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मंगलवार, 4 अगस्त 2009

सम्पर्क अक्टूबर २००१: एक खोज...जीवन के सही अर्थ की

मेरा नाम दीपक जरीवाला है और मेरा जन्म मुम्बई शहर के एक गुजराती परिवार में हुआ। मेरी माँ एक धार्मिक प्रवृत्ति की स्त्री है और वह बड़ी गम्भीरता से बहुत से ईश्वरों की उपासना करती है। मुझे भी उन्होंने यही सिखाया और मैं भी आठवीं कक्षा से ही काफी धार्मिक था। मैं अपने घर के छोटे से उपासना स्थाल में दीया जलाया करता था। जब अपनी आँखें बन्द करके मैं तरह-तरह के ईश्वरों से प्रार्थना करता था, तब मुझे एहसास होता था कि मेरा जीवन परमेश्वर की नज़र में ठीक नहीं है और वह मेरे पापों को जानता है। बाहर से तो मैं एक अच्छा लड़का था पर मैं जानता था कि मेरा हृदय दुष्ट है। मेरे अन्दर एक संघर्ष शुरू हो गया कि किसी तरह मेरा जीवन अन्दर से पवित्र और शुद्ध हो सके। जब मैं चारों तरफ लोगों को देखता जो मन्दिर मस्जिद, गुरुद्वारों और गिरजों से अपने आपको बड़ा धार्मिक दर्शाते हुए निकलते थे, तब मुझे वे मक्कार नज़र आते थे।

मेरा एक घनिष्ट पंजाबी मित्र था जो मुम्बई के सेंट मिकाएल गिरजे में ९ बुद्धवार की सभाओं में जाया करता था। एक बार उसने मुझे भी उन ९ बुद्धवार की सभाओं में आमंत्रित किया। वहाँ जाने पर मुझे समझ में आया कि यह ९ बुद्धवार की सभाएं मरियम की पूजा में समर्पित होती थीं। उन लोगों क यह विश्वास था कि इन सभाओं के दौरान किसी की कोई भी अभिलाशा हो तो वह पूरी हो जाती है। पर मेरी कोई खास अभिलाशा नहीं थी लेकिन धार्मिक प्रवृत्ति का होने के कारण मैंने वहाँ जाना शुरू कर दिया। एक शान्त वातावरण, एक भव्य गिरजा और वहाँ सजा सँवरा पादरी खड़ा होकर सन्देश देता, जो कभी-कभी अच्छा भी होता था; यह सब देखकर मैं बड़ा प्रभावित हुआ। जब वे लोग यह प्रार्थना करते कि “माता मरियम तू हमें संसार की दुष्ट, बुरी संगती, गन्दी किताबों और फिल्मों से बचाए रख” तब मैं और भी कायल होता कि मैं वास्तव में एक पापी हूँ। मैंने न केवल ९ बुद्धवार, बल्कि १०४ बुद्धवार तक इन सभाओं में करीब दो साल तक गया। बस एक बार नहीं गया जब मेरी नाक का औपरेशन था - जाना तो मैं तब भी चाहता था पर मेरी माँ ने नहीं जाने दिया। लेकिन वहाँ जाने से भी मेरे मन की हालत में कोई सुधार नहीं आया। मैं पवित्रता के उस स्तर को अनजाने में खोज रहा था जिसे मैं पाने में असमर्थ था। मैं लगातार कई बार सान्ताक्रूज़ के मन्दिर, मस्जिद में भी गया और एक बार साई बाबा का मन्दिर देखने शिरडी भी गया। लेकिन तब भी मैंने कोई खास एहसास या आशीश नहीं पायी। मैं अस्थमा की बीमारी से पीड़ित था। इस बिमारी से छुटकारा पाने के लिए मैं वकोला में एक बाबा के पास गया जो कहता है कि उसने बहुतों को चंगा किया है, परन्तु वह भी मुझे ठीक नहीं कर सका। उसने बड़े बड़े काम किए होंगे पर मेरे लिए वह कुछ नहीं कर सका। करीब दो साल तक मैंने फिल्में और टी०वी० देखना छोड़ दिया यह सोचकर कि यह सब बुराई के स्रोत हैं। मेरे इस व्यवहार से मेरी माँ को बड़ी चिंता हुई कि इस लड़के को क्या हो गया कि इसने फिल्में देखना बन्द कर दिया है। उसने मुझे कुछ धार्मिक पुस्तकें पढ़ने के लिए दीं पर वे भी मुझे संतुष्ट नहीं कर पाईं।

बारहवीं कक्षा पास करने के बाद मैं आई० आई० टी० (इन्जीनियरिंग) में नहीं जा सका। तब मैंने मजबूरी में फैसला लिया कि मैं रूड़की विश्वविद्यालय में इलेक्ट्रोनिक इन्जीनियरिंग के लिए जाऊँगा और मैंने रूड़की विश्वविद्यालय में दाखिला ले लिया। दाखिले के तुरन्त बाद, रैगिंग के दौरान सीनियर लड़कों ने मेरे साथ अनौपचारिक व्यवहार किया जो मेरे लिए बहुत कठिन था। मैं चाहता था कि मेरा धार्मिक जीवन फिर शुरू हो जाए और मैंने एक उपासना स्थल भी देख लिया था जहाँ मैं जा सकूँ। विश्वविद्यालय के अन्दर एक गिरजा घर भी था जहाँ छात्रों की रविवारिय सभा होती थी और मौका मिलते ही मैं वहाँ भी गया। उस सभा में जाकर एक विचित्र बात मैंने पहली बार देखी कि वहाँ न कोई तस्वीर थी जिसकी वे आराधाना करते और न कोई सफेद चोगे वाला पादरी। मैंने उनसे निवेदन किया कि मुझे एक बाईबल चाहिए, क्योंकि यह मेरी हमेशा की इच्छा थी कि मैं बाईबल पढ़ूं। उन्होंने मुझे अगली बार आने का निमंत्रण दिया और जब मैं दोबारा गया तो मेरे लिए एक बाईबल का प्रबंध भी किया हुआ था।

विश्वविद्यालय के होस्टल में एक छात्र के कमरे मेंबाईबल के अद्धयन की सभा में मैं जाने लगा। इन सभाओं में जाने के द्वारा मैं एहसास करने लगा कि बाईबल का परमेश्वर पवित्र है। उसकी नज़रों में एक बुरा विचार भी पाप के बराबर है। और तब मुझे एहसास हुआ कि यही वास्तविक परमेश्वर की पवित्रता हो सकती है। परमेश्वर का वचन बाईबल मुझसे बात करने लगा। याद रखिए कि किसी ने मुझे गिरजा जाने या बाईबल पढ़ने के लिए दबाव नहीं डाला। मुम्बई में मैं कभी भी नामधारी इसाईयों के जीने के ढंग और तौर-तरीकों को पसन्द नहीं करता था। जब मैं विश्वविद्यालय की बाईबल अद्धयन सभा में जाता था तो बहुत कुछ था जो मुझे समझ नहीं आता था, परन्तु एक बात थी जो मेरा ध्यान बार-बार अपनी ओर खींचती थी, वह थी ‘बच-जाना’ ‘उद्धार पाना’ ‘जो बच गए’ ‘जो उद्धार पा गये’ का प्रयोग। मैं बड़ा अचम्भित था कि किससे बचना, उद्धार पाना तो किससे पाना यह बात मुझे बहुत बेचैन करती थी।

२४ सितम्बर १९८६ रात ८:०० बजे की शाम मेरे जीवन की सबसे अदभुत शाम बन गयी जिसे मैं कभी नहीं भूल सकता। उस शाम मैंने बाईबल अद्धयन के बाद एक भाई से पूछा कि ‘बच जाने या उद्धार पाने का का क्या अर्थ है?’ उसने मुझे समझाया, ‘यदि तुम परमेश्वर के सामने मन से मान लो कि तुम एक पापी हो और प्रभु यीशु मसीह पर विश्वास करो कि वह तुम्हारे लिए मरा और तीसरे दिन जी उठा; उसने तुम्हें शुद्ध करने के लिए अपना बहुमूल्य लहू बहाया, और यदि तुम उसे अपने हृदय में ग्रहण करो तो तुम बच जाओगे यानि उद्धार पाओगे।’ यह मुझे बहुत अच्छा लगा, जैसे एक प्यासे के लिए ठंडा पानी। मैं जानता था कि मैं एक पापी हूँ, अब मुझे किसी और की सहमति की ज़रूरत नहीं थी। मैंने उसके आमंत्रण को स्वीकार किया और घुटने टेककर प्रार्थना की ‘हे प्रभु मैं अपने पापों को मानता हूँ। मैं विश्वास करता हूँ कि प्रभु यीशु मेरे लिए मरे और तीसरे दिन जी उठे।’ उस शाम मैंने प्रभु यीशु को अपने दिल में अपना व्यक्तिगत उद्धारकर्ता करके ग्रहण किया और तब से वह मेरे हृदय और जीवन में है। वह मेरे साथ है और उसने मेरे सारे पापों को क्षमा कर दिया है। मैं उस आग की झील से जो नरक कहलाती है अनन्तकाल के लिए बच गया हूँ, उद्धार पा गया हूँ। परमेश्वर के अनुग्रह से मेरे पास एक विश्वासी पत्नी और एक पुत्री है और मैं अपना काम करता हूँ। प्रभु से मेरी यही प्रार्थना है कि जो लोग मेरी यह गवाही पढ़ते हैं वे प्रभु यीशु में अपने जीवन का सही अर्थ खोज सकें।

परमेश्वर आपको आशीश दे।

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