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गुरुवार, 30 अप्रैल 2009

सम्पर्क दिसंबर २००६: अंधकार से ज्योति की ओर

(यह लेख, सहारनपुर के श्री अनंग  केसरी राय की गवाही, अर्थात प्रभु यीशु में उनके व्यक्तिगत अनुभव की अभिव्यक्ति है।)


मेरा नाम अनंग केसरी राय है और मेरा जन्म अगस्त ११, १९६२ को जमशेदपुर (झारखंड) में एक उड़िया परिवार में हुआ। मैं बचपन से ही बहुत धार्मिक प्रवति का व्यक्ति था। यह नहीं कि मुझे शांति की खोज थी; क्योंकि मैं तो शान्ति-अशान्ति के बारे में सोचता ही नहीं था। बस अपनी माँ को पूजा पाठ करते देख मेरे हृदय में भी धार्मिक भावना जाग उठी। सुबह उठकर सबसे पहले स्नान करना, उसके बाद किसी के घर से फूल चोरी कर के लाना और चीनी या गुड़ का प्रसाद चढ़ाकर पूजा पाठ करना मेरी आदत बन गई थी और मैं निस्वार्थ भाव से करता था।

जब मैं दस साल का हुआ और कक्षा पाँच में पढ़ता था तो उस दौरान स्कूल में ही हमें हैज़े का टीका दिया गया, जिसके ग़लत असर से मेरी आंखों की रोशनी चली गयी। वैसे बच्पन से ही मेरी आँखों कि रोशनी कम थी और डॉक्टर का कहना था कि बारह साल का होने पर मुझे चश्मा लगेगा, लेकिन यह घटना दसवें साल में ही घट गयी। मेरे माता-पिता ने, जो मुझे बेहद प्यार करते थे, मेरे इलाज के लिए भरसक प्रयत्न किया। जो जहां भी बताता, वे वहाँ मुझे लेकर जाते, लेकिन कुछ भी ठीक नहीं हुआ। उनके बहुत प्रयास के बावजूद भी मेरी आँखें ठीक नहीं हुईं। मेरे इलाज की भागदौड़ में करीब पाँच साल बीत गये, और यह मेरे लिए बहुत दुखः का समय था। उस समय तो मैं प्रभु यीशु को नहीं जानता था, परन्तु प्रभु में आने के बाद समझ पाया कि यह मेरे लिए, यूहन्ना ९:१-३ के अनुसार, परमेश्वर की नियत योजना थी; जहाँ प्रभु ने अपने चेलों से, मुझ जैसे ही एक व्यक्ति के समबंध में कहा, “यह इसलिए अन्धा हुआ कि उसमें परमेश्वर के काम प्रकट हों।”

उस समय हमारे पड़ौस में एक इसाई परिवार रहता था। उन्होंने मेरे पिताजी को सलाह दी कि मुझे घर में बैठा कर रखने से अच्छा तो राँची स्थित एक नेत्रहीनों के स्कूल में भर्ती करना होगा। उनके दबाव में आकर, पिताजी ने मेरा दाखिला उस स्कूल में करवा दिया। यह स्कूल एक इसाई संस्था का था और उस समय इस स्कूल में हड़ताल चल रही थी। मेरा मन उस स्कूल में नहीं लगा अतः किसी तरह रो-धोकर एक महीने बाद ही मैं अपने घर आ गया। दोबारा मैं उस स्कूल में वापस जाना नहीं चाहता था और ना ही मेरी माँ मुझे भेजना चहती थी। लेकिन उस परिवार का दबाव फिर से मेरे पिताजी पर पड़ा और वे मुझे दोबारा उसी स्कूल में छोड़ आए। वहाँ हड़ताल खुल चुकी थी और पढाई भी शुरू हो चुकी थी। लेकिन मुझे नेत्रहीनों की पढ़ाई के अक्षरों (Braille Script) से बड़ी घबराहट होने लगी कि मैं इन्हें कैसे पढ़ूँगा? क्योंकि उस स्कूल में अलग अलग काम भी सिखाए जाते थे, सो मैं ने फैसला किया कि मैं पढ़ूँगा नहीं वरन कोई काम सीखूँगा। वहाँ एक क्लर्क, जिनके माध्यम से मेरा दाखिला हुआ था, ने कहा कि नहीं तुझे पढ़ना है। अतः मैंने पढ़ाई फिर शुरू कर दी।

मिशन स्कूल होने के नाते शुरू में आधे घंटे का समय होता था जिसमें बाईबल की बातें सिखाई जाती थीं। उसमें छोटी छोटी कहानियाँ जैसे उड़ाऊ पुत्र, धन्वान व्यक्ति और कंगाल लाज़र इत्यादि की कहनियाँ, सब मुझे बहुत अच्छी लगती थीं। इस तरह मेरा मन वहाँ लग गया और मैं अन्य नेत्रहीन छात्र-छात्राओं के साथ घुल-मिल गया। सुबह-शाम प्रार्थना होती थी, मैं उस प्रार्थना को भी सीख गया और बाईबल परीक्षा में ५० में से ४८ अंक भी प्राप्त किये। लेकिन मेरा मन इस बात को मानने को तैयार नहीं था कि यीशु ही परमेश्वर है, जैसे कि वहाँ के कुछ लोग बोलते थे। इसी बात पर वहाँ के लड़कों से मेरी बहस भी हो जाती थी। मेरी सोच थी कि सब ईश्वर एक हैं। मेरे मन में यह सवाल पहाड़ की तरह था कि अगर यीशु ही परमेश्वर है तो उसने मुझे हिन्दू परिवार में जन्म क्यों दिया? सीधे इसाई परिवार में देता जिससे धर्म बदलने की आवश्यक्ता ही नहीं होती। मैंने फैसला किया कि मैं कभी इसाई नहीं बनूँगा। आज जो मेरी पत्नि है वह भी इसी नेत्रहीन स्कूल में पढ़ती थी और प्रभु यीशु पर विश्वास करती थी, लेकिन उद्धार के बारे में उसे भी पता नहीं था। हम दोनो विवाह से पहले एक दूसरे को जानते थे। फिर भी मैंने फैसला लिया कि यदि हमारी शादी हुई तो मैं उसे गिरजे जाने से नहीं रोकूँगा, लेकिन खुद नहीं जाऊँगा।

उसके बाद बहुत शीघ्र मैंने अपनी पढ़ाई पूरी कर ली। उसी समय इन्दिरा गाँधी ने नेत्रहीन लोगों के लिए नौकरियों का प्रस्ताव पास करा रखा था और काफी नेत्रहीन सरकारी नौकरियों पर रखे जा रहे थे। मुझे भी नौकरी करने की इच्छा हुई, लेकिन इसके लिए मेरे पास कोई ट्रेनिंग होना बहुत ज़रूरी था। इसीलिए मैं १९८३ में दिल्ली आ गया। वहाँ एक इन्स्टीटयूट में ६ महीने की ट्रेनिंग के बाद मेरी नौकरी अमृतसर (पंजाब) की एक फैकट्री में लग गयी। वहाँ मुझे बहुत अकेलापन महसूस होने लगा। उस समय पंजाब में उग्रवादियों का दौर था; इसी के चलते यह फैकट्री सहरनपुर (यू०पी०) में आ गयी। सहारनपुर आ जाने के बाद तो मैं और भी बिगड़ता चला गया। मैं जो भी पैसा कमाता, उसे शराब और सिनेमा में उड़ा देता। यह मेरी आदत बन चुकी थी। जब भी मैं अकेला होता था तो अपने अन्दर एक खालीपन का एहसास करता था। उस समय तो उस खालीपन को मैं दोस्तों की संगति से या शराब से भर लेता था, लेकिन जब कोई मेरे साथ नहीं होता था तो उस खालीपन को भरना बहुत मुश्किल होता था। उन दिनों मेरे पास बाईबल के एक भाग - लूका रचित सूसमाचार की एक प्रति थी, जिसे मैं अपना डर दूर करने के लिए पढ़ता था, या फिर मेरे पास रेडियो था जिसमें मैं सुबह साढ़े चार बजे एक मसीही प्रोग्राम ‘विश्ववाणी’ को सुनता था, जिसमें पाँच मिनिट का एक सँदेश आता था ‘परमेश्वर का वचन’। क्योंकि उस समय कोइ सिनेमा के गीत तो आते नहीं थे, इसलिए मजबूरी थी, उसी को सुनता था। इस तरह से मेरा जीवन चल रहा था।

उसी दौरान एक लड़का, जो प्रभु यीशु पर विश्वास करता था, इसी फैकट्री में जिसमें मैं काम करता था, काम करने आया। उसने मुझ से मिलकर पूछा, ‘क्या आप प्रभु यीशु को जानते हैं?’ मैंने घमन्ड से भरा जवाब दिया, ‘हाँ मैं जानता हूँ, और मिशन स्कूल में भी पढ़ा हूँ।’ यद्यपि मैं प्रभु यीशु को पापों से क्षमा देने वाले परमेश्वर के रूप में नहीं जानता था। फिर उसने मुझ से कहा कि ‘हम आपके घर आना चाहते हैं।’ मैंने कहा कि ‘हाँ-हाँ आओ’ लेकिन मैं दिल से नहीं चाहता था कि वह मेरे घर आए। इसीलिए मैंने उसे अपने घर का सही पता नहीं दिया। लेकिन फिर भी न जाने कैसे वह और उसके साथ दो जन, रविवार मई २८, १९८९ को हमारे घर आ गये। उन्होंने एक मसीही गीत गाया ‘नीले गगन में चमकें तारे’। यह गीत सुनकर मुझे लगा कि जैसे यह हमारी तरफ के लोग हैं। फिर उन्होंने बाईबल में से एक पद पढ़ा जिसकी व्याख्या तो मुझे याद नहीं, पर पद आज भी याद है, “तू मेरी दृष्टि में अनमोल और प्रतिष्ठित ठहरा है और मैं तुझ से प्रेम करता हूँ” (यशायाह ४३:४)। फिर उन्होंने कहा कि हम आपको शाम कि एक मसीही संगति में ले जाना चाहते हैं, क्या आप चलोगे? मैंने कहा हाँ, और मैं उनके साथ चलने को तैयार हो गया। शाम को जब हम उनके साथ सभा में गये तो वहाँ पर भले ही मैं शब्दों का सन्देश न समझ सका, लेकिन उनके प्यार ने मेरा मन मोह लिया। उनके ऐसे मन-मोहक प्यार को अनुभव कर मैं सोचने लगा कि अगर इन लोगों में ऐसा प्यार है तो इनका प्रभु कितना प्यारा होगा। उसके बाद वही लड़का जो मुझे फैकट्री में मिला था, जहाँ भी ऐसी प्रभु की सभाएं होतीं, वह मुझे अपने साथ लेकर जाता था। ना चहते हुए भी मैं उसके साथ उसका दिल रखने को चल देता था कि कहीं उसे बुरा न लगे। वे लोग आते रहे, समझाते रहे; पर मन कहाँ फिरा था, वह तो उन्हीं पुराने यारों से जुड़ा था। मेरे मन में कभी यह चाह थी ही नहीं कि मैं यारों की मौज और शराब की मस्ती से अलग होऊँ। यह सिलसिला यूँ ही चलता रहा।

उसके बाद मेरी पत्नि का पहली बार माँ बनने का समय नज़दीक आ गया। लोगों ने मुझे डरा रखा था कि स्त्री के पहले प्रसव में ज़िन्दगी और मौत का सवाल होता है। मुझे अस्पताल के खर्चे के लिए २५०० रूपये की ज़रूरत थी और मेरे पास थे लगभग २५० रूपये। उस समय वेतन भी तन को पूरा न पड़ता था। कोई करीबी रिश्तेदार भी उस समय करीब नहीं था। न तो आँखें थीं न पैसा, और न ही कोई इन्सानी सहारा। हम सहमे से सोच रहे थे कि क्या करें? आदतन, मैं ऐसी परिस्थित्यों में यीशु से प्रार्थना कर लेता था और वैसा तब भी कर रहा था।

किसी ने हमारे पास इस घटना से कुछ दिन पहले पवित्रशास्त्र की एक प्रति-यूहन्ना रचित सूसमाचार, ब्रेल लिपि में भेजी। जब हम उसे पढ़ रहे थे तो उसमें एक पद आया “परमेश्वर ने जगत से ऐसा प्रेम किया कि उसने अपना इकलौता पुत्र दे दिया, ताकि जो कोई उस पर विश्वास करे, वह नाश न हो पर अनन्त जीवन पाए” (यूहन्ना ३:१६)। वैसे तो मैंने यह पद कई बार पढ़ा और सुना था, लेकिन उस समय यह पद मुझ से बातें करने लगा, और परमेश्वर मेरे अन्सुलझे सवालों का जवाब देने लगा। इलाज ऐसे हुआ, जैसे किसी बड़े अधिकारी की पत्नि का।

उस समय, जब मैं अपनी पत्नि के प्रसव के बारे में काफी चिंतित था, प्रभु ने हमारी फैकट्री के मालिक को जो काँग्रेस पार्टी का एम० एल० ए० था, के दिल को तैयार किया कि इस विषय में वो हमारी मदद करे। यद्यपि मालिक और नौकर का क्या सम्बन्ध होता है? तौभी उसने मुझे मुख्य चिकित्सा अधिकारी के नाम एक पत्र लिख कर दिया। जब मैं १ अगस्त १९८९ को अपनी पत्नि के साथ अस्पताल पहुँचा, मैं बहुत परेशान था और मन ही मन यह प्रार्थना कर रहा था कि प्रभु मेरी सहायता कर। शाम के समय संगति के कुछ भाई-बहन हमसे मिलने आए और उन्होंने प्रार्थना की। उसके बाद अस्पताल के अधिकारियों और कर्मचारियों का मेरे प्रति व्यवहार ही बदल गया और मेरी पत्नि का इलाज ऐसे हुआ, जैसे किसी बड़े अधिकारी की पत्नि का।

उस रात बारिश बहुत थी और मैं उस अस्पताल के आँगन में डरा सा अपने आप को अकेला महसूस कर रहा था। सब साथी जा चुके थे। पर प्रभु अब भी पास खड़ा बातें कर रहा था, और कह रहा था, देख मैं जीवित हूँ और तू मत डर। वह मेरे सामने साक्षात तो नहीं खड़ा था, लेकिन उसकी धीमी आवाज़ मेरे कानों में गूँज रही थी। और साथ ही मुझे बीते दिनों में सुने हुए सारे वो वचन याद आ रहे थे कि जब मूसा इस्राईलियों को मिस्र से छुड़ाकर लाया तो प्रभु ने उसे तीन चिन्ह दिये; जो उनके लिए इस बात का प्रमाण था कि परमेश्वर ने ही उस्र भेजा है। वे सारे चिन्ह अब मेरे सामने घट रहे थे, जो इस बात का सबूत था कि मेरा प्रभु जीवित है। मैंने १९७९ से १९८९ तक बाईबल को पढ़ा था और प्रार्थना भी करता था, लेकिन कभी यह एहसास नहीं किया था कि प्रभु यीशु जीवित है। लेकिन उस दिन मैं जान गया कि प्रभु जीवित है। यूहन्ना १७:३ में लिखा है कि प्रभु यीशु को जानना ही अनन्त जीवन है। उस दिन मैंने रो-रो कर प्रभु यीशु से अपने पापों की माफी माँगी और उसी समय से अपने आप को बहुत हलका महसूस किया। उसके बाद फिर कभी मुझे अकेलापन महसूस नहीं हुआ। उसी दिन प्रार्थना के बाद मुझे अपने आप में निश्चय मिला कि प्रभु ने मेरे पापों को माफ कर दिया है। मैं यह तो नहीं कह सकता कि प्रभु ने मुझे कोई वचन दिया, क्योंकि उस समय मेरे पास कोई बाईबल तो थी नहीं; लेकिन एक आवाज़ आई जिसने मुझे आश्वासन दिया कि, “जा पुत्र तेरे पाप क्षमा हुए।” उसके बाद रात १०:३५ पर परमेश्वर ने हमें एक बेटी का दान दिया। प्रभु का धन्यावाद हो कि मेरी बेटी का जन्म और मेरा नया जन्म एक ही दिन हुआ।

अगले दिन संगति के भाई-बहिनों को पता चला और वे लोग हमसे मिलने आए। उसी दिन अस्पताल के स्टाफ क्वार्टर्स में एक नर्स के यहाँ सुसामाचार की सभा रखी गयी। सभा में भाइयों ने मुझे कहा कि आप अपनी गवाही दो कि कैसे प्रभु यीशु ने आपके जीवन में काम किया। प्रभु का धन्यवाद हो कि उद्धार के अगले दिन ही प्रभु ने मुझे वहाँ पर गवाही का मौका दिया। मार्च २५, १९९० को मेरा बपतिस्मा हुआ जिसमें प्रभु ने मुझे जीवन भर की प्रतिज्ञा दी, “मैं तेरे कलश को माणिकों से और तेरे सब सिवानों को सुन्दर और मनोहर रत्नों से बनाऊँगा” (यशायाह ५४:१२)। उसके बाद प्रभु ने मेरी सेवकाई को अपने वचन के द्वारा मुझ पर प्रकट किया। अब मैं सहारनपुर में उसी फैकट्री में काम करता हूँ और जिस संगति में प्रभु मुझे उस दिन लाया था, उसी संगति के साथ रहकर प्रभु की सेवा करता हूँ।

एक बात और है जो मैं आपके साथ बाँटना चाहता हूँ। ऐसा नहीं है कि प्रभु यीशु में आने के बाद मेरी आँखें ठीक हो गईं या मुझे और बहुत सी संसारिक चीज़ें मिल गयीं। ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। समस्याएं तो आज भी मेरे साथ हैं, लेकिन उन समस्याओं में तसल्ली देने और मार्गदर्शन करने वाला मेरा प्रभु यीशु भी मेरे साथ है, जिसने वायदा किया है “मैं तुझे कभी न छोड़ूँगा, और न कभी त्यागूँगा” (इब्रानियों १३:५)।

आज मेरे पास एक आशा है कि यदि आज मौत आए या प्रभु यीशु आए तो मैं उसके साथ स्वर्ग में होऊँगा। अब मेरी पत्नि और दोनों बच्चे भी प्रभु में हैं। यह सब उसकी दया और अनुग्रह से सम्भव हुआ, न कि मेरे किसी अच्छे कामों के कारण। क्योंकि प्रभु यीशु ने मेरे पापों से मुझे छुटकारा दिया है। इसके लिए उसने मेरे और आपके पापों के लिए क्रूस पर अपनी जान दी और फिर मर कर तीसरे दिन जीवित हुआ। इसी जीवित परमेश्वर ने मुझे एक जीवित आशा और एक अद्भुत शांति दी है।

प्रिय पाठक, क्या आज आपके पास कोई आशा है कि मौत के बाद आपका क्या होगा? क्योंकि परमेश्वर का जीवित वचन कहता है, “क्योंकि पाप की मज़दूरी तो मृत्यु है, परन्तु परमेश्वर का वरदान प्रभु यीशु में अनन्त जीवन है” (रोमियों ६:२३)। आज ही प्रभु यीशु के पास आकर प्रार्थना करें कि हे प्रभु यीशु मैं आप पर विश्वास करता हूँ, इसलिए मुझ पापी पर दया करें और मेरे पापों को कलवरी क्रूस पर बहे हुए अपने लहु से धोकर क्षमा कर दें।

1 टिप्पणी:

  1. आपकि जीवनी जीवन को बेहतर और कठिन वक्त मे आत्म बल को दर्शाता है अौर परमपिता परमेश्‍वर कि अनुभूति कराता है।
    यदि अापकि जीवनी भटको को राह दिखाती है

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