मुशकिलें बहुत हैं। विश्वासी नहीं समझता कि वह कितनी नासमझी का काम कर रहा है। जब बच्चे बड़े हो जाते हैं और वचन का नहीं पर दुनिया का अनुसरण करने लगते हैं, बात उनके हाथ से निकल चुकी होती है। तब बच्चों के लिए रोना और पछताना ही रह जाता है। परमेश्वर का वचन कहता है, जो बोया था, वही अब काटोगे (गलतियों ५:७)। जो प्रभु के वचन को आदर देता है, परमेश्वर उसको और उसके परिवार को आदर देता है। आज के थोड़े से दुख: और थोड़ी सी परेशानी कल के लिए बड़ी आशीशें बटोरने का एक मौका है।

आख़िरी बात
अब यह बात आप पर है, कि इस सत्य को स्वीकारें या ठुकराएं। पर सच्चाई तो यही है, इसे झुठलाया नहीं जा सकता। अब परमेश्वर के जीवित वचन को अपने जीवन में उसका उचित स्थान देने का फैसला आपके हाथ है - इन्हीं हाथों को उठाकर, एक प्रार्थना एक निर्णय के साथ अभी यहीं कर लें।

रविवार, 26 अप्रैल 2009

सम्पर्क दिसंबर २००६: ऐसा प्यार, जिसने ऐसे-ऐसे पापों को ढाँप दिया


बेटा अपना सब कुछ लुटाकर, हर एक बुराई से और हर पाप की गन्दगी से भरा हुआ बाप के घर लौटा। वह जितना कुछ बुरा कर सकता था, उसने सब किया। लेकिन लौटते में उसने उन सब बुराइयों के लिए पश्चाताप भी किया। बाप के सन्मुख आने पर, पश्चाताप की प्रार्थना, उसके मन से होंठों तक भी नहीं पहुँच पायी थी कि बाप ने उसे सीने से लगाकर उन होंठों को चूम लिया। यह वही होंठ थे जो वैश्याओं को चूमते थे। अगर इस कहानी में, सीने से लगाने की बजाए, वह बाप उस बेटे को दो लात लगाता, और कहता कि, ‘अब यहाँ क्या लेने आया है, जा उन्हीं वैश्याओं के पास’ तो मुझे ज़रा भी आश्चर्य नहीं होता; बल्कि मेरा मत होता कि बाप ने बिलकुल ठीक किया। ऐसों के साथ ऐसा ही होना चाहिए, वह इसी लायक है। उसे बचपन से ही यह बताया-सिखाया गया था कि यह सब बातें पाप हैं, परन्तु आदमी का स्वभाव है कि जिस काम को मना करो, वही करने को वह उतावला हो जाता है।

एक कहानी है जो जीवन की एक छिपी हुई सच्चाई हमारे सामने लाती है। एक छोटा गलियारा था, हज़ारों लोग एक सड़क से दूसरी सड़क तक पहुँचने के लिए उस गलियारे का उपयोग करते थे। गलियारे के दोनों तरफ सालों से बन्द पड़े पुराने घरों के पिछवाड़े की कई खिड़कियां खुलती थीं। एक दिन किसी मसख़रे ने, मज़ा लेने के लिए, कुछ खिड़कियों पर कागज़ चिपकाए, जिन पर लिखा था, “कृपया इधर मत झांकें।” फिर क्या था, पहले कभी कोई जिन घरों की तरफ मुड़ कर भी नहीं देखता था, अब उन्ही घरों में झांकने का प्रयास किए बिना शायद ही कोई वह गलियारा पार करता था। आदमी को जो कुछ मना करो, वही करने में उसे मज़ा आता है। हव्वा को मना किया कि इस फल को मत खाना; बस वहीं से बेचैनी शुरू हो गयी कि उसे वह फल क्यों खाने नहीं दिया गया?

उस उड़ाऊ बेटे को जो कुछ मना किया गया, वही करने में उसने मज़ा लिया। वह अपने सीने में कितने ही गन्दे और शर्मनाक अरमान छुपाए रखता था। वासना ने उसे ऐसा अंधा कर दिया था कि उसे भले और बुरे का फर्क भी नहीं दिखता था। किंतु जब वह पाप कर रहा था, तब भी बाप का प्यार उसका पीछा कर रहा था। यह कहानी मुझे अपने बारे में सोचने पर मजबूर करती है। यह मेरे और आपके जीवन के छिपे हुए काले कारनामों की याद दिलाती है, जो दुनिया से छिपे हो सकते हैं, परमेश्वर से नहीं।

मैंने एक कहानी पढ़ी थी। कहानी तो कुछ खास नहीं थी पर जो बात उस कहानी ने सिखाई, वह बहुत खास थी। एक गुरू के चार चेले थे। गुरू को उन चेलों की आखिरी परीक्षा लेनी थी। गुरू ने चारों चेलों के हाथों में एक-एक कबूतर थमाया, और कहा, “इनको वहाँ मारना जहाँ कोई देख न रहा हो।” वे चेले कबूतरों को लेकर चले गये और शाम ढलने तक तीन चेले मरे हुए कबूतरों के साथ लौट भी आये। लेकिन चौथा चेला कई दिन के बाद थका-हारा और निराश, अपने हाथ में ज़िन्दा कबूतर लिये हुए लौटा, और अपने गुरू से कहा “मैं हार गया। जब मैं इसे एकाँत में मारने को तैयार हुआ, तो देखा कि यह स्वयं मुझे देख रहा है। आपने कहा था कि इसे वहाँ मारना जहाँ कोई न देख रहा हो। तब सोचा कि इस कबूतर की आँखें किसी कपड़े से ढाँप कर इसकी गर्दन मरोड़ दूँ। जैसे ही ऐसा करने लगा, तो ध्यान आया कि अभी मैं स्वयं इसे देख रहा हूँ। फिर सोचा कि अपनी भी आँखें बन्द करके इसकी गर्दन मरोड़ दूँ, तो ध्यान आया कि परमेश्वर मुझे देख रहा है। बस, तब से मैं ऐसी जगह ढूंढ रहा हूँ जहाँ परमेश्वर न देख रहा हो, पर मैं हार गया। मुझे ऐसी कोई जगह नहीं मिली जहाँ कोई देख न रहा हो; हर जगह यदि और कोई नहीं तो परमेश्वर तो देख ही रहा होता है!” सच मानिए आपके जीवन में कोई ऐसी जगह नहीं है जिसे परमेश्वर ने न देखा हो। शायद हम सोचते भी नहीं कि मेरी और आपकी हर एक बात उसके सामने खुली है “...उसकी आँखों के सामने सब वस्तुएं खुली और बेपरदा हैं” (इब्रानियों ४:१३)।

हम बहुत दबाव में जीते हैं। शाम को वही कर जाते हैं जिसके लिए सुबह पश्चाताप किया था। शैतान बहुत सामर्थी है और संसार बहुत आकर्शक है। कमज़ोर शरीर, संसार और शैतान का सामना नहीं कर पाता। संसार को ‘माया’ अर्थात धोखा देने वाला कहा गया है। लगता है जैसे सब कुछ इसी में है, अगर इसे पा लिया, तो सब कुछ पा लिया। पर सच्चाई तो यह है कि इसे पाकर सब कुछ खो जाता है, चैन चला जाता है, खुशियाँ धुंधला जाती हैं।

शैतान हमें यह एहसास दिलाने के प्रयास में रहता है कि तू परमेश्वर के लायक नहीं है, तू क्षमा के लायक नहीं है। वह हमेशा हमारे अन्दर प्रभु की क्षमा पर शक पैदा करता है। पर प्रभु की क्षमा हमारे सोचने और समझने से कहीं बढ़कर है। यह बात सच है कि मुझे अपने उपर कतई भरोसा नहीं है। अगर भरोसा है तो प्रभु की क्षमा पर, उसके प्यार पर; जिसने मुझ से कहा “मैं तुझे कभी नहीं छोड़ूँगा और कभी नहीं त्यागूँगा” (ईब्रानियों १३:५)। आपको मालूम है प्रभु मुझ जैसे आदमी को क्यूँ माफ कर देता है? क्योंकि वह मुझ से प्रेम करता है “...परन्तु प्रेम से सब अपराध ढंप जाते हैं” (नीतिवचन १०:१२)। उसने मुझ से ऐसा प्रेम किया, इसलिए उसने क्षमा की मेरी एक प्रार्थना के उत्तर में, मेरे ऐसे-ऐसे पापों को भी ढांप दिया।

प्रभु की क्षमा जो इन्सान की सारी समझ से बाहर है, वह आज भी मेरे और आपके लिए वैसी ही है। बस इतना हो कि मैं और आप फिर क्षमा मांगने को तैयार हों। प्रभु ने नीतिवचन २४:१६ में हमारे लिए एक बड़ी धन्य आशा रखी है - “धर्मी चाहे सात बार गिरे तौभी उठ खड़ा होता है।” इस बात को कहीं किसी ने यूँ भी कहा है, और लगता है जैसे मेरे बारे में ही कहा है - ‘गिर पड़े, गिर कर उठे, उठकर चले; कुछ इस तरह तय की हैं मंज़िलें हमने’|

जब से यह सम्पर्क आपके हाथ में है, तब से परमेश्वर की आँख आप पर लगी है। कहीं परमेश्वर आपको आपके जीवन की छिपी हुई काली कहानी तो नहीं सुना रहा? परमेश्वर यह सब आपको दोष देने के लिए नहीं, पर क्षमा करने के लिए समझा रहा है। वह एक नया मौका इस नये साल के साथ आपके पास ला रहा है। अब उसकी क्षमा और उसके प्रेम पर विश्वास कर, पश्चाताप और समर्पण के साथ उसके पास आना, और उससे पापों कि क्षमा तथा नये जीवन का अनुभव लेना आपके हाथ में है।

शनिवार, 25 अप्रैल 2009

सम्पर्क दिसंबर २००६: सम्पादकीय



सम्पर्क के माध्यम से आपसे सम्पर्क हो पाना सालों से संभव नहीं हो पा रहा था। पर संतों की प्रार्थनाओं के उत्तर में आज फिर आपसे यह सम्पर्क संभव हो पाया है। प्रभु की दया से सम्पर्क तो प्रभु की सेवा में समर्पित है, पर आप इसे अपनी प्रार्थनों से विस्तार दे सकते हैं।

“... हम अपने वर्ष शब्दों की नाई बिताते हैं।” (भजन ९०:९) साल शब्दों की तरह मूँह से निकले और चले गये। यह साल, लगभग १२ महीने पहिले, नया साल था; बाकी बचे और कुछ दिनों के बाद यह साल फिर पुराना हो जाएगा। फिर इस पुराने साल को भी हम हमेशा के लिए इतिहास के पन्नों में दफन कर देंगे। क्योंकि लिखा है कि “... जो वस्तु पुरानी और जीर्ण हो जाती है उसका मिट जाना अनिवार्य है” (इब्रानियों ८:१३)। बाईबल कहती है कि नये का पुराने से क्या मेल। संसार भी अब पुराना हो गया है, इसका मिटना अनिवार्य है। पर “... प्रभु के वर्षों का कोई अन्त नहीं” (भजन १०२:२७ )। जिनमें नया जीवन, अर्थात प्रभु का जीवन है, उनके जीवन का भी कोई अन्त नहीं।

यदि हमारे जीवन के उद्देश्य नहीं बदले तो वास्तव में हम में पूरी तरह बदलाव नहीं आया। बहुत सारे विश्वासी, मसीह के लिए शहीद होकर मरना तो चाहते हैं, पर मसीह के लिए जीना उनको कहीं मुश्किल लगता है। सन्तों को दो श्रेणी में रखा जा सकता है - सांसारिक स्वभाव के सन्त और स्वर्गिय स्वभाव के सन्त। स्वर्गिय स्वभाव के सन्तों में यह इच्छा रहती है कि वे अपने परमेश्वर की इच्छा को कैसे पूरा करें। सांसारिक स्वभाव के सन्त इस प्रयास में रहते हैं कि कैसे परमेश्वर उनकी इच्छा पूरी करे! वे परमेश्वर से चाहते हैं, परमेश्वर को नहीं। कितनों ने मसीह को अपने मन में एक ऐसे देवता के रूप में ढाल लिया है जो उनकी स्वाथर्मय और शारिरिक अभिलाशाओं को पूरा करता रहे।

ज़बान से कहीं ज़्यादा जीवन बोलता है। उद्धाहरण्स्वरूप - मेरे सिर का अस्सी प्रतिशत भूभाग बंजर है और बीस प्रतिशत बाल ही सिर की सीमाओं पर बचे हैं। अगर मैं बहुत से ऊँचे वैज्ञानिक तर्कों और प्रभावशाली शब्दों के साथ आपको एक तेल बेचने का प्रयास करूँ और कहूँ कि मात्र पैंतालिस दिनों में यह तेल किसी भी टकले के सिर पर बालों की बहार लौटा सकता है, तो आप मुझे बताईये, कितने ऐसे लोग होंगे जो मुझसे यह तेल ख़रीदने को तैयार होंगे? क्या यह सच नहीं कि ज़ुबान से ज़्यादा जीवन प्रभाव डालता है।  

जब प्रभु यीशु मसीह इस पृथ्वी पर आया तो उसने दावा किया कि वह परमेश्वर का इकलौता पुत्र है। इस दावे को साबित करने के लिए क्या प्रभु यीशु के पास परमेश्वर का दिया हुआ कोई प्रमाण्पत्र था, जिसे देखकर लोग विश्वास करते? उसके पास ऐसा कोई प्रमाण्पत्र तो नहीं था परन्तु उसका प्रेम, दया, क्षमा और उसकी जीवन शैली ही उसके प्रमाण्पत्र थे (यूहन्ना ५:३६)। जब रोमी गवर्नर पिलातुस ने यीशु और बरअब्बा को आमने सामने खड़ा किया और लोगों से पूछा, “तुम किसे चाहते हो?” तो उस समय प्रभु यीशु को एक भी वोट नहीं मिला। पर आज एक अरब से ज़्यादा लोग (भले ही कैसे क्यों न हों) उसके अनुयायी हैं। उसका जीवन ही लोगों में परिवर्तन लाता है। बहुत से लोग धर्मों से उकता गये हैं। अब वे किसी नये परमेश्वर की खोज में लगे हैं। इसीलिए नये नये संप्रदाय और नये नये गुरू जन्म ले रहे हैं। पर सच्चा गुरू अपनी सेवा नहीं करवाता, दूसरों की सेवा करता है (मरकुस १०:४५)। सच्चा गुरू अपने शिष्यों से पैर नहीं धुलवाता, बल्कि उनके पैर धो देता है (यूहन्ना १३:५)। इसीलिए आज के अधिकांश आधुनिक गुरूओं में से गुरू कम और गुरूघंटाल ज़्यादा हैं।

मेरा और आपका प्रचार लोगों को प्रभावित कर सकता है, परिवर्तित नहीं। लोगों का जीवन तभी परिवर्तित होगा, जब मेरे और आपके पास एक बदला हुआ जीवन होगा। श्ब्दों से कहीं ज़्यादा एक इमान्दार जीवन प्रभाव डालता है। एक सुसमाचार सभा में प्रभु यीशु को ग्रहण करने के बाद एक व्यक्ति अपने पड़ोसी के पास पहुँचा। जेब से एक घड़ी निकाल कर अपने पड़ोसी से पूछा, “क्या इस घड़ी को पहिचानते हो?” पड़ोसी बोला, “अरे यार ये तो मेरी वही घड़ी है जो तीन साल पहिले कहीं खो गयी थी।” व्यक्ति ने जवाब दिया, “मियां यह घड़ी खोयी-वोयी नहीं थी; यह घड़ी चोरी की गयी थी। तुम्हें मालुम है वह चोर कौन था?” वह चोर मैं था।” शब्दों से बढ़कर बदला हुआ जीवन बोलता है। यही प्रमाण्पत्र है मेरे और आपके बदले हुए जीवन का।

कहाँ गिरा, कैसे गिरा

वह आदमी जैसे तैसे अपने दुश्मन के हाथ से तो बच निकला, लेकिन तब तक अंधेरा काफी गहरा चुका था। सर्द हवाओं ने सर्दी को सहने के बाहर कर दिया था। वह आदमी सोच रहा था - बस, अब और आगे चल नहीं पाऊँगा; यदि यहीं ठहर गया तो जीवित नहीं बच पाऊँगा! गहराए हुए अंधेरे में एक बार फिर आखिरी उम्मीद से चारों तरफ देखा... अचानक दूर एक छोटे से दिये की रौशनी दिखाई दी, और उसकी उम्मीद फिर जाग उठी। उसने फिर हिम्मत बांधी और थके हुए पैरों के साथ उस ओर चल पड़ा। वहाँ तक पहुँचते पहुँचते वह इतना थक चुका था कि अब उसमें खड़े रहने की भी ताकत नहीं रह गयी थी। दीये की धीमी रौशनी झोंपड़ी की टूटी दीवार की दरार से बाहर आ रही थी। दीवार का सहारा लेकर उसने उसी दरार से अंदर झांका तो देखा कि एक व्यक्ति पुरानी सी रज़ाई में लिपटा बेसुध सा सो रहा था। उसने काफी आवाज़ दी, चिल्लाया उस व्यक्ति को उठाने के लिए, लेकिन वह नहीं जागा। मरता क्या न करता, वह झोंपड़ी में घुस गया। वहां एक ही चारपाई थी और एक ही रज़ाई; और यह व्यक्ति भी उस बेसुध सो रहे व्यक्ति के साथ उसी रज़ाई में घुस कर सो गया। सुबह जब उसकी आँख खुली और उसने उसकी ओर देखा जिसके साथ वह रात भर सोया था, तो उसकी आँख खुली कि खुली रह गयी; काटो तो खून नहीं... ओ हो, ये क्या हो गया! जिसके साथ वह सारी रात सोया रहा, वह चेचक के दानों से भरी एक लाश थी। वह आदमी शत्रु के हाथ से तो बच निकला पर अन्तत: खुद ही कहाँ जा गिरा! कितने ही ऐसे हैं जो शत्रु-शैतान के हाथ से तो बच निकले, पर अब इस अन्त समय में कहाँ आ गिरे हैं। “इस कारण वह कहता है, हे सोने वाले जाग और मुर्दों में से जी उठ तो मसीह की ज्योति तुझ पर चमकेगी (इफिसियों ५:१४)।”

किसने हमें रोक दिया, कौन सी ऐसी बात है जिसने हमारे बढ़ते और फलते जीवन को रोक दिया “तुम तो भली-भांति दौड़ रहे थे...” (गलतियों ५:७)। प्रकाशितवाक्य में पवित्रआत्मा अपने अंतिम सन्देश में उन विशवासियों से कहता है जो मन फिराने का सन्देश देते हैं कि अब तुम्हें पहले खुद मन फिराने की आवश्यकता है। 

कहीं ऐसा तो नहीं कि नया जीवन पाए लोग किसी पुराने पाप से बंधे खड़े हों? रोमन लोग बड़ी भयानक सज़ाओं का उपयोग करते थे। उनमें से एक सज़ा थी कि वह किसी ज़िन्दा अपराधी के साथ एक लाश ऐसे बांध देते थे कि उसके हाथ के साथ हाथ, पैर के साथ पैर, पेट के साथ पेट और गर्दन के साथ गर्दन। इस तरह लाश के साथ बंधी दशा में वह अपराधी छोड़ दिया जाता था। धीरे-धीरे जब लाश सड़ना शुरू होती थी तो वह ज़िंदा अपराधी भी उसके साथ सड़ना शुरू हो जाता था। यह एक दहशत्नाक और भयानक मौत होती थी। अगर किसी जीवित विश्वासी के साथ ऐसे मरे हुए काम बंधे हैं तो उसके जीवन की क्या दुर्दशा होगी? कुछ लोग ऐसे तो नहीं जिन्हें आप मन से माफ न कर पा रहे हों? जीवित जीवन के साथ कोई और छिपा हुआ पाप, व्यभिचार या कोई और मरा हुआ काम, बंधा तो नहीं है? सारी सृष्टि का सबसे बुरा वक्त चल रहा है। परन्तु परमेश्वर ने इस बुरे वक्त में मुझे और आप को सबसे अच्छा मौका दिया है कि हम ऐसे मरे हुए कामों से मन फिरा लें। “... हे मेरे लोगों उसमें से निकाल आओ कि तुम उसके पाप में भागी ना हो, और उसकी विपत्तियों में से कोई तुम पर ना आ पड़े” (प्रकाशितवाक्य १८:४)।

रोमी गवर्नर पीलतुस ने पूरी कोशिश की, कि प्रभु यीशु मसीह को छोड़ दिया जाए, क्योंकि वह उसको छोड़ देना चाहता था। उसने उसको छुड़ाने की एक युक्ति की। पर महयाजकों ने प्रभु यीशु को क्रूस पर चढ़ाने के लिए लोगों को उकसाया। उन्हें मालूम था कि गवर्नर पीलतुस भीड़ का दबाव नहीं झेल पाएगा। पीलतुस जानता था कि प्रभु यीशु को इन धर्म्गुरूओं ने जलन और बदला लेने के भाव से पकड़वाया है (मर्कुस १५:१०)। इस समय पीलतुस ने बड़ी समझदारी से इस समस्या का समाधान खोजा। यह उसके राजनैतिक अनुभव और तेज़ बुद्धी का कौशल था। उसने इस मौके पर यीशु मसीह और एक हत्यारे - बरअब्बा, दोनों को लोगों के सामने खड़ा किया और इस्रालियों से कहा कि इन में से एक को चुन लो। वह जानता था कि बरअब्बा जैसे अपराधी को इस्राएल में फिर से खुला छोड़ देना, न केवल इस्राएलियों के लिये खतरनाक था, बल्कि उनके लिए शर्मनाक बात थी। उसने उन से कहा, तुम्हारे इस राष्ट्रीय पर्व पर तुम्हारी प्रथा है कि किसी एक अपराधी को जिसे तुम चाहते हो, छोड़ दिया जाए। तो अब इन दोनो में से एक को चुन लो। पर वहाँ एक भी इस्राएली में इतनी हिम्मत नहीं थी कि वे उन धर्मगुरूओं की इच्छा के विरुद्ध प्रभु यीशु के पक्ष में बोलते। लोगों ने बरअब्बा को ही चुना (आदमी की अचूक से अचूक योजनाएं भी परमेश्वर की योजनाओं के सामने चूक जातीं हैं)। बरअब्बा का अर्थ है अपने बाप का बेटा ( बर=बेटा, अब्बा=पिता)। अजीब नाम है - अपने बाप का बेटा; हर कोई अपने बाप का बेट होता है! प्रभु यीशु ने यूहन्ना ८:४४ में कहा, “तुम अपने पिता शैतान से हो, तुम्हारा पिता शैतान है।” दूसरे अर्थों में, बरअब्बा का अर्थ हुआ शैतान का बेटा। एक तरफ परमेश्वर का बेटा था और दूसरी तरफ शैतान का, दोनों में से उन्हें एक को चुनना था, अन्ततः उन्होंने शैतान के बेटे को ही चुन लिया। आज भी हमारे सामने दोनों खड़े हो जाते हैं। परमेश्वर का पुत्र, परमेश्वर की इच्छा को लेकर खड़ा हो जाता है; शैतान का पुत्र, शैतान की इच्छा को लेकर खड़ा हो जाता है। अब फैसला हमारे हाथ है कि हम किसे चुनें और किसे ठुकराएं!

जो गया, सो गया; फिर न लौटा

यहूदा इस्किरोती ने सोचा, यह पैसा कमाने का मौका है। फरीसियों ने सोचा, यह बदला लेने का मौका है। चेलों ने सोचा, दांए-बांए बैठकर मन्त्री बनने का मौका है। एक डाकु ने सोचा, ये ही नरक से बच निकलने का मौका है। मौका हमेशा नहीं रहता, मौका हमेशा नहीं मिलता। मेरे और आपके लिए कुछ कर लेने का यही एक मौका है। हम अपनी लापरवाही से बहुत से मौके पहले गवाँ चुके हैं, कहीं यह हमारा आखिरी मौका न हो। कहीं यह साल भी हमारा आखिरी साल न हो।

शेष फिर

बुधवार, 22 अप्रैल 2009

संपर्क दिसम्बर २००८: अजीब सी बात


आपको बड़ी अजीब सी बात बताता हूँ। एक बुढ़िया थी जो बचपन में ही मर गई। दिमाग़ इस बात को स्वीकारता नहीं। जी हाँ, बुढ़िया मरी हुई दशा में पैदा हुई, मरी हुई दशा में जीवन जीया और मरी हुई दशा में मरकर हमेशा की मौत में चली गयी। जो पाप की दशा में हैं वो मृत्यु की दशा में हैं। वे जीवित कहलाते तो हैं पर वास्तव में हैं मरे हुए। दाऊद कहता है, “मैंने पाप की दशा में स्वरूप धारण किया”(भजन ५१:५)। वास्तविक जीवन तो नये जीवन से ही शुरू होता है। जैसे ही पाप क्षमा होते हैं हम वास्तविक जीवन पाते हैं।

अजीब सी बात है, मुँह से पेट में डालते समय सोचते हैं - साफ है? सही है? कहीं सड़न तो नही? पर मन में गन्दे विचार, विरोध बिना सोचे समझे डालते रहते हैं जैसे कि मन नहीं कोई कचरे का डिब्बा हो! “सबसे अधिक अपने मन की रक्षा कर” (नीतिवचन ४:२३)।

अजीब सी बात है, सूप (छाज) और छलनी में अन्तर है। सूप व्यर्थ(थोथी) वस्तुओं को बाहर कर देता है और अच्छी वस्तुओं को रख लेता है। छलनी व्यर्थ वस्तुओं को अपने अन्दर रख लेती है और अच्छी वस्तुओं को बाहर कर देती है। मेरे पास छलनी जैसा मन है जो हर अच्छी वस्तु को बाहर निकाल देता है और बुराईयों को सालों तक अन्दर रखे रहता है; और प्रभु के हाथ में सूप है, “उसका सूप उसके हाथ में है” (मत्ती ३:१२)। जो प्रभु के सूप (संगति) में बने रहते हैं वे पल-पल पवित्र होते रहते है। संगति का एक नाम संजीवनी है जो हम में जीवन का संचार बनाए रखती है।

अजीब सी बात है, आदम और हव्वा को परमेश्वर ने सब कुछ दिया, बस एक लंगोट नहीं दिया! लंगोट की ज़रूरत तब होती है जब जीवन में खोट होता हैं। खोट होता है तब ही हम छिपते और छिपाते हैं। प्रभु न तो आपसे नोट मांगता है और न ही वोट। वह तो आपके मन का खोट मांगता है - “... भीतर वाली वस्तुओं को दान कर दो, तो देखो, सब कुछ तुम्हारे लिए शुद्ध हो जाएगा” (लूका ११:४१)।

अजीब सी बात है, पर बात सजीव है। प्रभु न तो स्वर्ग का लालच देता है न ही नर्क में डालने की धमकी। न ही वह किसी नए धर्म का बोझ आप पर लादना चाहता है। वह तो आपको पाप के बोझ से आज़ादी देना चाहता है। “हे बोझ से दबे लोगों मेरे पास आओ, मैं तुम्हें विश्राम दूँगा” (मत्ती ११:२८)।

अजीब सी बात है, एक बहुत धनवान व्यापारी ने सिर्फ एक मोती के लिए अपना सब कुछ बेच डाला। वही मोती उसका सारा धन हो गया। उस मोती के लिए सच मानो वह कंगाल हो गया। यही मोती उसके आज, कल और अनन्त्काल के आनंद का कारण है। जहाँ उसका धन है वहाँ उसका मन है (मत्ती ६:२१)। जी हाँ, ‘आप’ ही उसका धन हैं।

अजीब सी बात है मन मानता ही नहीं। हमेशा संसार की तरफ ही बहकता और बहता है, जैसे पानी जो हमेशा नीचे की तरफ ही बहता है। पानी को पात्र ही संभाल कर रख पाता है। मन को परमेश्वर के वचन का मनन ही संभाल कर रख पाता है। इसलिए वचन को मन में अधिकाई से बसने दो (कुलुस्सियों ३:१६)।

अजीब सी बात है, आपके पास एक आग है जो जीवन भर बहुतों को झुलसाती है। उसकी जलन बहुत से लोग जीवन भर सहते रहते हैं। जीभ छोटी है पर उसके थोड़े शब्द में बड़ी आग लगाने की सामर्थ है। ज़रा शब्द गड़बड़ाए नहीं कि घर में और मंडली में आग लग जाती है। छोटी सी आग भरे पूरे जंगल में आग लगा देती है (याकूब ३:१६)। कहते हैं वाणी, वीणा का काम करे तो भला है। लेकिन हमारी वाणी कई बार अग्निबाण का काम करती जाती है। इसलिए जो शब्द नुक्सान करें उनसे ज़रा चौकस रहिए।

अजीब सी बात है नफरत का पाप ज़िन्दा पाप है जो ज़िन्दगी को मुर्दा बना डालता है। इसलिए दूसरों को माफ करके हम अपने ऊपर ही दया करते हैं। “बुराई को भलाई से जीत लो” (रोमियो १२:२१)। दुश्मनों को दोस्त बना लेना ही वास्तविक विजय है।

अजीब सी बात है कुछ कहते हैं कि तुमने धर्म की ग़ुलामी छोड़ दी पर अब इस किताब की ग़ुलामी करते हो। शायद उन्हें मालूम नहीं कि इस किताब ने ही उन पापों के ग़ुलामों को पाप से आज़ादी दी है।

अजीब सी बात है एक स्त्री ने प्रभु के पाँव पर ३०० दिनार का इत्र उन्डेल दिया। उसने ऐसा क्यों किया? उसके सामने प्रभु के लिए ३०० दिनार की कोई कीमत नहीं थी। पर यहूदा इस्किरोती के लिए ३० सिक्कों के सामने प्रभु की कोई कीमत नहीं थी; उसकी तो सोच थी - ऐसा हो या फिर वैसा हो, जैसा भी हो बस पैसा हो!

अजीब सी बात है यह बात आपके हाथ में नहीं है कि आप मौत को टाल सकें। पर आप मौत को सुधार सकते हैं। मौत के मातम को अनन्त आनंद में बदल सकते हैं, शोक को अनन्त शांति में बदल सकते हैं - यह आपके हाथ में है। बस आप अपना हाथ परमेश्वर की ओर फैलाएं और कहें, “हे यीशु, मुझ पर दया करें।”