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बुधवार, 13 मई 2009

सम्पर्क दिसंबर २००६: कहानी कहती है

एक नास्तिक बड़ा धुँआधर भाषण दे रहा था। वह यह साबित करने में लगा हुआ था कि परमेश्वर, आत्मा-सात्मा यह सब बातें बक्वास हैं; “परमेश्वर” आदमी के डर की उपज है। उसने मेज़ पर हाथ मार कर पूछा, ‘यह क्या है?’ लोगों ने कहा ‘मेज़’। उसने कहा, ‘मेज़ इसलिए दिखाई दे रही है, क्योंकि यहाँ मेज़ है; अगर नहीं होती तो नहीं दिखती। हर वस्तु इसलिए दिखाई दे रही है, क्योंकि वह है। अगर परमेश्वर होता तो दिखता; क्योंकि नहीं है इसलिए दिखता नहीं है। आत्मा होती तो दिखती।’ तभी एक साधारण सा व्यक्ति उसकी बगल में आ खड़ा हुआ, और लोगों से बोला, ‘इन नास्तिक महाशय का सिर आपको दिखाई दे रहा है?’ लोगों ने कहा ‘हाँ।’ उसने कहा, ‘यह इसलिए दिखाई दे रहा है क्योंकि इन महाश्य के पास सिर है। अब इस सिर में आपको इनकी बुद्धी दिखाई दे रही है?’ लोगों ने कहा ‘नहीं।’ उसने कहा अगर होती तो दिखाई देती।’

यह कहानी इस बात को कहती है कि बहुत सी चीज़ें होती हैं पर दिखती नहीं। हवा होती है पर दिखती नहीं। हमें उसके काम और सामर्थ दिखाई देती है। प्रेम होता है पर दिखता नहीं; लेकिन हमें उसका काम दिखते हैं और अनुभव होता है। परमेश्वर है, पर दिखता नहीं; पर उसक प्यार और सामर्थ हर जगह दिखती है। परमेश्वर प्रेम है, उसमें दया है, क्षमा है और सामर्थ है।

स्वदेशी परमेश्वर, विदेशी परमेश्वर
अंग्रेज़ों की बनाई तसवीर में परमेश्वर अंग्रेज़ सा दिखाई देता है। चीनी लोगों की बनाई तसवीर में परमेश्वर चीनी सा दिखाई देता है। भार्तीय चित्रों में परमेश्वर हिन्दुस्तानी दिखता है। तो वास्तव में परमेश्वर का कौन सा रूप है? सच मानिए, न तो परमेश्वर स्वदेशी है, और न ही विदेशी। हम परमेश्वर को किसी भी जाति या धर्म के दायरे में नहीं बांध सकते। वह किसी विशेष धर्म का नहीं है और न ही उसका कोई विशेष धर्म है। परमेश्वर संसार के धर्मों से कहीं विशाल है।

सच तो यह है कि हम धर्म को पूजते हैं। धर्म और धर्मगुरू हमारा उपयोग मन माने ढंग से करते हैं। हर धर्म दूसरे धर्म को तुच्छ जानता है। पर परमेश्वर का वचन कहता है, “...परमेश्वर किसी को भी तुच्छ नहीं जानता (अय्युब ३६:५)।” परमेश्वर ने हमें इस पृथ्वी पर इन्सान बनाकर भेजा; पर हमने इन्सान को हिन्दू, मुस्लमान, सिख और इसाई बना डाला। अब आदमी कभी यह नहीं सोचता कि मैं एक इन्सान हूँ। बल्कि वह सोचता है कि मैं इसाई हूँ, हिन्दू हूँ, मुस्लमान हूँ, सिख हूँ। आज के इन्सान के इस स्वरूप ने सारी इन्सानियत को ही बरबाद कर डाला।

हमारे धर्मों का स्वभाव है कि वह हमारे मनों में दूसरे धर्मों के प्रति नफरत के बीज बोते हैं। इन्ही नफरत के बीजों का फल विश्व का हर देश उग्रवाद और आतंक्वाद के रूप में काट रहा है। धर्म तो एक से हैं, हाँ बिमारी तो एक ही है; बस नाम अलग अलग हैं।

कुछ वर्षों पहले की बात है, दो धर्मों के अनुयायियों के बीच मार-काट मची हुई थी। एक मुहल्ले में एक धर्म के लोगों ने दूसरे धर्म के मानने वाले परिवार को चारों ओर से घेर कर सुलगती आग में डाल दिया। सुलगते लोग, चीखते चिल्लाते, हाथ पैर मारते, ज़मीन को पीटते हुए जल रहे थे। चारों ओर दूसरे धर्म के लोग खड़े हुए देश्भक्ति और धर्मभक्ति के नारे लगा रहे थे। तभी उन्में से एक झुल्सा हुआ बच्चा आग से निकल्कर बाहर भागा। तुरन्त कुछ लोग उसके पीछे भागे और पकड़ कर फिर उसी आग में धकेल दिया। ज़रा सोचिए तो सही, ये कैसी भक्ति है? क्या परमेश्वर ऐसे भक्तों से और ऐसी भक्ति से प्रसन्न होगा? या फिर यह सब देखकर दु:खी होता होगा?
ज़ंज़ीरें भी ज़ेवर दिखती हैं
हमारे धर्म हमें आज़ादी का पैग़ाम देकर हमें ग़ुलाम बना लेते हैं। धर्मों के ये पिंजरे बड़ी होशियारी से बनाए जाते हैं। रीति रस्मों की ज़ंज़ीरों में बन्धे हम ज़िंदगी भर धर्म की बंधुआई में जीते हैं। हम इन रीति रस्मों की ज़ंज़ीरों को ज़ेवरों की तरह पहनते हैं, और कतई उतारना नहीं चाहते। जन्म से ही हम धर्म की कैद में जीते हैं। कैद की दीवारें चाहे ईंट पत्थर की हों या संगमरमर की, कैद तो कैद ही है। हथकड़ी लोहे की हो या सोने की, है तो हथकड़ी ही। ये द्वार नहीं, दीवारें हैं कैद की। आदमी धर्म की ऐसी ज़ंज़ीरों की गुलमी में जीवन की आज़ादी का आनन्द कभी न लेने पाएगा। हमारे आज के धर्मों का यही स्वभाव हमारी सद्-बुद्धी को अंधा कर डालता है।

एक धर्म और दूसरे धर्म के बीच जो फासले हैं, मनुष्य और दूसरे मनुष्य के मनों के बीच जो दूरियाँ हैं, प्रभु यीशु उन्हें दूर करने आया। वह हमें कोई नया धर्म देने नहीं आया पर एक नया जीवन देने आया। बहुतायत और आनन्द से भरपूरी का जीवन देने आया। पर जब भी यह मसीही जीवन, मसीही धर्म में बदल जाता है, तब यह भी और धर्मों की तरह ही हो जाता है।

इतनी बढ़िया एक्टिंग
आज की राजनीति में कोई काम कभी भी बिना लाभ के नहीं किया जाता। हर राजनीति की दुकान पर अलग-अलग सामान सजा कर रखा गया है। जैसे- दलित उत्थान, आरक्षण, मन्दिर-मसजिद, धर्म परिवर्तन, म़ज़दूर आंदोलन इत्यादि। ये सब सामान बेचकर वोट कमाए जाते हैं। इन्हीं वोटों से उन नेताओं पर नोटों की बारिश होती है। हमारे नेता, अभिनेताओं से भी ऊँचे कलाकार होते हैं। एक बार एक मश्हूर फिल्म अभिनेता से एक पत्रकार ने पूछा, ‘आप अभिनेता से नेता क्यों नहीं बन जाते?’ अभिनेता का जवाब था, ‘मैं इतनी बढ़िया एक्टिंग नहीं कर सकता जो नेता बन पाऊँ।’

देश के ये अगुवे देश पर किसी भी ऐसी आफत के आने का इन्तज़ार करते रहते हैं, जहाँ उन्हें पैसा कमाने और विरोधी दल पर दोष लगाने का मौका हाथ लगे। अगर वे किसी पर दया भी दिखाते हैं तो सिर्फ नाम कमाने के लिए। वे राजनीति तो पद, प्रतिष्ठा और पैसा पाने के लिए ही करते हैं। दोष लगाने के लिए दोष ढूँढते हैं। उन्हें स्वयं ऊँचा उठने के लिए, दूसरों को नीचा दिखाना ज़रूरी होता है। देश के जब ऐसे दोस्त हों तो फिर दुशमनों कि क्या ज़रूरत है!

धर्म और राजनीति में ही नहीं, पर हमारे परिवारों में भी एक बड़ा बुरा बिखराव पनप रहा है। एक दार्शनिक से एक पत्रकार ने पूछा, ‘आजकल पति-पत्नियों में अधिकांश्तः अच्छे संबन्ध नहीं देखे जाते। तलाकों की संख्या बहुत तेज़ी से बढ़ती जा रही है। इसका मुख्य काराण क्या है? दारश्निक ने बड़े नाटकिय ढंग से उत्तर दिया, ‘तलाक का मुझे एक ही कारण नज़र आता है, और वह है शादी। न शादी होगी, न तलाक होगा। न बांस होगा न बांसुरी बजेगी।’ लेकिन वास्तव में इस सम्स्या का मुख्य कारण तो हमारा बुरा स्वभाव, अहंकार, लालच और हमारा व्यभिचार है। सच्चाई तो यह है कि तलाक भी दो तरह के होते हैं। एक कानूनी तौर पर और दूसरा मन से - अर्थात पति-पत्नि साथ तो रहते हैं, पर मन से उन दोनों का तलाक हो चुका होता है। साथ तो इसलिए रहते हैं क्योंकि उनके पास बच्चे हैं। बच्चों का क्या होगा? समाज क्या कहेगा? या फिर कुछ आर्थिक या अन्य कारण हो सकते हैं। ऐसे परिवार बड़े तनाव में जीते हैं। इनमें से ७० प्रतिशत में झगड़े उनके आपसी अहंकार के कारण होते हैं, क्योंकि वे आपस में एक दूसरे से माफी मांगने और देने को तैयार नहीं होते। ३० प्रतिशत में व्यभिचार और अन्य कारण हो सकते हैं। हमारे इन्हीं पापों ने हमारे घरों को नर्क समान बना रखा है।

सास मरे तो साँस आए
एक जवान स्त्री घबराई और सहमी सी अपनी सहेली के पास आई, लम्बी सी साँसों से कहने लगी, ‘बहन क्या बताऊँ, आज एक ऐसी कहानी पढ़ी कि डर और दहशत से दिल अभी तक तेज़ धड़क रहा है। सच मान बहन कोई और यह कहानी पढ़ लेता तो उसका तो कब का हार्ट फेल हो गया होता।’ सहेली उसे शब्दों से सहलाती हुई बोली, ‘बहन घबरा मत, मैं तेरे लिए चाए बनाकर लाती हूँ, तब तक तू यह कहनी मेरी सास को सुना दे।’ बहु सोचती है कि जब उसकी सास मर जाएगी तो उसके घर में शान्ति आ जाएगी। वह इस शान्ति के इंतिज़ार में अशान्त जीती है। पर यही बहु खुद कुछ सालों में सास बन जाएगी और सिलसिला यूँ ही ज़ारी रहेगा। सास के मरने से शान्ति नहीं आ पाती, जब तक वह पुराना स्वभाव न मरे।

मुस्कुराहट या मक्कारी
परमेश्वर का वचन आपकी ही नहीं, मेरी भी छिपी हालात को प्रकट करता है। मैं एक घिसा-पिटा अड़तीस साल पुराना प्रचारक हूँ; इस प्रचारक के पास एक एकलौती और पुरानी पत्नि भी है। कभी कभी हम दोनों में काफी गहमा-गहमी हो जाती है। हाँ यह बात है कि प्रभु की दया से बात गाली-गलौज या मार-पीट तक कभी नहीं पहुँचती, बस आपसी बोल-चाल बन्द हो जाती है। लेकिन मन फिर भी पलटा देने और बदला लेने की युक्ति सुझाता रहता है कि इसे मैं कैसे सबक सिखा दूँ। ऊपर से तो सब शान्त दिखता है पर अन्दर मन में धक्का-मुक्की चलती रहती है। ऐसे समय में यदि कोई मेहमान हमारे घर आ जाए तो हमारे बदले रंग देखते ही बनते हैं। अचानक हम दोनों मूँह पर बड़ी मधुर मुस्कान लिए आपस में प्यार से बातें करने लगते हैं और प्यार भरे शब्दों से माहौल को महकाने लगते हैं। आए हुए मेहमान का बड़ी गर्मजोशी से स्वागत होता है, हाल चाल पूछे जाते हैं। जब मेहमान हमसे हमारा हाल और खैरियत पूछते हैं तो हम मुस्कुराते हुए कहते हैं, “हाँ भाई, प्रभु की दया से सब ठीक है।” पर अन्दर की सच्चाई तो कुछ और ही है, सब ठीक कहाँ है। वास्तव में हमारी मुस्कुराहट मक्कारी होती है। यह हमारे जीवन की सच्चाई है, पर हम इस मक्कारी को मक्कारी नहीं कहते। सच तो यह है कि हमारे स्वभाव में ही मक्कारी है। हमारे अन्दर के विचार और बाहर के व्यवहार में बहुत अन्तर होता है। परमेश्वर का वचन कहता है कि हम स्वभाव से ही पापी हैं। कोई फर्क नहीं पड़ता, हम किसी भी धर्म के हो सकते हैं, किसी भी पद और परिवार के हो सकते हैं, पर हम सब स्वभाव से पापी हैं।

बंदे का धंधा मन्दा चल रहा है
आदमी राजा हो या रंक, पर घमंड हमारे स्वभाव का एक स्थाई तत्व है। कहीं किसी ने यह कहनी कही- दो भिखारी आपस में बतिया रहे थे। एक भिखारी ने अपना रोना रोया, “भाई जी, बस क्या बताऊँ, धंधा तो मंदा चल रहा है। लोगों के सामने हाथ फैलते ही वो अपनी आंखें फैला लेते हैं। पैसे देते नहीं, उपदेश देने लगते हैं। न दान, न दया और न प्यार रहा है। पैसे पर ऐसी पकड़ आ गयी है कि कोई किसी को दान देने को तैयार ही नहीं। हमारी तो कोई इज्ज़त ही नहीं बची। पुलिस तो ऐसा व्यवहार करती है कि जैसे हमारे ही लिए रखी गई हो।” दूसरा भिखारी बोला, “तो धंधा क्यूँ नहीं बदल लेते?” पहला बोला, “ अबे यार, मैं इतनी जल्दी हार मानने वाला नहीं हूँ।” कितना अहंकार था इस भिखारी बंदे को अपने धंधे पर। अहंकार किसी को भी अछूता नहीं छोड़ता। हर आदमी सोचता है कि वो कुछ खास है, भले ही कुछ खासियत हो या न हो। हर कोई चाहता है कि उसकी बात को वज़न दिया जाए, उसे महत्व दिया जाए। आप अपने आप को खास आदमी समझते रहिये, पर इससे आप खास आदमी नहीं बन पाएंगे। हमें अपनी असलियत अवश्य समझ लेनी चाहिए। परमेश्वर का वचन कहता है, “...और सुन तो ले तेरा जीवन है ही क्या (याकूब ४:१४)।”

अत्याधुनिक विज्ञान आपका रंग, नाक, कान, और आँख बिल्कुल बदल सकता है, पर आपका स्वाभाव कभी नहीं बदल पाएगा। जलन, क्रोध, लोभ और व्यभिचार का पागलपन, जो अन्दर छिपा है, उससे कभी छुटकारा नहीं दिला पाएगा।

अन्दर का गणित
हम सबके अन्दर का गणित एक सा ही होता है। अन्दर से हम सब लालची, व्यभिचारी, क्रोधी, घमंडी और बदला लेने के भाव से भरे होते हैं। ये ही सब पाप हमारे जीवन की हर खुशी हम से छीन लेते हैं। इसलिए हर आदमी बेचैन और परेशान है। सारा संसार शान्ति लाने के प्रयास में जुटा है। शान्ति सभाएं, शान्ति के नारे, शान्ति की योजनाएं, शान्ति वार्ताएं और शान्ति संगठन। हर देश का हर एक नेता शान्ति लाने की बात करता है। सरकारें प्रयास करती हैं। धर्म और धर्म गुरू शान्ति देने के दावे करते हैं। पिछले छह हज़ार वर्षों में शान्ति लाने का हर प्रयास न केवल असफल ही हुआ है, वरन, सारे संसार में अशान्ति महामारी की तरह बड़े विकराल रूप से हर आदमी को बेचैन किये खड़ी है। इस बीमारी के बाहरी इलाज तो बहुत किये गये हैं, पर बेचैनी तो आदमी के मन की उपज है, इसलिए इलाज तो मन का होना चाहिए। अगर मन परिवर्तन नहीं हुआ तो कुछ भी परिवर्तन नहीं होने वाला।

हमारे समाज के हर हिस्से में बुराई भरी पड़ी है। कोई घर, कोई शहर, कोई प्रदेश या कोई देश ऐसा नहीं जो इससे ग्रसित न हो। वास्तव में बुराई हमारी व्यवस्था में नहीं, हमारे मन में है। परमेश्वर का वचन कहता है, बुराई तो मनुष्य के मन से निकलती है (मरकुस ७:२१-२३)। यह असाध्य रोग मन में ही है (यर्मियाह १७:९)। हर बुराई मानवीय मन के गर्भ में ही जन्म लेती है। इसलिए ज़रूरत मन मरम्मत की नहीं, मन परिवर्तन की है। इसीलिए परमेश्वर मन परिवर्तन की बात करता है, धर्म परिवर्तन की नहीं। क्योंकि मानव को धर्म की नहीं, मन परिवर्तन की ही आवश्यक्ता है। इसीलिए प्रभु कहता है, मैं तुम्हें एक नया मन दूँगा (यहेजकल ३६:२६)। ऐसा मन जो प्यार कर सकता है, दया कर सकता है और जो क्षमा कर सकता है। जो शान्त रह भी सकता है और शान्ति दे भी सकता है।

अंधकार के पास यह अधिकार है कि वह आदमी को अंधा कर डालता है, आंखों वालों को भी! पाप का अंधकार तो उन्हे ऐसा अंधा कर डालता है कि उन्हें पाप करते हुए एहसास ही नहीं होता कि वे पाप कर रहे हैं। अगर आपको क्रोध बहुत जलदी आता है, तो आप एक अहंकारी व्यक्ति हैं और आप में सहनशीलता नहीं है। आप में बदला लेने का भाव बहुत तीव्र है। इसी तरह आदमी लालच से, क्रोध से और व्यभिचार से भरा पड़ा है। उसे गाली देते हुए, व्यभिचार करते हुए और रिशवत लेते-देते हुए एहसास ही नहीं होता कि उसने कुछ ग़लत किया है या पाप किया है। हमें अपनी हर बुराई में कोई बुराई दिखाई नहीं देती। पाप के अंधेरे ने आदमी को ऐसा अंधा किया कि उसका सारा जीवन ही अंधेरा हो गया। सारा संसार ऐसे अंधेरों से भरा पड़ा है और अंधेरे से भरे संसार में अंधेर्गर्दी फैली पड़ी है। अब जो मनुष्य अंधेरे में जीता है, वह अंधेरे में मर कर हमेशा के अंधेरे में चला जाएगा।

शब्दों की आड़ में...
आज के इन्सान ने इन्सानियत को पैरों से कुचल डाला है। हैवानियत को पहन कर अपनी ही बरबादी के लिए तैयार खड़ा है। अब संसार अपने आखिरी सालों में जी रहा है। संसार के साथ वह कुछ होने जा रहा है जो समझने और सहने से बाहर होगा। सम्पर्क तो आपको जगाने और जताने के लिए लाया गया है कि आप परमेश्वर की बर्दाश्त को तुच्छ न जानो। सच मानिए, परमेश्वर साक्षी है, हम शब्दों की आड़ में छिप कर किसी धर्म का प्रचार कतई नहीं करते। एक ऐसे सत्य का प्रचार कर रहे हैं कि पापों की क्षमा पाने के लिए आपको कोई धर्म बदलने की कतई आवश्यक्ता नहीं है। धर्म की बाहरी पर्तों से आदमी के अंदर का आदमी कभी परिवर्तित नहीं होता। आप एक के बाद एक धर्म परिवर्तन करते जाएं, पर जीवन में एक भी परिवर्तन नहीं पाएंगे - भले ही आप जयिकशन से जैक्सन क्यों न बन जाएं।

गधों को माई बाप बोलो...
एक बुरी खुशी होती है जो बुराई करने से मिलती है, दूसरों को नुकसान पहुँचाने से मिलती है, दूसरों को बेवकूफ बनाने में मिलती है, दूसरों से अपनी झूठी प्रशंसा सुनने में मिलती है। गधे का अर्थ हमेशा गधा नहीं होता। कई बार कई आदमी भी गधे होते हैं। वे किताबों के सहारे बहुत सारा ज्ञान तो बटोर लेते हैं, भाषा को सुंदर शब्दों से संजो भी लेते हैं; परन्तु ऐसे ज्ञानवान लोग भी कई बार बड़ी नासमझी कर जाते हैं। एक अनपढ़ आदमी बहुत समझदार हो सकता है और एक पढ़ा-लिखा बहुत नासमझ; क्योंकि समझ और ज्ञान में अन्तर है। जब पढ़े लिखे गधों को बड़े पदों के साथ बड़ी प्रशंसा दी जाती है तो ऐसी प्रशंसा उनके अहंकार को बहुत भाती है। अगर ऐसा न होता तो मक्खन लगाना, यानि खुशामद करना इस संसार से कब का समाप्त हो जाता। प्रशंसा चाहे झूठी हो या सच्ची, हमारे अहंकार को उससे बड़ी खुशी मिलती है, लेकिन यह खुशी बुरी है। लोग जानते हैं कि मौका बार-बार हाथ नहीं लगता। इसलिए, जितना लग सके मक्खन लगा दो, गधों को माई-बाप बोलो और काम निकालो-क्या फर्क पड़ता है? इसी तरह कुछ लोग पद, पैसा, यश और कीर्ति कमाने के लिए सारा जीवन लगा देते हैं। “और दुष्ट, और बहकाने वाले धोखा देते हुए, और धोखा खाते हुए बिगड़ते चले जाएंगे (२ तिमुथियुस ३:१३)।”

अक्सर एक बड़ी भीड़ यीशु को घेरे खड़ी रहती थी। एक भ्रष्ट आयकर अधिकारी प्रभु यीशु को देखना चाहता था, पर भीड़ के कारण यीशु को देख नहीं पा रहा था। परमेश्वर का वचन इन शब्दों के सहारे एक सच्चाई को हमारे सामने रखता है। धर्म की बड़ी भीड़ ने प्रभु यीशु की सच्चाई को छिपा रखा है। लोग उस भीड़ को तो देख पाते हैं पर यीशु को नहीं - धर्म और धर्म के अनुयायियों को देख पाते हैं, पर सच्चाई को नहीं। सच तो यह है कि प्रभु यीशु पापियों के लिए आया, किसी विशेष धर्म के लोगों के लिए नहीं। न ही उसने किसी धर्म विशेष के लोगों से प्रेम किया, पर जगत से ऐसा प्रेम किया। वह हर एक धर्म के हर एक व्यक्ति को प्यार करता है क्योंकि वह किसी विशेष धर्म से बंधा नहीं है।

कहा जाता है कि अगला विश्व्युद्ध धर्म के नम पर ही लड़ा जाएगा। बदला लेने का यह भाव ही आतंक्वाद है। हमारे इन्हीं मानवीय पापों ने ही विश्व को विनाश के कगार पर खड़ा कर दिया है। परमेश्वर का वचन कहता है कि “यदि मन न फिराओगे तो इसी तरह नाश हो जाओगे” (लूका १३:५)। मन फिराने का अर्थ है पाप से क्षमा मांगना और विश्वास करना कि प्रभु यीशु पापों की क्षमा देता है। इसलिए ही उसने क्रूस पर अपनी जान दी फिर तीसरे दिन जी उठा, और उसका लहू हमें सब पापों से शुद्ध करता है।

अजीब जूता
आम आदमी सत्य से ज़्यादा जादू-टोने और गंडे-तावीज़ों इत्यादि पर अधिक विश्वास करता है। मैं एक घटना आपको अपने शब्दों में बताना चाहता हूँ। मैंने अकसर ट्रकों के आगे और पीछे पुराने जूते टंगे देखे हैं। पुराने जूतों को आगे-पीछे टांगने के पीछे के रहस्य को जानने के लिए मैंने एक ट्रक ड्राइवर से पूछा, ‘ड्राइवर साहब इस तरह ट्रकों पर पुराना जूता लटकाने का क्या मतलब है?’ ड्राईवर ने जवाब दिया, ‘जनाब, जूता लटकाने से एक्सीडैंटों से सुरक्षा मिलती है।’ मैंने कहा, जब एक्सीडैंट होता है, हर ड्राईवर जूता पहने होता है, हर ट्रक से टकराता व्यक्ति भी जूता पहिने होता है; फिर भी रोज़ एक्सीडैंट होते हैं?’ तब ड्राइवर साहब का बड़ा ही मज़ेदार जवाब था-‘जनाब, जूता पहनने से नहीं, लटकाने से उसकी तासीर बदल जाती है।’ बड़ा ही अजीब विश्वास है; रोज़ जूता टंगे ट्रकों का एक्सीडैंट देखता है, फिर भी सुरक्षा के विश्वास से जूता लटकाए फिरता है!

गालियाँ घोल कर पिलाईं...?
जब हम कहते हैं कि मुझे क्रोध आ गया, तो यह हमारी भाषा की गड़बड़ है। क्रोध बाहर से नहीं आता, क्रोध तो अन्दर से निकलता है। जब हालात बनते हैं, क्रोध बाहर निकल आता है। जैसे देखा गया है कि शराबी आदमी विपरीत हालात में गालियाँ बकने लगता है। क्या उस शराबी को शराब में गालियाँ घोल कर पिलाई गयी थीं? ऐसा नहीं था, गालियाँ तो उसके मन में पहले से ही बसीं थीं। शराब ने तो उन्हे केवल सहारा दिया और वह बाहर बह निकलीं। इसी रीति से जलन, द्वेश, घमंड और व्यभिचार आदि सब मन में ही भरा रहता है, बस मौका मिलने पर अन्दर से बाहर आ जाता है। पेट की गड़बड़ी तो डॉक्टर ठीक कर सकता है, पर मन की गड़बड़ी का कोई इलाज नहीं। आदमी को अच्छा बनाने के लिए हमारे धर्मों, शिक्षा और सरकार ने सारे जुगत और जुगाड़ किये हैं। संसार कितना ही विकसित क्यों न हो जाए और संसार के सारे शहर क्यों न सुधार दिये जाएं, पर आदमी और उसका मन कभी नहीं सुधरेगा। मन सुधारने की सामर्थ न तो किसी सरकार में है न किसी कानून में। आप जो यह मेरा लिखा हुआ पढ़ रहे हैं, आपको बहुत अच्छा लग सकता है, पर यह आपको अच्छा बना नहीं सकता। यह प्रचारक कोई उपचारक तो नहीं है।

हम यदि आप से कहें कि आप क्रोध, ईर्ष्या, द्वेश और लालच छोड़ दें, तो यह उसी तरह होगा जैसे किसी कैंसर के मरीज़ से कह जाए कि वह अपना कैंसर छोड़ दे। यदि वह छोड़ सकता होता, तो कभी का कैंसर को छोड़ चुका होता। स्वर्ग और पृथ्वी में एक ही नाम है जो सब कुछ सुधार सकता है, जो आपके जीवन को सँवार सकता है - यीशु नाम; “क्योंकि पृथ्वी के ऊपर और स्वर्ग के नीचे मनुष्यों में केवल एक नाम दिया गया है जिसके द्वारा उद्धार है” (प्रेरितों ४:१२)। सिर्फ एक प्रार्थना सब कुछ बदल देगी। परख कर तो देखिए, कह कर तो देखिए - ‘हे यीशु मुझ पापी पर दया करें; मेरे पाप यीशु नाम में क्षमा करें।’

ये ही पाप हैं जिन्होंने हमारे जीवन को, परिवारों को, समाज को, और संसार को नरक बना दिया है। ये ही पाप एक दिन हमें अनन्त नरक में भी धकेल देंगे। अनन्त का अर्थ है जिसका अन्त न हो, अनन्त में समय का अन्त होता है, स्थिति का नहीं; स्थिति सर्वदा बनी रहती है। लाखों लोग अपने परिवारों में अनचाही बेचैनी भोग रहे हैं। उनके मन में अब कोई उम्मीद नहीं बची और न ही उनको जीने की कोई इच्छा है। जीना उनके लिए एक मजबूरी है। मौत माँगती हुई ऐसी ज़िन्दगियों की यहाँ कोई कमी नहीं।

कुछ अपने स्वभाव से और अपनी आदतों से बहुत मजबूर हैं। जो नहीं देखना चाहिए उसे देख लेते हैं, जो नहीं बोलना चाहिए उसे बोल जाते हैं, जो नहीं सोचना चाहिए उसे सोचते हैं, जो नहीं करना चाहिए उसे कर जाते हैं; पर जो करना चाहिए, उसे टाल जाते हैं। वे अपने आप को कोसते हैं और आत्म ग्लानि की पीड़ा से भरा जीवन जीते है। उनको अपने भी अपने नहीं लगते। उनका मन सोचता है कि मैं किसी काम का नहीं और परिवार में कोइ मुझे प्यार नहीं करता, फिर मैं क्यों जी रहा हूँ? एक मुशकिल जाती नहीं कि दूसरी तैयार खड़ी होती है। शायद आप भी ऐसी ही परेशानियों के बोझ से थक चुके हों। इन बोझों ने आपकी सारी हंसी और खुशी को दबा दिया हो। ऐसे लोगों को प्रभु प्यार से बुलाता है और कहता है, “हे सब बोझ से दबे और थके लोगों मेरे पास आओ, मैं तुम्हें विश्राम दूँगा” (मत्ती ११:२८)। आप के पाप का उपचार यीशु के पास है; जहाँ पाप हटा कि बेचैनी भी हट जाएगी। परख कर देख लीजिए। यह लेख अब अपनी आखिरी पंकतियों में आ पहुँचा है। शायद कुछ देर में आप इसे भूल जाएंगे, और फिर दूसरा मौका आपके हाथ न आए। इसलिए पाप से माफी माँगने का यही एक सही मौका है। सच्चे दिल से की गयी एक प्रार्थना, बस इतना भर कहना, “हे यीशु मुझ पापी पर दया करें, मेरे पाप क्षमा करें” सब कुछ बदल देने के लिए काफी है।

कुछ लोग जो यह सम्पर्क पढ़ रहे हैं, उन्हें पाप की क्षमा से कुछ लेना-देना नहीं है। ये वे लोग हैं जो अपने अन्त की चिंता किए बगैर, खाते-पीते, मौज मनाते, पास खड़ी मौत के अन्जाम से बेखबर जी रहे हैं। पाप में तो उन्हे मज़ा आता है। कुछ के लिए पाप तो कमाई का साधन है, इसके बिना काम कैसे चलेगा?

मैं मर रहा हूँ
एक कैंसर से मरते मरीज़ ने संसार से विदाई लेते समय कुछ इस तरह कहा... “यहाँ से जाते समय, जिसके लिए ज़िंदगी लगा दी, वही सब पराया लगने लगा है। अब एहसास होता है कि अगर मैं एक मिनिट आँखें बन्द कर लेता हूँ तो उजाले के साठ सैकेंड मैंने खो दिए। इन्हीं आखिरी पलों में हर पल कीमती लगने लगा है। ईश्वर ने थोड़ा सा जीवन दिया, उसका हर पल कीमती है, पर सच तो यह है कि इन आखिरी पलों में - जैसे जैसे दिल की धड़कन धीमी होने लगती है, आँखें मुंदने लगती हैं, साँस के लिए भी सहारे की ज़रूरत महसूस होने लगती है, अपनों को आखिरी बार देखने के लिए भी पूरी ताकत लगा कर पलकों को खोलना पड़ता है, तब ही इन पलों की कीमत का एहसास होता है। मौत उम्र के साथ नहीं आती, यह तब जाना जब जाने का वक्त आ पहुँचा। एक ताबूत में रखकर कब्र में उतारने के अलावा अब कोई इन्सान इससे ज़्यादा मेरी मदद नहीं कर सकता। मैं मर रहा हूँ, सब मजबूर खड़े देख रहे हैं।” ऐसे पल मेरे और आपके जीवन में कभी भी आ सकते हैं। एक बार जो ज़िंदगी हाथ से फिसली, तो फिर कभी हाथ नहीं आएगी।

आखिरी मौका... कहीं खो न जाए
जब से यह सम्पर्क आपके हाथ में है, तब से परमेश्वर की आँख आप पर लगी है। सच मानिए यह संदेश आप ही के लिए है। परमेश्वर का वचन हमारे सारे पापों को हमें दिखा देता है, परन्तु हम उसी परमेश्वर से अपने पापों को छिपाने की कोशिश करते हैं जो पापों को ही नहीं पर हमारे विचारों के इशारों को भी दूर से समझ लेता है (भजन १३९:२)। कितने सोचते हैं कि हमारे वो पाप जो कभी किसी ने नहीं देखे, अब हमारे सीने में हमेशा के लिए दफन हो चुके हैं। पर सच तो यह है कि आपके मरते ही आपके पाप फिर जी उठेंगे, आपके पाप आपका पीछा नहीं छोड़ेंगे (गिनती ३२:२३)। हम तो आपके पास परमेश्वर के मन की अभिलाषा को पहुँचा रहे हैं। क्योंकि वह नहीं चाहता कि कोई नाश हो, पर चाहता है कि आपको पापों की क्षमा का मौका मिले। कुछ ही देर में ये शब्द कितनी आवाज़ों और विचारों में खो जाएंगे। आपकी एक प्रार्थना आपको सारे अपराधों और पापों से हमेशा के लिए छुटकारा दे सकती है। जी हाँ यही प्रार्थना ‘हे यीशु मुझ पापी पर दया करें’। पापों की क्षमा या सज़ा - इन्में से एक आप को लेना ही है, इसमें कोई अन्य मार्ग नहीं है। अब यह प्रार्थना करना, न करना, यह फैसला आपके हाथ में है।

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