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सोमवार, 17 अगस्त 2009

सम्पर्क अगस्त २००१: एक प्यासा जीवन के जल के पास

मेरा नाम प्रभजोत सिंह चानी है। मेरा जन्म १९६७ में दिल्ली के एक सिख परिवार में हुआ। मैं अभी रूड़की विश्वविद्यालय में एक अध्यापक हूँ। मेरे माता पिता ने बचपन से ही मुझ पर कोई धार्मिक दबाव नहीं डाला। जबकि मुझे अपने धर्म का कुछ भी ज्ञान नहीं था, लेकिन फिर भी मुझे सिख होने का घमण्ड था। मैं बहुत छोटी उम्र से ही एक दोगला जीवन बिताने लगा-एक जीवन घर में दूसरा घर के बाहर। बचपन से ही मैंने अपने माँ बाप के बीच में छोटी बड़ी बातों पर लड़ाई झगड़ा होते देखा; उनकी गालियों और चीखने चिल्लाने से मैं बहुत सहम जाता। घर के अन्दर मैं एक सहमा दबा हुआ जीवन जीता और घर के बाहर अपने दोस्तों के साथ गन्दे घिनौने पापों में मज़ा लेकर मन बहलाता।

मेरे पिता लगातार अपनी नौकरी में तरक्की करते गए। घर में सच्ची खुशी और शान्ती के सिवाए किसी चीज़ की कमी नहीं थी। दिल्ली के सर्वश्रेष्ठ स्कूल में पढ़ने से मुझे लगने लगा कि जीवन का वास्त्विक आनन्द पैसे और अधिकार से ही मिलता है। फिर भी मेरे मन में अजीब सी बेचैनी और अकेलापन रहता था। मैं कभी अपने माँ बाप से खुलकर बात नहीं कर पाता था और अपने हम-उम्र दोस्तों में खुशी खोजता था पर यह खुशी थोड़े समय की ही होती थी। ११वीं कक्षा ताक आते-आते मैं पापों में धंस चुका था। सिग्रेट-शराब पीना, भद्दी पार्टियों में जाना, गन्दी किताबें और फिल्में मेरे जीवन का हिस्सा बन चुकी थीं। मेरे माँ बाप के आपसी सम्बन्ध भी बहुत नीचे आ गये थे जिसे मैं चुप होकर देखता रहता। मेरा दिल अपने पिता के प्रति घृणा से भर चुका था। इन सब के बीच मेरी पढ़ाई को चोट लगी परन्तु फिर भी मेरा दाखिला रूड़की विश्वविद्यालय में हो गया। जो विष्य मैं लेना चाहता था वह मुझे नहीं मिल जिससे मेरी निराशा और बढ़ गई। अन्दर ही अन्दर मैं जानता था कि अपनी इस हालत का दोषी मैं खुद हूँ, पर सुधरने के विपरीत कॉलेज और होस्टल के आज़ाद वातवरण में मैं और भी बिगड़ता गया। अपने पिता का पैसा पानी की तरह बहाना और उन्हें झूठा हिसाब देना मेरे लिये हर बार की बात थी। साथ ही साथ मेरी अशान्ति और बढ़ने लगी। मेरे निजी सम्बन्धों में मुझे कुछ और करारे झटके लगे जिससे मैं अपने माँ बाप से और दूर होता चला गया।

१९८७ के आखिर में आते-आते तक मैं अपने आप को खोया हुआ महसूस करने लगा, सब कुछ होते हुए भी मैं कंगाल खड़ा था। ऐसा लगता था कि अब आगे चलने की ताकत नहीं रही। मैं हार चुका था अपने स्वभाव से, अपने पापों से अपनी परिस्थितियों से। एक शाम मैं अपने डिपार्टमेंट से अपने हॉस्टल लौट रहा था, जहाँ तक मुझे याद पड़ता है, मेरी आँखों में आँसू थे। एक मोड़ मुड़ते हि मैंने अपने सामने एक लड़के को खड़ा देखा जिसके बारे में मैंने उन दिनों सुना था कि वह कहता था कि रूड़की में मेरा नया जन्म हुआ है। उसके इस अजीब वाक्य ने मुझे उसकी ओर खींचा। मैं सड़क पर चलते-चलते उससे बात करने लगा, लेकिन वह मुझसे पापों के प्रायश्चित के बारे में बातें कर रहा था। उसकी यह बातें मेरी कुछ खास समझ नहीं आईं पर उसने रात अपने कमरे पर आने का निमंत्रण दिया जो मैंने स्वीकार कर लिया। मुझे नए विचार सुनना अच्छा लगता था इसलिए उस रात मैं उस छात्र के कमरे पर गया। उसने मुझे बाईबल से खोल कर दिखाया और जो पद मेरे सामने थे, उन्में लिखा था “जो कोई यह जल पीएगा वह फिर प्यासा होगा, परन्तु जो जल मैं उसे दूँगा वह फिर प्यासा न होगा...” (यूहन्ना४:१३)। मुझे ऐसा लगा कि मानो कोई मुझ से बात कर रहा हो। यह मेरे जीवन की हालत थी। मेरे पास सब कुछ था, पर फिर भी मैं प्यासा था; और यह यीशु मेरी प्यास हमेशा के लिए बुझाने का आश्वासन दे रहा था। मैं अपने कमरे पर वापस लौट आया। इस बातचीत ने मुझे बहुत प्रभावित किया, परन्तु मैं यीशु और परमेश्वर के अस्तित्व पर विश्वास नहीं कर सका क्योंकि जवान होते-होते मैं नास्त्क प्रवर्ति का बन चुका था। कुछ दिन बाद वही छात्र मेरे कमरे पर आया और मुझे एक प्रार्थना करने के लिए कहा। मैंने उसकी बात रखने के लिए और थोड़ी जिज्ञासा के साथ उसके पीछे-पीछे एक प्रार्थना की पंक्तियाँ दोहरा दीं। मुझे शब्द तो याद नहीं पर वह पापों की माफी और प्रभु यीशु पर विश्वास करने की प्रार्थना थी।

इस प्रार्थना से कोई बाहरी बदलाव तो नहीं आया लेकिन अगले ही दिन मुझे एहसास होने लगा कि मैं अन्दर से बदलने लगा हूँ। इसकी शुरुआत ऐसे हुई कि मेरे मूँह से गन्दी गालियाँ, जिन्हें मैं बकना छोड़ नहीं सकता था, अपने आप निकलनी बन्द हो गईं। मैं हैरान था कि क्या यह कोई मनोवैज्ञानिक बात है या वासत्व में कोई जीवित परमेश्वर है? इस सवाल के उत्तर के लिए मैं एक भूखे आदमी की तरह बाईबल पढ़ने लगा। प्रभु यीशु की अदभुत बातें और उसका प्रेम मेरे मन को छू गया। कई बार वचन पढ़ते पढ़ते मैं रो पड़ता था। मेरा जीवन, मेरा स्वभाव बदलता जा रहा था।

मैं प्रभु के लोगों के साथ संगति करने लगा और उनकी संगति और प्रार्थना और वचन पढ़ने से मेरा विश्वास स्थिर होता गया। मुझे विश्वास हो गया कि मुझे पापों और उसकी भयानक सज़ा से छुटकारा देने के लिये ही प्रभु यीशु ने क्रूस पर अपने प्राण दिये और वह मर कर फिर तीसरे दिन जी उठे। जब मैंने यह बातें अपने परिवार में बताईं तो अचानक बहुत विरोध उठ खड़ा हुआ। कुछ कट्टरवादी लोग भी धमकियाँ देने लगे। कई बार लगा कि मेरे पिता मुझे घर से निकाल देंगे। लेकिन अजीब बात यह थी कि अब मेरे अन्दर पहले सा डर नहीं था। प्रभु ने मुझे हिम्मत से भर दिया कि मैं विश्वास में खड़ा रह सकूँ। मेरे मन में मेरे माता पिता के प्रति सच्चा प्रेम और आदर आने लगा।

मैं प्रभु के लोगों के साथ संगति करने लगा और उनकी संगति और प्रार्थना और वचन पढ़ने से मेरा विश्वास स्थिर होता गया। मुझे विश्वास हो गया कि मुझे पापों और उसकी भयानक सज़ा से छुटकारा देने के लिये ही प्रभु यीशु ने क्रूस पर अपने प्राण दिये और वह मर कर फिर तीसरे दिन जी उठे। जब मैंने यह बातें अपने परिवार में बताईं तो अचानक बहुत विरोध उठ खड़ा हुआ। कुछ कट्टरवादी लोग भी धमकियाँ देने लगे। कई बार लगा कि मेरे पिता मुझे घर से निकाल देंगे। लेकिन अजीब बात यह थी कि अब मेरे अन्दर पहले सा डर नहीं था। प्रभु ने मुझे हिम्मत से भर दिया कि मैं विश्वास में खड़ा रह सकूँ। मेरे मन में मेरे माता पिता के प्रति सच्चा प्रेम और आदर आने लगा।

कई साल मैं अपने परिवार को समझाता रहा कि मैंने कोई धर्म परिवर्तन नहीं किया है बल्कि मेरा जीवन बदल गया है। १९९१ में प्रभु ने मुझे स्पष्ट रीति से रू़ड़की में रहने के लिये कहा। मेरे घर में फिर विरोध हुआ, लेकिन प्रभु मेरे लिए रास्ते निकलता चला गया और मैं उच्च शिक्षा रूड़की विश्वविद्यालय में ज़ारी रख सका।

१९९५ में एक सड़क दुर्घटना में मेरी दाईं टाँग खराब हो गई। कई बहुत काबिल डाकटरों की कोशिशों के बावजूद भी वो उसे ठीक नहीं कर सके। दो साल अस्पताल के अन्दर बाहर और कई अपरेशनों के बीच मैं बहुत अकेलेपन और घोर निराशा से निकला। इस दौरान मैंने अपने आत्मिक जीवन में पहली बार प्रभु को इतना करीब से देखा। धीरे-धीरे मैं सीखने लगा कि मेरे जीवन की डोर उसी के हाथ में है और प्रभु मेरा बुरा नहीं होने देगा। इस हादसे ने मेरे माता पिता पर भी प्रभाव डाला, क्योंकि वे प्रभु के लोगों का मेरे प्रति प्रेम और मेरे जीवन में प्रभु की शांति को देखते थे। मेरे माता पिता चिंतित थे कि हमारा बेटा लंगड़ाता है, सो कौन इससे विवाह करेगा? लेकिन प्रभु ने १९९७ में मुझे अपने अदभुत प्रेम में एक ऐसी पत्नी दी जो प्रभु की दया से सच में मेरे लिए एक उपयुक्त जीवन साथी है। मैंने अपने इस छोटे से परिवार में वह खुशी और आनन्द पाया है जिसकी मैं लालसा करता था। १९९९ में प्रभु ने हमें एक बेटी का दान भी दिया।

जब मैं पीछे मुड़ कर देखता हूँ तो मेरा दिल खुशी और धन्यवाद से भर जाता है। यह आज भी मेरे लिये हैरानी की बात है कि मेरा उद्धार कैसे हो गया? प्रभु में आने के बाद मैंने बहुत बार एक हारा हुआ सा जीवन बिताया, लेकिन प्रभु ने न तो मुझे छोड़ा न त्यागा। मेरा आपसे नम्र निवेदन है कि अप मेरी सेवकाई और परिवार को अपनी बहुमूल्य प्रार्थनों में याद रखियेगा।

गुरुवार, 13 अगस्त 2009

सम्पर्क अगस्त २००१: एहसास एक बदले जीवन का

मेरा नाम मेघा चानी है। मैं एक डॉक्टर हूँ और धमतरी हस्पताल, छत्तीसगढ़ में काम करती हूँ। मेरा जन्म १९६६ में एक विश्वासी परिवार में हुआ। मेरे माता-पिता दोनो सच्चे विश्वासी थे इसलिए बचपन से ही हमारे परिवार में नित्य पारिवारिक प्रार्थनाएं होती थीं। मुझे छोटी उम्र से ही सिखाया गया था कि मैं अपनी हर ज़रूरत को प्रभु के पास प्रार्थना के द्वारा ले जाऊँ। मेरे माता-पिता का जीवन भी मेरे लिए एक बहुत बड़ा उदाहरण था। उनके पास बहुत पैसा तो नहीं था, इस्लिए हमें अक्सर कमी-घटियों का सामना करना पड़ता था। परन्तु इसके बावजूद हमारे घर में परमेश्वर की सच्ची शाँति और आनन्द था।

ऐसे माहौल में पलते हुए मैं दूसरों की नज़रों में एक अच्छी लड़की थी। मैं पढ़ाई में मेहनती थी और शिक्षकों का आदर भी करती थी। फिर भी मुझे अपने अन्दर पाप का एहसास होता था। मुझे ऐसा लगता था कि मेरे जीवन में किसी चीज़ की कमी है।

जब मैं सातवीं कक्षा में थी तो धमतरी हस्पताल में कुछ विशेष आत्मिक सभाएं आयोजित की गयीं। उन सभाओं में मैं आत्मिक गीत गाने वाली टोली में थी। वहाँ मैंने प्रचारकों के द्वारा सुना कि हम सब पापी हैं और हमें पापों की माफी के लिए प्रभु यीशु मसीह और उसके लहु के द्वारा शुद्ध होने की ज़रूरत है। मुझे एहसास हुआ कि चाहे मैं बाहर से अच्छी हूँ और अच्छे काम करती हूँ, फिर भी मैं एक पापी हूँ। मैं उस सभा में आगे जाकर प्रभु यीशु को ग्रहण करने से झिझक रही थी, यह सोच कर कि लोग क्या कहेंगे। परन्तु जैसे सभाएं चलती रहीं तो वैसे मेरी बेचैनी भी बढ़ती गई। एक रात मैंने अपनी माँ को यह बात बताई और अगले दिन आगे जाकर प्रभु यीशु को अपना प्रभु और उद्धारकर्ता ग्रहण कर लिया। तब मुझे लगा कि मेरे जीवन में यही खालीपन था जो केवल प्रभु यीशु ही भर सकते थे। शायद बाहर से लोगों को कोई परिवर्तन न दिखाई दिया हो, लेकिन मैं अपने अन्दर एक बदले हुए जीवन का एहसास करने लगी। मेरे अन्दर वचन के लिए बहुत भूख जाग उठी और तब मैं स्वेच्छा से वचन पढ़ने और प्रार्थना करने लगी।

प्रभु के अनुग्रह से १९८५ में मेरा दखिला एक मैडिकल कालिज में हो गया जहाँ से मैंने अपनी डाक्टरी की पढ़ाई पूरी की। अप्रैल १९९१ में मेरे पिता अचानक प्रभु के पास चले गये। इस हादसे से हमें एक गहरा आघात लगा। आर्थिक रूप से भी हम बड़ी मुशकिलों में पड़ गये। ऐसी परिस्थिती में मेरे मन में कई प्रश्न उठते और मेरा मन भी कठोर होने लगा। लेकिन प्रभु ने ना तो हमें छोड़ा न त्यागा। धीरे-धीरे प्रभु ने हमारी सब ज़रूरतों को पूरा कर दिया और मेरी उच्च शिक्षा के सारे प्रयोजन भी पूरे कर डाले।

मैं लगभग २९ वर्ष की हो चुकी थी और मेरे साथ के मित्रों में से बहुतों के विवाह भी हो चुके थे। पर मैं एक विश्वासी से विवाह करना चाहती थी। बहुत सालों तक मैं प्रार्थना में इन्तज़ार करती रही। अन्त में मुझे लगा कि शायद प्रभु मुझे अविवाहित ही रखना चाहता है। यह विचार मुझे निराश करते थे। परन्तु मैंने अपने जीवन में प्रभु के प्रेम और विश्वासयोग्यता का एहसास किया था। सन १९९६ में प्रभु मेरे सामने एक विश्वासी का रिश्ता लाया। और करीब आठ महीने प्रार्थना के बाद हम दोनो इस विवाह के लिए सहमत हुए। मई १९९७ में मेरा विवाह प्रभजोत सिंह चानी के साथ हो गया।

मेरे पति की गवाही पढ़ने से आपको यह एहसास होगा कि हम दोनो कितने अलग पारिवारिक और व्यक्तिगत परिस्थितयों से गुज़रे हैं। हम दोनो के स्वभाव भी अलग-अलग हैं। लेकिन प्रभु ने अपनी अदभुत दया से हमें अपने परिवार में सच्ची खुशी और शान्ति दी है और हमें निश्चय है कि प्रभु ने नमें जोड़ा है “यह प्रभु की करनी है और हमारी दृष्टि में अदभुत है” (भजन ११८:२३)। मेरी पढ़ाई और धमतरी हस्पताल में कुछ अनिवार्य सेवा के कारण हम दोनो को अलग रहना पड़ रहा है, परन्तु हमने अपने परिवार में परमेश्वर की दया से सच्चा प्रेम और आनन्द पाया है। आपसे निवेदन है कि हमारे इस छोटे परिवार को अपनी प्रर्थनाओं से सहारा देते रहें।

मंगलवार, 11 अगस्त 2009

सम्पर्क अगस्त २००१: आप की तलाश में

सच मानियेगा, कोई आपको पा लेने की तलाश में है, तभि तो आप इस पत्रिका को पढ़ पा रहे हैं। वह कौन है? एक वक्त था जब मैं मानता नहीं था कि ‘वो’ है।

बात तब की है जब मैं बड़ा गुरुघंटाल आदमी था; माफ कीजिए, तब मैं आदमी नहीं एक जवान लड़का ही था, जो परमेश्वर को नहीं मानता था। बाइबल को झूठी किताब कहता था। मैं अपने बेबुनियाद, बेजोड़ और बेतुके तर्कों से बहुतों का मूँह बन्द कर देता था। मेरे अहंकार का आखिरी फैसला होता, “मैं श्रेष्ट हूँ और मेरी मान्यताओं का कोई सानी नहीं है।” उन दिनों में एक बहिन जो उम्र में मुझ से काफी बड़ी और काफी पढ़ी लिखी भी थी, मुझे काफी समझाने की कोशिश करती रही कि परमेश्वर है और बाईबल सच्ची है। मैं कितने ही सवाल उससे करता रहा, जैसे: “यह कैसे हो सकता है, सृष्टी कैसे बनी?” वह बड़े धीरज से मुझे समझाती रही कि परमेश्वर के लिए सब कुछ सम्भव है। मैंने इस मौके का रंग ताड़कर तपाक से कहा, “यदि परमेश्वर के लिए सब कुछ सम्भव है तो उसके लिए यह भी सम्भव होगा कि वह अपने लिए कुछ न कुछ असम्भव कर ले।” बेचारी ठगी सी रह गई और कहने लगी कि “यह तू सिर्फ शब्दों के हेर-फेर का खेल खेल रहा है।” मेरे लिए यह बात महत्व्पूर्ण नहीं थी कि परमेश्वर है कि नहीं। मुझे तो अपने से ज्ञानवान को हराना था, बस हरा दिया।

हम अपने शब्दों और तर्कों से जीत तो सकते हैं पर अपने मन की छिपी बेचैनी पर जीत नहीं पाते। हम अपने आप से, अपने हालात से, अपने स्वभाव से हारे हुए व्यक्ति हैं। खूब खा लिया, खूब पहन लिया, खूब जी लिया, फिर भी अन्दर एक खालीपन खटकता है। हम एक दिमाग़ी बोझ के साथ जीते हैं। फिर भी हमारी दिमाग़ी अकड़ हमें इतना अकड़ा कर रखती है कि हम अपने विचारों के खिलाफ कुछ भी सुनना पसंद नहीं करते।

कई बार हमारे लिए धर्म, राजनीति और पैसा बड़ी परेशानी पैदा करते हैं। हमारे धर्म हमें सुधारने में तो सहयोगी साबित नहीं हो पाए पर उन्होंने हमें आपस में बाँटने में बड़ा सहयोग दिया है। हम बंटकर भी रुके नहीं, वरन जाति, उपजाति, वर्ग आदि के आधार पर और भी छोटे छोटे टुकड़ों में बंटते चले गये। इस सोच ने हमें बहुत बौना बना डाला है। हम बड़ी शान के साथ अपने नाम के पीछे एक दुमछल्ला ज़रूर लिख लेते हैं जो हमारे धर्म और जाति का परिचायक होता है, भले ही हमारे काम नीचता की सारी सीमाओं को क्यों न छू गये हों। ऊँची पढ़ाई के बावजूद, इतनी नीची बातें हमारे दिमाग में जमीं रहती हैं, जैसे: “हम लोग ऐसे नहीं होते”, “उस जाति के लोग ऐसे होते हैं।” हमारा दुर्भाग्य है कि कई बार कई जातियों के नाम का उपयोग हम गाली की तरह करते हैं; हमारे समाज के दिमाग में ऐसा कूड़ा कूट-कूट कर भर दिया गया है। इसके बावजूद हम अपने आप को श्रेष्ठ समझने का अहंकार अपने सीने में सजा कर रखते हैं, दूसरे के धर्म और जाति पर हमेशा चोट करने के लिए तैयार रहते हैं। एक चोर-डाकू, रिशवतखोर, व्यभिचारी और शराबी का क्या धर्म है? वह ऊँची जाति का हो या नीची जाति का, इससे क्या फर्क पड़ता है? और इसमें भी कोई फर्क नहीं कि वह पढ़ा लिखा है या अनपढ़, आस्तिक है या नास्तिक, बड़ी चोरी करता है या छोटी, ऑफिस से सामान की चोरी करता या घर में बिजली की या अस्पताल में दवाईयों की या फिर रिशवत ले देकर काम करता है। प्यारे दोस्तों ज़रा सोचो तो सही, हम सब इन्सान हैं और हम सबने पाप किए हैं। सच सुनिएगा - “कोई फर्क नहीं, क्योंकि सबने पाप किया है (रोमियों ३:२३)”।

ज़रा ठण्डे दिमाग से यह भी सोचिए, धर्म कोई क्यों न हो, सब अपने अपने धर्म की रक्षा करने में जुटे हैं। जिस धर्म की रक्षा हमें खुद करनी पड़े, वह धर्म हमारी रक्षा कैसे कर पाएगा? एक अन्य सोच, है तो बड़ी छोटी पर है बहुत खतरनाक - धर्म परिवर्तन की सोच। सच मानिए, धर्म बदल्ने की तो कतई कोई ज़रूरत नहीं है और न ही कोई फायदा है। बात तो तब है जब जीवन और स्वभाव ही बदल जाए।

हमारे पास बहुत सारे धर्म और बहुत सारे धर्मगुरू हैं, पर इन सब से हमारे जीवन पर क्या फर्क पड़ता है? हमारा स्वभाव तो जैसा का तैसा ही है। ऐसे व्यर्थ उलझाव में मत उलझें, हम आपको किसी नए धर्म की दलदल में नहीं फंसाना चाहते। असीम परमेश्वर को किसी धर्म के दायरे में खोजना कतई बुद्धिमता की बात नहीं है। सच मानिएगा, धर्म बदलने से या सरकारें बदलने से कुछ होने वाला नहीं है। आने वाले दिन और भी बुरे होते जाएंगे। आप पूछेंगे क्यों? हमारा जवाब है क्योंकि परमेश्वर का वचन कहता है, “पर यह जान रख कि अन्तिम दिनों में कठिन समय आएंगे...(२ तिमुथियुस ३:१)”।

आज सादे से सफेद कपड़े पहिने कोई यह घोषणा करे कि यह आदमी खतरनाक है तो उसकी बात पर बहुत से विश्वास कर लेते हैं, क्यों? क्योंकि वह नेता है, हमारे समाज को चाटने, चबाने और पचाने वाले नेता। हर गली मुहल्ले में दो चार तो ज़रूर मिल ही जाएंगे। इन्होंने हमारे देश की बुनियाद, हमारी एकता को अन्दर ही अन्दर कुतर कर कमज़ोर कर डाला है। हमारा हर नेता हमें शान्ति और सुरक्षा देने का वयदा करता है; क्या खुद उनके पास शान्ति है? सुरक्षा गार्डों में घिरे नेता खुद सुरक्षित नहीं हैं तो वे हमें क्या सुरक्षा दे पाएंगे।

संसार का समस्त ऐश्वर्य प्राप्त हो भी जाए तो क्या आदमी चैन से जी पाएगा? क्या पैसा आदमी को सन्तुष्ट कर सकता है? क्या धनी लोग सन्तुष्ट हैं? कितने ही आदमी पैसा बनाने की मशीन बनते जा रहे हैं। आदमी और ज़्यादा बेचैनी में धंसता जा रहा है, फिर भी हराम की कमाई में उसे बड़ा रस आता है। ईमान्दारी तो सिर्फ बेवकूफी लगती है। सोचो तो सही, सच्चाई इस कदर सिकुड़ गई है। एक बोला “मैंने बड़ी ही अजीब चीज़ देखी”, दूसरे ने तपाक से पूछा “क्या देखा?” पहले ने कहा “सुनेगा तो सुनकर सन्न रह जाएगा। मैंने एक रिशवत ना लेने वाले सिपाही को देखा।” लुटेरों के समाज में हर तरफ हर कोई लूटने को तैयार खड़ा है। हर विभाग में, हर बाज़ार में यही हाल है। किसी बड़ी दुर्घटना के बाद सहायता करने वालों में कई ऐसे भी होते हैं जो बचाने के बहाने घायलों और लाशों की जेब और सामान टटोलते फिरते हैं। इन्सान इतना गिर चुका है, अब और कहाँ तक गिरेगा? अन्दर पाप बसा है तो पाप ही करेंगे, पर ध्यान रहे, शीग्र ही पाप का परिणाम भी बरसेगा।

कितने लोग अन्धे मुँह वाले हैं, हाँ अन्धे मुँह वाले। उन्हें नहीं मालूम कि वो क्या बोल रहे हैं, कहाँ बोल रहे हैं। वह तो अपनी बहू-बेटी-बाहिनों के सामने भी माँ-बहिन की छिछोली बाज़ारू गालियाँ बकते हैं। उन्होंने अपने विवेक को जलते लोहे से दाग़ लिया है (१ तिमुथियुस ४:२)। कितने तो इतने अन्धे हैं कि जब कभी साईकिल की चेन बार बार उतरने लगे तो साईकिल को ही गाली देने लग जाते हैं, और ज़्यादा गुस्सा आए तो साईकिल को लात भी मार देते हैं। उन्हें कोई एहसास नहीं कि चोट साईकिल को नहीं उन्हें लगती है, साईकिल का नुकसान भी तो खुद उनका ही है, किसी और का नहीं। इसी तरह हमारा हर पाप भी आखिरकर हमें ही नुक्सान पहुँचाता है। पाप हमेशा परेशानी छोड़ जाता है। मौत के बाद भी यह पाप पीछा नहीं छोड़ता। वह हमें हमेशा की परेशानी में धकेल जाता है। आपके शर्मनाक छिपे पापों के लिए क्या आपका विवेक आपको कभी कोसता है? क्या आपने कभी अपने आप को ही धिक्कारा है - “अरे मैं क्या आदमी हूँ? मैंने यह क्या कर डाला? मैं अब भी क्या कर रहा हूँ?” क्या ऐसे सवाल आपको कभी बेचैन करते हैं? विवेक की वेदना असहाय होती है। जब विवेक कचोटता है तब लगता है कि अब कुछ शेष नहीं रहा, कोई समाधान नहीं सूझ पड़ता और मन इस वेदना से निकलने के लिए आत्महत्या करने की सोचने लगता है।

परमेश्वर के पास वो आँखें हैं जो सब कुछ देख सकती हैं, आपकी बेचैनी और परेशानी को भी। लेकिन उसके पास वो दिल्भी है जो सब कुछ माफ कर सकता है, चाहे कोई क्यों न हो, कैसे भी पाप क्यों न किए हों। सृष्टि का सामर्थी सम्राट गिरे से गिरे व्यक्ति को भी प्यार से क्षमा देने की सामर्थ रखता है और उसका नम प्रभु यीशु है। वह कतई नहीं चाहता कि आप इसाई बन जाएं, पर वह चाहता है कि आपपने पापों की क्षमा पाकर आनन्द्मय जीवन पाएं। आप अपना सब कुछ त्याग भी दें तो भी जीवन का वास्तविक आनन्द नहीं पा सकते। मुक्ति पाने के लिए मुक्तिदाता से बस इतना कहना है, “हे प्रभु यीशु मुझ पापी पर दया करो, मेरे पाप क्षमा करो।”

सारी सृष्टि का सम्राट आपको पा लेने के लिए, गुलामों की कीमत में बिक गया। सृष्टि के सबसे महत्वपूर्ण सप्ताह की समप्ति के समीप, यीशु ने आपके पापों की भयानक सज़ा अपनी देह पर सही। अजीब बात यह थी कि उस शुक्रवार की शाम को वह जो मर गया था, रविवार की सुबह जीवित प्रकट हुआ। वह परमेश्वर है जो अनन्त मौत से मुक्ति देकर, मौत को हमेशा के लिए मात दे गया। उसी शुक्रवार की सुबह, धर्मगुरूओं ने राजनेताओं के सहयोग से दो डाकुओं के बीच में उसे कीलों से क्रूस पर ठोक दिया था। उस समय दोनो डाकू भी प्रभु को कोस रहे थे (मत्ती २७:४४)। इतनी पीड़ा में पड़े प्रभु ने अपने प्यार भरे शब्दों से न जाने कितनों का दिल ही बदल डाला और आज भी बदल रहा है। भयानक पीड़ा के समय वह अपने शत्रुओं के लिए कहता है “हे पिता इन्हें क्षमा कर क्योंकि ये नहीं जानते कि यह क्या कर रहे हैं।” बताओ तो सही, प्यारा प्रभु आपको क्षमा करने के लिए और क्या करे। यह किसी मनुष्य का प्रेम नहीं था। उन दोनों डाकुओं में से एक पहचान गया कि यह परमेश्वर है, यह किसी से नफरत नहीं रखता, यह खुद में खुदा है और खुदा प्यार है।

इस डाकू ने पूरी तरह अपना जीवन बरबाद कर डाला था। मौत से कुछ पल पहले ही इसने मान लिया कि वह इस सज़ा के लायक है। उसने यह भी पहचाना कि जो सज़ा वह भुगत रहा है वह तो मौत के साथ खत्म हो ही जाएगी, पर जो सज़ा मौत के बाद बचेगी, उस हमेशा की भयानक्ता से सिर्फ यही यीशु है जो उसे बचा सकता है। उसने मान लिया कि वह क्षमा के लायक भी नहीं है। फिर भी एक पश्चातापी हृदय से उसने कहा “हे यीशु जब तू अपने राज्य में आए तो मेरी सुधि लेना” (लूका २३:४२)। प्रभु ने उसे फौरन प्यार भरा आश्वासन दिया “तू आज ही मेरे साथ स्वर्ग लोक में होगा” (लूका २३:४३)। एक सवाल आपके मन में खटकता होगा - ऐसे बड़े पापी को प्रभु ने इतना बड़ा आदर और प्यार क्यों दिया? प्रभु ने कहा है “जो कोई मेरे पास आएगा उसे मैं कभी नहीं निकलूँगा” (यूहन्ना ६:३७)। यह घटना दर्शाती है कि अभी इतनी देर नहीं हुई कि आप प्रभु के पास न लौट सकें। प्रभु ने डाकू का धर्म नहीं बदला, बल्कि उसका जीवन बदल दिया। वह ऐसे ही आपका भी जीवन बदल सकता है, बस आप अपनी बुनियादी बेईमनी से निकल कर ईमानदारी से अपने पापों को प्रभु के सामने मान लें।

दिन पर दिन आते हैं और हर दिन हमें हमारे आखिरी दिन के करीब ला रहा है। आखिरी दिन कब होगा? जब आप सोचते भी नहीं होंगे। एक दिन अचानक ही आपको हैरान करेगा और आपकी मौत को आपके सामने खड़ा कर देगा। शायद तब आपकी बेबस आँखें आखिरी बार इस सँसार और अपने करीबी साथियों को देखती हुई याचना कर रही होंगी “कुछ तो करो” पर सब असहाय से खड़े रह जाएंगे और आप हमेशा के लिए इस सँसार से चले जाएंगे। ज़िन्दगी आपके हाथों से ऐसे फिसल जाएगी और आप कुछ नहीं कर पाएंगे। बस फिर अनन्त भयानक्ता को भोगना ही बकी रह जाएगा।

अब अभी आपके पास ऐसा शुभ अवसर है जहाँ जीवन का सारा अभिशाप एक प्रार्थना से हमेशा के लिए मिट सकता है। बस एक सच्ची पुकार की ज़रूरत है “हे प्रभु यीशु मुझ पापी पर दया करो, मेरे पाप क्षमा करो।” प्यारा प्रभु आपकी तलाश में है, कि आप नाश न हों पर बच जाएं और एक अनन्त आनन्द से भरा जीवन पाएं।

शनिवार, 8 अगस्त 2009

सम्पर्क अक्टूबर २००१: ...इसी तरह नाश हो जाओगे

शायद मेरी बेटी ४ य ५ साल की रही होगी, बार बार ज़िद कर रही थी कि डैडी मुझे पैसे दे दो। मैंने बड़े प्यार से बोला बेटा मेरे पास टूटे पैसे नहीं हैं। वह झुंझलाकर बोली ‘नहीं नहीं मुझे टूटे हुए पैसे नहीं चाहिए मुझे बिलकुल साबुत पैसे ही चाहिएं।’ मेरे शब्दों का सही अर्थ वह नहीं समझ पा रही थी। हमारी नासमझी की वजह से हम परमेश्वर को और उसके प्यार को नहीं समझ पाते हैं। परमेश्वर तो एक ही है, फिर आपका परमेश्वर, मेरा परमेश्वर, उसका परमेश्वर इन सबका का क्या अर्थ है?

ज़रा सोचें तो सही, परमेश्वर के लिए धर्म महत्त्वपूर्ण है या आदमी? दुनिया पर धर्म का बड़ा ज़हरीला असर बड़ी तेज़ी से बढ़ता जा रहा है। हमारे पास जीने के लिए यही इकलौती दुनिया है। इसे भी हमने बेचैनी से, बरबादी से और नफरत से भर दिया है। आज दुनिया समाजवाद या पूँजीवाद के आधार पर नहीं पर धर्म के आधार पर बंटती जा रही है। इतना ज्ञान पा लेने के बाद भी आज धर्म फिर अपने भयानक रूप में लौट रहा है। हम आज इन्सान को इन्सान नहीं मानते पर उसे इस तरह मानते हैं कि यह इसाई, यह मुसलमान, यह सिख और यह हिन्दू है। हाँ सहब आदमी निहायत खौफनाक आदमी बन गया है। इन्सान की शक्ल ही हज़रत आदम से मिलती जुलती सी रह गयी है पर वह अपने कामों से तो हैवान बन ही चुका है। धर्म के दायरे में बंध कर हमारा दिमाग़ भी ज़ंग खा चुका है। हमारे धर्मों की महामारी हर रोज़ हज़ारों मासूमों को मौत के घाट उतार डालती है। क्या आज के इन हालत में यह सवाल और भी महत्त्वपूर्ण नहीं है कि आदमी महत्त्वपूर्ण है या धर्म?
बचपन से हमारे दिमाग़ों में धर्म भर दिया जाता है। इसे हम एक उदाहरण से समझने की कोशिश करेंगे। दो व्यक्ती हैं, यदि उनके सामने बढ़िया मीट बनाकर रखा जाए तो एक के मूँह में पानी आने लगता है और दूसरे को उलटी; ऐसा क्यों? क्योंकि उनके दिमाग़ में अलग अलग धारणा बचपन से ही भर दी गई है, और उस धारणा के कारण वही चीज़ एक को बढ़िया भोजन दिखती है तो दूसरे को वही चीज़ बेचैन कर देती है। ऐसे ही धर्म को लेकर बचपन से ही हमारे मनों में धारणाएं भर दी जाती हैं, जिस कारण दूसरे के धर्म को देखकर और उसके बारे में सुनकर आदमी झल्ला उठता है। जो विरोध बचपन से ही हमारे मनों में भरा गया है, यह उसी की प्रतिक्रीया है।

हमारे धर्म नेता हों या राजनेता, श्वेत वस्त्रधारी साफ सुथरे, धुले-पुछे चिकने चुपड़े दिखने वाले ये लोग पूरे घाग हैं, कोई कच्ची गोटी नहीं खेले हैं। अधकचरी उम्र से ही लोगों के मनों में जलन, विरोध, बदले की भावना, को भर देते हैं और फिर इनके हुक्म समाज में कानून की तरह चलते हैं। ये धर्म की राजनीति, लाशों की राजनीति, आतंकवाद की राजनीति, जहाँ जैसा भी मौका लगे लगा देते हैं। विरोधियों का पलड़ा यदि भारी दिखाई दे तो फौरन कहते हैं “कैसे भी हो, डंडी मारो, बस किसी भी तरह विरोधियों को कम तौल कर दिखाओ।” राजनीति का मूल मंत्र है बेपैंदी के लोटे का सिद्धाँत - जिधर भी भार बढ़े उधर झुक जाओ; या फिर दो घोड़ों की सवारी का सिद्धाँत - एक अटक जाए तो दूसरे पर सवार हो जाओ। ना तो पार्टी क महत्त्व है ना सिद्धाँतों का, महत्त्व है तो बस मंत्री पद का। हमारा समाज भी नए सिद्धाँतों से सजता जा रहा है। आज के समाज का भी एक मूल मंत्र है “ज़रूरत पड़े तो गधे को बाप बनाकर पेट में घुस जाओ और जब काम निकल जाए तो गले में फंसी हड्डी मत बनो, फौरन टाटा कर जाओ।”

भ्रष्टाचार का सोता हमारे समाज में ऊपर से नीचे की तरफ लगतार बहता रहता है। जी हाँ ऊपर से नीचे तक, मंत्री से संत्री तक, अधिकारी से कर्मचारी तक यह सोता सब को तृप्त करता जाता है। भले ही सरकार बदले या सरकार के सिद्धाँत, पर यह बदलने वाला नहीं है। हमारी ही सरकारें, हमारे ही सिर पर सवार होकर, हमारा ही शोषण करती हैं। किसी सरकारी विभाग में सालों से आपका काम रुका हो तो कुछ मुद्रा दिखाइये, वही सालों से रुका हुआ काम एक्सप्रेस गति से दौड़ने लगेगा। हर दुविधा सुविधा में बदल जाएगी बस सुविधा शुल्क साथ लगा दें। हमारी नयी सड़कों का निर्माण कार्य पूरा हो भी नहीं पाता कि उन्हीं सड़कों की मरम्मत के टेंडर अखबारों में निकलना शुरू हो जाते हैं। क्या अदभुत प्रगति पर हैं हम! हम तो बस हम ही हैं, हमारा क्या जवाब है? देश की डगमगाती नाव में लोग पतवार की जगह हथौड़ी और छैनी लेकर इस इरादे से बैठे हैं कि डूबती नव के कुछ फट्टे ही हाथ लग जाएं। हमारे यहाँ कई नसल के चोर होते हैं, जैसे - खुले चोर, छिपे चोर, और कुछ गिरे चोर। चोरों की एक नसल और भी है जिन्हें हम कामचोर कहते हैं। इन नमूनों के चोरों की हमारे सरकारी विभागों में बड़ी भरमार है। हमारे बाज़ारों में नकली माल की भरमार है - नकली सामान, नकली नोट, नकली दवाई, नकली नेता और नकली धर्मगुरू। अर्थशास्त्र का नियम है कि असली से पहले नकली चलता है। मान लें कि आपकी जेब में एक असली नोट है और एक नकली, आप पहले किसे चलता करेंगे? इस तरह नकली नोट तेज़ी से बाज़ार में भर जाते हैं।

हमारी प्रगति की एक और तसवीर यह भी है कि जहाँ कभी शहर के कूड़े-कचरे के बदबूदार ढेरों पर सूअर के बच्चे अपना पेट पालने के लिए गन्दगी कुरेदते फिरते थे, आज वहीं आदमी के बच्चे अपना पेट पालने के लिए प्लास्टिक, काँच, लोहे के टुकड़े और गत्तों के फट्टे ढूंढते फिरते हैं। आदमी इस कीमत का रह गया है। जिसने गरीबी नहीं देखी हो वह इस गरीबी के दर्द को क्या समझेगा। हमारे जनसंख्या नियंत्रण या परिवार नियोजन विभाग को आतंकवाद ने, भयानक बीमारियों ने, अकालों ने अच्छा सहयोग दिया है। अब तो काफी लोग गरीबी से परेशान होकर आत्म हत्याएं भी परिवार सहित करने लगे हैं।

हमारे इस बेपरवाह और दिखावटी समाज में कितने तो इतने अहंकारी हैं कि कहीं छोटे न दिख जाएं, इसलिए अपने को खूब बढ़ा-चढ़ा कर दिखते हैं। पूरे फेंकूलाल हैं, दुसरों पर रौब डालने के लिए ऐसी-ऐसी फेंकते हैं कि हम इस खानदान के हैं, हमारा भाई ये है, हमारा चाचा वो था और मामा ये है, इत्यादि। चाहे ये रिशतेदार उसे घास भी न डालते हों फिर भी बे सिर पैर की फेंकने से नहीं रुकते। एक अन्य प्रवृति के भी लोग इसी समाज का हिस्सा हैं, जो हर जगह एक-दूसरे की चुगली लगाने से, एक को दूसरे भिड़ाने से नहीं चूकते। वो ऐसा है, उसने ये कहा, फलां ऐसा कह रहा था - जहाँ आग न भी लगी हो, वहाँ जलन और द्वेश का धुआं तो ये उठा ही देते हैं।

एक दिन एक बहुत परेशान, हारा हुआ सा व्यक्ति मुरझाया चेहरा लिए अपने मित्र के घर पहुँचा। मित्र ने बैठाकर दिलासा देते हुए पूछा “अच्छा बताओ क्या खाओगे?” उसका उदास और खिसिया हुआ जवाब था “यार जूते छोड़ कुछ भी खिला दो क्योंकि वह तो पहले ही घर से काफी खाकर आ रहा हूँ।” परिवारिक संबंधों की हालत बिगड़ती जा रही है। कितने पति-पत्नी दावतों में, बाज़ारों में मुस्कुराते हुए एक दूसरे के साथ साथ तो दिखते हैं पर उनकी असली हालत घर में देखते ही बनती है। जो मियां बीवी छोटी छोटी बातों पर अपने अहंकार के कारण अक्सर एक दूसरे से लड़ते रहते हैं, वे अपने बच्चों को प्रेम से एक दूसरे के साथ रहने का पाठ पढ़ाते हैं। मक्कारी और बेशर्मी की हद है कि जो एक दूसरे के साथ मेल-मिलाप से नहीं रह सकते, वह बच्चों को मेल-मिलाप से रहने और भाई-बहिन का फर्ज़ निभाने की बातें सिखाते हैं। सास को परेशानी है क्योंकि उनहें लगता है कि बेटा अब उनके हाथ से निकल कर बीवी के हाथों में चला गया है, और मौका लगते ही, अपनी मनोभावना को किसी तीखे कड़ुवे अन्दाज़ में व्यक्त करने से वो नहीं चूकतीं। पति की बुरी लतों के कारण परिवार का चैन खो गया है, बच्चे बिगड़ गये हैं। कुछ का घर पति-पत्नी के एक दुसरे पर शक करने के कारण बर्बाद है, तो कहीं वास्तव में एक दूसरे की पीठ पीछे दुराचार होता है। कुछ अपनी बीमारियों से परेशान हैं तो कुछ अपनी नौकरियों से और कुछ नौकरी के लिये परेशान हैं।

कितने तो झूठ बड़ी स्वाभविक रीति से बोल जाते हैं, उनहें सोचना भी नहीं पड़ता, बात और मौके के मुताबिक झूठ तैयार होता है मूँह से बाहर आने के लिए। एक महाशय छुट्टी के दिन, घर के बरामदे में बैठे अखबार पढ़ रहे थे। सड़क चलते एक भिखारी ने उनकी ओर गुहार लगाई, “महराज एक आध रुपया मिलेगा”, वह बिना मूँह उठाए बोले, “पैसे नहीं हैं”। भिखारी ने फिर गुहार लगाई “तो महाराज कोई बची-कुची रोटी सब्ज़ी ही दे दो”, महाशय कुछ झल्लाकर बोले “रोटी सब्ज़ी भी नहीं है”। भिखारी ने फिर प्रयास किया “महाराज काफी ठंड है, कोई पुराना कपड़ा-चादर ही दे दो”। महराज खिसियाकर बोले, ‘क्यों सवरे-सवरे दिमाग़ चाट रहे हो, कह दिया न नहीं है”। भिखारी बोला जब तुम्हारे पास न पैसा है, न रोटी, न कपड़ा तो फिर बेकार बैठे समय क्यों बरबाद कर रहे हो, एक कटोरा लेकर मेरे साथ चलो, मिलकर धंधा करेंगे।” झूठ बोलने की तो लोगों को आदत हो गई है, घर में पति-पत्नी एक दूसरे से झूठ बोलते हैं, बच्चों से झूठ बोलते हैं और बच्चे अपने माँ-बाप से झूठ बोलते हैं। बाप ऑफिस से पैन, पैंसिल, कागज़, रबड़ आदि हाथ साफ कर लाता है तो पत्नी और बच्चे बाप की जेब पर हाथ साफ कर लेते हैं। जिसको जैसा मौका मिलता है वो बस झूठ, बेईमानी, धोखे से अपना उल्लू सीधा करने में लगा है; उचित-अनुचित, अपने-पराये या घर-बाहर का कोई मतलब नहीं रह गया है। मेरे प्रीय पाठक आपकी और आपके परिवार कि क्या दशा है? क्या आपके घर की कोई शर्मनाक कहानी अभी बाहर आने को तो नहीं है?

सब कुछ करके, सब कुछ पा के, अक्ल के सारे घोड़े दौड़ा कर भी आदमी बेचैन और परेशान है क्योंकि मन का पाप मन में शाँति होने नहीं देता। बहर से शाँत और प्रसन्न दिखने वालों में से बहुतों की आंतरिक दशा उलट ही है। जीवन ऐसा बन गया है कि न तो जीते बनता है और न मरते। कितने ही जीवन से उक्ता गये हैं और उनहें जीवन जीने लायक ही नहीं लगता है। संसार के लोगों और समाज कि इस दशा का एक ही कारण है - पाप। आपका हर पाप आपका पीछा करता ही रहेगा; आप चाहे उससे इन्कार करें, वह आपका कभी इन्कार नहीं करेगा। आप जितना भी चाहें और जहाँ भी चाहे भाग लें, हर जगह आप उसे साथ ही खड़ा पाएंगे - मौत के बाद भी। यह पाप ही है जिसने सारे संसार को एक दहशत के माहौल में जीने पर मजबूर कर रखा है। कौन कब और कैसे किसकी बेचैनी का शिकार हो जाए, कोई नहीं जानता। किस मोड़ पर कौन सा हादसा किसका इंतिज़ार कर रहा है, कोई नहीं जानता। प्रभु यीशु ने कहा “यदि मन न फिराओगे तो इसी तरह नाश हो जाओगे (लूका १३:५)।” नाश का अर्थ मौत ही नहीं परन्तु मौत के बाद हमेशा के भयानक विनाश में जा पड़ोगे। २००० साल का इतिहास छान डालो, ढूंढ कर देख लो,प्रभु यीशु की कही एक बात भी गलत साबित नहीं हुई है। ध्यान दीजीए प्रभु ने क्या कहा - यदि मन न फिराओगे तो इसी तरह नाश हो जाओगे; उसने धर्म बदलने को कतई नहीं कहा, मन फिराने को कहा है। सच मानियेगा मन बदलते ही आपके हालात और आप बदल जाएंगे, क्योंकि मन से पाप, पाप की बेचैनी और उससे उत्पन्न होने वाली दहशत समाप्त हो जाएंगे।

यह सवाल मन में अटकता है कि मन फिराने का अर्थ क्या है? ध्यान कीजिए, मनुष्य द्वारा की गई हर बुराई मन ही से शुरू होती है - पहले मन में विचार आता है, फिर योजना बनती है और सही मौका देखकर कार्य किया जाता है। यदि मन से बुराई ही उत्पन्न न हो तो शरीर से बुराई होगी भी नहीं। लेकिन मन से बुराइ को हटा पाना मनुष्य के लिए असंभव है। हो सकता है कि आप कुछ समय तक मन को काबू में रख सकें पर उसकी प्रवृति नहीं बदल सकते, जब और जहाँ ज़रा भी मौका मिलेगा, मन बेकाबू होकर बुरा ही सोचेगा और करवाएगा। शेर को पिंजरे में बन्द रखने से वो शाकाहारी नहीं हो जाता और न ही हमला करने का उसका स्वभाव जाता है। मन की यह दशा उसमें बसे पाप के कारण है। जब तक मन से पाप का प्रभुत्त्व नहीं जाता, मन का स्वभाव नहीं बदलता। आप अपने मन में झांक कर अपनी असली हालत देखिए, उन गन्दे और बुरे विचारों पर ध्यान दीजिए जो आपके मन में उत्पन्न होते हैं, पलते हैं, बसते हैं। उन ज़लील और घिनौने कामों पर गौर कीजिए जिन्हें आप छिप कर करते हैं, कर चुके हैं या करने के इरादे रखते हैं लेकिन उनका भेद खुलने से डरते हैं। अपने अन्दर बसे सारे झूठ, व्यभिचार, घमण्ड, अहंकार, ईर्ष्या, द्वेश आदि का हिसाब कीजिए; आप सव्यं मान लेंगे कि आप पापी हैं, बेचैन हैं। आप अपना कोई भी यत्न क्यूं न कर लें, लेकिन मन पर पाप के इस प्रभुत्त्व को हटा नहीं सकते। इस प्रभुत्त्व को केवल वो ही हटा सकता है जो पाप पर जयवंत हो, सदैव से ही निषपाप और निषकलंक हो। संसार के इतिहास में केवल एक ही ऐसा है, केवल एक ही का जीवन है जिसे न जाने कितनी ही बार जांचा-परखा गया और वह हर बार पवित्र, निषपाप और निषकलंक ही निकला, जिसपर आज तक कभी कोई दोष नहीं रखा जा सका, वह है प्रभु यीशु। प्रभु यीशु पापों की क्षमा देने इस संसार में आया ताकि कोई नाश न हो पर हर एक अनन्त जीवन और अनन्त चैन पा सके। उसके पास धर्म परिवर्तन की कोई बात है ही नहीं, बात तो सारी मन परिवर्तन की है। उसने समस्त जगत के पाप क्षमा और सब के उद्धार के लिए अपनी जान क्रूस पर दी और तीसरे दिन जी उठा। जैसे ही आप सच्चे मन से उसके पास आते हैं और उससे कहते हैं कि हे प्रभु मुझ पापी पर दया कर, मेरे पाप क्षमा कर और अपना मन उसे सौंप देते हैं; वह आपके पाप क्षमा करके उनकी प्रभुता आपके मन पर से हमेशा के लिए हटा देता है और पाप पर जयवंत अपनी सामर्थ आपको दे देता है। यही मन परिवर्तन है अर्थात मन पाप के दासत्व से परिवर्तित होकर परमेश्वर के आधीन हो जाता है अब मन बुराई के अनुसार नहीं पर परमेश्वर के अनुसार सोचता और करता है।

प्रभु यीशु जीवित परमेश्वर है। केवल वह ही पापों की क्षमा और अनन्त जीवन देने वाला परमेश्वर है। आप कोई क्यों न हों, कैसे भी क्यों न हों वह आप से प्रेम करता है, आप को अनन्त विनाश से बचाना चहता है, आप के पश्चाताप का इंतिज़ार करता है। एक-एक करके छोटे-छोटे पाप बेहिसाब हो जाते हैं और उनका बेहिसाब प्रतिफल भी आप ही को भुगतना पड़ेगा। पाप में जीना अपने आप से दुशमनी करना है, स्वयं अपने लिए विनाश की कटनी बोना है। पाप के ज़हर का प्रभाव आप में और आप के परिवार में तेज़ी से फैलता है जो मुसीबतें, बेचैनियां, आपसी मनमुटाव या बैर आदि के रूप में प्रकट होता है। आपने जो कुछ भी किया है, छिपकर या खुलकर, उस सबसे बचकर आप न छुप पाएंगे न कहीं भाग पाएंगे। आपका पाप आपको नहीं छोड़ेगा, इस संसार में बेचैन रखेगा और आते संसार में एक न्याय और फिर विनाश में ले जाएगा। परमेश्वर का वचन कहता है “…क्या यह समझता है कि तू परमेश्वर के दण्ड की आज्ञा से बच जाएगा (रोमियों २:१३)” वह हर एक को उसके कामों के अनुसार बदला देगा। यह निश्चित है क्योंकि परमेश्वर ने अपने सत्य वचन में ऐसा लिखा है। लेकिन दिल से निकली एक दुहाई, एक सच्चे पश्चाताप की प्रार्थना से सब बदल जाएगा। जब पाप क्षमा हो जाएंगे और हटा दिये जाएंगे तो दण्ड का कोई कारण ही नहीं बचेगा “इसलिए अब जो मसीह यीशु में हैं उनपर दण्ड की आज्ञा नहीं है... (रोमियों ८:१)।”

हो सकता है कि आप कहें कि मैं इतना बुरा तो नहीं हूँ। लेकिन आप ईमान्दारी से देखें अपने अश्लील विचारों को, अपनी अभिलाषाओं को, अपने बीते जीवन को। आप ऊपर से कुछ भी दिखते हों, परमेश्वर तो आपके मन को, आपके विचारों को और आपकी अभिलाषाओं को देख लेता है। बाहर से भले होने का दिखावा तो मक्कारी है, असल में आप में जो अपने भले होने का विचार है, वह अपने आप को धोखा देना ही है और आपको एक दिन इस धोखे के परिणाम को भुगतना ही पड़ेगा। सालों पहले की बात है, मैं एक ऐसी जगह खड़ा था जहाँ मौत का सन्नाटा सता रहा था। दिल दहला देने वाला माहौल था, तीन खून से लिथड़ी लाशें वहाँ पड़ी थीं, खून से सने मूँह पर मक्खियाँ भिनभिना रहीं थीं। तीनों पैसे से, शरीर से, रुतबे से बहुत सामर्थी दिखते थे, पर अब अपने मूँह से मक्खी तक नहीं हटा सकते थे। एक हादसे ने एक ही लपटे में इन तीनों को लपेट लिया। एक लाश के हाथ में बन्धी घड़ी अब भी चल रही थी, सैकिंड की सूईं अभी भी चक्कार लगा रही थी पर इन तीनों क वक्त समाप्त हो चुक था। किसीने नहीं सोचा था कि इतनी जल्दी इनका वक्त पूरा हो जाएगा। इनके पास सब कुछ था पर काल के जाल से बच नहीं पाए। वक्त इनके लिए नहीं रुका पर इन्होंने वक्त को नहीं पहिचाना। प्रभु यीशु कहता है “यदि मन न फिराओगे तो इसी तरह नाश हो जाओगे।” “तुम दण्ड के दिन और उस आपत्ति के दिन क्या करोगे? सहयता के लिए किस के पास भाग कर जाओगे। (यशायह १०:३,४)” प्रभु कहता है, “... चाहे तू उकाब की नाई ऊँचा उड़ता हो, वरन तारागण के बीच अपना घोंसला बनाए तो भी मैं तुझे वहाँ से नीचे गिराऊंगा। (ओबादियाह १:४)”

हमारे संसार का सबसे सुरक्षित देश अमेरिका भी असल में कितना असुरक्षित है यह ११ सितंबर की दिल दहला देने वाली घटना ने सारे संसार को दिखा दिया। अभी तो ऐसी ही कितनी ही अन्होनी होनी बाकी हैं। खतरे और खौफ अपनी हद तक पहुँच चुके हैं, बस अब एक झटके की देरी है। ऐसे ही न्याय का दिन भी अचानक ही सब पर आ पड़ेगा और लोग भौंचक्के देखते रह जाएंगे। बीता कल तो एक यादगार बन कर रह गया है, आज भी तेज़ी से बीते कल में बदल रह है। आज और अब ही आने वाले कल के काल से बच निकलने का वक्त है। मित्र मेरे, आने वाले कल से बचकर भाग नहीं पाओगे, उस आते कल का जो बीते कल से ज़्यादा भयानक होगा, सामना तो करना ही पड़ेगा। मित्र मेरे प्यारा प्रभु यीशु आपको प्यार करता है और चाहता है कि आप नाश न हों। बस आपके माफी माँगने की ही देर है, उसकी क्षमा में देरी नहीं है। बस एक प्रार्थना, एक सच्चे दिल की पुकार “हे प्रभु यीशु मेरे पाप क्षमा कर, मुझ पापी पर दया कर” विनाश को अनन्त आनन्द में बदल देगी, क्या आप यह प्रार्थना करेंगे?

मंगलवार, 4 अगस्त 2009

सम्पर्क अक्टूबर २००१: एक खोज...जीवन के सही अर्थ की

मेरा नाम दीपक जरीवाला है और मेरा जन्म मुम्बई शहर के एक गुजराती परिवार में हुआ। मेरी माँ एक धार्मिक प्रवृत्ति की स्त्री है और वह बड़ी गम्भीरता से बहुत से ईश्वरों की उपासना करती है। मुझे भी उन्होंने यही सिखाया और मैं भी आठवीं कक्षा से ही काफी धार्मिक था। मैं अपने घर के छोटे से उपासना स्थाल में दीया जलाया करता था। जब अपनी आँखें बन्द करके मैं तरह-तरह के ईश्वरों से प्रार्थना करता था, तब मुझे एहसास होता था कि मेरा जीवन परमेश्वर की नज़र में ठीक नहीं है और वह मेरे पापों को जानता है। बाहर से तो मैं एक अच्छा लड़का था पर मैं जानता था कि मेरा हृदय दुष्ट है। मेरे अन्दर एक संघर्ष शुरू हो गया कि किसी तरह मेरा जीवन अन्दर से पवित्र और शुद्ध हो सके। जब मैं चारों तरफ लोगों को देखता जो मन्दिर मस्जिद, गुरुद्वारों और गिरजों से अपने आपको बड़ा धार्मिक दर्शाते हुए निकलते थे, तब मुझे वे मक्कार नज़र आते थे।

मेरा एक घनिष्ट पंजाबी मित्र था जो मुम्बई के सेंट मिकाएल गिरजे में ९ बुद्धवार की सभाओं में जाया करता था। एक बार उसने मुझे भी उन ९ बुद्धवार की सभाओं में आमंत्रित किया। वहाँ जाने पर मुझे समझ में आया कि यह ९ बुद्धवार की सभाएं मरियम की पूजा में समर्पित होती थीं। उन लोगों क यह विश्वास था कि इन सभाओं के दौरान किसी की कोई भी अभिलाशा हो तो वह पूरी हो जाती है। पर मेरी कोई खास अभिलाशा नहीं थी लेकिन धार्मिक प्रवृत्ति का होने के कारण मैंने वहाँ जाना शुरू कर दिया। एक शान्त वातावरण, एक भव्य गिरजा और वहाँ सजा सँवरा पादरी खड़ा होकर सन्देश देता, जो कभी-कभी अच्छा भी होता था; यह सब देखकर मैं बड़ा प्रभावित हुआ। जब वे लोग यह प्रार्थना करते कि “माता मरियम तू हमें संसार की दुष्ट, बुरी संगती, गन्दी किताबों और फिल्मों से बचाए रख” तब मैं और भी कायल होता कि मैं वास्तव में एक पापी हूँ। मैंने न केवल ९ बुद्धवार, बल्कि १०४ बुद्धवार तक इन सभाओं में करीब दो साल तक गया। बस एक बार नहीं गया जब मेरी नाक का औपरेशन था - जाना तो मैं तब भी चाहता था पर मेरी माँ ने नहीं जाने दिया। लेकिन वहाँ जाने से भी मेरे मन की हालत में कोई सुधार नहीं आया। मैं पवित्रता के उस स्तर को अनजाने में खोज रहा था जिसे मैं पाने में असमर्थ था। मैं लगातार कई बार सान्ताक्रूज़ के मन्दिर, मस्जिद में भी गया और एक बार साई बाबा का मन्दिर देखने शिरडी भी गया। लेकिन तब भी मैंने कोई खास एहसास या आशीश नहीं पायी। मैं अस्थमा की बीमारी से पीड़ित था। इस बिमारी से छुटकारा पाने के लिए मैं वकोला में एक बाबा के पास गया जो कहता है कि उसने बहुतों को चंगा किया है, परन्तु वह भी मुझे ठीक नहीं कर सका। उसने बड़े बड़े काम किए होंगे पर मेरे लिए वह कुछ नहीं कर सका। करीब दो साल तक मैंने फिल्में और टी०वी० देखना छोड़ दिया यह सोचकर कि यह सब बुराई के स्रोत हैं। मेरे इस व्यवहार से मेरी माँ को बड़ी चिंता हुई कि इस लड़के को क्या हो गया कि इसने फिल्में देखना बन्द कर दिया है। उसने मुझे कुछ धार्मिक पुस्तकें पढ़ने के लिए दीं पर वे भी मुझे संतुष्ट नहीं कर पाईं।

बारहवीं कक्षा पास करने के बाद मैं आई० आई० टी० (इन्जीनियरिंग) में नहीं जा सका। तब मैंने मजबूरी में फैसला लिया कि मैं रूड़की विश्वविद्यालय में इलेक्ट्रोनिक इन्जीनियरिंग के लिए जाऊँगा और मैंने रूड़की विश्वविद्यालय में दाखिला ले लिया। दाखिले के तुरन्त बाद, रैगिंग के दौरान सीनियर लड़कों ने मेरे साथ अनौपचारिक व्यवहार किया जो मेरे लिए बहुत कठिन था। मैं चाहता था कि मेरा धार्मिक जीवन फिर शुरू हो जाए और मैंने एक उपासना स्थल भी देख लिया था जहाँ मैं जा सकूँ। विश्वविद्यालय के अन्दर एक गिरजा घर भी था जहाँ छात्रों की रविवारिय सभा होती थी और मौका मिलते ही मैं वहाँ भी गया। उस सभा में जाकर एक विचित्र बात मैंने पहली बार देखी कि वहाँ न कोई तस्वीर थी जिसकी वे आराधाना करते और न कोई सफेद चोगे वाला पादरी। मैंने उनसे निवेदन किया कि मुझे एक बाईबल चाहिए, क्योंकि यह मेरी हमेशा की इच्छा थी कि मैं बाईबल पढ़ूं। उन्होंने मुझे अगली बार आने का निमंत्रण दिया और जब मैं दोबारा गया तो मेरे लिए एक बाईबल का प्रबंध भी किया हुआ था।

विश्वविद्यालय के होस्टल में एक छात्र के कमरे मेंबाईबल के अद्धयन की सभा में मैं जाने लगा। इन सभाओं में जाने के द्वारा मैं एहसास करने लगा कि बाईबल का परमेश्वर पवित्र है। उसकी नज़रों में एक बुरा विचार भी पाप के बराबर है। और तब मुझे एहसास हुआ कि यही वास्तविक परमेश्वर की पवित्रता हो सकती है। परमेश्वर का वचन बाईबल मुझसे बात करने लगा। याद रखिए कि किसी ने मुझे गिरजा जाने या बाईबल पढ़ने के लिए दबाव नहीं डाला। मुम्बई में मैं कभी भी नामधारी इसाईयों के जीने के ढंग और तौर-तरीकों को पसन्द नहीं करता था। जब मैं विश्वविद्यालय की बाईबल अद्धयन सभा में जाता था तो बहुत कुछ था जो मुझे समझ नहीं आता था, परन्तु एक बात थी जो मेरा ध्यान बार-बार अपनी ओर खींचती थी, वह थी ‘बच-जाना’ ‘उद्धार पाना’ ‘जो बच गए’ ‘जो उद्धार पा गये’ का प्रयोग। मैं बड़ा अचम्भित था कि किससे बचना, उद्धार पाना तो किससे पाना यह बात मुझे बहुत बेचैन करती थी।

२४ सितम्बर १९८६ रात ८:०० बजे की शाम मेरे जीवन की सबसे अदभुत शाम बन गयी जिसे मैं कभी नहीं भूल सकता। उस शाम मैंने बाईबल अद्धयन के बाद एक भाई से पूछा कि ‘बच जाने या उद्धार पाने का का क्या अर्थ है?’ उसने मुझे समझाया, ‘यदि तुम परमेश्वर के सामने मन से मान लो कि तुम एक पापी हो और प्रभु यीशु मसीह पर विश्वास करो कि वह तुम्हारे लिए मरा और तीसरे दिन जी उठा; उसने तुम्हें शुद्ध करने के लिए अपना बहुमूल्य लहू बहाया, और यदि तुम उसे अपने हृदय में ग्रहण करो तो तुम बच जाओगे यानि उद्धार पाओगे।’ यह मुझे बहुत अच्छा लगा, जैसे एक प्यासे के लिए ठंडा पानी। मैं जानता था कि मैं एक पापी हूँ, अब मुझे किसी और की सहमति की ज़रूरत नहीं थी। मैंने उसके आमंत्रण को स्वीकार किया और घुटने टेककर प्रार्थना की ‘हे प्रभु मैं अपने पापों को मानता हूँ। मैं विश्वास करता हूँ कि प्रभु यीशु मेरे लिए मरे और तीसरे दिन जी उठे।’ उस शाम मैंने प्रभु यीशु को अपने दिल में अपना व्यक्तिगत उद्धारकर्ता करके ग्रहण किया और तब से वह मेरे हृदय और जीवन में है। वह मेरे साथ है और उसने मेरे सारे पापों को क्षमा कर दिया है। मैं उस आग की झील से जो नरक कहलाती है अनन्तकाल के लिए बच गया हूँ, उद्धार पा गया हूँ। परमेश्वर के अनुग्रह से मेरे पास एक विश्वासी पत्नी और एक पुत्री है और मैं अपना काम करता हूँ। प्रभु से मेरी यही प्रार्थना है कि जो लोग मेरी यह गवाही पढ़ते हैं वे प्रभु यीशु में अपने जीवन का सही अर्थ खोज सकें।

परमेश्वर आपको आशीश दे।

रविवार, 12 जुलाई 2009

सम्पर्क अक्टूबर २००१: सम्पर्क परमेश्वर के वचन से

सच्ची ज्योती जो हर एक मनुष्य को प्रकाशित करती है - यूहन्ना १:९
सेंज़ा नम का प्रांस का एक महान कलाकार था जो बड़ा जीवट, निर्भीक और ज्ञानवान व्यक्ति था। कुछ ऐसा कहा जाता है कि वह एक सुन्दर घाटी के एक कस्बे के होटल में शाम को पहुँचा। होटल के मालिक ने घाटी की तारीफ करते करते एक बात यह भी कह दी कि यहाँ पर और बहुत रहस्यमय बातें भी हैं। सेंज़ा ‘रहस्यमय’ शब्द से चौंका और पूछा कि वह रहस्यमय बातें क्या हैं? होटल के मालिक ने कहा कि “साहब रात बहुत हो चुकी है, अब आप आराम करें, बाकी बातें कल करेंगे।” लेकिन सेंज़ा अड़ गया कि उसे अभी बताना पड़ेगा। सेंज़ा के काफी ज़िद करने पर होटल के मालिक ने कहा, “एक रहस्यमय बात तो यह है कि इस घाटी में हर रोज़ एक आदमी की मौत होती है।” सेंज़ा ने घबराकर पूछा “आज का आदमी अभी तक मरा या नहीं, नहीं तो मैं यहां से चलूं।”

सेंज़ा जैसा निर्भीक दिखने वाला व्यक्ति भी वास्तव में अन्दर से कितना डरपोक था। हम जो कुछ दिखते हैं वास्तव में हम वह नहीं होते। सच तो यह है कि बस प्रभु ही आपको पूरी तरह से जानता है। वह आपको जितनी अच्छी तरह जानता है कि उतनी अच्छी तरह आप भी अपने को नहीं जानते। वो ही वह सच्ची ज्योति है जो हमारे असली जीवन स्हमारी मुलाकात करा देती है। पवित्र आत्मा यहां इस ज्योति को ‘सच्ची ज्योति’ कह कर क्यों संबोधित कर रहा है? सच्ची ज्योति में वह सामर्थ होती है जो अन्धकार के कामों को सबके सामने रख देती है; “... जो सब कुछ प्रकट करता है वह ज्योति है (इफिसीयों ५:१३)।” वास्तव में ज्योति के निकट आकर ही हमें मालूम होता है कि अंधकार कितना भयानक है।

क्या आपने कभी उजाले के उल्लू के बारे में सुना है? ये वो उल्लू होते हैं जो रहते तो उजाले में हैं पर काम वही अंधेरे वाले करते हैं। ये वे हैं जो बाईबल के शब्दों और पदों को तो जानते हैं पर बाईबल के परमेश्वर को नहीं जानते, उसके प्यार और उसकी सहनशीलता को नहीं जानते।

एक अन्धा भिखारी, शाम के झुटपुटे में लालटैन लेकर बैठा था। किसी ने उस से पूछा “सूरदास जी इस लालटैन का आप से क्या लेना देना?” अन्धा बोला “यह मेरे लिए नहीं आपके लिए है, जिससे आप मुझे देखकर कुछ दे सकें।” कई तो इस अन्धे की तरह सिर्फ अपने मतलब के लिए ज्योति से जुड़े खड़े हैं।

स्वार्थ के टुकड़ों पर दुम हिलाते हुए ये लोग जहाँ जैसा मौका देखते हैं वैसा ही रंग बदल डालते हैं, यह ‘मल्टीकलर’ विशवासी फिलौसफी है। ये मानते हैं कि संसार के सागर में रह कर मगरमच्छ से बैर रख कर जीना सहज नहीं है। इसलिए मगरमच्छ से कुछ समझौते करने में ही ये अपनी भलाई समझते हैं और समझौतों के साथ ही जीते हैं; जैसे बिजली वाले से, लाईसेन्स वाले से, पासपोर्ट वाले से, रेलगाड़ी वाले टीटी से, इत्यादि। कहते हैं “सिर्फ चाए पानी के पैसे दे देता हूँ।” आज रिश्वत के गंदे काम को यह एक खूबसूरत अंदाज़ दे दिया गया है। ज्योति कितना ही प्रकाश क्यों न फैलाए लेकिन इन पर कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि ये तो अपनी आँखें बन्द रखने की ज़िद्द छोड़ने को राज़ी ही नहीं हैं।

ऐसे विश्वासी क्रूस की गाथा को शब्दों से तो जानते हैं पर क्रूस का काम उनके मन में नहीं हुआ होता। कितने ऐसे हैं जो कितनों के लिए मन में बैर, विरोध और भारीपन पालते हैं। विश्वासी तो वह है जो अपने शत्रु के लिए भी बुरा नहीं सोच सकता। क्रूस पर प्रभु यीशु का पहला वाक्य क्या था, क्या आपको याद है? वह वाक्य उसने अपने शत्रुओं के लिए कहा था जिन्होंने उसे ज़लील करके इतनी भयानक और दर्दनाक मौत दी थी। उनके लिए प्रभु ने प्रार्थना की “ऐ बाप इन्हें माफ कर...।” अपने इन शत्रुओं के लिए उसके दिल में ज़रा भी कड़वाहट नहीं थी। यह क्रूस का काम है। आप खुद जानते हैं कि आपके कितने रिशतेदारों के लिए आपके मन में कितना विरोध है; उनका बुरा देखने का विचार आप अपने मन में पाल रहे हैं। मण्डली में कितनों के प्रति कितनी कड़वाहट भरी है। सच्ची ज्योति सब कुछ साफ साफ जता देती है, और इस समय वह आपको आपकी दशा जता रही है। प्रभु का ज्ञान हमारी अज्ञानता को हम पर प्रकट करता है और हमारे मन पर चोट करता है ताकि हम जाग सकें और कुछ सोच सकें।

“बुराई को भलाई से जीत लो (रोमियों१२:२१)।” जिन्होंने आपके लिए बुराई की है, उनके लिए प्रभु से कहें “हे प्रभु मेरे दिल से उनके लिए भारीपन निकलें। मुझे मौका दें और ऐसा दिल भी दें कि मैं उनकी भलाई कर सकूँ।” मित्र मेरे यह बात मैं नहीं, बाईबल कहती है कि बुराई को बुराई से कभी नहीं जीत सकते। आग पर मिट्टी का तेल डालने से आग बुझेगी नहीं और भड़केगी। आग बुझानी है तो उस पर पानी डालो; जलन की आग जीवन के जल से ही बुझेगी। हमें माफी मांगनी ही नहीं माफी देनी भी आनी चाहिए। कई बार माफी देकर भी हम उस बात को अपने मन में याद रखते हैं ताकि जब कभी मौका आए तो उसका उपयोग किया जा सके। यह सच्ची माफी नहीं है, इस तरह ही हमारे समंबन्धों में मक्कारी पनपने लगती है। जो वास्तव में मसीह के साथ चलता है वह हमेशा हर विरोध को एक तरफ रखकर जीता है। मन में बुराई रखकर विश्वासी किसी भले काम का नहीं रह पाता।

मौत का डर सबसे डरावना डर होता है, जैसे शमशान की शान भी अपनी एक अलग शान होती है; हर शानदार आदमी भी वहाँ सहम सा जाता है। शमशान हो या कब्रिस्तान, वहाँ न साँस है न सिसकी, न आह है न आहट, बस एक दिल में एक सर्द एहसास देती खामोशी है जो कहती है “तू कब तक बचेगा, एक दिन तुझे भी यहीं रह जाने के लिए आना है।” कभी कभी मन एक सवाल से परेशान होता है कि इतने आदमी बेमकसद क्यों मर रहे हैं? पर हमारा मन यह सवाल क्यों नहीं करता कि इतने सारे आदमी बिना मकसद क्यों जी रहे हैं? मेरे दोस्त, हमारा हर पाप हमारे जीवन के मकसद को ही मिटा डालता है। अब इंसान ही नहीं संसार भी अपनी समाप्ति की ओर आ गया है। संसार का अंधकार तो समाप्त नहीं होगा पर आपके मन का अंधकार ज़रूर दूर हो सकता है। अब फैसला आप पर है कि आप सत्य पर लात मारो या उसे दिल में सजाओ। जैसा आपने पहले कितने संदेशों के साथ किया है, क्या आप इसके साथ भी वही करने जा रहे हैं? अब समय को पहचान कर सही निर्णय का समय है। “यीशु ने कहा ज्योति थोड़ी देर तक तुम्हारे बीच में है, जब तक ज्योति तुम्हारे साथ है तब तक चले चलो, ऐसा न हो कि अंधकार तुम्हें आ घेरे (यूहन्ना १२:३५)।”

प्रभु करे कि अब आप के दिल की प्रार्थना हो “हे प्रभु यीशु तू जो जीवन की सच्ची ज्योति है, मुझ पर अपनी दया बनाए रख, कहीं अंधकार मुझे न आ घेरे और मैं कहीं जीवन का उद्देश्य ही न खो डालूँ - आमीन।”

गुरुवार, 9 जुलाई 2009

सम्पर्क अक्टूबर २००१: सम्पादकीय

सच तो यह है कि आपके प्रेम ने, प्रार्थनाओं ने और प्यार भरे पत्रों ने सम्पर्क परिवार को पहले साल की पहली यात्रा पूरी करने में पूरा सहयोग दिया है। जब मैं अपनी ओर देखता हूँ तो बहुत ही निराश होता हूँ। पर जब जब मैं अपने प्रभु की ओर देखता हूँ तो मेरा मन प्रभु की महिमा गाने लगता है।

प्रभु के प्यार और हमारे प्यार में बड़ा फर्क है। हम उस से ही प्यार करते हैं कम से कम जो प्यार करने लायक तो हो। प्रभु ऐसों को प्यार करता है जो ज़रा भी प्यार करने के लायक हैं ही नहीं। प्रभु किसी भले आदमी पर अपनी भलाई दिखाए तो यह एक भली बात है; पर उसने मुझ जैसे बुरे आदमी पर इतनी भलाई दिखाई, यह तो बस एक गज़ब का प्यार है। प्रभु की दया रही तो उसकी इस दया को जो उसने मुझ पर की छोटे छोटे टुकड़ों में आने वाले सम्पर्क सम्पादकीयों में आपके साथ बाँटता रहूँगा।

मैं काले बोर्ड पर सफेद चौक घिसकर अपना पेट पालता हूँ। उम्र ५६ साल है बालों पर खिज़ाब नहीं लगाता। खिज़ाब लगाऊं भी तो कहाँ, बाल तो नाम मात्र को खोपड़ी के किनारों पर झालर की तरह ही शेष बचे हैं और वो भी एक के बाद एक तेज़ी से त्याग-पत्र देते जा रहे हैं। मैंने अपना पुशतैनी मज़हब और माँ-बाप, दोनों ही अपनी मर्ज़ी से नहीं चुने थे और न ही यह कर पाना मुम्किन था। न कोई बहन न भाई, घर पर मौत का साया इतना भयानक था कि कोई बचता ही नहीं था। फिर भी हमारा परिवार पूरी तरह शैतान को समर्पित था। अक्सर हमारे परिवार में छोटी छोटी बातों पर बड़ी बड़ी मार पीट बजती रहती थी। यही पुशतैनी स्वभाव मेरी ज़िन्दगी में भी तेज़ी से जमने लगा। मेरे माँ-बाप दोनो ही नौकरी करते थे, मेरे लिए उनके पास वक्त ही कहाँ बच पाता था। जैसे ही नेकर में पाँव डालने की उम्र तक पहुँचा, ज़िन्दगी की गन्दगी से खेलना भी शुरू कर दिया।

मेरे पिताजी को हुक्केबाज़ी का बड़ा शौक था। कभी कभी वो मूँह से धुएं के छल्ले निकालते थे, एक छल्ला फिर दूसरा छल्ला फिर तीसरा छल्ला और फिर एक फूँक से तीनों एक दूसरे में से निकालकर बिखेरते जाते। यह सब कुछ देखकर मुझे बड़ा मज़ा आता था, फिर मुझे भी तो यह सब कुछ करके दिखाना था। अधकचरी उम्र में ही मुझे बुरी लतों ने घेर लिया। मेरे घर पर जमे मौत के साए के कारण मेरे पिताजी को टी०बी० की लम्बी बिमारी मौत के मूँह में ले गई। अब मैं और मेरी माँ ही बचे थे। माँ भी बचते बचते ही बची थी। बाप की मौत के बाद मेरे लिए एक आज़ादी थी - जो करो, जैसे भी करो। अब मैं तहज़ीब को तहमद की तरह खूंटे पर टांग कर पूरी बदतमीज़ी पहन कर खड़ा हो गया। मुझे समझ पाना अपने में एक टेढ़ी खीर थी। स्कूल में मिले नम्बरों से पता नहीं चलता था कि वास्तव में मैं क्या हूँ। मैं देखने में बड़ा भोला और भला दिखता था पर अन्दर की कहानी तो कुछ और ही थी। (प्रभु की दया रही तो बीच की बची कहानी फिर अगले अंकों में कहूँगा।)

उस समय ज़िन्दगी की पूरी मस्ती छन रही थी, पर जब जब मैं अकेला होता था तो एक खालीपन की बेचैनी मुझे हमेशा बेचैन करती थी, और यह बेचैनी बढ़ती ही जा रही थी। अनेक धर्मों के द्वार पर इस खालीपन को भरने के लिए गया, पर प्यासा ही लौटा। मुझे जल की तस्वीर नहीं पर वह वास्तविक जल चाहिए था जो अन्दर तृप्ती दे। धर्मों में बड़ा उल्झाव था। इतना सिर मारकर भी धर्मों में वह सिरा नहीं मिला जहाँ से मैं शुरू करता। आखिर सब ही मक्कारी से लगने लगे। बाईबल भी मुझे रूखी, बेमज़ा और उबाऊ किताब लगी और उसकी बातें मुझे बेवकूफी से भरी लगीं। अब मैंने एक बगावत शुरू कर दी, साम्यवादी विचारों को स्वीकार कर मैं नास्तिक बन गया। परमेश्वर के विरोध में बोलने लगा, बाईबल को झूठा कहने लग जब कि मैंने पूरी बाईबल पढ़ी भी नहीं थी, मात्र कुछ अंश ही कहीं कहीं से पढ़े थे। अब मेरे लिए परमेश्वर शून्य और सन्नाटा ही था। लोगों को तो मैं एक जुनून के साथ ज़िन्दगी जीता और ज़बरदस्त मस्ती छानता दिखता था। लोगों के सामने बहुत हंसता और चहकता हुआ दिखता था पर अकेले में मेरा मन बहुत उचाट रहता था। मैं मन मसोस कर जी रहा था और अपने-आप से पूरी तरह हताश हो चुका था।

एक दिन एक व्यक्ति मेरे घर आकर मेरी बीमार चाची को बाईबल पढ़कर सुना रहे थे। मेरी तरफ उनकी पीठ थी। जो कुछ उन्होंने पढ़ा उसे सुनकर मुझे एक बिजली का झटका सा लगा और मैं एकदम भौंचक्का सा रह गया। ऐसा लगा कि यहाँ सब कुछ मेरे बारे में ही लिखा है और उन्होंने मुझे उघाड़कर मेरी छिपी हुई ज़िन्दगी को खोलकर सबके सामने पढ़ डाला है। पहले मैं सकपकाया लेकिन फिर अपने आप को संभाला। मैंने ज़िन्दगी में पहली बार ऐसी दस्तक अपने दिल के द्वार पर सुनी। वह बुज़ुर्ग व्यक्ति जाते जाते एक सभा में आने का प्यार भरा निमंत्रण दे गए। मैंने उन्हें वायदा दिया कि चलूँगा, इसलिए मुझे लेने वह कई बार मेरे घर आए पर मैं किसी तरह बहाने देकर उन्हें रफा दफा करता रहा। मेरे लिए यह निहायत ही बेवकूफी की बात थी कि शाम को ‘बरबाद’ किया जाए और वह भी किसी धर्म के नाम पर। पर वह बुज़ुर्ग व्यक्ति अक्सर घर आते रहे और मुझे बुलाते रहे।

एक दिन मैं मजबूरी में चला ही गया। कोई अदृष्य शक्ति ही मुझे खीच कर ले गई। मैं वहाँ मन मारकर बैठा रहा, वहाँ से निकल भागना चाहता था पर कोई था जो मुझे रोके रहा। वहाँ जो व्यक्ति प्रवचन दे रहे थे वह कुछ इस तरह कह रहे थे कि पापों से माफी मांगनी चाहिए; प्रभु यीशु पापों को क्षमा करता है और जीवन बदल जाता है। मेरा मन कहता कि ऐसा कैसे हो सकता है कि एक प्रार्थना करने से जीवन ही बदल जाए। मुझे इस बात पर कतई विश्वास नहीं हुआ। लेकिन एक बात ज़रूर हुई कि मैंने अच्छा आदमी बनने की पूरी कोशिश शुरू कर दी, कि सिग्रेट, शराब नहीं पीऊँगा और फिल्म आदि नहीं देखूंगा। यह सिलसिला ज़्यादा दिन नहीं चल सका और पुरानी आदतें वैसी ही बनी रहीं, फर्क सिर्फ इतना हुआ कि मैं अब और ज़्यादा बेचैन रहने लगा। बीच बीच में आत्म हत्या के प्रयास भी किए। ऐसा लग रहा था कि ज़िन्दगी रुक सी गई है और दम घुट रहा है। मौत मिल नहीं रही थी और ज़िन्दगी जी नहीं पा रहा था। मैं बहुत थक चुका था। मैंने अच्छा बनने के लिए बहुत मेहनत की थी पर हर बार हार ही हाथ लगी। मरता क्या न करता; मैं अपनी ज़िन्दगी की सबसे यादगार उस अंधेरी रात पर आ गया था जिसने मुझे हमेशा के उजाले में लाकर खड़ा कर दिया। मैंने एक आखिरी उम्मीद से प्रभु का द्वार खटखटा ही दिया। एक शक मेरे सीने में तब भी था कि क्या यीशु मेरा जीवन बदल सकता है? मैंने प्रभु यीशु से जो प्रार्थना उस समय की उसके सही शब्द तो मुझे अब याद नहीं, पर उस प्रार्थना का भाव याद है। सच्चाई यह थी कि मैं प्रार्थना से प्रभु यीशु को परखना चाहता था। मुझमें न तो नरक का डर था न ही स्वर्ग का प्रलोभन। मैं अपनी इस बड़ी अजीब बेचैनी से बाहर आना चहता था। मैं बहुत अकेला था और मुझे कोई चाहिए था जिससे मैं कुछ कह सकूँ - शायद यीशु ही मेरी सुन ले। प्रभु से प्रार्थना करने के बाद मैं एक बड़े ही गज़ब के अनुभव से गुज़रा। बाहर से तो मेरा कुछ नहीं बदला पर अन्दर एक अजीब सी खुशी मुझे मिल गई। इस खुशी को शब्दों में बयान करने लायक शब्द आज तक मुझे नहीं मिले। अब मुझे मालूम हुआ कि मेरे प्रभु के पास मेरे जीवन के लिए एक योजना है और यह योजना आत्म हत्या तो कतई नहीं है। खैर अभी यहीं तक, शेष फिर अगले अंक में, प्रभु की उस दया को जो मुझ पर हुई, प्रभु की दया से कहता रहूँगा।

आपके बहुत सारे पत्र हमें मिलते हैं और लगभग हर पत्र का जवाब हम डाक द्वारा देने का प्रयास करते हैं। अभी आए एक पत्र का जवाब मैं आप को सब के साथ देना चाहूँगा। पत्र लिखने वाले ने, अपने ढंग से सवाल पूछा है कि हम किस मिशन के हैं? सालों से इस सवाल के साथ लोग अक्सर मुझे घेरे रहते हैं।

कुछ खतरनाक विचार हमारे दिमाग से गुज़रते हैं जो बड़ा बिगाड़ पैदा करते हैं और हमारे दिलों में बे सिर पैर की दहशत पैदा कर डालते हैं। एक पुरानी आप-बीती आपके साथ बाँटना चाहुँगा। मैं नया-नया प्रभु में आया था, एक दिन कई लोगों के साथ एक घर में बैठा था। वहाँ एक बड़े सड़ियल स्वभाव के एक इसाई साहब भी बैठे थे और खामख्वाह काज़ी बन रहे थे, अपनी ही हाँके जा रहे थे। शायद उनके इतने बड़े शरीर में परमेश्वर के प्यार का एहसास करने वाला दिल फिट ही नहीं था। इतने में पीने के लिए सबको पानी दिया गया। मैंने पानी का गिलास हाथ में लिया और आँखें बन्द करके परमेश्वर को मन में ही धन्यवाद करके पीना शुरू किया ही था कि वह साहब बोले “ क्यों भई तुम क्या फलां मिशन के हो?” यह सुनते ही मेरा कलेजा कबाब हो गया, पानी तो मैं जैसे तैसे पी गया पर अपना गुस्सा न पी सका। इस तरह गुस्से से बड़ों को जवाब देना परी तरह गलत था, मुझे अपनी बात प्यार से कहनी चाहिए थी। पर उस समय इतनी परिपक्वता नहीं थी, झुंझलाकर जवाब दिया “साहब जो हमें एक गिलास पानी देता है उसे हम मुस्कुराकर प्यार से ‘थैंक यू’ (यानि धन्यवाद) बोलते हैं, पर जिसने पानी बनाया है उसे ‘थैंक यू’ बोलते ही क्या हम ‘फलां’ मिशन के बन जाते हैं? हमारे दिमाग का पूरा अकीदा यह है कि मसीह को मानने वाला किसी न किसी मिशन का ज़रूर होगा। वैसे ही जैसे परमेश्वर को मानने वाला किसी न किसी धर्म का ज़रूर होगा। मैं आपसे सवाल पूछता हूँ, कृपया मुझे बाईबल से बताएं कि प्रभु यीशु किस मिशन का था, मैं उस मिशन को स्वीकार कर लूँगा। जब प्रभु ही किसी मिशन का नहीं था तो आप हमें किसी विशेष मिशन में क्यों धकेलना चाहते हैं?”

मेरे प्यारे पाठकों आप परमेश्वर और हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण हो। परमेश्वर की दया और आपकी प्रार्थनों के सहारे ही हम सम्भले रहते हैं। आप से विनम्र निवेदन है कि कम से कम एक जन को ‘सम्पर्क’ पत्रिका का अपनी तरफ से सदस्य ज़रूर बनाएं - हम ‘सम्पर्क’ के साथ दुगने लोगों तक पहुँच पाएंगे। बस हमें स्वर्गीय सामर्थ की आवश्यक्ता है जो हमें आपकी प्रार्थनाओं से प्राप्त होती है। प्रभु ने चाहा तो फिर और आगे अगले अंक में आपसे सम्पर्क करेंगे।

प्रभु में आपका,

“सम्पर्क परिवार”