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शनिवार, 22 अगस्त 2009

सम्पर्क अगस्त २००१: परमेश्वर के वचन से सम्पर्क

यह गवाही देने आया, कि ज्योति की गवाही दे, ताकि सब उसके द्वारा विश्वास लाऐं - यूहन्ना १:७

एक नामधारी “विश्वासी” साहब थे। कहीं किसी दुकानदार ने चालकी से कुछ अच्छे नोटों के बीच एक फटा नोट उन्हें भेड़ दिया। जब उन्हें पता चला तो बहुत झल्लाए, काफी देर तक काफी कुछ सुनाते रहे, जैसे “कैसे नालायक लोग हैं, कैसा ज़माना आ गया है”, वगैरह वगैरह। सच तो यह है कि उन्हें झुंझलाहट ज़माने के हालात से या लोगों के व्यवहार से नहीं थी, असली परेशानी थी कि नोट बड़ा ग़लत फंस गया था। थोड़ी देर झुंझलाने के बाद ज़रा दिमाग़ लड़ाया और शाम के झुटपुटे में एक भीड़ भरी दुकान में गए, अच्छे नोटों में दबाकर फटा नोट व्यस्त दुकानदार को भेड़ दिया, फिर एक सुकून की लम्बी साँस ली और मुस्कुराते हुए बाहर आ गए, जैसे अब सारा ज़माना ही सुधर गया हो। ऐसे ‘तीन-तेरह’ करने वालों के लिए २ तिमुथियुस ३:१३ में ही लिखा है “... धोखा देते हुए और धोखा खाते हुए बिगड़ते चले जाऐंगे।”

हमारी जीवन शैली ही हमारे जीवन की गवाही है। युहन्ना रचित सुसमाचार गवाही का सुसमाचार कहा जा सकता है। ‘गवाही’ शब्द का उपयोग इस सुसमाचार में २२ बार किया गया है। वह - युहन्ना बपतिस्मा देने वाला, गवाही देने आया कि “ज्योति कि गवाही दे ताकि सब मनुष्य विश्वास लाऐं” - युहन्ना १:७। इस पद में तीन बातें मुख्य हैं:-

१. ज्योति २. गवाही ३. ताकि सब विश्वास लाऐं।

१. ज्योति: पुराने नियम और नए नियम के बीच ४०० वर्ष अंधकार का समय था। इस समय में न तो कोई भविष्यद्वक्ता और न ही आतमिक दर्शन प्रकट हुए। इस लम्बे अंधकार के समय के अन्त में यूहन्ना बपतिसमा देने वाला प्रकट हुआ। वह एक जलता हुआ दीपक था (युहन्ना ५:३५) जो भी ज्योति में जीवन जीता है उसका अंधकार से क्या लेना देना? ज्योति हमें जताती है कि हम कहाँ हैं; हम वास्तव में क्या हैं। ज्योति कई छिपी परतों को हटाकर हमारी असलियत हमें दिखाती है। हम कितनी बार काम चलाऊ झूठ बोलते हैं। सच को कहने की और उसके परिणाम सहने की हममें सामर्थ ही नहीं होती। जैसे - हम अक्सर कह देते हैं “आपसे मिलकर बड़ी खुशी हुई” जो वास्तव में सच नहीं होता, असल सच जो मन में होता है कि “यह मनहूस क्यों आ टपका” - हम आदतन झूठ बोलते हैं।

वचन को दर्पण भी कहा गया है (याकूब १:२२)। दर्पण को इससे क्या लेना देना कि उसके आगे कौन खड़ा है। वह किसी का पक्षपात नहीं करता; जो जैसा है, उसे वैसा ही दिखा देता है। यदि मन में कचरा भरा हो तो फिर खुशबू कहाँ से महकेगी, अंधकार के काम घिरे हों तो ज्योति कहाँ से चमकेगी। वचन जीवित ज्योति है, उसमें जीवन है “यदि हम कहें कि उसके साथ हमारी सहभागिता है और फिर अंधकार में चलें तो हम झूठे हैं और सत्य पर नहीं चलते (युहन्ना १:६)।” शत्रु-शैतान कितनों को अन्धेपन का ज़हर पिला रहा है। उन्हें पता ही नहीं चलता कि शैतान उनका उपयोग कर रहा है। परमेश्वर के शब्द हमें कई बार छू लेते हैं और हम तिलमिला जाते हैं, उन्हें सह लेना सहज नहीं होता। हम वचन को जानते हैं पर मानते नहीं। जानना बहुत ही सस्ता सौदा है पर वचन को मानना महंगा पड़ता, कीमत चुकानी पड़ती है। बाईबल को बहुत जानने से फर्क नहीं पड़ता, पर वास्तव में मानने से जीवन में फर्क पड़ता है। प्रभु कहता है कि “जब तुम मेरा कहना नहीं मानते तो मुझे हे प्रभु, हे प्रभु क्यों कहते हो? (लूका ६:४६)” ज़्यादतर विश्वासियों को सस्ते सौदे ही सुहाते हैं। मन कहता है कि ऐसे रास्ते सिखाओ कि “हल्दी लगे न फिटकरी बस रंग चोखा जम जाए।” एक-दूसरे पर रंग जमाने के लिए कई बार प्रार्थना सभाओं में प्रार्थनाएं प्रभु को सुनाने के लिए नहीं पर साथियों को सुनाने के लिए ही होती हैं।

संकरा रास्ता सस्ता रास्ता नहीं है। ऐसे कितने नामधारी विश्वासी हैं जिनके मन में परमेश्वर के वचन के लिए दो कौड़ी की भी श्रद्धा नहीं है। उनके लिए बाईबल अद्धयन की सभाओं का कोई महत्व नहीं होता, क्योंकि बाईबल अद्धयन में जाने के लिए धन और समय दोनो की कीमत चुकानी पड़ती है। ऐसों को शत्रु शैतान बड़ी सहजता से अपना शिकार बना लेता है। ये लोग अपने आवेग पर काबू पाने की क्षमता खोते जाते हैं। इस कारण मण्डलियों में बदला लेने वाले, उग्र, झगड़ालू और दूसरों को अपमानित करने वाले ‘विश्वासियों’ का उदय होता है। ये ही लोग सारी मण्डली में एक सूनापन उत्पन्न करते हैं और प्रभु के लोगों में भी आपस में फूट डालकर मण्डली को तो़ड़ते हैं। वास्तविकता तो यह है कि प्रभु के लोगों की सही सेवा तोड़ने की नहीं पर जोड़ने की होती है - प्रभु यीशु ने कहा है “धन्य हैं वे जो मेल करवाने वाले हैं क्योंकि वे परमेश्वर के पुत्र कहलाएंगे (मत्ती ५:८)”।

वचन की ज्योति का अभाव जीवन में भटकाव पैदा करता है। प्रकाश के अभाव में रस्सी का टुकड़ा भी साँप सा दिखने लगता है। आत्मिक धुंधलेपन में ऐसे विश्वासियों को सच्चे भाई भी दुश्मन से लगने लगते हैं और उनके जीवन का उद्देश्य ही खो जाता है। “बिना मेल मिलाप और पवित्रता के परमेश्वर को कोई कदापि न देखेगा - इब्रानियों १२:१४”। ऐसे में क्या आप के दिल में प्रार्थना है कि हे प्रभु मुझे अपने आश्रय में बनाए रख, कहीं अन्धकार में खो न जाऊँ; आमीन।

२. गवाही: इस पद का दूसरा भाग है “गवाही देने आया”। जिसके पास पुत्र (प्रभु यीशु) है उसके पास गवाही है - १ युहन्ना ५:१०। प्रभु कहता है कि तुम मेरे गवाह हो। जो गवाह गवाही न दे वो किस काम का? यदि विश्वासी सुसमाचार न दे तो वह निश्चित रूप से हारा हुआ जीवन जीएगा। एक जयवन्त जीवन जीने के लिए हर दिन सुसमाचार सुनाना ज़रूरी है - “प्रतिदिन उसके उद्धार का सुसमाचार सुनाते रहो (१ इतिहास १६:३०)”। गवाही मात्र दूसरों को बचाने के लिए ही नहीं, पर अपने आप को बचाए रखने के लिए भी ज़रूरी है - “वे मेमने के लहु और अपनी गवाही के वचन के कारण उस पर जयवन्त हुए (प्रकाशित वाक्य १२:११)”।

कई बार जब हम सुसमाचार देते हैं तो ऐसा बुझा सा जवाब मिलता है कि दिल ही बुझ जाता है। एक बार मैं दिल्ली से बस के द्वारा घर वापस आ रहा था, मेरे बगल की सीट पर एक जनाब बैठे थे। ज़रा तुनक मिज़ाज़ के से लग रहे थे, फिर भी मैंने हिम्मत बाँध कर प्रभु की गवाही देने के लिए , शायद, कुछ इस तरह बात शुरू की - “जनाब आप कहाँ जा रहे हैं, कहाँ काम करते हैं?” पता चला जनाब ऋषिकेश के किसी बैंक में काम करते हैं। मैंने बात आगे बढ़ाने के लिए कहा “क्या आप परमेश्वर पर विश्वास करते हैं?” मेरा परमेश्वर का नाम लेना था कि उनके जवाब ने मेरे सवाल का गला घोंटकर सारे सवाल की जान ही निकाल दी। बड़ी कुतर बुद्धी थे, सारी बात को कुतर डाला। तुनक कर बोले “जनाब कुछ लोग कुत्ता पालते हैं, कुछ बिल्ली, कुछ गधा। आपने परमेश्वर को पाल रखा है तो आप पाले रखें, मेरे गले उसे क्यों मढ़ रहे हैं?” मैं जवाब सुनते ही बगलें झांकने लगा क्योंकि आगे कुछ कहने को रहा ही नहीं। ऐसे ही एक बार बस में एक व्यक्ति को सुसमाचार का पर्चा दिया; उसने पढ़ना शुरू किया, लेकिन यीशु मसीह का नाम पढ़ते ही झल्ला गया। पर्चा फाड़ा और मेरे मूँह पर फेंक कर मारा।

यह हमेशा ध्यान रखें कि अन्धों की दुनिया में आँखों वलों को सम्मान नहीं मिलता और झूठों की दुनिया में सच्चों को अपमान ही मिलता है। यहाँ ईमान्दार को बेवकूफ कहते हैं और ईमान्दारी को बेवकूफी।
बात १९८५ की है, प्रभु के बहुत ही प्यारे दास सी. ई. दासन पहली और आखिरी बार रूड़की में सेवकाई के लिए आए थे। उनके जीवन की आखिरी सेवकाई के बाद उनकी हालत काफी नाज़ुक होती गई। शाम को जब मैं भाई के कमरे से लौटने लगा तो वे मुझ जैसे व्यक्ति से कहने लगे कि “भाई क्या तुम मेरे लिए प्रार्थना करके नहीं जाओगे?” मैं टूट गया यह सोच कर कि इनके सामने मैं क्या हूँ? क्या मैं इस दास के लिए प्रार्थना करने के लायक हूँ? २३ अक्तूबर १९८५ को उनकी मौत से कुछ घंटे पहले नर्सिंग होम में मैं उनके साथ था। भाई की हालत नाज़ुक होने के कारण उन्हें दिल्ली ले जाने की तैयारी की जा रही थी। तभी अचानक दो लड़कियाँ मना करने के बाद भी उनसे मिलने उनके कमरे में आ पहुँचीं। भाई दासन ने सबसे पहली बात उनसे यह पूछी “क्या तुम्हें पापों की क्षमा मिल गई?” और फिर उसी हालत में वे उन्हें सुसमाचार देने लगे। मैं बीच-बीच में बार बार उन्हें टोकता रहा कि भाई आप मेहरबानी से ज़्यादा न बोलियेगा पर वे रुके नहीं। जब वे लड़कियाँ चली गईं तब उन्होंने मुझसे कहा “भाई अपनी बाईबल से अभी प्रेरितों के काम ४:२० पढ़ो।” मैंने वह पद पढ़ा, वहाँ लिखा था “क्योंकि यह तो हमसे हो नहीं सकता कि जो हमने देखा और सुना है वह न कहें।” मैं इस प्रभु के दास की तरफ देखता रहा और मेरे पास कहने को कोई शब्द थे ही नहीं। वे अब अपनी अंतिम यात्रा के लिए प्रस्तुत थे। वह इस महान दास के द्वारा कहा गया आखिरी पद और दी गयी आखिरी गवाही थी। कुछ ही घंटों बाद वह अपने प्रभु के पास चले गए। प्रभु की गवाही देने में वे मृत्यु तक विश्वास योग्य रहे।

ज़रा झुकें और ईमान्दारी से अपने अन्दर झाँकें और जाँचें कि किस उद्देश्य के लिए जी रहे हैं? “जिसने मुझे भेजा है, हमें उसके काम दिन ही दिन में करना अवश्य है; वह रात आने वाली है जिसमें कोई कुछ नहीं कर सकता (युहन्ना ९:४)।” आइये इस बहुमूल्य समय का सम्मान करें।

३. सब विश्वास लाऐं: इस पद का तीसरा और अंतिम भाग है “ताकि सब उसके द्वारा विश्वास लाऐं”। ज़्यादतर इसाईयों के पास बड़ा छोटा सा मसीह है जिसे वे इसाई धर्म के दायरे में ही रखते हैं। वह मसीह जो स्वर्गों में भी नहीं समा सकता, उस परमेश्वर को कितनो ने तो इतना छोटा बना डाला है कि वे उसे सिर्फ अपने मिशन और ग्रुप में ही लपेट कर रख सकें। मसीह ने अपने बारे में कहा “मैं जगत की ज्योति हूँ (यूहन्ना ८:१२)।” जगत की ज्योति को किसी धर्म, मिशन या ग्रुप के ढक्कन के नीचे कभी नहीं रखा जा सकता। लूका लिखता है “मैं तुम्हें बड़े आनन्द का सुसमाचार सुनाता हूँ जो सब लोगों के लिए है (लूका १:१०)।” मत्ती कहता है “वह (यीशु) लोगों को उनके पापों से उद्धार देगा (मत्ती १:२१)।” प्रभु इन दो पदों में दो बातों पर ज़ोर देता है, पहली बात “सब लोगों के लिए” दूसरी, पाप के लिए नहीं पर पापों के लिए, अर्थात सब पापों के लिए। पाप करने वाला कोई क्यों न हो, कितने भी और कैसे भी पाप क्यों न किये हों “उसका लहु हमें सब पापों से शुद्ध करता है (१ युहन्ना १:७)”।

सारे धर्म यही सिखाते हैं कि अच्छे काम करने के द्वारा परमेश्वर तक पहुँचा जा सकता है। परमेश्वर का वचन हमें बताता है कि हमारे कोई भी और कितने भी अच्छे काम इतने अच्छे कतई नहीं हैं कि हम उनके द्वारा परमेश्वर तक पहुँच सकें (यशायह ६४:६, तीतुस ३:५)। केवल एक ही अच्छा काम है जो परमेश्वर को ग्रहण योग्य है और जिसके आधार पर हम परमेश्वर के पास आ सकते हैं, वह अच्छा काम प्रभु यीशु ने कलवरी के क्रूस पर अपनी जान देकर किया और उसके द्वारा समस्त मानव जाति के लिए उद्धार का मार्ग खोल दिया। बस जो कोई, जैसा भी, जहाँ भी हो, यदि उस पर विश्वास करेगा, वह नाश न होगा पर अनन्त जीवन पाएगा।

अब हम संसार की समप्ति के समीप खड़े हैं जहाँ पर इस संसार की और सहने की सीमाएं समाप्त हो चुकी हैं। परमेश्वर नहीं चाहता कि उसका वचन सिर्फ आपके घर की दीवारों पर ही ठुक रहे, वह चाहता है कि उसका जीवन्दायी वचन किसी तरह आपके दिल में भी ठुक जाए। जल की तस्वीर को दीवार पर लगा लेने से प्यास तो नहीं बुझ सकती। आप जल के बारे में बहुत सुनते, बहुत जानते, बहुत प्रचार भी करते हैं पर सच्चाई तो सिर्फ यही है कि जब तक जीवन के जल को आप ग्रहण नहीं करते, तब तक तृप्ती पा नहीं सकते। यह भी सम्भव नहीं कि जल मेरे माँ-बाप ग्रहण करें और प्यास मेरी बुझ जाए। जो भी जीवन के जल को ग्रहण करते हैं, उन्हें फिर किसी धर्म को ग्रहण करने की ज़रूरत ही नहीं बचती। उनके जीवन में एक नया परिवर्तन प्रकट होता है। ऐसा बदला हुआ जीवन स्वयं गवाही देता है।











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