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सोमवार, 31 अगस्त 2009

सम्पर्क मई २००१: परमेश्वर के वचन से सम्पर्क

उसमें जीवन था और वह जीवन मनुष्यों की ज्योति थी, और ज्योति अन्धकार में चमकती है, और अन्धकार ने उसे ग्रहण न किया (यूहन्ना १:४,५)।

किसी आदमी ने एक घड़ी बनाई और उसके डायल में एक राजनेता की तस्वीर लगाई। घड़ी की खासियत यह थी कि हर सैकिंड के बाद राजनेता की आँखें बदल जाती थीं। यह व्यंग्य तो तीखा था, पर वास्तविकता में हम सबकी हालत भी ऐसी ही है। हम अपने आप में बहुत नाटकबाज़ हैं।हर २४ घटों में हमारी भी दशा, दिशा, विचार, व्यवहार तेज़ी से बदलते रहते हैं। हम जहाँ काम करते हैं वहाँ कुछ और, घर में कुछ और, मण्डली में कुछ और होते हैं। दोस्तों, दुशमनों, परिवार जनों और विश्वासी जनों के सामने हमारा स्वभाव बदलता रहता है। वास्तव में पर्दे के पीछे हम कुछ और ही होते हैं। अक्सर हम अपने अधिकारियों और नेताओं को लालची बताकर उन्हें बहुत कोसते हैं, पर ज़रा ईमानदारी से अपने आप से सवाल करें, क्या मन में हम खुद बहुत लालची नहीं हैं? “खाने” के बारे हम दूसरों को बहुत उपदेश दे सकते हैं पर जैसे ही मुफ्त का बढ़िया खाना हमारे सामने आता है तो हमारी हालत बस देखते ही बनती है। वास्तविकता यही है।

यूहन्ना अक्सर ‘सच’ शब्द को दो बार एक साथ रखकर प्रयोग करता है - “मैं तुम से सच-सच कहता हूँ...।” मूल युनानी भाषा में जिसमें यूहन्ना का सुसमाचार लिखा गया था, इस तरह ‘सच-सच’ का प्रयोग करने क एक अर्थ है “वास्तविकता में” या इसे यूँ कहिये कि बस यही वास्तविकता है, यानि यही इकलौता सच है, इसके अलावा और दूसरा कोई सच है ही नहीं। यूहन्ना इस तरह सत्य से हमारी मुलाकात करवाता है - “उसमें जीवन था” (यूहन्ना १:४)। यही जीवित परमेश्वर है और यही सत्य है।

प्रभु की मृत्यु के बाद तीसरे दिन कुछ स्त्रियां जीवित प्रभु को कब्रिस्तान में ढूंढ रहीं थीं, तब स्वर्गदूत ने उन्हें समझाया “तुम जीवते को मरे हुओं में क्यों ढूंढती हो? (लूका २४:५)।” सच यही है कि मौत प्रभु को मार कर अपने वश में नहीं रख सकती थी। मात्र वही जीवित प्रभु है जो मौत पर विजयी हुआ भी और विजय पने की सामर्थ भी रखता है। यही इकलौता सत्य है।

एक व्यक्ति था जिसने मसीही विश्वास को पूरी तरह से समाप्त करने के लिए अपनी पूरी सामर्थ झोंक दी, लेकिन सालों के कठोर परिश्रम के बावजूद अपनी बात साबित नहीं कर सका और न अपना एक भी कोई अनुयायी पैदा कर पाया। बन्दा हठीला था, इसलिए हिम्मत नहीं हारा। वह एक मशहूर विद्वान के पास गया और उससे अपनी सारी कहानी कह सुनाई और उससे पूछा अब मैं क्या करूँ? विद्वान ने सहज शब्दों में उसे सलाह दी “जनाब आप पहला काम यह करो कि अपने आप को क्रूस पर ठुकवा लो। फिर ऐसा करना कि मरने के बाद तीसरे दिन मुर्दों में से जी उठना, बस अपकी सारी समस्या का हल हो जाएगा।” वास्तविकता यही है कि वही एक प्रभु है जो मौत पर विजयी होने की सामर्थ रखता है, उसी में जीवन अपितु अन्नत जीवन है और वही जीवित परमेश्वर है।

एक शारीरिक जीवन है और एक आत्मिक जीवन है। एक सीमित है और दूसरा असीम। शारीरिक जीव जैसे ही जन्म लेता है, उसी पल से उसकी मौत के लिए उलटी गिनती शुरू हो जाती है; और वह इस शारीरिक जीवन का हर पल मौत के भय में जीता है। यही मौत का डर उसे डराता भी है और बेचैन भी रखता है। ऐसे शारीरिक लोगों से प्रभु कहता है “तू जीवता तो कहलाता है पर है मरा हुआ (प्रकाशितवाक्य २:१)।” पाप के कारण मनुष्य मरी हुई दशा में जीता है (इफिसियों २:१)।

एक विश्वासी जन ने किसी व्यक्ति से सवाल किया “आप मौत के बाद कहाँ जाओगे?” आदमी ज़रा ज़्यादा ही चतुर था, लापरवाही से बोला “साहब मरने के बाद शमशान जाउँगा।” विश्वासी ने कहा “जनाब बुरा न मानें, वास्तविकता तो यह है कि मरने के बाद आप हमेशा की मौत में जाएंगे।” एक मौत ऐसी है जो हमेशा की है और एक जीवन भी है जो हमेशा का है।

प्रिय पाठक, आईये ज़रा धीरज धर कर प्रभु यिशु के कहे कुछ शब्दों में से होकर आगे बढ़ें जहाँ प्रभु ने कहा “... मैं ही जीवन हूँ... (यूहन्ना १४:६)।” “मैं इसलिए आया कि तुम जीवन पाओ और बहुतायत क जीवन पाओ (यूहन्ना १०:१०)।” “फिर भी तुम जीवन पाने के लिए मेरे पास आना नहीं चाहते (यूहन्ना ५:४०)।” “जिसके पास पुत्र (प्रभु यीशु) नहीं उसके पास जीवन नहीं है (१ यूहन्ना ५:११)।” एक प्रोफैसर सहब ने अपने विद्यार्थियों से एक प्रश्न पूछा “देखने के लिए किस वस्तु की ज़रूरत होती है?” ज़्यादतर विद्यार्थियों ने तपाक से जवाब दिया “सर आँख की।” उनमें से एक विद्यार्थी भाँप गया कि प्रश्न इतना सीधा नहीं है जितना लगता है, उसने ज़रा दिमाग़ पर ज़ोर दिया फिर बोला “सर आँख की और एक ऐसे दिमाग़ की जो देखी हुई वस्तुओं को समझने की सामर्थ रखता है।” तब प्रोफैसर उन सब विद्यार्थियों को एक बन्द अन्धेरे कमरे में ले गए और बोले “तुम सब के पास देखने वाली आँखें और समझने वाला दिमाग भी है, क्या तुम्हें इस अन्धकार में कुछ दिखाई दे रहा है?” अब उनकी समझ में आया कि अन्धकार ने उन्हें ‘अन्धा’ कर दिया है और देखने के लिए पहले प्रकाश फिर अन्य चीज़ों की ज़रूरत होती है।

अन्धकार सब कुछ छिपा देता है पर ज्योति सब कुछ प्रकट कर देती है। “परमेश्वर ज्योति है और उसमें कुछ भी अन्धकार नहीं (१ युहन्ना १:५)।” “तेरा वचन मेरे पाँव के लिए दीपक और पथ के लिए उजियाला है (भजन ११९:१०५)।” ‘ज्योति’ में ही हम अपने आप को अपने वास्तविक स्वरूप में देख पाते हैं, अपनी गन्दगी देख पाते हैं, देख पाते हैं कि हम कहाँ खड़े हैं, और हमें अगला कदम कहाँ रखना है। जो ज्योति में जीता है वह ठोकर खाने से बच निकलता है (युहन्ना ११:९)। अन्त के पार वह अपने अनन्त को देख पाता है। शैतान ने अनेक लोगों की बुद्धी को अन्धा कर डाला है (२ कुरिन्थियों ४:४) ताकि सच्ची ज्योति का तेजोमय सुसमाचार उन पर न चमके। शैतान चहता है कि लोग ऐसे ही अन्धकार में जिएं और फिर अनन्त अन्धकार में चले जाएं। आत्मिक अन्धकार में पड़े व्यक्ति की भूख और अतृप्ती उसे भटकाती है। वह तृप्ती पाने के लिए कुछ भी करना चाहता है और करता भी है, लेकिन आत्मिक अन्धकार उसे अपने इन प्रयासों की असार्थक्ता और विफलता पहचानने नहीं देता। सच्ची ज्योति से दूर वह अपने ही प्रयासों और कर्मों से बन्धा रहता है, इस भ्रम में कि उसके प्रयासों ने उसे सही राह दिखा दी है, जबकि सही राह तो केवल सच्ची ज्योति ही दिखा सकती है।

ज्योति तो अन्धकार में चमकती है (युहन्ना १:५)। जो जीवन की ज्योति में जीता है, उसका जीवन अलग ही चमकता है। “पर यदि जैसा वह ज्योति में है, वैसे ही हम ज्योति में चलें, तो एक दूसरे से सहभागिता रखते हैं... (१ युहन्ना १:७)।” अनेक प्रभु के अभिषिक्त लोगों को शैतान अपने लिए उप्योग करता है और इसका एक अच्छा उदहरण शमशौन का है (न्यायियों १६:२१) जिसे अन्धा करके, उसके और उसके समाज के शत्रुओं ने, अपने काम के लिए उपयोग किया। इस तरह कई प्रभु के उपयोगी पात्रों का उपयोग शैतान करता है क्योंकि उनके अन्धकार के काम अर्थात उनके छिपे पाप, जैसे व्यभिचार या व्यभिचार के विचार, लालच, अहंकार, बदला लेने की भावना आदि उन्हें अन्धा कर डालते हैं। जो जीवन कभी ज्योति देते थे वे अब एक धुआं देती बाति बन गए हैं, ऐसा धुआं जो लोगों को प्रभु के समीप नहीं आने देता, प्रभु के भवन पर कालिख चढ़ाता है। ऐसे विश्वासी प्रभु के घर के आत्मिक वातवरण को दूषित कर देते हैं।

एक जन कह रहा था “वह तो सिर पर ही चढ़ा जा रहा था। बस ऐसा जवाब दिया कि उसके होश ठिकाने आ गए और मुँह बन्द हो गया।” जब-जब कोई अपशब्द कह कर हमारे अहम पर चोट करता है तब हम भी बदले में ऐसे ही शब्दों का प्रयोग करके उसके अहम को भी वैसी ही चोट देना चाहते हैं। हम बुराई को बुराई से जीतना चाहते हैं, लेकिन प्रभु कहता है कि बुराई को भलाई से जीत लो (रोमियों १२:२१)। एक विश्वासी अपने शत्रुओं के बारे में भी बुरा नहीं सोच सकता, अपने भाईयों को भला-बुरा कहना तो दूर की बात है। अन्धकार के खेल मण्डलियों में गहराते जा रहे हैं। हम दूसरों को अपमानित करने के लिए कटाक्ष या व्यंग्य का प्रयोग करते हैं और फिर उसे हंसी में या ‘मज़ाक’ कह कर टालना चाहते हैं। अधूरे सच पर बातें गढ़ना या अफवाह फैलना फिर उसे ‘शायद’ या ‘हो सकता है’ जैसे शब्दों में ढाँपना भी काफी प्रचलित है। ऐसा अहंकार, बदले की भावना, बैर-भाव कहीं हमारे ही मन में तो नहीं भरा? हे मेरे प्रीय भाई, हे मेरी प्रीय बहन, ज़रा अपने मन में झाँक कर देख तो लें।

प्रभु का आपसे वायदा है कि “वह धुआँ देती बाति को नहीं बुझाएगा (मत्ती १२:२०)।” बस इतना हो कि मन लें और कहें “हे प्रभु तेरा यह जन यहाँ तक गिर चुका है। दया करके क्षमा कर और फिर उठा ताकि मैं फिर से जलता हुआ जीवन जी सकूँ।” “ज्योति अन्धकार में चमकती है (यूहन्ना १:५)।”

“तुम्हारा उजियाला मनुष्यों के सामने चमके कि वह तुम्हारे भले कामों को देखकर तुम्हारे पिता की जो स्वर्ग में है, बड़ाई करें (मत्ती ५:१६)।”

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