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सोमवार, 21 सितंबर 2009

सम्पर्क मई २००१: मित्र मेरे, कल कहीं देर न हो जाए

मेरे साथ एक पुराने अध्यापक थे। जितने पुराने वह स्वयं थे, उससे कहीं पुरानी उनके पास एक साईकिल थी। अकसर उनके चेहरे के चबूतरे पर बारह बजे रहते थे। सीनियर अध्यापक होने पर भी उनके कपड़ों की हालत शर्मनाक रहती थी। वह रिटायर भी इसी हालत ही में हुए। यह लाखों का खिलाड़ी कबाड़ियों की तरह जीया। वह अपने पैसे को तो नहीं खा सका पर उसका पैसा उसके जीवन को खा गया। पैसा और रोटी जीवन के लिए ज़रूरी हैं यह सच है, लेकिन यदि रोटी ही जीवन को खा जाए तो कैसा दुर्भाग्य है। जंगली जानवर भी अपनी ज़रूरतें पूरी कर लेते हैं, पेड़ भी एक ही जगह खड़े-खड़े अपनी ज़रूरतें पूरी कर लेते हैं। लेकिन अजीब सी बात है कि आदमी इतना बुद्धीमान होते हुए भी अभाव में ही जीता है, ‘और थोड़ा और’ की लालसा हमेशा उसे सताती रहती है। आदमी के साथ कुछ गड़बड़ ज़रूर है।

आवश्यकताओं की अपनी सीमाएं हैं लेकिन लालच असीम है। आवश्यकताओं की पूर्ती सम्भव है पर लालच को पूरा करना असम्भव है, और हवस तो जैसे एक पागलपन है। ज़्यादतर लोग इस पागलपन की दौड़ में जुटे पड़े हैं, उन्हें बस यही लगता रहता है कि “मेरे पास उससे कुछ कम न हो, कम से कम उतना तो हो ही”। पहले इन्सांन, आदम और हव्वा की सारी ज़रूरतें आनन्द की भरपूरी के साथ बाग़-ए-अदन में ही पूरी हो जाती थीं। फिर भी उनके लालच ने उन्हें भयानकता में ढकेल दिया। कुछ लोग ग़रीबी की गुलामी से आज़ादी पाने के लिए बहुत श्रम करते हैं। कुछ को आज़ादी मिल भी जाती है लेकिन तब तक वे धन के गुलाम बन चुके होते हैं - खाई से निकले और खड्ड में जा पड़े। दुःख की बात यह कि चैन फिर भी नहीं मिलता, न गरीब को और न अमीर को।

हमारे समाज में जगह जगह सड़ाहट भरी पड़ी है, कहाँ और कैसे बच कर कदम रखें सूझ नहीं पड़ता। हमारे उँचे लोग बातें तो बहुत ऊँचीं करते हैं पर अकसर उनके काम बहुत नीचे होते हैं। ज्ञान के आकाश में वे चील की तरह बहुत उँचे उड़ते तो दिखते हैं, पर उनकी निगाहें किसी घूरे पर पड़े सड़े-गले मरे जानवर पर लगी रहतीं हैं। उनके मन में बहुत गन्दगी रहती है और मौके की तलाश में रहते हैं कि कहीं दांव लगे और हाथ साफ करें। हमारे जीवन में भी ऐसे दोगले स्वभाव के साथ जीते हैं। अशलीलता के विरोध में बलते तो हैं पर अशलीलता देखने को हमारा मन मचलता है। अगर कहीं यही अशलीलता हमारी बहन या बेटी दिखा दे तो हमारी कहानी बिलकुल बदल जाती है। हमारा विवेक मर चुका है। आज हमारा समाज, परिवार, व्यापार, व्यवहार सब कुछ हमारे स्वार्थ को ही समर्पित है।

हम अजीब बेईमान हैं जो ईमान्दार को बेवकूफ कहते हैं। दूसरों की बेईमानी को गाते हैं और अपनी छिपाते हैं। हम अपनी असलियत खुद नहीं देखना चाहते पर अपने को अच्छा साबित करने में ज़रा भी नहीं चूकते। हर गन्द बकने वाला अपने बारे में यही कहता कि “मैं दिल से बुरा नहीं हूँ, जो कहना होता है कह देता हुँ, दिल में नहीं रखता।” हर शराबी कहता है कि “मैं चोरी करके नहीं पीता, बस ग़म हलका करने को एक-आध बोतल चख लेता हूँ।” हर रिशवत लेने वाला कहता है कि “ मैं किसी को नाजायज़ दबा कर पैसे नहीं लेता, बस आटे में नमक की तरह खा लेता हूँ, ज़्यादतर तो उस कमाई में से ऊपर वाले को दान में दे देता हूँ।” वे सोचते हैं कि परमेश्वर उनकी रिशवत की कमाई में से कुछ हिस्सा लेकर उसे सही ठहरा देगा, या फिर परमेश्वर कोई भिखारी है जो उनके चोरी और रिशवत के टुकड़ों पर पल रहा है। ज़रा सोचिये तो सही कि क्या परम-पवित्र परमेश्वर ऐसी अपवित्र कमाई का एक ज़रा सा अंश भी स्वीकार करेगा?

हर बुरा व्यक्ति अपनी बुराई दबाता है और दूसरे की खुल कर गाता है। जो जितनी अच्छी तरह अपनी बुराई छिपा लेता है, वह उतना अच्छा दिखाई देता है। आदमी नकली इत्र से अपनी असली दुर्गंध छिपाता फिरता है। परमेश्वर का वचन सच कहता है “ज़रा भी फर्क नहीं, सबने पाप किया है।” समाज के रोएं रोएं में ज़हर समा चुका है। हममें से कोई भी अपना दोष स्वीकरने को तैयार नहीं। पत्नी सोचती है पति गलत है। पति, पत्नि के दोष गाता है; माँ-बाप बच्चों के। सास बहु को गलत कहती है तो बहु सास को। हमारा अहंकार हमें हमारे पापों को मानने नहीं देता, लेकिन पाप तो सबने किया है। परमेश्वर का वचन कहता है कि “निष्पाप तो कोई जन नहीं है (२ इतिहास ६:३६)।” यही पाप हमारी बेचैनी और परेशानी का मूल कारण है।

हम एक बासी सा जीवन जीते-जीते उकता गये हैं। श्रम तो बहुत करते हैं पर कमाते बेचैनी ही हैं। दौड़ते तो दिनभर हैं पर पहुँचते कहीं नहीं। हर शाम आदमी थका-हारा हुआ सा घर लौटता है और फिर अगले दिन वैसे ही भागना शुरू कर देता है। चैन पाने की अभिलाषा में बेचैनी भोगता है। संघर्ष बहुत करना पड़ता है पर हार ही हाथ लगती है। जीवन से हताश लोगों की कतार में एक आप भी हो सकते हैं। हो सकता है कि आप भी अपने जीवन के तनावों से तंग आकर झुंझला चुके हों। शायद चारों तरफ आपको समस्याएं ही दिखती हों उनके समाधान नहीं। कहीं ऐसा तो नहीं कि जो सपने आप सालों से बुनते आए हैं वे अब अचानक सार्थक होते नहीं दिखते। जीवन के ऐसे दिनों में आदमी में हालात का सामना करने का साहस ही नहीं बचता और तब वह मौत माँगता है। शायद आप भी सोचते हों कि काश मैं न होता; अब तो चिता पर चढ़कर ही चैन मिलेगा, बस अब मौत के बाद ही सुख होगा। यह एक भयानक भ्रम है, एक गलत धारणा है। चिता पर या कब्र में तो आपका शरीर जाएगा, आप नहीं।

आपको परमेश्वर ने अनन्त बनाया है और आप अनन्त हैं। जब आप पृथ्वी पर आए थे तो आपको एक शरीर दीया गया था; जब आप पृथ्वी से जायेंगे तब यह शरीर पृथ्वी पर ही छोड़कर जायेंगे। मृत्यु के द्वारा आप सिर्फ अपने शरीर का ही अस्तित्व समाप्त करेंगे पर आप तो अनन्त हैं। पृथ्वी और पृथ्वी के काम तो नाश हो जायेंगे पर आप अनन्त हैं और आपको एक अनन्त भोगना है। मृत्यु जीवन की सम्पूर्ण समाप्ति नहीं है क्योंकि आपका अस्तित्व मौत के बाद भी रहेगा। आपकी तुलना किसी भी जीव से नहीं की जा सकती (उत्पत्ति २:२०)। आपके रचियेता ने आपके जैसा कोई दूसरा जीव बनाया ही नहीं। हमारे वैज्ञानिक कहते हैं कि मानुष वनमानुष से बहुत मिलता है। आदमी का डी.एन.ए. वनमानुष के डी.एन.ए. से ९० प्रतिशत से भी अधिक मेल खाता है। वे साबित करना चाहते हैं कि आदमी को परमेश्वर ने नहीं बनाया, वह वनमानुष से बना है। थोड़ा सा दिमाग पर ज़ोर देकर सोचें, आदमी चाँद को पाँव से रौन्द आया है और ग्रहों की यात्रा की तैयारी कर रहा है। लेकिन वनमानुष हज़ारों सलों से नंगा ही घूम रहा है, कम से कम एक कच्छा ही अपने लिए बना लेता! आदमी और वनमानुष में कहीं कोई तुलना है?

यदि हमारे धर्मों के पास पाप की बीमारी का ईलाज होता तो संसार इतनी भयानकता से घिरा, बेचैनी और घुटन सहता न होता। बहुतों के पास धन भी है और धर्म भी फिर भी वे हताश, परेशान और दुखी हैं। आदमी अपने पापों में पड़ा रहता है, फिर भी दूसरों को तुच्छ और नीच, और अपने को श्रेष्ठ समझने का अहंकार ढोता है। धर्म के भ्रम जाल ने मानव-मानव के बीच घृणा को ही जन्म दिया है। सब धर्मों के अनुयायियों के कामों में रत्ती भर भी फर्क नहीं है। आदमी एक सा है, उसके काम एक से हैं सिर्फ उसके धर्मों के नाम फर्क हैं। वैज्ञानिक हमारे शरीर के एक अंश, हमारे डी.एन.ए. का विशलेषण करके बता सकते हैं कि व्यक्ति विशष के माँ-बाप कौन हैं, पर यह कभी नहीं बता सकते कि उसका धर्म कौन सा है। परमेश्वर एक है और उसने समस्त मानव जाति को एक सा ही रचा है, अलग अलग धर्मों में बाँट कर नहीं और फर्क करके नहीं रचा। “उसने एक ही मूल से मनुष्यों की सब जातियां सारी पृथ्वी पर रहने के लिये बनाई हैं (प्रेरितों १७:२६)।”

जब भी हम धर्म के बारे में बात करते हैं तो हम एक खतरे के दायरे में आकर बात करते हैं। यह बहुत संवेदनशील विषय है और आदमी एकदम धर्म के विषय में उत्तेजित हो उठता है। धर्म अनजाने में हमारे मन में यह धारणा धर देता है कि मैं एक श्रेष्ठ धर्म का व्यक्ति हूँ और दूसरे धर्म के लोग बुरे हैं या मेरे धर्म से कमतर हैं। धर्म को लेकर यह मानसिकता, सार्वजनिक रूप से, मनों में गहराई से घर चुकी है। यह धारणा आदमी को आदमी से बाँट देती है। यह अहंकार एक कैंसर के समान है - जहाँ हमारा शरीर अपने ही विरोध में मौत बोना और पालना शुरू कर देता है, और यह मानसिकता हमारे समाज में ऐसा ही प्रभाव लाती है। इस संवेदनशील उत्तेजना का उपयोग हमारे धार्मिक और राजनैतिक नेता अपने स्वार्थ हेतु सहजता से कर लेते हैं। परमेश्वर को इतना छोटा बनाकर धर्म के दड़बे में घुसेड़ने की कोशिश करना न सिर्फ एक निहायत ही बेवकूफी है वरन परमेश्वर का अपमान भी है। परमेश्वर असीम है और उसका प्रेम असीम है। वह जाति और धर्म के दायरे से बाहर हर व्यक्ति से प्रेम करता है, क्योंकि परमेश्वर प्रेम है। वह कभी भी धर्म परिवर्तन की बात नहीं करता, परन्तु वह मन परिवर्तन की बात करता है और पाप से मन फिराने की बात करता है, ताकि आप जो अनन्त हैं, अनन्त आनन्दमय जीवन पायें।

इलाज तो बीमारी का होता है तन्दरुस्ती का नहीं। अगर आपको एहसास है कि आप पाप के बीमार हैं, पाप ने आप के सारे सुखों को सोख लिया है और आप बेचैन हैं तो जन लें कि प्रभु यीशु पापों की क्षमा देने के लिए ही आया था। पापों की क्षमा पाना किसी विदेशी सम्प्रदाय में सम्मिलित होना नहीं है। यह सोच भी मूर्खता पूर्ण है कि परमेश्वर किसी धर्म विशेष के लोगों को ही स्वर्ग लेजायेगा। परमेश्वर किसी का पक्षपात नहीं करता (कुलुस्सियों ३:२५)। उसने जगत से प्रेम किया, जगत के हर वर्ग से, ताकि जो कोई जैसा भी हो अगर यह विश्वास करे कि प्रभु यीशु ने क्रूस पर सिर्फ उसके पापों की क्षमा के लिये अपना लहु बहा कर अपनी जान दे दी और तीसरे दिन जी उठा, तो वह व्यक्ति अनन्त विनाश से बच जायेगा और अपनी बेचैनी से छुटकारा पायेगा। यह असम्भव कार्य केवल प्रभु यीशु के लिये ही सम्भव था क्योंकि वह स्वयं परमेश्वर है। वह आपको प्यार करता है और नहीं चाहता कि आप नाश हों और हमेशा-हमेशा की बेचैनी में जा पड़ें।

क्या परमेश्वर हमारी पुकार केवल गिरजे या धर्म स्थानों से ही सुनता है? परमेश्वर तो पृथ्वी के हर स्थान पर उपलब्ध है। बस एक बार दिल से पुकार कर उसे परख कर तो देखें, उससे कह कर तो देखें कि हे प्रभु मुझ पापी पर दया करें। आपने छिपकर कैसे-कैसे शर्मनाक काम किये हैं, क्या आपको उनका एहसास नहीं है? क्या पापों की बेचैनी आपके जीवन में नहीं है? आप अकेले में सिर्फ प्रभु यीशु के सामने अपने पापों को मान कर क्षमा माँग लें। ऐसी प्रार्थना से धर्म नहीं जीवन बदल जायेगा। मेरे मित्र, कौन सा विचार आपको अपने पापों से माफी माँगने से रोक रहा है? आप अपने पापों के कारण अपने परमेश्वर से दूर हो गये हैं, परमेश्वर की शांति और उसके आनन्द से कहीं दूर निकल गये हैं और बेचैनी भोग रहे हैं। प्रभु यीशु ये दूरियां आपके जीवन से हमेशा के लिये दूर कर डालेगा।

हमारी जीवन यात्रा भयानक खत्रों से भरी पड़ी है। कोई भी अन्होंनी कभी भी हो सकती है। किसी सड़क को पार करते करते कहीं आप संसार से ही पार न हो जायें। आप भौंचक्के से रह जायेंगे,कह उठेंगे कि यह क्या हुआ और अब क्या होग? मित्र मेरे कल कहीं देर न हो जाये। आप पूछ सकते हैं कि पाप से पश्चाताप की ऐसी प्रार्थना करने से क्या होगा? पर आप एक बार प्रभु यीशु को पुकार कर तो देखिये, आपका जीवन ही बदल जायेगा। मित्र मेरे जैसे ही यहाँ आपका बोल बंद होगा वैसे ही वहाँ आप की पोल का पुलिंदा खुलेगा। यह एक कोरा सिद्धांत मात्र नहीं है, बल्कि एक वास्तविकता है। एक बार क्षमा की याचना कर के तो देखें, इससे पहले कि हमेशा की देर हो जाये।

शास्त्रों के सिद्धांतों को सिर पर चढ़ा लने से सिद्धता प्राप्त नहीं होती। उत्सुकता है, तलाश है, जितना ज्ञान मिले उतना दिमाग में सजा के रख लो। ज्ञान बढ़ेगा और आपका महत्व बढ़ेगा, पर ध्यान रहे, आपकी बेचैनी वैसी ही रहेगी। पाप की यह बेचैनी आपका पीछा नहीं छोड़ेगी, बढ़ ज़रूर सकती है पर घटेगी कदापि नहीं। आप पाप की सज़ा से मुक्त नहीं हो पायेंगे। केवल सच्ची क्षमा ही इस सज़ा से मुक्त करा सकती है। अभी, हाँ अभी वह क्षमा पालेने का समय है। कल के भयानक खतरों का बचाव आज ही ज़रूरी है। मित्र मेरे कल कहीं देर न हो जाये।

किसी धर्म का लेबल अपने उपर लगा लेने की ज़रूरत नहीं है। प्रभु यीशु आपको आपके सारे पापों से क्षमा देकर एक आनन्द से भरा जीवन सौंपेगा। आप खुद ही कह उठेंगे मैंने क्या-क्या किया, मैं क्या था और उसने मुझे क्या बना दिया। सम्पर्क का अगला अंक अपके हाथ में आने से पहले कहीं कोई अन्होंनी न हो जाये। अभी हाथ उठाक्र पुकारियेगा हे यीशु मुझ पापी पर दया करें, मेरे पाप क्षमा करें। मित्र मेरे कल कहीं देर न हो जाये।

प्रभु कहता है और कि “जो कोई मेरे पास आयेगा उसे मैं कभी नहीं निकलूँगा (यूहन्ना ६:३७)” वास्तविकता भी यही है। आप जैसे भी हों जहाँ भी हों, जो भी हों, प्रभु यीशु का प्रेम आपको आमंत्रित कर रहा है। अगला कदम उठाइयेगा, श्राप से पार होकर अनन्त सुरक्षा के द्वार में प्रवएश पाइएगा। द्वार अभी आपके लिये खुला है, हाँ अभी भी मौका है, मित्र मेरे कल कहीं देर न हो जाये। आप शायद बहुत पढ़े लिखे न भी हों, पर इन पंकतियों को तो पढ़ ही रहे हैं। शायद बहुत समझदार भी न हों पर इन साधारण विचारों को तो समझ पा रहे हैं। इतना ही बहुत है आपको पापों से मुक्ति और स्वर्गीय चैन पाने के लिये। बस सच्चे दिल से पुकारिये हे प्रभु यीशु मेरे पाप क्षमा कर, मुझ पापी पर दया कर। मित्र मेरे कल कहीं देर न हो जाये।

बुधवार, 9 सितंबर 2009

सम्पर्क मई २००१: अनर्थ में पड़ा जीवन, जीवन का अर्थ खोज रहा था...

मेरा नाम लॉर्डी परदाना पूर्बा है, मेरी उम्र २५ वर्ष है और मैं इन्डोनेशिया देश का निवासी हूँ जो लगभग १३५० टापुओं का एक समूह है और हिन्द महासागर तथा प्रशांत महासागर के बीच में स्थित है। मैं इन्डोनिशिया से सिविल इंजीनियरिंग की उपाधि प्राप्त करने के बाद उच्च शिक्षा के लिये २८ जुलाई १९९९ को रूड़की विश्वविद्यालय में पढ़ने के लिए आया था और अब बहुत शीघ्र ही अपनी पढ़ाई खत्म करके अपने देश लौटने को हूँ। इस देश को छोड़ने से पहले अपने जीवन का सबसे मधुर और अद्भुत अनुभव आपके पास छोड़कर जाना चाहता हूँ।

मेरा जन्म एक नामधारी इसाई परिवार में हुआ। जब मैं ग्यारहवीं कक्षा का छात्र था, तब से मेरे मन में एक अजीब कशमकश थी। मैं अपने जीवन का सही अर्थ खोज रहा था और मेरे मन में सच्ची खुशी और प्रेम पाने की बहुत लालसा थी। उसका मूल कारण मेरी जटिल पारिवारिक समस्याएं थीं। आए दिन मेरे माँ-बाप के बीच और हम भाई-बहिनों के बीच में लड़ाईयाँ, चीखना-चिल्लाना मचा रहता जिससे मैं बहुत परेशान और बेचैन था। मैं अपने घर में किसी से अपने दिल की बात कह नहीं पाता था और इसलिए मैं अपना ज़्यादा समय घर के बाहर बिताने लगा। मैं अपने दोस्तों में खुशी खोजता था, यह सोचकर कि उनके साथ रह कर मैं अपनी सारी परेशानियाँ भूल सकूंगा। लेकिन धीरे-धीरे मैं उनके साथ शराब सिग्रेट पीना, झूठ बोलना, गाली-गलौच करना, घर से पैसे चुराना, जुआ खेलना और कई अन्य बुरे और अशलील कामों में धंसता चला गया।

उन दिनों मेरा मन उन लोगों से बहुत चिढ़ता और झुंझलाता था जो आत्मा-परमात्मा की बातें किया करते थे। वे मुझे कई बार मसीही संगति में बुलाते थे लेकिन मैं साफ इन्कार कर देता था। मैं उन्हें बेवकूफ समझता था और उनसे सीधा कहा करता था कि वे इन सब आत्मिक बतों में क्यों अपना समय बरबाद कर रहे हैं? अरे जवानी तो मौज मस्ती के लिये है और अपने तरीके से आज़ाद ज़िन्दगी जीने में ही मज़ा है। मैं नहीं चाहता था कि कोई मेरे आज़ाद जीवन पर बन्दिश लगाए। परन्तु मेरा जीवन बद से बदतर होता गया और मेरी पढ़ाई में भी नुकसान होने लगा। लेकिन मुझ पर कोई असर नहीं हुआ। १९९४ में मेरा दाखिला इन्डोनेशिया के एक अच्छे इंजीनियरिंग कॉलेज में हो गया जो कि मेरे जीवन का एक सुन्दर सपना था। मुझे इस बात से बहुत खुशी थी कि यह कॉलेज मेरे घर से बहुत दुर एक दूसरे शहर में था। मैंने सोचा कि अब मैं अपने परिवार से दूर रह कर आज़ादी से जो चाहे सो कर सकूँगा। कॉलेज प्रारम्भ करते समय मेरा मन उन्माद से, घमंड से और बहुतेरी गन्दी कामनाओं से भरा हुआ था।

उन दिनों मेरा मन उन लोगों से बहुत चिढ़ता और झुंझलाता था जो आत्मा-परमात्मा की बातें किया करते थे। वे मुझे कई बार मसीही संगति में बुलाते थे लेकिन मैं साफ इन्कार कर देता था। मैं उन्हें बेवकूफ समझता था और उनसे सीधा कहा करता था कि वे इन सब आत्मिक बतों में क्यों अपना समय बरबाद कर रहे हैं? अरे जवानी तो मौज मस्ती के लिये है और अपने तरीके से आज़ाद ज़िन्दगी जीने में ही मज़ा है। मैं नहीं चाहता था कि कोई मेरे आज़ाद जीवन पर बन्दिश लगाए। परन्तु मेरा जीवन बद से बदतर होता गया और मेरी पढ़ाई में भी नुकसान होने लगा। लेकिन मुझ पर कोई असर नहीं हुआ। १९९४ में मेरा दाखिला इन्डोनेशिया के एक अच्छे इंजीनियरिंग कॉलेज में हो गया जो कि मेरे जीवन का एक सुन्दर सपना था। मुझे इस बात से बहुत खुशी थी कि यह कॉलेज मेरे घर से बहुत दुर एक दूसरे शहर में था। मैंने सोचा कि अब मैं अपने परिवार से दूर रह कर आज़ादी से जो चाहे सो कर सकूँगा। कॉलेज प्रारम्भ करते समय मेरा मन उन्माद से, घमंड से और बहुतेरी गन्दी कामनाओं से भरा हुआ था।
लेकिन मेरे जीवन के लिए परमेश्वर की कुछ और ही कल्पना थी। जब मैं कॉलेज में दाखिले के लिये गय तो वहाँ मुझे कुछ सीनियर छात्र आकर मिले। उनका व्यवहार बहुत ही अच्छा था और इन आरम्भ के दिनों में उन्होंने मेरी बहुत सहयाता की। उनकी सहायता और प्रेम भाव को देखकर मैं भौंचक्का रह गया। एक दिन उन्होंने मुझे एक बाईबल अद्धयन की क्क्षा में आमंत्रित किया। मुझे आत्मिक बातों में ज़रा भी दिलचस्पी नहीं थी परन्तु मैं उन्हें निराश नहीं करना चाहता था इसलिए मैंने उन्का निमंत्रण स्वीकार कर लिया। ७ सितम्बर १९९४ को मैं पहली बार ऐसी सभा में गया जिसका विष्य था “उद्धार का निश्चय”। प्रचारक ने कहा कि मनुष्य अपने पाप के कारण अपने सृष्टिकर्ता परमेश्वर से अलग हो गया है और पाप की मज़दूरी अनन्तकाल की भयानक मौत है। उन्होंने एक उदाहरण से दर्शाया कि हम पापियों और परमेश्वर के बीच एक गहरी खाई है जिसको हम अच्छे कामों, अच्छे चरित्र, या किसी भी धर्म के सहारे लाँघ नहीं सकते। लेकिन परमेश्वेर ने अपने एकलौते पुत्र प्रभु यीशु मसीह को इस जगत में भेजा ताकि वह हम सब के पापों की सज़ाखुद अपने ऊपर क्रूस पर सहकर हमारे और परमेश्वर के बीच में एक मार्ग बन जाए। इसलिए प्रभु यीशु पर विश्वास करके कोई भी व्यक्ति नरक की भयानक मौत से बच कर स्वर्ग के अनन्त जीवन में पहुँच सकता है।

मुझे यह सब बातें पूरी तरह समझ में नहीं आईं। उन्होंने मुझसे पूछा कि यदि आज रात तुम्हारी मौत हो जाए तो क्या तुम स्वर्ग जाओगे या नरक? इस सवाल का मेरे पास कोई जवाब नहीं था, क्योंकि मुझे यह एहसास हो रहा था कि मैं पाप से भरा हूँ और मुझ में कोई भी अच्छाई नहीं है। मैंने सोचा कि अगर यह सब बातें सही हैं तो मेरा नरक जाना तय है। फिर उन्होंने दोहराया कि प्रभु यीशु मसीह मेरे सब पापों को क्षमा कर, मेरी ज़िन्दगी को एक नई शुरुआत दे सकते हैं। तब मैंने उनके साथ एक छोटी प्रार्थना की और प्रभु यीशु से अपने पापों की माफी माँग ली। जो कुछ भी उस दिन हुआ मुझे पूरी तरह समझ में तो नहीं आया, परन्तु आज जब पीछे मुड़कर देखता हूँ तो मुझे एहसास होता है कि परमेश्वर की आत्मा ने मेरे जीवन में काम करना शुरू कर दिया था। मुझे स्वर्ग-नरक, जीवन-मृत्यु, पाप और पापों की माफी, ऐसे कई सवाल जिन्हें मैं सोचता भी नहीं था, सताने लगे। इन विचारों ने मेरा दिल तोड़ दिया और मैंने रो-रोकर प्रार्थना में प्रभु के सामने मान लिया कि मैं एक भयानक पापी हूँ। मैंने न केवल अपना वरन कईयों का जीवन बरबाद कर दिया है। मैंने प्रभु से कहा “प्रभु मेरे सारे पाप और अधर्म को माफ कर दे। मैं अपना जीवन बदलना चाहता हूँ, प्रभु मेरी सहायता कर।”

तभी मेरे मन में सच्ची शांति आ गयी और मौत का डर चला गया। साथ ही मेरे विचार और मेरा व्यवहार भी बदलने लगा। फिर भी मैं अपने विश्वासी दोस्तों से कहता थ कि यह परिवर्तन तो थोड़े ही दिनों का है और बहुत जल्द ही मेरी स्थिति पहले जैसी हो जाएगी। यह विचार मुझे डराता भी था। लेकिन जैसे-जैसे मैं परमेश्वर के वचन को रोज़ पढ़ने लगा तो मुझे एहसास होने लगा कि परमेश्वर मुझ से बात कर रहा है। यह परमेश्वर कोई बेजान वस्तु नहीं पर मुर्दों में से जी उठा प्रभु यीशु है और उसी की सामर्थ मुझे सम्भाले हुए है। परमेश्वर के वचन को पढ़ने से मुझे बहुत शान्ति और खुशी मिलने लगी और साथ ही मुझे मेरे उन पापों का भी एहसास होने लगा जो मैंने दूसरों के विरोध में किए थे। परमेश्वर की दया से मैं उन लोगों से माफी माँग सका और मैंने अपने परिवार जनों से भी अपने सम्बंध ठीक कर लिए। मैं उनके लिए प्रार्थना भी करने लगा।

मैं अब एहसास करता हूँ कि यह सब परमेश्वर की ओर से ही हुआ है। आज मेरे पास सच्ची शांति और प्रेम है। मैं अपने जीवन के पथ पर अकेला नहीं क्योंकि प्रभु यीशु मेरा सच्चा मित्र है। मेरी समस्याओं में मेरे पास हमेशा एक आशा है कि प्रभु यीशु न तो मुझे कभी छोड़ेगा और न त्यागेगा।







सोमवार, 31 अगस्त 2009

सम्पर्क मई २००१: परमेश्वर के वचन से सम्पर्क

उसमें जीवन था और वह जीवन मनुष्यों की ज्योति थी, और ज्योति अन्धकार में चमकती है, और अन्धकार ने उसे ग्रहण न किया (यूहन्ना १:४,५)।

किसी आदमी ने एक घड़ी बनाई और उसके डायल में एक राजनेता की तस्वीर लगाई। घड़ी की खासियत यह थी कि हर सैकिंड के बाद राजनेता की आँखें बदल जाती थीं। यह व्यंग्य तो तीखा था, पर वास्तविकता में हम सबकी हालत भी ऐसी ही है। हम अपने आप में बहुत नाटकबाज़ हैं।हर २४ घटों में हमारी भी दशा, दिशा, विचार, व्यवहार तेज़ी से बदलते रहते हैं। हम जहाँ काम करते हैं वहाँ कुछ और, घर में कुछ और, मण्डली में कुछ और होते हैं। दोस्तों, दुशमनों, परिवार जनों और विश्वासी जनों के सामने हमारा स्वभाव बदलता रहता है। वास्तव में पर्दे के पीछे हम कुछ और ही होते हैं। अक्सर हम अपने अधिकारियों और नेताओं को लालची बताकर उन्हें बहुत कोसते हैं, पर ज़रा ईमानदारी से अपने आप से सवाल करें, क्या मन में हम खुद बहुत लालची नहीं हैं? “खाने” के बारे हम दूसरों को बहुत उपदेश दे सकते हैं पर जैसे ही मुफ्त का बढ़िया खाना हमारे सामने आता है तो हमारी हालत बस देखते ही बनती है। वास्तविकता यही है।

यूहन्ना अक्सर ‘सच’ शब्द को दो बार एक साथ रखकर प्रयोग करता है - “मैं तुम से सच-सच कहता हूँ...।” मूल युनानी भाषा में जिसमें यूहन्ना का सुसमाचार लिखा गया था, इस तरह ‘सच-सच’ का प्रयोग करने क एक अर्थ है “वास्तविकता में” या इसे यूँ कहिये कि बस यही वास्तविकता है, यानि यही इकलौता सच है, इसके अलावा और दूसरा कोई सच है ही नहीं। यूहन्ना इस तरह सत्य से हमारी मुलाकात करवाता है - “उसमें जीवन था” (यूहन्ना १:४)। यही जीवित परमेश्वर है और यही सत्य है।

प्रभु की मृत्यु के बाद तीसरे दिन कुछ स्त्रियां जीवित प्रभु को कब्रिस्तान में ढूंढ रहीं थीं, तब स्वर्गदूत ने उन्हें समझाया “तुम जीवते को मरे हुओं में क्यों ढूंढती हो? (लूका २४:५)।” सच यही है कि मौत प्रभु को मार कर अपने वश में नहीं रख सकती थी। मात्र वही जीवित प्रभु है जो मौत पर विजयी हुआ भी और विजय पने की सामर्थ भी रखता है। यही इकलौता सत्य है।

एक व्यक्ति था जिसने मसीही विश्वास को पूरी तरह से समाप्त करने के लिए अपनी पूरी सामर्थ झोंक दी, लेकिन सालों के कठोर परिश्रम के बावजूद अपनी बात साबित नहीं कर सका और न अपना एक भी कोई अनुयायी पैदा कर पाया। बन्दा हठीला था, इसलिए हिम्मत नहीं हारा। वह एक मशहूर विद्वान के पास गया और उससे अपनी सारी कहानी कह सुनाई और उससे पूछा अब मैं क्या करूँ? विद्वान ने सहज शब्दों में उसे सलाह दी “जनाब आप पहला काम यह करो कि अपने आप को क्रूस पर ठुकवा लो। फिर ऐसा करना कि मरने के बाद तीसरे दिन मुर्दों में से जी उठना, बस अपकी सारी समस्या का हल हो जाएगा।” वास्तविकता यही है कि वही एक प्रभु है जो मौत पर विजयी होने की सामर्थ रखता है, उसी में जीवन अपितु अन्नत जीवन है और वही जीवित परमेश्वर है।

एक शारीरिक जीवन है और एक आत्मिक जीवन है। एक सीमित है और दूसरा असीम। शारीरिक जीव जैसे ही जन्म लेता है, उसी पल से उसकी मौत के लिए उलटी गिनती शुरू हो जाती है; और वह इस शारीरिक जीवन का हर पल मौत के भय में जीता है। यही मौत का डर उसे डराता भी है और बेचैन भी रखता है। ऐसे शारीरिक लोगों से प्रभु कहता है “तू जीवता तो कहलाता है पर है मरा हुआ (प्रकाशितवाक्य २:१)।” पाप के कारण मनुष्य मरी हुई दशा में जीता है (इफिसियों २:१)।

एक विश्वासी जन ने किसी व्यक्ति से सवाल किया “आप मौत के बाद कहाँ जाओगे?” आदमी ज़रा ज़्यादा ही चतुर था, लापरवाही से बोला “साहब मरने के बाद शमशान जाउँगा।” विश्वासी ने कहा “जनाब बुरा न मानें, वास्तविकता तो यह है कि मरने के बाद आप हमेशा की मौत में जाएंगे।” एक मौत ऐसी है जो हमेशा की है और एक जीवन भी है जो हमेशा का है।

प्रिय पाठक, आईये ज़रा धीरज धर कर प्रभु यिशु के कहे कुछ शब्दों में से होकर आगे बढ़ें जहाँ प्रभु ने कहा “... मैं ही जीवन हूँ... (यूहन्ना १४:६)।” “मैं इसलिए आया कि तुम जीवन पाओ और बहुतायत क जीवन पाओ (यूहन्ना १०:१०)।” “फिर भी तुम जीवन पाने के लिए मेरे पास आना नहीं चाहते (यूहन्ना ५:४०)।” “जिसके पास पुत्र (प्रभु यीशु) नहीं उसके पास जीवन नहीं है (१ यूहन्ना ५:११)।” एक प्रोफैसर सहब ने अपने विद्यार्थियों से एक प्रश्न पूछा “देखने के लिए किस वस्तु की ज़रूरत होती है?” ज़्यादतर विद्यार्थियों ने तपाक से जवाब दिया “सर आँख की।” उनमें से एक विद्यार्थी भाँप गया कि प्रश्न इतना सीधा नहीं है जितना लगता है, उसने ज़रा दिमाग़ पर ज़ोर दिया फिर बोला “सर आँख की और एक ऐसे दिमाग़ की जो देखी हुई वस्तुओं को समझने की सामर्थ रखता है।” तब प्रोफैसर उन सब विद्यार्थियों को एक बन्द अन्धेरे कमरे में ले गए और बोले “तुम सब के पास देखने वाली आँखें और समझने वाला दिमाग भी है, क्या तुम्हें इस अन्धकार में कुछ दिखाई दे रहा है?” अब उनकी समझ में आया कि अन्धकार ने उन्हें ‘अन्धा’ कर दिया है और देखने के लिए पहले प्रकाश फिर अन्य चीज़ों की ज़रूरत होती है।

अन्धकार सब कुछ छिपा देता है पर ज्योति सब कुछ प्रकट कर देती है। “परमेश्वर ज्योति है और उसमें कुछ भी अन्धकार नहीं (१ युहन्ना १:५)।” “तेरा वचन मेरे पाँव के लिए दीपक और पथ के लिए उजियाला है (भजन ११९:१०५)।” ‘ज्योति’ में ही हम अपने आप को अपने वास्तविक स्वरूप में देख पाते हैं, अपनी गन्दगी देख पाते हैं, देख पाते हैं कि हम कहाँ खड़े हैं, और हमें अगला कदम कहाँ रखना है। जो ज्योति में जीता है वह ठोकर खाने से बच निकलता है (युहन्ना ११:९)। अन्त के पार वह अपने अनन्त को देख पाता है। शैतान ने अनेक लोगों की बुद्धी को अन्धा कर डाला है (२ कुरिन्थियों ४:४) ताकि सच्ची ज्योति का तेजोमय सुसमाचार उन पर न चमके। शैतान चहता है कि लोग ऐसे ही अन्धकार में जिएं और फिर अनन्त अन्धकार में चले जाएं। आत्मिक अन्धकार में पड़े व्यक्ति की भूख और अतृप्ती उसे भटकाती है। वह तृप्ती पाने के लिए कुछ भी करना चाहता है और करता भी है, लेकिन आत्मिक अन्धकार उसे अपने इन प्रयासों की असार्थक्ता और विफलता पहचानने नहीं देता। सच्ची ज्योति से दूर वह अपने ही प्रयासों और कर्मों से बन्धा रहता है, इस भ्रम में कि उसके प्रयासों ने उसे सही राह दिखा दी है, जबकि सही राह तो केवल सच्ची ज्योति ही दिखा सकती है।

ज्योति तो अन्धकार में चमकती है (युहन्ना १:५)। जो जीवन की ज्योति में जीता है, उसका जीवन अलग ही चमकता है। “पर यदि जैसा वह ज्योति में है, वैसे ही हम ज्योति में चलें, तो एक दूसरे से सहभागिता रखते हैं... (१ युहन्ना १:७)।” अनेक प्रभु के अभिषिक्त लोगों को शैतान अपने लिए उप्योग करता है और इसका एक अच्छा उदहरण शमशौन का है (न्यायियों १६:२१) जिसे अन्धा करके, उसके और उसके समाज के शत्रुओं ने, अपने काम के लिए उपयोग किया। इस तरह कई प्रभु के उपयोगी पात्रों का उपयोग शैतान करता है क्योंकि उनके अन्धकार के काम अर्थात उनके छिपे पाप, जैसे व्यभिचार या व्यभिचार के विचार, लालच, अहंकार, बदला लेने की भावना आदि उन्हें अन्धा कर डालते हैं। जो जीवन कभी ज्योति देते थे वे अब एक धुआं देती बाति बन गए हैं, ऐसा धुआं जो लोगों को प्रभु के समीप नहीं आने देता, प्रभु के भवन पर कालिख चढ़ाता है। ऐसे विश्वासी प्रभु के घर के आत्मिक वातवरण को दूषित कर देते हैं।

एक जन कह रहा था “वह तो सिर पर ही चढ़ा जा रहा था। बस ऐसा जवाब दिया कि उसके होश ठिकाने आ गए और मुँह बन्द हो गया।” जब-जब कोई अपशब्द कह कर हमारे अहम पर चोट करता है तब हम भी बदले में ऐसे ही शब्दों का प्रयोग करके उसके अहम को भी वैसी ही चोट देना चाहते हैं। हम बुराई को बुराई से जीतना चाहते हैं, लेकिन प्रभु कहता है कि बुराई को भलाई से जीत लो (रोमियों १२:२१)। एक विश्वासी अपने शत्रुओं के बारे में भी बुरा नहीं सोच सकता, अपने भाईयों को भला-बुरा कहना तो दूर की बात है। अन्धकार के खेल मण्डलियों में गहराते जा रहे हैं। हम दूसरों को अपमानित करने के लिए कटाक्ष या व्यंग्य का प्रयोग करते हैं और फिर उसे हंसी में या ‘मज़ाक’ कह कर टालना चाहते हैं। अधूरे सच पर बातें गढ़ना या अफवाह फैलना फिर उसे ‘शायद’ या ‘हो सकता है’ जैसे शब्दों में ढाँपना भी काफी प्रचलित है। ऐसा अहंकार, बदले की भावना, बैर-भाव कहीं हमारे ही मन में तो नहीं भरा? हे मेरे प्रीय भाई, हे मेरी प्रीय बहन, ज़रा अपने मन में झाँक कर देख तो लें।

प्रभु का आपसे वायदा है कि “वह धुआँ देती बाति को नहीं बुझाएगा (मत्ती १२:२०)।” बस इतना हो कि मन लें और कहें “हे प्रभु तेरा यह जन यहाँ तक गिर चुका है। दया करके क्षमा कर और फिर उठा ताकि मैं फिर से जलता हुआ जीवन जी सकूँ।” “ज्योति अन्धकार में चमकती है (यूहन्ना १:५)।”

“तुम्हारा उजियाला मनुष्यों के सामने चमके कि वह तुम्हारे भले कामों को देखकर तुम्हारे पिता की जो स्वर्ग में है, बड़ाई करें (मत्ती ५:१६)।”

मंगलवार, 25 अगस्त 2009

सम्पर्क मई २००१: संपादकीय

प्रभु यीशु के क्रूस पर किए काम और उसके महान नाम की जय-जयकार हो जिसने “सम्पर्क” के माध्यम हमारी सीमाओं को एक नया विस्तार दिया है। सम्पूर्ण सम्पर्क परिवार आपकी प्यार भरी प्रार्थनाओं के लिए ऋणी है।

इस बार तो हम हिम्मत हार ही गये थे, पर यह अंक आप तक लाने के लिए हमें आपके पत्रों और प्रार्थनाओं ने फिर से कुछ करने का हियाव दिया। मैं परमेश्वर के वचन का सबसे प्यार भरा कोमल स्पर्ष तब महसूस करता हूँ जब प्रभु अपने वचन से मुझ से कहता है, “ मैं तुझ को प्यार करता हूँ और मैं तुझे कभी नहीं छोड़ूँगा।” यह सोच ही मुझे आनन्द और आराधना से भर डालती है कि प्रभु मुझ जैसे व्यक्ति से भी प्यार करता है।

एक बार ट्रेन में सफर करते समय मैंने देखा कि एक महिला एक बच्चे को सीने से चिपकाए बैठी थी। वह बच्चा बहुत ही सूखा सा था, उसकी बेहद मुचड़ी सी खाल उसकी हड्डियों से चिपकी पड़ी थी और उसका रंग तपे ताँबे की तरह था। उसकी दयनीय दशा देखकर मन विचिलित होता था पर माँ ने उसे एक बेशकीमती चीज़ की तरह संभाल्कर सीने से लगा रखा था। इस पर एक और अजीब बात यह थी कि माँ ने उस बच्चे के माथे पर एक काला टीका भी लगा रखा था कि कहीं उसे किसी की कोई बुरी नज़र न लग जाए। किसी और की नज़र में वह बच्चा चाहे जैसा भी हो, माँ की नज़र में वह बहुत ही कीमती और सुँदर था, जान से ज़्यादा प्यारा था। शैतान इस प्र्यास में जुटा रहता है कि आप को यह यकीन दिलाए कि परमेश्वर आप जैसे आदमी से कैसे प्यार कर सकता है? एक माँ एक ऐसे बदसूरत, बीमार और देखने वालों का मन विचिलित कर देने वाले बच्चे से कैसे ऐसा प्यार कर सकती है? यह तथ्य हमारी समझ में आये या न आये, पर यह सच झुठलाया नहीं जा सकता कि बस वह अपने उस बच्चे से ऐसा प्यार करती है, उस पर जान छिड़कती है। माँ और परमेश्वर में ज़मीन आसमान का फर्क है, परमेश्वर का प्रेम माँ के प्रेम से भी कहीं आगे, बहुत-बहुत आगे बढ़कर है। माँ अपने इकलौते बेटे की जान अपने किसी बदकार दुश्मन के लिए नहीं दे पाएगी, पर परमेश्वर ने अपने दुश्मनों के लिए अपने इकलौते बेटे की जान बलिदान कर दी। वह अपने शत्रुओं से भी नफरत नहीं करता, वह तो बस यही चाहता है कि उसके दुश्मन भी किसी तरह उद्धार पाकर उसके साथ रहें, और हमेशा के लिए हमेशा के आनन्द में आ जाएं (१ तिमुथियुस २:४)।

शैतान बाईबल की इस सच्चाई को मिटा डालना चाहता है कि परमेश्वर उन्हें भी दिल से प्यार करता है जो कतई प्यार करने के लायक ही नहीं हैं। हमारा दो कौड़ी का दिमाग़ परमेश्वर के असीम प्रेम को समझ नहीं सकता। क्या आपको मालूम है कि वह आपको किस हद तक प्यार करता है? बाईबल का अद्भुत पद “जैसे तूने मुझ से प्रेम रखा है वैसे ही उनसे प्रेम रखा है (युहन्ना १७:२३)” बिल्कुल सच है। परमेश्वर मुझ जैसे और आप जैसे इन्सान से प्रभु यीशु की तरह प्यार करता है; पर कुछ ही लोग उसके प्यार का एहसास कर पाते हैं। जो महसूस करते हैं उन्हें परमेश्वर का प्यार विवश करता है। वे उसके प्यार के कारण अपने मन से मजबूर हो जाते हैं कि अपने प्यारे प्रभु के लिए कुछ करें। परमेश्वर के वास्तविक बच्चे परमेश्वेर के प्यार के स्पर्ष को साफ पहिचान लेते हैं।

मैं भाई डी. एल. मूडी की एक कहानी आपके साथ अपने शब्दों में बांटना चाहुँगा। एक माँ को खबर मिली कि उसका बेटा किसि दूसरे शहर में एक बुरी दुर्घटना का शिकार होकर शहर के अस्पताल में भर्ती है। माँ ने पहली गाड़ी पकड़ी और बताए हुए पते पर पहुँची। वह अपने बच्चे से मिलने के लिए बहुत आतुर थी, किसी ज़रिए उस तक पहुँचना चाहती थी। पर डॉकटर ने उसे यह कह कर रोका कि काफी समय बाद वह लड़का मुशकिल से सो पाया है, अतः वह उससे अभी न मिले। माँ ने रोते-रोते कहा “डॉकटर साहब, मुझे मेरे बच्चे को एक बार देखने दो, हो सकता है कि फिर मैं उसे ज़िन्दा कभी न देख पाऊं। मैं आपसे वायदा करती हूँ कि मैं उससे कुछ भी नहीं कहूँगी, बस उसके पास चुपचाप बैठकर उसे देखती रहूँगी।” डॉकटर उसकी इस बात पर राज़ी हो गया और वह एक स्टूल पर अपने बेटे के पास बड़ी खामोशी के साथ बैठ गयी। बेटे के सिर और आँखों पर पट्टियाँ बंधीं थीं। माँ आँसुओं के साथ खामोशी से अपने बेटे को देखती रही। वह कभी उसके हाथ देखती और कभी उसके पैर, उसकी आँखें बस अपने बेटे पर ही लगीं थीं। थोड़ी देर बाद वह अपने आप को रोक ना पाई और बड़े धीरे से उसने अपने हाथ को बेटे के सिर पर रख दिया। बेटे ने तुरन्त धीमी आवाज़ में कहा “माँ तू आ गई।” उस बेटे ने सालों बाद माँ के हातों के स्पर्ष को पाया था लेकिन उसे उस प्यार भरे हाथ को पहिचानने में ज़रा भी देर नहीं लगी। क्या आपका दिल आपके प्रभु के प्यार का एहसास करता है?

जब मेरा प्रभु क्रूस पर अपनी पीड़ा के चरम सीमाओं को सह रहा था, तब एक तीखा पर सच्चा ताना उस पर कसा गया “इसने औरों को बचाया पर अपने आप को न बचा सका (मरकुस १५:३१)।” प्यारे प्रभु को दो में से एक बात को चुनना था - वह औरों को बचाए या अपने आप को; उसने फैसला किया कि वह औरों को बचाएगा। उसका यह फैसला सिर्फ उस प्यार के कारण था जो वह आपसे और मुझ्से करता है। हम स्वर्ग इसलिए नहीं जाना चहते हैं कि वहाँ सोने की सीढ़ीयाँ हैं, पर हम इसलिए जाना चहते हैं क्योंकि वहाँ हमारा प्यारा प्रभु है और हम उसके प्यरे छिदे कदमों को चूम पाएंगे।

प्रभु के वचन में लिखी कहानियाँ कोई कागज़ी कहानियाँ नहीं पर वास्तविकता हैं। पवित्र आत्मा ने अपने अनुग्रह से हमारे लिए इन छोटी कहानियों में बड़े आत्मिक भेद सजा कर रखे हैं। ये प्रभु के वे शब्द चित्र हैं जो सीधे हमारे दिलों पर असर करते हैं। प्रभु यीशु के पवित्र होठों से कहे गए दृष्टांतों में से ३८ नये नियम में लिखे गए हैं। आईये थोड़ी देर के लिए इन दृष्टांतों में से एक पर थोड़ा विचार करते हैं। यह दृष्टांत लूका के १५वें अध्याय में मिलता है। यहूदी समाज में बाप की जायदाद का बंटवारा बाप की मौत के बाद होता था लेकिन छोटे बेटे ने बाप के जीवित रहते ही बंटवारे की माँग की। एक तरह से उस बेटे ने, धन संपत्ति के लालच में, यह कह दिया कि बाप उसके लिए मर चुका है। बाप ने भी उसकी मान ली और वह बेटा अपने हिस्से की संपत्ति लेकर बाप का घर छोड़कर अपनी मर्ज़ी और मौज करने निकल पड़ा। उसने एक बार भी नहीं सोचा कि बाप के दिल पर क्या गुज़र रही होगी। वह बेटा अपने बाप के घर से तो निकल गया पर बाप के दिल से नहीं निकल पाया। वह एक बड़े शहर में चला गया और कुछ समय में सब कुछ गवाँ बैठा और बरबाद हो गया। जब वह किसी लयक नहीं रहा और खाने के भी लाले पड़ने लगे तो उसे याद आया इतना सब कुछ करने के बाद भी उसका पिता है और वह उसे माफ भी कर सकता है। इस एहसास के होते ही वह अपने बाप से मिलने चल पड़ा, एक समय का राजपुत्र अब भिखारियों की तरह अपने बाप के घर की ओर लौटा। दूर से ही उसे आता देखकर वह बाप अपने बेटे से मिलने दौड़ पड़ा और उसकी उसी बदहाल दशा में, जिसमें वह आया था, उसके एक भी शब्द बोलने से पहले ही बाप ने उसे अपने सीने से चिपटा लिया, उसे चूमा और उसे ऐसा प्यार और आदर दिया जैसे उसने कभी बाप के विरोध में कुछ किया ही न हो। प्रभु का यह दृष्टाँत परमेश्वर पिता के प्रेम और क्षमाशीलता को दरशाता है।

जैसे ही कोई पापी पश्चाताप के साथ परमेश्वर की ओर मुड़ता है, परमेश्वर उसे वैसे ही ग्रहण कर लेता है जैसे उस बाप ने अपने बेटे को कर लिया। ऐसा ही प्यार प्रभु ने मुझ जैसे से किया और आप से भी करता है। मन की सादगी से ही इस प्यार का एहसास हो पाता है। सादगी का अर्थ यह कदापि नहीं है कि संत लोग लंगोटी पहन कर बैरागी हो कर जीयें। संतों के स्वभाव में सादगी होनी चाहिए। लेकिन अक्सर वे अपनी मक्कारी और बनावटीपन से इस आत्मिक सादगी को खो बैठते हैं। प्रभु हमें ऐसा मन दे जो उसके प्यार का एहसास कर सके और उसको दिल से प्यार कर सके। यही प्रेम हमें विवश करेगा कि हम उसके लिए कुछ कर पाएं।
हमें “सम्पर्क” के लिए आपकी विशेष प्रार्थनों की आवश्यकता है। हम अलग-अलग स्थानों में “सम्पर्क” सभाएं आयोजित करने की इच्छा रखते हैं। यदि आप चहते हैं कि आप के गाँव या शहर में इनका आयोजन हो तो आप प्रार्थना करके हमें शीघ्र ही सूचित करें। हम इन “सम्पर्क” सभाओं में किसी भी मिशन या सम्प्रदाय की शिक्षाओं का प्रचार कतई नहीं कर पाएंगे, हम केवल पापों से क्षमा का प्रभु का संदेश ही दे पाएंगे। इन सभाओं के लिए “सम्पर्क” परिवार केवल प्रचारकों के आने-जाने का व्यय ही उठाएगा, सभाओं से संबंधित शेष सभी व्यय आयोजकों को ही उठाना पड़ेगा। यदि प्रभु आपको इन सभाओं की आज़ादी देता है तो शीघ्र पत्र व्यवहार करें।

फिर से हम आपके लिए कुछ प्रार्थनों के विषय छोड़ना चाहते हैं और हमें आशा है कि आप अपनी प्रार्थनाओं से हमारी मद्द अवश्य करेंगे। ये विषय हैं:
१. हम इन बुरे दिनों में प्रभु के लिए एक अच्छा जीवन जी सकें।
संदेश पहुँचा सकें।
३. यदि प्रभु की इच्छा में हो तो हम सम्पर्क को और भी भाषाओं
२. जिन इलाकों तक अभी सुसमाचार नहीं पहुँचा है वहाँ जीवन का य
हमें प्रकशित कर सकें।
४. सम्पर्क पत्रिका और भी अधिक लोगों तक पहुँच सके।

आपके पत्रों की प्रतीक्षा में,

प्रभु में आपका - सम्पर्क परिवार


शनिवार, 22 अगस्त 2009

सम्पर्क अगस्त २००१: परमेश्वर के वचन से सम्पर्क

यह गवाही देने आया, कि ज्योति की गवाही दे, ताकि सब उसके द्वारा विश्वास लाऐं - यूहन्ना १:७

एक नामधारी “विश्वासी” साहब थे। कहीं किसी दुकानदार ने चालकी से कुछ अच्छे नोटों के बीच एक फटा नोट उन्हें भेड़ दिया। जब उन्हें पता चला तो बहुत झल्लाए, काफी देर तक काफी कुछ सुनाते रहे, जैसे “कैसे नालायक लोग हैं, कैसा ज़माना आ गया है”, वगैरह वगैरह। सच तो यह है कि उन्हें झुंझलाहट ज़माने के हालात से या लोगों के व्यवहार से नहीं थी, असली परेशानी थी कि नोट बड़ा ग़लत फंस गया था। थोड़ी देर झुंझलाने के बाद ज़रा दिमाग़ लड़ाया और शाम के झुटपुटे में एक भीड़ भरी दुकान में गए, अच्छे नोटों में दबाकर फटा नोट व्यस्त दुकानदार को भेड़ दिया, फिर एक सुकून की लम्बी साँस ली और मुस्कुराते हुए बाहर आ गए, जैसे अब सारा ज़माना ही सुधर गया हो। ऐसे ‘तीन-तेरह’ करने वालों के लिए २ तिमुथियुस ३:१३ में ही लिखा है “... धोखा देते हुए और धोखा खाते हुए बिगड़ते चले जाऐंगे।”

हमारी जीवन शैली ही हमारे जीवन की गवाही है। युहन्ना रचित सुसमाचार गवाही का सुसमाचार कहा जा सकता है। ‘गवाही’ शब्द का उपयोग इस सुसमाचार में २२ बार किया गया है। वह - युहन्ना बपतिस्मा देने वाला, गवाही देने आया कि “ज्योति कि गवाही दे ताकि सब मनुष्य विश्वास लाऐं” - युहन्ना १:७। इस पद में तीन बातें मुख्य हैं:-

१. ज्योति २. गवाही ३. ताकि सब विश्वास लाऐं।

१. ज्योति: पुराने नियम और नए नियम के बीच ४०० वर्ष अंधकार का समय था। इस समय में न तो कोई भविष्यद्वक्ता और न ही आतमिक दर्शन प्रकट हुए। इस लम्बे अंधकार के समय के अन्त में यूहन्ना बपतिसमा देने वाला प्रकट हुआ। वह एक जलता हुआ दीपक था (युहन्ना ५:३५) जो भी ज्योति में जीवन जीता है उसका अंधकार से क्या लेना देना? ज्योति हमें जताती है कि हम कहाँ हैं; हम वास्तव में क्या हैं। ज्योति कई छिपी परतों को हटाकर हमारी असलियत हमें दिखाती है। हम कितनी बार काम चलाऊ झूठ बोलते हैं। सच को कहने की और उसके परिणाम सहने की हममें सामर्थ ही नहीं होती। जैसे - हम अक्सर कह देते हैं “आपसे मिलकर बड़ी खुशी हुई” जो वास्तव में सच नहीं होता, असल सच जो मन में होता है कि “यह मनहूस क्यों आ टपका” - हम आदतन झूठ बोलते हैं।

वचन को दर्पण भी कहा गया है (याकूब १:२२)। दर्पण को इससे क्या लेना देना कि उसके आगे कौन खड़ा है। वह किसी का पक्षपात नहीं करता; जो जैसा है, उसे वैसा ही दिखा देता है। यदि मन में कचरा भरा हो तो फिर खुशबू कहाँ से महकेगी, अंधकार के काम घिरे हों तो ज्योति कहाँ से चमकेगी। वचन जीवित ज्योति है, उसमें जीवन है “यदि हम कहें कि उसके साथ हमारी सहभागिता है और फिर अंधकार में चलें तो हम झूठे हैं और सत्य पर नहीं चलते (युहन्ना १:६)।” शत्रु-शैतान कितनों को अन्धेपन का ज़हर पिला रहा है। उन्हें पता ही नहीं चलता कि शैतान उनका उपयोग कर रहा है। परमेश्वर के शब्द हमें कई बार छू लेते हैं और हम तिलमिला जाते हैं, उन्हें सह लेना सहज नहीं होता। हम वचन को जानते हैं पर मानते नहीं। जानना बहुत ही सस्ता सौदा है पर वचन को मानना महंगा पड़ता, कीमत चुकानी पड़ती है। बाईबल को बहुत जानने से फर्क नहीं पड़ता, पर वास्तव में मानने से जीवन में फर्क पड़ता है। प्रभु कहता है कि “जब तुम मेरा कहना नहीं मानते तो मुझे हे प्रभु, हे प्रभु क्यों कहते हो? (लूका ६:४६)” ज़्यादतर विश्वासियों को सस्ते सौदे ही सुहाते हैं। मन कहता है कि ऐसे रास्ते सिखाओ कि “हल्दी लगे न फिटकरी बस रंग चोखा जम जाए।” एक-दूसरे पर रंग जमाने के लिए कई बार प्रार्थना सभाओं में प्रार्थनाएं प्रभु को सुनाने के लिए नहीं पर साथियों को सुनाने के लिए ही होती हैं।

संकरा रास्ता सस्ता रास्ता नहीं है। ऐसे कितने नामधारी विश्वासी हैं जिनके मन में परमेश्वर के वचन के लिए दो कौड़ी की भी श्रद्धा नहीं है। उनके लिए बाईबल अद्धयन की सभाओं का कोई महत्व नहीं होता, क्योंकि बाईबल अद्धयन में जाने के लिए धन और समय दोनो की कीमत चुकानी पड़ती है। ऐसों को शत्रु शैतान बड़ी सहजता से अपना शिकार बना लेता है। ये लोग अपने आवेग पर काबू पाने की क्षमता खोते जाते हैं। इस कारण मण्डलियों में बदला लेने वाले, उग्र, झगड़ालू और दूसरों को अपमानित करने वाले ‘विश्वासियों’ का उदय होता है। ये ही लोग सारी मण्डली में एक सूनापन उत्पन्न करते हैं और प्रभु के लोगों में भी आपस में फूट डालकर मण्डली को तो़ड़ते हैं। वास्तविकता तो यह है कि प्रभु के लोगों की सही सेवा तोड़ने की नहीं पर जोड़ने की होती है - प्रभु यीशु ने कहा है “धन्य हैं वे जो मेल करवाने वाले हैं क्योंकि वे परमेश्वर के पुत्र कहलाएंगे (मत्ती ५:८)”।

वचन की ज्योति का अभाव जीवन में भटकाव पैदा करता है। प्रकाश के अभाव में रस्सी का टुकड़ा भी साँप सा दिखने लगता है। आत्मिक धुंधलेपन में ऐसे विश्वासियों को सच्चे भाई भी दुश्मन से लगने लगते हैं और उनके जीवन का उद्देश्य ही खो जाता है। “बिना मेल मिलाप और पवित्रता के परमेश्वर को कोई कदापि न देखेगा - इब्रानियों १२:१४”। ऐसे में क्या आप के दिल में प्रार्थना है कि हे प्रभु मुझे अपने आश्रय में बनाए रख, कहीं अन्धकार में खो न जाऊँ; आमीन।

२. गवाही: इस पद का दूसरा भाग है “गवाही देने आया”। जिसके पास पुत्र (प्रभु यीशु) है उसके पास गवाही है - १ युहन्ना ५:१०। प्रभु कहता है कि तुम मेरे गवाह हो। जो गवाह गवाही न दे वो किस काम का? यदि विश्वासी सुसमाचार न दे तो वह निश्चित रूप से हारा हुआ जीवन जीएगा। एक जयवन्त जीवन जीने के लिए हर दिन सुसमाचार सुनाना ज़रूरी है - “प्रतिदिन उसके उद्धार का सुसमाचार सुनाते रहो (१ इतिहास १६:३०)”। गवाही मात्र दूसरों को बचाने के लिए ही नहीं, पर अपने आप को बचाए रखने के लिए भी ज़रूरी है - “वे मेमने के लहु और अपनी गवाही के वचन के कारण उस पर जयवन्त हुए (प्रकाशित वाक्य १२:११)”।

कई बार जब हम सुसमाचार देते हैं तो ऐसा बुझा सा जवाब मिलता है कि दिल ही बुझ जाता है। एक बार मैं दिल्ली से बस के द्वारा घर वापस आ रहा था, मेरे बगल की सीट पर एक जनाब बैठे थे। ज़रा तुनक मिज़ाज़ के से लग रहे थे, फिर भी मैंने हिम्मत बाँध कर प्रभु की गवाही देने के लिए , शायद, कुछ इस तरह बात शुरू की - “जनाब आप कहाँ जा रहे हैं, कहाँ काम करते हैं?” पता चला जनाब ऋषिकेश के किसी बैंक में काम करते हैं। मैंने बात आगे बढ़ाने के लिए कहा “क्या आप परमेश्वर पर विश्वास करते हैं?” मेरा परमेश्वर का नाम लेना था कि उनके जवाब ने मेरे सवाल का गला घोंटकर सारे सवाल की जान ही निकाल दी। बड़ी कुतर बुद्धी थे, सारी बात को कुतर डाला। तुनक कर बोले “जनाब कुछ लोग कुत्ता पालते हैं, कुछ बिल्ली, कुछ गधा। आपने परमेश्वर को पाल रखा है तो आप पाले रखें, मेरे गले उसे क्यों मढ़ रहे हैं?” मैं जवाब सुनते ही बगलें झांकने लगा क्योंकि आगे कुछ कहने को रहा ही नहीं। ऐसे ही एक बार बस में एक व्यक्ति को सुसमाचार का पर्चा दिया; उसने पढ़ना शुरू किया, लेकिन यीशु मसीह का नाम पढ़ते ही झल्ला गया। पर्चा फाड़ा और मेरे मूँह पर फेंक कर मारा।

यह हमेशा ध्यान रखें कि अन्धों की दुनिया में आँखों वलों को सम्मान नहीं मिलता और झूठों की दुनिया में सच्चों को अपमान ही मिलता है। यहाँ ईमान्दार को बेवकूफ कहते हैं और ईमान्दारी को बेवकूफी।
बात १९८५ की है, प्रभु के बहुत ही प्यारे दास सी. ई. दासन पहली और आखिरी बार रूड़की में सेवकाई के लिए आए थे। उनके जीवन की आखिरी सेवकाई के बाद उनकी हालत काफी नाज़ुक होती गई। शाम को जब मैं भाई के कमरे से लौटने लगा तो वे मुझ जैसे व्यक्ति से कहने लगे कि “भाई क्या तुम मेरे लिए प्रार्थना करके नहीं जाओगे?” मैं टूट गया यह सोच कर कि इनके सामने मैं क्या हूँ? क्या मैं इस दास के लिए प्रार्थना करने के लायक हूँ? २३ अक्तूबर १९८५ को उनकी मौत से कुछ घंटे पहले नर्सिंग होम में मैं उनके साथ था। भाई की हालत नाज़ुक होने के कारण उन्हें दिल्ली ले जाने की तैयारी की जा रही थी। तभी अचानक दो लड़कियाँ मना करने के बाद भी उनसे मिलने उनके कमरे में आ पहुँचीं। भाई दासन ने सबसे पहली बात उनसे यह पूछी “क्या तुम्हें पापों की क्षमा मिल गई?” और फिर उसी हालत में वे उन्हें सुसमाचार देने लगे। मैं बीच-बीच में बार बार उन्हें टोकता रहा कि भाई आप मेहरबानी से ज़्यादा न बोलियेगा पर वे रुके नहीं। जब वे लड़कियाँ चली गईं तब उन्होंने मुझसे कहा “भाई अपनी बाईबल से अभी प्रेरितों के काम ४:२० पढ़ो।” मैंने वह पद पढ़ा, वहाँ लिखा था “क्योंकि यह तो हमसे हो नहीं सकता कि जो हमने देखा और सुना है वह न कहें।” मैं इस प्रभु के दास की तरफ देखता रहा और मेरे पास कहने को कोई शब्द थे ही नहीं। वे अब अपनी अंतिम यात्रा के लिए प्रस्तुत थे। वह इस महान दास के द्वारा कहा गया आखिरी पद और दी गयी आखिरी गवाही थी। कुछ ही घंटों बाद वह अपने प्रभु के पास चले गए। प्रभु की गवाही देने में वे मृत्यु तक विश्वास योग्य रहे।

ज़रा झुकें और ईमान्दारी से अपने अन्दर झाँकें और जाँचें कि किस उद्देश्य के लिए जी रहे हैं? “जिसने मुझे भेजा है, हमें उसके काम दिन ही दिन में करना अवश्य है; वह रात आने वाली है जिसमें कोई कुछ नहीं कर सकता (युहन्ना ९:४)।” आइये इस बहुमूल्य समय का सम्मान करें।

३. सब विश्वास लाऐं: इस पद का तीसरा और अंतिम भाग है “ताकि सब उसके द्वारा विश्वास लाऐं”। ज़्यादतर इसाईयों के पास बड़ा छोटा सा मसीह है जिसे वे इसाई धर्म के दायरे में ही रखते हैं। वह मसीह जो स्वर्गों में भी नहीं समा सकता, उस परमेश्वर को कितनो ने तो इतना छोटा बना डाला है कि वे उसे सिर्फ अपने मिशन और ग्रुप में ही लपेट कर रख सकें। मसीह ने अपने बारे में कहा “मैं जगत की ज्योति हूँ (यूहन्ना ८:१२)।” जगत की ज्योति को किसी धर्म, मिशन या ग्रुप के ढक्कन के नीचे कभी नहीं रखा जा सकता। लूका लिखता है “मैं तुम्हें बड़े आनन्द का सुसमाचार सुनाता हूँ जो सब लोगों के लिए है (लूका १:१०)।” मत्ती कहता है “वह (यीशु) लोगों को उनके पापों से उद्धार देगा (मत्ती १:२१)।” प्रभु इन दो पदों में दो बातों पर ज़ोर देता है, पहली बात “सब लोगों के लिए” दूसरी, पाप के लिए नहीं पर पापों के लिए, अर्थात सब पापों के लिए। पाप करने वाला कोई क्यों न हो, कितने भी और कैसे भी पाप क्यों न किये हों “उसका लहु हमें सब पापों से शुद्ध करता है (१ युहन्ना १:७)”।

सारे धर्म यही सिखाते हैं कि अच्छे काम करने के द्वारा परमेश्वर तक पहुँचा जा सकता है। परमेश्वर का वचन हमें बताता है कि हमारे कोई भी और कितने भी अच्छे काम इतने अच्छे कतई नहीं हैं कि हम उनके द्वारा परमेश्वर तक पहुँच सकें (यशायह ६४:६, तीतुस ३:५)। केवल एक ही अच्छा काम है जो परमेश्वर को ग्रहण योग्य है और जिसके आधार पर हम परमेश्वर के पास आ सकते हैं, वह अच्छा काम प्रभु यीशु ने कलवरी के क्रूस पर अपनी जान देकर किया और उसके द्वारा समस्त मानव जाति के लिए उद्धार का मार्ग खोल दिया। बस जो कोई, जैसा भी, जहाँ भी हो, यदि उस पर विश्वास करेगा, वह नाश न होगा पर अनन्त जीवन पाएगा।

अब हम संसार की समप्ति के समीप खड़े हैं जहाँ पर इस संसार की और सहने की सीमाएं समाप्त हो चुकी हैं। परमेश्वर नहीं चाहता कि उसका वचन सिर्फ आपके घर की दीवारों पर ही ठुक रहे, वह चाहता है कि उसका जीवन्दायी वचन किसी तरह आपके दिल में भी ठुक जाए। जल की तस्वीर को दीवार पर लगा लेने से प्यास तो नहीं बुझ सकती। आप जल के बारे में बहुत सुनते, बहुत जानते, बहुत प्रचार भी करते हैं पर सच्चाई तो सिर्फ यही है कि जब तक जीवन के जल को आप ग्रहण नहीं करते, तब तक तृप्ती पा नहीं सकते। यह भी सम्भव नहीं कि जल मेरे माँ-बाप ग्रहण करें और प्यास मेरी बुझ जाए। जो भी जीवन के जल को ग्रहण करते हैं, उन्हें फिर किसी धर्म को ग्रहण करने की ज़रूरत ही नहीं बचती। उनके जीवन में एक नया परिवर्तन प्रकट होता है। ऐसा बदला हुआ जीवन स्वयं गवाही देता है।











सोमवार, 17 अगस्त 2009

सम्पर्क अगस्त २००१: एक प्यासा जीवन के जल के पास

मेरा नाम प्रभजोत सिंह चानी है। मेरा जन्म १९६७ में दिल्ली के एक सिख परिवार में हुआ। मैं अभी रूड़की विश्वविद्यालय में एक अध्यापक हूँ। मेरे माता पिता ने बचपन से ही मुझ पर कोई धार्मिक दबाव नहीं डाला। जबकि मुझे अपने धर्म का कुछ भी ज्ञान नहीं था, लेकिन फिर भी मुझे सिख होने का घमण्ड था। मैं बहुत छोटी उम्र से ही एक दोगला जीवन बिताने लगा-एक जीवन घर में दूसरा घर के बाहर। बचपन से ही मैंने अपने माँ बाप के बीच में छोटी बड़ी बातों पर लड़ाई झगड़ा होते देखा; उनकी गालियों और चीखने चिल्लाने से मैं बहुत सहम जाता। घर के अन्दर मैं एक सहमा दबा हुआ जीवन जीता और घर के बाहर अपने दोस्तों के साथ गन्दे घिनौने पापों में मज़ा लेकर मन बहलाता।

मेरे पिता लगातार अपनी नौकरी में तरक्की करते गए। घर में सच्ची खुशी और शान्ती के सिवाए किसी चीज़ की कमी नहीं थी। दिल्ली के सर्वश्रेष्ठ स्कूल में पढ़ने से मुझे लगने लगा कि जीवन का वास्त्विक आनन्द पैसे और अधिकार से ही मिलता है। फिर भी मेरे मन में अजीब सी बेचैनी और अकेलापन रहता था। मैं कभी अपने माँ बाप से खुलकर बात नहीं कर पाता था और अपने हम-उम्र दोस्तों में खुशी खोजता था पर यह खुशी थोड़े समय की ही होती थी। ११वीं कक्षा ताक आते-आते मैं पापों में धंस चुका था। सिग्रेट-शराब पीना, भद्दी पार्टियों में जाना, गन्दी किताबें और फिल्में मेरे जीवन का हिस्सा बन चुकी थीं। मेरे माँ बाप के आपसी सम्बन्ध भी बहुत नीचे आ गये थे जिसे मैं चुप होकर देखता रहता। मेरा दिल अपने पिता के प्रति घृणा से भर चुका था। इन सब के बीच मेरी पढ़ाई को चोट लगी परन्तु फिर भी मेरा दाखिला रूड़की विश्वविद्यालय में हो गया। जो विष्य मैं लेना चाहता था वह मुझे नहीं मिल जिससे मेरी निराशा और बढ़ गई। अन्दर ही अन्दर मैं जानता था कि अपनी इस हालत का दोषी मैं खुद हूँ, पर सुधरने के विपरीत कॉलेज और होस्टल के आज़ाद वातवरण में मैं और भी बिगड़ता गया। अपने पिता का पैसा पानी की तरह बहाना और उन्हें झूठा हिसाब देना मेरे लिये हर बार की बात थी। साथ ही साथ मेरी अशान्ति और बढ़ने लगी। मेरे निजी सम्बन्धों में मुझे कुछ और करारे झटके लगे जिससे मैं अपने माँ बाप से और दूर होता चला गया।

१९८७ के आखिर में आते-आते तक मैं अपने आप को खोया हुआ महसूस करने लगा, सब कुछ होते हुए भी मैं कंगाल खड़ा था। ऐसा लगता था कि अब आगे चलने की ताकत नहीं रही। मैं हार चुका था अपने स्वभाव से, अपने पापों से अपनी परिस्थितियों से। एक शाम मैं अपने डिपार्टमेंट से अपने हॉस्टल लौट रहा था, जहाँ तक मुझे याद पड़ता है, मेरी आँखों में आँसू थे। एक मोड़ मुड़ते हि मैंने अपने सामने एक लड़के को खड़ा देखा जिसके बारे में मैंने उन दिनों सुना था कि वह कहता था कि रूड़की में मेरा नया जन्म हुआ है। उसके इस अजीब वाक्य ने मुझे उसकी ओर खींचा। मैं सड़क पर चलते-चलते उससे बात करने लगा, लेकिन वह मुझसे पापों के प्रायश्चित के बारे में बातें कर रहा था। उसकी यह बातें मेरी कुछ खास समझ नहीं आईं पर उसने रात अपने कमरे पर आने का निमंत्रण दिया जो मैंने स्वीकार कर लिया। मुझे नए विचार सुनना अच्छा लगता था इसलिए उस रात मैं उस छात्र के कमरे पर गया। उसने मुझे बाईबल से खोल कर दिखाया और जो पद मेरे सामने थे, उन्में लिखा था “जो कोई यह जल पीएगा वह फिर प्यासा होगा, परन्तु जो जल मैं उसे दूँगा वह फिर प्यासा न होगा...” (यूहन्ना४:१३)। मुझे ऐसा लगा कि मानो कोई मुझ से बात कर रहा हो। यह मेरे जीवन की हालत थी। मेरे पास सब कुछ था, पर फिर भी मैं प्यासा था; और यह यीशु मेरी प्यास हमेशा के लिए बुझाने का आश्वासन दे रहा था। मैं अपने कमरे पर वापस लौट आया। इस बातचीत ने मुझे बहुत प्रभावित किया, परन्तु मैं यीशु और परमेश्वर के अस्तित्व पर विश्वास नहीं कर सका क्योंकि जवान होते-होते मैं नास्त्क प्रवर्ति का बन चुका था। कुछ दिन बाद वही छात्र मेरे कमरे पर आया और मुझे एक प्रार्थना करने के लिए कहा। मैंने उसकी बात रखने के लिए और थोड़ी जिज्ञासा के साथ उसके पीछे-पीछे एक प्रार्थना की पंक्तियाँ दोहरा दीं। मुझे शब्द तो याद नहीं पर वह पापों की माफी और प्रभु यीशु पर विश्वास करने की प्रार्थना थी।

इस प्रार्थना से कोई बाहरी बदलाव तो नहीं आया लेकिन अगले ही दिन मुझे एहसास होने लगा कि मैं अन्दर से बदलने लगा हूँ। इसकी शुरुआत ऐसे हुई कि मेरे मूँह से गन्दी गालियाँ, जिन्हें मैं बकना छोड़ नहीं सकता था, अपने आप निकलनी बन्द हो गईं। मैं हैरान था कि क्या यह कोई मनोवैज्ञानिक बात है या वासत्व में कोई जीवित परमेश्वर है? इस सवाल के उत्तर के लिए मैं एक भूखे आदमी की तरह बाईबल पढ़ने लगा। प्रभु यीशु की अदभुत बातें और उसका प्रेम मेरे मन को छू गया। कई बार वचन पढ़ते पढ़ते मैं रो पड़ता था। मेरा जीवन, मेरा स्वभाव बदलता जा रहा था।

मैं प्रभु के लोगों के साथ संगति करने लगा और उनकी संगति और प्रार्थना और वचन पढ़ने से मेरा विश्वास स्थिर होता गया। मुझे विश्वास हो गया कि मुझे पापों और उसकी भयानक सज़ा से छुटकारा देने के लिये ही प्रभु यीशु ने क्रूस पर अपने प्राण दिये और वह मर कर फिर तीसरे दिन जी उठे। जब मैंने यह बातें अपने परिवार में बताईं तो अचानक बहुत विरोध उठ खड़ा हुआ। कुछ कट्टरवादी लोग भी धमकियाँ देने लगे। कई बार लगा कि मेरे पिता मुझे घर से निकाल देंगे। लेकिन अजीब बात यह थी कि अब मेरे अन्दर पहले सा डर नहीं था। प्रभु ने मुझे हिम्मत से भर दिया कि मैं विश्वास में खड़ा रह सकूँ। मेरे मन में मेरे माता पिता के प्रति सच्चा प्रेम और आदर आने लगा।

मैं प्रभु के लोगों के साथ संगति करने लगा और उनकी संगति और प्रार्थना और वचन पढ़ने से मेरा विश्वास स्थिर होता गया। मुझे विश्वास हो गया कि मुझे पापों और उसकी भयानक सज़ा से छुटकारा देने के लिये ही प्रभु यीशु ने क्रूस पर अपने प्राण दिये और वह मर कर फिर तीसरे दिन जी उठे। जब मैंने यह बातें अपने परिवार में बताईं तो अचानक बहुत विरोध उठ खड़ा हुआ। कुछ कट्टरवादी लोग भी धमकियाँ देने लगे। कई बार लगा कि मेरे पिता मुझे घर से निकाल देंगे। लेकिन अजीब बात यह थी कि अब मेरे अन्दर पहले सा डर नहीं था। प्रभु ने मुझे हिम्मत से भर दिया कि मैं विश्वास में खड़ा रह सकूँ। मेरे मन में मेरे माता पिता के प्रति सच्चा प्रेम और आदर आने लगा।

कई साल मैं अपने परिवार को समझाता रहा कि मैंने कोई धर्म परिवर्तन नहीं किया है बल्कि मेरा जीवन बदल गया है। १९९१ में प्रभु ने मुझे स्पष्ट रीति से रू़ड़की में रहने के लिये कहा। मेरे घर में फिर विरोध हुआ, लेकिन प्रभु मेरे लिए रास्ते निकलता चला गया और मैं उच्च शिक्षा रूड़की विश्वविद्यालय में ज़ारी रख सका।

१९९५ में एक सड़क दुर्घटना में मेरी दाईं टाँग खराब हो गई। कई बहुत काबिल डाकटरों की कोशिशों के बावजूद भी वो उसे ठीक नहीं कर सके। दो साल अस्पताल के अन्दर बाहर और कई अपरेशनों के बीच मैं बहुत अकेलेपन और घोर निराशा से निकला। इस दौरान मैंने अपने आत्मिक जीवन में पहली बार प्रभु को इतना करीब से देखा। धीरे-धीरे मैं सीखने लगा कि मेरे जीवन की डोर उसी के हाथ में है और प्रभु मेरा बुरा नहीं होने देगा। इस हादसे ने मेरे माता पिता पर भी प्रभाव डाला, क्योंकि वे प्रभु के लोगों का मेरे प्रति प्रेम और मेरे जीवन में प्रभु की शांति को देखते थे। मेरे माता पिता चिंतित थे कि हमारा बेटा लंगड़ाता है, सो कौन इससे विवाह करेगा? लेकिन प्रभु ने १९९७ में मुझे अपने अदभुत प्रेम में एक ऐसी पत्नी दी जो प्रभु की दया से सच में मेरे लिए एक उपयुक्त जीवन साथी है। मैंने अपने इस छोटे से परिवार में वह खुशी और आनन्द पाया है जिसकी मैं लालसा करता था। १९९९ में प्रभु ने हमें एक बेटी का दान भी दिया।

जब मैं पीछे मुड़ कर देखता हूँ तो मेरा दिल खुशी और धन्यवाद से भर जाता है। यह आज भी मेरे लिये हैरानी की बात है कि मेरा उद्धार कैसे हो गया? प्रभु में आने के बाद मैंने बहुत बार एक हारा हुआ सा जीवन बिताया, लेकिन प्रभु ने न तो मुझे छोड़ा न त्यागा। मेरा आपसे नम्र निवेदन है कि अप मेरी सेवकाई और परिवार को अपनी बहुमूल्य प्रार्थनों में याद रखियेगा।

गुरुवार, 13 अगस्त 2009

सम्पर्क अगस्त २००१: एहसास एक बदले जीवन का

मेरा नाम मेघा चानी है। मैं एक डॉक्टर हूँ और धमतरी हस्पताल, छत्तीसगढ़ में काम करती हूँ। मेरा जन्म १९६६ में एक विश्वासी परिवार में हुआ। मेरे माता-पिता दोनो सच्चे विश्वासी थे इसलिए बचपन से ही हमारे परिवार में नित्य पारिवारिक प्रार्थनाएं होती थीं। मुझे छोटी उम्र से ही सिखाया गया था कि मैं अपनी हर ज़रूरत को प्रभु के पास प्रार्थना के द्वारा ले जाऊँ। मेरे माता-पिता का जीवन भी मेरे लिए एक बहुत बड़ा उदाहरण था। उनके पास बहुत पैसा तो नहीं था, इस्लिए हमें अक्सर कमी-घटियों का सामना करना पड़ता था। परन्तु इसके बावजूद हमारे घर में परमेश्वर की सच्ची शाँति और आनन्द था।

ऐसे माहौल में पलते हुए मैं दूसरों की नज़रों में एक अच्छी लड़की थी। मैं पढ़ाई में मेहनती थी और शिक्षकों का आदर भी करती थी। फिर भी मुझे अपने अन्दर पाप का एहसास होता था। मुझे ऐसा लगता था कि मेरे जीवन में किसी चीज़ की कमी है।

जब मैं सातवीं कक्षा में थी तो धमतरी हस्पताल में कुछ विशेष आत्मिक सभाएं आयोजित की गयीं। उन सभाओं में मैं आत्मिक गीत गाने वाली टोली में थी। वहाँ मैंने प्रचारकों के द्वारा सुना कि हम सब पापी हैं और हमें पापों की माफी के लिए प्रभु यीशु मसीह और उसके लहु के द्वारा शुद्ध होने की ज़रूरत है। मुझे एहसास हुआ कि चाहे मैं बाहर से अच्छी हूँ और अच्छे काम करती हूँ, फिर भी मैं एक पापी हूँ। मैं उस सभा में आगे जाकर प्रभु यीशु को ग्रहण करने से झिझक रही थी, यह सोच कर कि लोग क्या कहेंगे। परन्तु जैसे सभाएं चलती रहीं तो वैसे मेरी बेचैनी भी बढ़ती गई। एक रात मैंने अपनी माँ को यह बात बताई और अगले दिन आगे जाकर प्रभु यीशु को अपना प्रभु और उद्धारकर्ता ग्रहण कर लिया। तब मुझे लगा कि मेरे जीवन में यही खालीपन था जो केवल प्रभु यीशु ही भर सकते थे। शायद बाहर से लोगों को कोई परिवर्तन न दिखाई दिया हो, लेकिन मैं अपने अन्दर एक बदले हुए जीवन का एहसास करने लगी। मेरे अन्दर वचन के लिए बहुत भूख जाग उठी और तब मैं स्वेच्छा से वचन पढ़ने और प्रार्थना करने लगी।

प्रभु के अनुग्रह से १९८५ में मेरा दखिला एक मैडिकल कालिज में हो गया जहाँ से मैंने अपनी डाक्टरी की पढ़ाई पूरी की। अप्रैल १९९१ में मेरे पिता अचानक प्रभु के पास चले गये। इस हादसे से हमें एक गहरा आघात लगा। आर्थिक रूप से भी हम बड़ी मुशकिलों में पड़ गये। ऐसी परिस्थिती में मेरे मन में कई प्रश्न उठते और मेरा मन भी कठोर होने लगा। लेकिन प्रभु ने ना तो हमें छोड़ा न त्यागा। धीरे-धीरे प्रभु ने हमारी सब ज़रूरतों को पूरा कर दिया और मेरी उच्च शिक्षा के सारे प्रयोजन भी पूरे कर डाले।

मैं लगभग २९ वर्ष की हो चुकी थी और मेरे साथ के मित्रों में से बहुतों के विवाह भी हो चुके थे। पर मैं एक विश्वासी से विवाह करना चाहती थी। बहुत सालों तक मैं प्रार्थना में इन्तज़ार करती रही। अन्त में मुझे लगा कि शायद प्रभु मुझे अविवाहित ही रखना चाहता है। यह विचार मुझे निराश करते थे। परन्तु मैंने अपने जीवन में प्रभु के प्रेम और विश्वासयोग्यता का एहसास किया था। सन १९९६ में प्रभु मेरे सामने एक विश्वासी का रिश्ता लाया। और करीब आठ महीने प्रार्थना के बाद हम दोनो इस विवाह के लिए सहमत हुए। मई १९९७ में मेरा विवाह प्रभजोत सिंह चानी के साथ हो गया।

मेरे पति की गवाही पढ़ने से आपको यह एहसास होगा कि हम दोनो कितने अलग पारिवारिक और व्यक्तिगत परिस्थितयों से गुज़रे हैं। हम दोनो के स्वभाव भी अलग-अलग हैं। लेकिन प्रभु ने अपनी अदभुत दया से हमें अपने परिवार में सच्ची खुशी और शान्ति दी है और हमें निश्चय है कि प्रभु ने नमें जोड़ा है “यह प्रभु की करनी है और हमारी दृष्टि में अदभुत है” (भजन ११८:२३)। मेरी पढ़ाई और धमतरी हस्पताल में कुछ अनिवार्य सेवा के कारण हम दोनो को अलग रहना पड़ रहा है, परन्तु हमने अपने परिवार में परमेश्वर की दया से सच्चा प्रेम और आनन्द पाया है। आपसे निवेदन है कि हमारे इस छोटे परिवार को अपनी प्रर्थनाओं से सहारा देते रहें।