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सोमवार, 17 अगस्त 2009

सम्पर्क अगस्त २००१: एक प्यासा जीवन के जल के पास

मेरा नाम प्रभजोत सिंह चानी है। मेरा जन्म १९६७ में दिल्ली के एक सिख परिवार में हुआ। मैं अभी रूड़की विश्वविद्यालय में एक अध्यापक हूँ। मेरे माता पिता ने बचपन से ही मुझ पर कोई धार्मिक दबाव नहीं डाला। जबकि मुझे अपने धर्म का कुछ भी ज्ञान नहीं था, लेकिन फिर भी मुझे सिख होने का घमण्ड था। मैं बहुत छोटी उम्र से ही एक दोगला जीवन बिताने लगा-एक जीवन घर में दूसरा घर के बाहर। बचपन से ही मैंने अपने माँ बाप के बीच में छोटी बड़ी बातों पर लड़ाई झगड़ा होते देखा; उनकी गालियों और चीखने चिल्लाने से मैं बहुत सहम जाता। घर के अन्दर मैं एक सहमा दबा हुआ जीवन जीता और घर के बाहर अपने दोस्तों के साथ गन्दे घिनौने पापों में मज़ा लेकर मन बहलाता।

मेरे पिता लगातार अपनी नौकरी में तरक्की करते गए। घर में सच्ची खुशी और शान्ती के सिवाए किसी चीज़ की कमी नहीं थी। दिल्ली के सर्वश्रेष्ठ स्कूल में पढ़ने से मुझे लगने लगा कि जीवन का वास्त्विक आनन्द पैसे और अधिकार से ही मिलता है। फिर भी मेरे मन में अजीब सी बेचैनी और अकेलापन रहता था। मैं कभी अपने माँ बाप से खुलकर बात नहीं कर पाता था और अपने हम-उम्र दोस्तों में खुशी खोजता था पर यह खुशी थोड़े समय की ही होती थी। ११वीं कक्षा ताक आते-आते मैं पापों में धंस चुका था। सिग्रेट-शराब पीना, भद्दी पार्टियों में जाना, गन्दी किताबें और फिल्में मेरे जीवन का हिस्सा बन चुकी थीं। मेरे माँ बाप के आपसी सम्बन्ध भी बहुत नीचे आ गये थे जिसे मैं चुप होकर देखता रहता। मेरा दिल अपने पिता के प्रति घृणा से भर चुका था। इन सब के बीच मेरी पढ़ाई को चोट लगी परन्तु फिर भी मेरा दाखिला रूड़की विश्वविद्यालय में हो गया। जो विष्य मैं लेना चाहता था वह मुझे नहीं मिल जिससे मेरी निराशा और बढ़ गई। अन्दर ही अन्दर मैं जानता था कि अपनी इस हालत का दोषी मैं खुद हूँ, पर सुधरने के विपरीत कॉलेज और होस्टल के आज़ाद वातवरण में मैं और भी बिगड़ता गया। अपने पिता का पैसा पानी की तरह बहाना और उन्हें झूठा हिसाब देना मेरे लिये हर बार की बात थी। साथ ही साथ मेरी अशान्ति और बढ़ने लगी। मेरे निजी सम्बन्धों में मुझे कुछ और करारे झटके लगे जिससे मैं अपने माँ बाप से और दूर होता चला गया।

१९८७ के आखिर में आते-आते तक मैं अपने आप को खोया हुआ महसूस करने लगा, सब कुछ होते हुए भी मैं कंगाल खड़ा था। ऐसा लगता था कि अब आगे चलने की ताकत नहीं रही। मैं हार चुका था अपने स्वभाव से, अपने पापों से अपनी परिस्थितियों से। एक शाम मैं अपने डिपार्टमेंट से अपने हॉस्टल लौट रहा था, जहाँ तक मुझे याद पड़ता है, मेरी आँखों में आँसू थे। एक मोड़ मुड़ते हि मैंने अपने सामने एक लड़के को खड़ा देखा जिसके बारे में मैंने उन दिनों सुना था कि वह कहता था कि रूड़की में मेरा नया जन्म हुआ है। उसके इस अजीब वाक्य ने मुझे उसकी ओर खींचा। मैं सड़क पर चलते-चलते उससे बात करने लगा, लेकिन वह मुझसे पापों के प्रायश्चित के बारे में बातें कर रहा था। उसकी यह बातें मेरी कुछ खास समझ नहीं आईं पर उसने रात अपने कमरे पर आने का निमंत्रण दिया जो मैंने स्वीकार कर लिया। मुझे नए विचार सुनना अच्छा लगता था इसलिए उस रात मैं उस छात्र के कमरे पर गया। उसने मुझे बाईबल से खोल कर दिखाया और जो पद मेरे सामने थे, उन्में लिखा था “जो कोई यह जल पीएगा वह फिर प्यासा होगा, परन्तु जो जल मैं उसे दूँगा वह फिर प्यासा न होगा...” (यूहन्ना४:१३)। मुझे ऐसा लगा कि मानो कोई मुझ से बात कर रहा हो। यह मेरे जीवन की हालत थी। मेरे पास सब कुछ था, पर फिर भी मैं प्यासा था; और यह यीशु मेरी प्यास हमेशा के लिए बुझाने का आश्वासन दे रहा था। मैं अपने कमरे पर वापस लौट आया। इस बातचीत ने मुझे बहुत प्रभावित किया, परन्तु मैं यीशु और परमेश्वर के अस्तित्व पर विश्वास नहीं कर सका क्योंकि जवान होते-होते मैं नास्त्क प्रवर्ति का बन चुका था। कुछ दिन बाद वही छात्र मेरे कमरे पर आया और मुझे एक प्रार्थना करने के लिए कहा। मैंने उसकी बात रखने के लिए और थोड़ी जिज्ञासा के साथ उसके पीछे-पीछे एक प्रार्थना की पंक्तियाँ दोहरा दीं। मुझे शब्द तो याद नहीं पर वह पापों की माफी और प्रभु यीशु पर विश्वास करने की प्रार्थना थी।

इस प्रार्थना से कोई बाहरी बदलाव तो नहीं आया लेकिन अगले ही दिन मुझे एहसास होने लगा कि मैं अन्दर से बदलने लगा हूँ। इसकी शुरुआत ऐसे हुई कि मेरे मूँह से गन्दी गालियाँ, जिन्हें मैं बकना छोड़ नहीं सकता था, अपने आप निकलनी बन्द हो गईं। मैं हैरान था कि क्या यह कोई मनोवैज्ञानिक बात है या वासत्व में कोई जीवित परमेश्वर है? इस सवाल के उत्तर के लिए मैं एक भूखे आदमी की तरह बाईबल पढ़ने लगा। प्रभु यीशु की अदभुत बातें और उसका प्रेम मेरे मन को छू गया। कई बार वचन पढ़ते पढ़ते मैं रो पड़ता था। मेरा जीवन, मेरा स्वभाव बदलता जा रहा था।

मैं प्रभु के लोगों के साथ संगति करने लगा और उनकी संगति और प्रार्थना और वचन पढ़ने से मेरा विश्वास स्थिर होता गया। मुझे विश्वास हो गया कि मुझे पापों और उसकी भयानक सज़ा से छुटकारा देने के लिये ही प्रभु यीशु ने क्रूस पर अपने प्राण दिये और वह मर कर फिर तीसरे दिन जी उठे। जब मैंने यह बातें अपने परिवार में बताईं तो अचानक बहुत विरोध उठ खड़ा हुआ। कुछ कट्टरवादी लोग भी धमकियाँ देने लगे। कई बार लगा कि मेरे पिता मुझे घर से निकाल देंगे। लेकिन अजीब बात यह थी कि अब मेरे अन्दर पहले सा डर नहीं था। प्रभु ने मुझे हिम्मत से भर दिया कि मैं विश्वास में खड़ा रह सकूँ। मेरे मन में मेरे माता पिता के प्रति सच्चा प्रेम और आदर आने लगा।

मैं प्रभु के लोगों के साथ संगति करने लगा और उनकी संगति और प्रार्थना और वचन पढ़ने से मेरा विश्वास स्थिर होता गया। मुझे विश्वास हो गया कि मुझे पापों और उसकी भयानक सज़ा से छुटकारा देने के लिये ही प्रभु यीशु ने क्रूस पर अपने प्राण दिये और वह मर कर फिर तीसरे दिन जी उठे। जब मैंने यह बातें अपने परिवार में बताईं तो अचानक बहुत विरोध उठ खड़ा हुआ। कुछ कट्टरवादी लोग भी धमकियाँ देने लगे। कई बार लगा कि मेरे पिता मुझे घर से निकाल देंगे। लेकिन अजीब बात यह थी कि अब मेरे अन्दर पहले सा डर नहीं था। प्रभु ने मुझे हिम्मत से भर दिया कि मैं विश्वास में खड़ा रह सकूँ। मेरे मन में मेरे माता पिता के प्रति सच्चा प्रेम और आदर आने लगा।

कई साल मैं अपने परिवार को समझाता रहा कि मैंने कोई धर्म परिवर्तन नहीं किया है बल्कि मेरा जीवन बदल गया है। १९९१ में प्रभु ने मुझे स्पष्ट रीति से रू़ड़की में रहने के लिये कहा। मेरे घर में फिर विरोध हुआ, लेकिन प्रभु मेरे लिए रास्ते निकलता चला गया और मैं उच्च शिक्षा रूड़की विश्वविद्यालय में ज़ारी रख सका।

१९९५ में एक सड़क दुर्घटना में मेरी दाईं टाँग खराब हो गई। कई बहुत काबिल डाकटरों की कोशिशों के बावजूद भी वो उसे ठीक नहीं कर सके। दो साल अस्पताल के अन्दर बाहर और कई अपरेशनों के बीच मैं बहुत अकेलेपन और घोर निराशा से निकला। इस दौरान मैंने अपने आत्मिक जीवन में पहली बार प्रभु को इतना करीब से देखा। धीरे-धीरे मैं सीखने लगा कि मेरे जीवन की डोर उसी के हाथ में है और प्रभु मेरा बुरा नहीं होने देगा। इस हादसे ने मेरे माता पिता पर भी प्रभाव डाला, क्योंकि वे प्रभु के लोगों का मेरे प्रति प्रेम और मेरे जीवन में प्रभु की शांति को देखते थे। मेरे माता पिता चिंतित थे कि हमारा बेटा लंगड़ाता है, सो कौन इससे विवाह करेगा? लेकिन प्रभु ने १९९७ में मुझे अपने अदभुत प्रेम में एक ऐसी पत्नी दी जो प्रभु की दया से सच में मेरे लिए एक उपयुक्त जीवन साथी है। मैंने अपने इस छोटे से परिवार में वह खुशी और आनन्द पाया है जिसकी मैं लालसा करता था। १९९९ में प्रभु ने हमें एक बेटी का दान भी दिया।

जब मैं पीछे मुड़ कर देखता हूँ तो मेरा दिल खुशी और धन्यवाद से भर जाता है। यह आज भी मेरे लिये हैरानी की बात है कि मेरा उद्धार कैसे हो गया? प्रभु में आने के बाद मैंने बहुत बार एक हारा हुआ सा जीवन बिताया, लेकिन प्रभु ने न तो मुझे छोड़ा न त्यागा। मेरा आपसे नम्र निवेदन है कि अप मेरी सेवकाई और परिवार को अपनी बहुमूल्य प्रार्थनों में याद रखियेगा।

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