पोस्ट्स सूची
रविवार, 15 नवंबर 2009
सम्पर्क दिसम्बर २०००: उस प्रभु ने मेरा धर्म नहीं, जीवन बदला है
जब मैं घर वापस लौटा तो सब लोग मेरा मज़ाक बनाते और मुझ पर हंसते थे। माता-पिता बड़े चिंतित रहने लगे। मेरा विवाह बचपन में ही हो गया था। किसी ने मेरे माता पिता को सलाह दी कि इसका गौना कराकर इसकी पत्नी को घर ले आओ, तब यह ईश्वर को भूल जाएगा और घर पर ही रहने लगेगा। मैंने इस बात का बड़ा विरोध किया, क्योंकि मेरा विचार था कि मैं गृहस्थी में फंसकर ईश्वर की खोज नहीं कर पाऊंगा। मुझे यह भी एहसास था कि मैं एक पापी हूँ और छुटकारा पाने के लिए मुझे कुछ करना है। पत्नी के आने के दो दिन पूर्व ही मैंने घर छोड़ दिया। तीसरे दिन एक और तीर्थ स्थान पर पहुँचा, जहाँ एक बड़े धार्मिक गुरूजी रहते थे। मैंने उन्हें भी अपनी आप बीती सुनाई और उनसे कहा कि जितना भी कठिन मार्ग क्यों न हो मैं उसपर चलूँगा, लेकिन मुझे ईश्वर तक पहुँचने का मार्ग बताइये। उन्होंने मेरा निश्चय देखकर कहा, मैं तुम्हें अन्धेरे में नहीं रखना चाहता, मेरे बाल सफेद हो चुके हैं पर अभी तक मुझे ही ईश्वर की प्राप्ति नहीं हुई है, तो तुम्हें कैसे उस से मिलवा दूँ? हाँ यदि ईश्वर स्वयं चाहे तो तुम्हें मिल सकता है। इसलिए घर जाकर अपनी पi के साथ अपनी गृहस्थी बसाओ, और प्रार्थना में लगे रहो। मैं फिर निराश होकर घर लौट आया और फिर लोगों के उपहास, व्यंगय और कटाक्षों का पात्र बना। मेरे ससुर ने मुझे बुलवाकर खूब खरी खोटी सुनाई और सम्बंध तोड़ने तक की धमकी दी। मेरी पत्नी और मेरे बीच में कलह, लड़ाई-झगड़े दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगे। किसी ने कहा मुझ पर दुष्ट आत्मा का साया है। यह सुनकर मैं और भी क्रोधित होता था, कि मुझमें भूत कैसे हो सकता है, मैं तो ईश्वर का भक्त हूं? एक रिश्तेदार ने हम दोनों हाथ देखकर कहा कि यदि ये एक साथ रहेंगे तो इन्में से एक की मृत्यु तय है। अतः मेरी पत्नी की इच्छानुसार उसको उसके घर छोड़ दिया गया।
इस घटना के बाद तो मैं और भी मज़ाक का पात्र बन गया। लोग कहते थे कि यह मूर्खों से भी महामूर्ख है, इसे न तो ईश्वर ही मिला न पत्नी। इसका मूँह देखना भी पाप है। माँ दुखी थी और पिताजी ने भी बोलना बंद कर दिया ता । बड़ा भाई मुझे देखकर मूँह फेर लेता और कहता कि यदि मुझसे बोला तो तुझे जूते से मारूंगा। मैं बड़ा निराश हो गया था, सारी आशाएं मिट सी गईं और काम धंधा भी बंद हो गया था। जीवन में कुछ भी शेष बाकी न बचा। मैंने सोचा अब जीने से मरना बेहतर है। जब मैंने दृढ़ निश्चय कर लिया कि अब इस जीवन को समाप्त करना ही भला होगा, तो सवाल उठा कि कैसे? ज़हर खरीदने के लिये भी मेरे पास पैसे नहीं थे। मैंने सोचा कि अपना रेडियो बेचकर ज़हर खरीदूंगा। उसे बेचेने से पहिले मैंने उसे आखिरी बार सुनने की लालसा से उसका बटन घुमाया तो अचानक से किसी जगह चल रहे कार्यक्रम में किसी के बोलने की आवाज़ आई “प्रिय मित्र यदि आपसे संसार, मात-पिता, पत्नि, दोस्त प्यार नहीं करते तो आप निराश न हों। यीशु आपको बुला रहा है। जितनों ने यीशु मसीह पर विश्वास किया उसने उन्हें परमेश्वर की सन्तान होने का अधिकार दिया। यदि आप पश्चाताप करें और यीशु मसीह से अपने पापों की क्षमा माँगें, तो वह आज ही आपको नया जीवन देगा। आपका नाम स्वर्ग में लिखा जाएगा।”
यह सुनकर मैं फूट फूट कर रोया। और मैंने सच्चे हृदय से पश्चाताप करके, एक एक पाप की क्षमा प्रभु यीशु से माँगी। परिणाम स्वरूप एक अद्भुत शान्ति व आनन्द मेरे जीवन में भर गया। मैं जान गया कि परमेश्वर ने मेरे मन में आकर मेरे सब पाप क्षमा कर दिये और मेरा नाम स्वर्ग में लिख दिया है। मैं एक अनोखे उत्साह और प्रसन्न्ता से भर गया। यह १ अगस्त १९९६ का दिन था। गाँव के लोग यह देखकर आश्चर्यचकित थे कि यह सब कुछ गवाँ कर भी कितना खुश है, ज़रूर यह पागल हो गया है। कुछ लोग पूछते थे कि तुम्हें यह ज्ञान कहाँ से मिला? मैं बड़े आनन्द से कहता कि प्रभु यीशु ने मुझे पापों की क्षमा दी और मुझे नया जीवन देकर मृत्यु से बचाया है।
जबकि मैंने कोई धर्म नहीं बदला, पर मेरे पिताजी ने यही मान कर मुझे घर से निकाल दिया और कहा कि कहीं भी जा पर मुझे अपना मुँह दोबारा न दिखाना। उसके बाद मैं दिल्ली आया और रोहिणी इलके में एक प्रॉपर्टी डीलर की दुकन पर काम करने लगा। मैं प्रतिदिन प्रार्थना करता कि प्रभु किसी विश्वासी से मिलवा दे ताकि मैं प्रभु यीशु के बारे और जान सकूँ और संगति करके आत्मिक जीवन में बढ़ सकूँ। प्रभु ने मेरी प्रार्थना सुनकर एक विश्वासी भाई से भेंट करवाई। इस भाई के साथ मैंने प्रभु यीशु के विषय में शिक्षा पाना, प्रार्थना करना, संगति करना आरंभ किया। इस भाई ने मुझे बाईबल से एक पद दिखाया - प्रेरितों १६:३१, और मुझे अपने परिवार के लिये प्रार्थना करने को कहा। प्रार्थना के उत्तर में मुझे मेरे माता-पिता, भाई और पत्नि के पत्र आने लगे। मैंने उन्हें पत्र के द्वारा विस्तारपूर्वक लिख कर भेजा कि प्रभु यीशु ने मेरा जीवन कैसे बदल दिया है। जून १९९७ में मेरी पत्नि सहित सब परिवार जन दिल्ली आये तो वह मेरा बदला हुआ जीवन देखकर बहुत प्रभावित हुए। यह सब देखकर और प्रभु के बारे में सुनकर उन्हें भी लगा कि वास्तव में प्रभु जीवनों को बदलकर सच्ची शाँति प्रदान कर सकता है।
मंगलवार, 10 नवंबर 2009
सम्पर्क दिसम्बर २०००: परमेश्वर के वचन से सम्पर्क
“मैंने परमेश्वर क ऐसा दिल दुखाया कि उसने अपना एकलौता पुत्र दे दियाताकि मैं नाश न होऊँ परन्तु अनन्त जीवन पाऊँ।” यूहन्ना की इस पुस्तक का यही उद्देश्य है - आप विशवास करके नाश न हों परन्तु अनन्त जीवन पाएं। अपने इस सुसमाचार में यूहन्ना ५० से ज़्यादा बार ‘जीवन’ शब्द का प्रयोग करता है, जैसे- ‘जीवन पाओ और बहुतायत का जीवन पाओ’, ‘जीवन का जल’, ‘जीवन की रोटी’, ‘जीवन की ज्योती’, ‘विश्वास करो और जीवन पाओ’आदि।
किसी ने कहा है कि जब हम विश्वास से परमेश्वर की तरफ देखते हैं तो हम आशा से आगे देखने लगते हैं और दूसरों की तरफ ओर से देखने लगते हैं। लेकिन जब हम परमेश्वर की तरफ शक से देखते हैं तो हम आगे निराशा से देखना शुरु करते हैं और दूसरों की तरफ नफरत से देखना शुरु कर देते हैं। यूहन्ना कहना चाहता है कि जब हम विश्वास से जीने लगते हैं तब ही हमारा जीवन जीने के लायक होता है। यूहन्ना के इस सुसमाचार का ५० प्रतिशत भाग प्रभु यीशु के जीवन की घटनाओं के बारे में बताता है और शेष ५० प्रतिशत प्रभु यीशु के उपदेशों के बारे में। जैसे हमने देखा था यूहन्ना के नाम का अर्थ है ‘यहोवा अनुग्रहकारी है’ और इस अनुग्रह को हम बड़ी सफाई से युहन्ना के जीवन में देखते हैं। यूहन्ना जब्दी नाम के एक सम्पन्न मछुआरे के घर में जन्मा था, उसकी माँ का नाम सलोमी था और उसका भाई याकुब प्रभु यीशु का सबसे पहिला चेला था जो प्रभु के लिये बलि हुआ (प्रेरितों १२:१२)। यूहन्ना शायद सबसे बड़ी उम्र में प्रभु के पास गया। याकूब और यूहन्ना दिल की ईमान्दारी से प्रभु से प्यार करते थे, लेकिन फिर भी मनुष्य थे। परमेश्वर का सत्य वचन बाईबल परमेश्वर के किसी भी प्रियजन का भी दोष दिखाने में कतई संकोच नहीं करती, क्योंकि वह सत्य है और सत्य सब कुछ साफ-साफ प्रकट कर देता है। इनकी सम्पन्न्ता के कारण इनमें एक स्वभाविक घमंड था। इन्हें दूसरों को अपने बराबर देखना पसंद नहीं था, वरन इनमें बड़ा बनने की प्रब्ल इच्छा थी। मत्ती २०:२०-२८ में हम एक घटना पाते हैं जहाँ यूहन्ना और याकूब ने अपनी माँ सलोमी को प्रभु के पास सिफारिश करने भेजा। प्रभु ने उससे पूछा कि वह क्या चाहती है? वह बोली के मेरे यह दोनो पुत्र तेरे राज्य में एक तेरी दाहिने और दूसरा बाएं बैठें। प्रभु अपने चेलों से कह चुका था कि तुम बारह सिंहासनों पर बैठकर इस्त्राएल के बारह गोत्रों का न्याय करोगे। सिंहासन तो मिल ही चुके थे, अब बात थी कि प्रभु के दाएं और बाएं किसे बैठने को मिलेगा। इससे पहिले कि कोई और यह स्थान हथिया ले और हम पीछे रह जाएं, प्रभु के साथ यह बात अभी से तय कर ली जाए। फिर, प्रभु यह भी कह चुका था कि अगर दो जन एक मन होकर कुछ माँग लें तो वह उनके लिए हो जाएगा (मत्ती १८:१९)। इन दोनो ने माँ के सहारे माँग तो लिया, लेकिन प्रभु उनके मन के स्वार्थ और उनकी महत्त्वाकाँक्षा को जनता था इसलिए उसने कहा कि तुम नहीं जानते कि क्या माँगते हो, यह स्थान पहिले ही से परमेश्वर पिता ने निर्धारित कर दिये हैं।
इसी अनुग्रहकारी प्रभु ने अपने अनुग्रह से नये नियम की पाँच पुस्तकें, जो नये नियम का २० प्रतिशत भाग हैं, यूहन्ना के द्वारा लिखवाईं। इसी के द्वारा नये नियम की सबसे छोटी पुस्तक - यूहन्ना की दूसरी पत्री, और बाईबल का सबसे छोटा पद - यूहन्ना ११:२८ लिखा गया, और इसी के द्वारा बाईबल का सबसे अधिक उद्वत किया गया पद - यूहन्ना ३:१६ भी लिखा गया। यूहन्ना ही एक अकेला चेला था जो प्रभु के क्रुस के पास, प्रभु के साथ उन अन्तिम क्षणों में खड़ा था, और जिसे प्रभु ने अपनी माता की ज़िम्मेवारी सौंपी (यूहन्ना १९:२६,२७)। यूहन्ना रचित सुसमाचार में प्रभु यीशु के जीवन का चित्रण अन्य तीनों सुसमाचारों से भिन्न रूप में है। प्रभु यीशु मनुष्य भी था और ईशवर भी परन्तु इसका यह मतलब नहीं कि वह आधा मनुष्य और आधा परमेश्वर था। वह सम्पूर्ण परमेश्वर और सम्पूर्ण मनुष्य था। यूहन्ना इस मनुष्य प्रभु यीशु के ईश्वरीय स्वरूप को प्रस्तुत करता है। वह प्रभु यीशु की बुनियादी सच्चाईयों को एक विशवास योग्य रूप में गम्भीर पाठक के समने लेकर आता है। प्रभु ने ऐसे व्यक्तियों को भी, जो क्या थे, उन्हें क्या बना डाला। वास्तव में परमेश्वर अनुग्रहकारी है।
सृष्टी कितनी विशाल और समझ कि सीमाओं से कितनी परे है, फिर इस सृष्टीकर्ता परमेश्वर का तो क्य कहना! एक ऐसे असीम परमेश्वेर ने पृथ्वी और मनुष्यत्व की सीमाओं में आकर एक मनुष्य देह धारण की। मेरा प्यारा प्रभु क्या था और वह मेरे लिये क्या बन गया। दूसरी तरफ मैं क्या था और उसने अपने अनुग्रह से मुझे क्या बना दिया।
परमेश्वर के इस अनुग्रह को, परमेश्वर के अनुग्रह से आगे आने वाले दिनों में, ‘सम्पर्क’ के अगले अंकों में देखेंगे।
क्रमशः
शनिवार, 7 नवंबर 2009
सम्पर्क दिसम्बर २०००: संपादकीय
प्रभु में प्रियों,
सिर्फ प्रभु यीशु की दया और उसके पवित्र सन्तों कि प्रार्थनाओं के उत्तर में “सम्पर्क” का दुसरा अंक प्रस्तुत कर पा रहे हैं। अनेक भाई बहिनों के पत्रों ने हमें बहुत ही उत्साहित किया। उन्होंने लिखा कि उन्हें “सम्पर्क” के माध्यम से प्रभु ने कितना आशीशित किया। इसकी सारी महिमा हमारे प्रभु ही को मिले। आप में से कई लोगों ने हमारे लिये उपवास और प्रार्थनाएं कीं। उसके उत्तर को हम पिछले दिनों में साफ एहसास करते रहे। आपकी इस सहायता के लिए आपका बहुत धन्यवाद।
इस साल की समाप्ति के साथ-साथ कितने ही मौके जो हमारे पास थे, वे भी समाप्त हो गये। समय के अनुसार हमें बहुत आगे होना चाहिये था, पर शयद हम पिछड़ गये। कुछ अपने थे जो हमारे साथ नहीं रहे। कुछ, जो अपने जीवन की परेशानियों से थक चुके होंगे, अपने को मोहताज और हारा हुआ महसूस कर रहे होंगे। कुछ निराशा के कगार पर खड़े होंगे, शयद कुछ ने प्रभु से मौत भी मांगी होगी। बाईबल में कुछ धर्मी जन थे, जैसे मूसा, जिसके द्वारा बाईबल का लगभग १/८ हिस्सा लिखा गया, जो नये नियम के लगभग दो तिहाई भाग के बराबर है, ऐसा प्रभु का महन दास क्या कहता है “...मुझ पर तेरा इतना अनुग्रह हो कि तू मेरे प्राण एकदम ले ले - (गिनती ११:१५)” ऐसा महान दास इतनी निराशा में दिखता है। योना नबी क्या प्रार्थना करता है-“सो अब हे यहोवा (परमेश्वर) मेरे प्राण ले ले, क्योंकि मेरे लिये जीवित रहने से मरना भला है - (योना ४:३)” अय्युब क्या कहता है “मैं गर्भ में क्यों न मर गया? (अय्युब ३:११)” एलिय्याह ने निराश होकर क्या मांगा “हे यहोवा बस है, अब मेरा प्राण ले ले, क्योंकि मैं अपने पुरखाओं से अच्छा नहीं हूँ - (१ राजा १९:४)” यर्मियाह प्रभु के सामने कैसे रोता है “उसने मुझे गर्भ में ही क्यों न मार डाला कि मेरी माता का गर्भाशय ही मेरी कब्र होती - (यर्मियाह २०:१७)।” ये सब धर्मी जन थे और “धर्मी जन की प्रार्थनों से बहुत कुछ हो सकता है (याकूब ५:१६)।” इन धर्मी जनों ने प्रर्थनाएं तो कीं पर इनकी प्रार्थनाएं सुनी नहीं गईं। आप ही अकेले ऐसी निराशाओं का सामना नहीं कर रहे हैं। बाईबल का ६० सदियों का इतिहास ऐसे निराश, हारे हुए लोगों से भरा है जो अपने को पूरी तरह से हारे हुए महसूस करते थे। पर प्रभु ने इन्हीं के द्वारा बड़े बड़े काम कर डाले। यही उसकी महानता है कि उसने ऐसे नालायकों, कमज़ोरों और अयोग्यों को बड़ी योग्यता से उप्योग कर डाला है। शायद बीते वर्ष में आपने पाप को गम्भीरता से न लिया हो और आप पाप में गिर गये हों। हाँ यह तो सत्य है कि पाप के कारण ताड़ना सह कर उसकी महंगी कीमत तो चुकनी पड़ती है। पर प्यारा प्रभु आपको ना छोड़ेगा ना त्यागेगा। इब्राहिम ने मिस्त्र मेंजाकर और सारा के कहने में आकर हाज़िरा के पास जाकर पाप किया। इस विश्वासियों के पिता ने यह बड़े अविश्वास का काम किया। मूसा पृथ्वी का सबसे नम्र व्यक्ति था। उसने घमंड से कहा, मैं कब तक तुम्हारे लिये पानी निकालता रहूँगा। दाऊद जिसके द्वारा भजन संहिता के ७३ अनुपम भजन लिखे गये हैं, इस प्रभु के जन ने व्यभिचार और हत्या का पाप करके प्रभु के दिल को कैसा दुखाया था। पतरस अपने प्रभु का तीन बार शर्मनाक ढंग से इन्कार कर गया। प्रभु ने इनमें से एक को भी न कभी छोड़ा और न त्यागा। आपका प्रभु आज भी अपके लिये वैसा ही है। भले ही आप क्यों न बदल गये हों, आने वाले सालों में वो वैसा ही बना रहेगा जैसा पहले था, और यह बात इस काबिल है कि ऐसे ही कबूल की जाए।
यह तो सत्य है कि पाप बहुत महंगा मेहमान है, पर आप पाप के लिये नहीं हैं और न संसार के लिये। आपको परमेश्वर ने एक विशेष उद्देश्य के लिये सृजा है। अगला साल भी इतना सहज तो नहीं होगा जितना आप सोचते हैं। शैतान एक हारे हुए युद्ध की लड़ाई लड़ रह है। युद्ध हारकर पीछे हटती हुई सेना, जितना नुकसान कर सकती है, करती हुई लौटती है। शैतान भी आपका नुक्सान कर सकता है पर आपको नाश नहीं कर सकता। आपको निराश कर सकता है पर आपका विनाश नहीं कर सकता।
एलिय्याह के दिन ऐसे ही दिन थे। ईज़ेबेल और अहाब जैसे दुराचारी लोगों के हाथ में राजनैतिक सत्ता थी। ये वे लोग थे जिन्होंने नाबोत जैसे ईमान्दार लोगों पर झूठे मुकद्दमे चलाकर उनकी हत्या करवा दी और उनकी ज़मीन हड़प कर ली (१ राजा २१:१-१६)। उनके दिनों में बाल के पुजारी बड़े प्रबल थे। उन्हें पूरा रजनैतिक संरक्षण प्राप्त था। वे यहोवा की वेदियों को ढाते और सच्चे नबियों की हत्या करवा डालते थे (१ राजा १९:१०)। उन दिनों में झूठे नबियों की भी कोई कमी नहीं थी जो यहोवा के नाम से भविष्यवाणी करते थे। ऐसे हालात में ७००० ऐसे सच्चे लोग भी थे जिन्होंने बाल के आगे अर्थात ऐसे विपरीत हालातों के आगे घुटने नहीं टेके थे (१ राजा १९:१८)। एलिय्याह के द्वारा प्रजा का हृदय यहोवा की ओर फिरने लगा था। इन हालात में इजेबेल रानी को राजनैतिक सत्ता हाथ से छिन जाने का डर सताने लगा। उसे एलिय्याह का पत्ता साफ करना था पर वह यह भी जानती थी कि एलिय्याह की सीधी हत्या करवाना अपने विरुद्ध बगावत को आमंत्रण देना था। इजेबेल ने चालाकी से काम लिया और एलिय्याह के पास सिर्फ एक दूत भेजकर उसे कहा के अगले २४ घंटों में मैं तुझे मरवा दूंगी (१ राजा १९:२)। अगर वह मरवाना ही चाहती थी तो केवल एक दूत ही क्यों भेजा, हत्यारों का दल भेज देती; और फिर अपने शिकार को चेतावनी क्यों देनी, सीधे वार करती? वह एलिय्याह को मारना नहीं उसे डराकर भगाना चहती थी, और एलिय्याह उसके झांसे में आकर डर कर वहाँ से भाग निकला। अकसर शैतान हमें भी ऐसे ही किसी झांसे में फंसा कर हमसे अपनी मर्ज़ी करवा डालता है।
पुराने नियम के अन्तिम दो पदों और में परमेश्वर कहता है - “मैं तुम्हारे पास एलिय्याह को भेजूँगा... (मलाकी ४:५)” और “मैं आकर पृथ्वी को सत्यनाश करूं (मलाकी ४:६)।” पुराने नियम में एलिय्याह यर्दन नदी के पार से जीवित स्वर्ग पर उठा लिया गया (२ राजा २:७-११) और यर्दन नदी के तट पर यूँ उसकी पुराने नियम की सेवकाई समाप्त हुई। नये नियम में फिर उसी यर्दन नदी के तट से यूहन्ना के रूप में एलिय्याह की सेवकाई फिर शुरू होती है। आप भी जहाँ पाप में गिर गये, जहाँ हालात से थक गये या जहाँ प्रार्थना, प्रचार या संगति में कमज़ोर पड़ गये हों, बस प्रभु की ओर हाथ फैलाइये और वही प्रभु आपको यह नया साल एक नई विजय के साथ पूरा कराएगा। शैतान यह जानता है कि जब तक प्रभु का ठहराया हुआ समय न आये, वह आपका बाल भी बाँका नहीं कर पायेगा। निराश और हताश एलिय्याह के पास प्रभु ने भोजन भेजा और उसे फिर से उठाकर तैयार किया; एलिय्याह के समान प्रभु आप से भी कहता है “उठकर खा, क्योंकि तुझे बहुत भारी यात्रा करनी है (१ राजा १९:४-७)”।
बाइबल में कुछ बातों के लिये “अवश्य” शब्द का प्रयोग किया गया है। यह उन बातों के ‘अनिवार्य’ या ‘न टल सकने वाला’ होने को दिखाता है, जिनके संदर्भ में इस “अवश्य” का प्रयोग हुआ है, जैसे- १. नये सिरे से जन्म लेना अवश्य है (यूहन्ना ३:७)। मुझे पिता के घर में रहना अवश्य है (लूका २:४९)। ३. अवश्य है कि वह बढ़े और मैं घटूँ (यूहन्ना ३:३०) - प्रभु के घर में छोटा बनने से ही बड़ा बना जाता है; मेरा ‘मैं’ घटना और प्रभु का हमारे जीवन में बढ़ना अनिवार्य है। छोटा बनकर माफी माँगने से कभी पीछे न हटें। ४. अवश्य है कि उसके भजन (आरधना) करने वाले आत्मा और सच्चाई से उसका भजन(आरधना) करें (यूहन्ना ४:२४)। ५. सुसमाचार सुनाना अवश्य है (१ कुरिन्थियों ९:१६)। इन सब बातों को मैं ‘अवश्य’ नहीं कह रहा, बाइबल कह रही है, इसलिए आप भी इन बातों को अवश्य ही मान लें।
प्रभु में आपका
“सम्पर्क” परिवार
सोमवार, 2 नवंबर 2009
सम्पर्क फरवरी २००१: सुन तो लो... कल क्या होगा
वैज्ञानिकों का मानना है कि पिछले दस सालों में आये भूकम्पों की संख्याओं में तेज़ी से बढ़ोतरी हुई है। परमेश्वर का वचन दो हज़ार साल पहिले ही हमें बताता है कि “यह सब बातें पीड़ाओं का आरम्भ होंगी।” “... और जगह जगह अकाल पड़ेंगे और भुईंडोल होंगे (मत्ती २४:७,८)।” आने वाली घटनाओं को देखकर लोगों के जी में जी न रहेगा। परमेश्वर के वचन के ११८९ अध्याय के लगभग ७,७४,७४७ शब्दों में से एक शब्द भी, हज़ारों साल के इतिहास में, कभी बिना पूरा हुए नहीं रहा और न रहेगा। परमेश्वर का वचन कहता है “पर यह जान रख कि अंतिम दिनों में कठिन समय आयेंगे (२ तिमुथियुस ३:१)।” अगले झटके में यह भी हो सकता है कि जिस छत के नीचे आप बैठे हों वही छत नीचे आ पड़े। अभी तो इस संसार को और भी अधिक भयानक पीड़ाओं, आपदाओं एवं बीमारियों का सामना करना है। ऐसी पीड़ा कि आदमी पीड़ा के मारे अपनी ज़ुबान खुद ही चबा जाए (प्रकाशितवाक्य १६:१०,११)। “यहोवा की पस्तक में से ढूँढ कर पढ़ो, इनमें से एक भी बात बिना पूरी हुए नहीं रहेगी (यशायह ३४:१६)।” ज़रा ध्यान दें, ‘परमेश्वर की पुस्तक’ बाईबल किसी धर्म विशेष की पुस्तक नहीं है। हमारे मनों में यह बात इस तरह बैठा दी गई है कि हम ‘यीशु मसीह’ को इसाई धर्म से अलग करके सोच ही नहीं सकते; जबकि यह सोच बिलकुल गलत और झूठ है। सम्पूर्ण बाईबल का एक एक पद छान डालिएगा, पहिले तो बाईबल में ‘इसाई’ या ‘इसाई धर्म’ जैसा कोई शब्द ही नहीं ढूँढ पाएंगे; फिर प्रभु की शिक्षाओं में धर्म परिवर्तन की कोई बात कहीं नहीं मिलेगी। प्रभु यीशु जगत के पापी, निराश और बेचैन लोगों को उद्धार देने और अपनी शाँति देने आया था, कोई धर्म देने नहीं। वह नहीं चाहता कि आने वाले प्रकोप की भयानकता की चपेट में कोई आ फंसे।
हमारे मनों में कुछ गलत धारणाऐं घर कर गई हैं। बात बहुत पुरानी है, जब मैं अविवाहित था। एक दिन मैं पापों क्षमा और सच्ची शाँति के बारे में कुछ पर्चे बाँट रहा था। एक जवान आकर कहने लगा कि यदि मैं इसाई धर्म अपना लूं तो मुझे क्या मिलेगा? मुझे तो खुद ही तीन पीढ़ी के बाद इसाई धर्म से छुटकारा मिला था, इसलिए अभी जवाब सोच ही रहा था कि उसने मुस्करा कर खुद ही बात फेंकी, “यार बस अमरीका-समरीका ही भिजवा देना।” मैंने कहा “यार मैं ही नहीं गया हूँ, तो तुम्हें कैसे भिजवाऊँगा?” उसने तुरन्त तीसरी बात ठोंकी, “अच्छा यार कम से कम मेरी शादी तो करवा ही दोगे?” मैंने कहा “इतने साल हो गये पर्चे बांटते बांटते, अभी मेरी ही शादि नहीं हुई तो तुम्हारी कहाँ से करवा दूँ? पर जो मुझे मिला है वह मैं तुम्हें बता सकता हूँ। मैं जीवन से निराश होकर मौत ढूँढता था पर पापों की क्षमा के बाद मुझे आनन्द से भरा हुआ जीवन मिल गया है।” यह इस बेचारे जवान की ही धारणा नहीं, अधिकांश व्यक्तियों में भी यह धारणा व्याप्त है।
ऐसा कौन सा धर्म है जिसे परमेश्वर ने सर्टिफिकेट दिया हो कि यह ‘परमेश्वर का धर्म’ है? आदमी जब पैदा होता है तब धर्म की कैद से आज़ाद होता है। धीरे धीरे धर्म का ज़हर दिमागों में भर कर आदमी को ज़हरीला बनाया जाता है। उसके मन में भरा जाता है कि ‘मेरा धर्म अच्छा है और दूसरे का बुरा।’ धर्म ने आदमी को आदमी से जोड़ा नहीं वरन आपस में तोड़ डाला है। सारी उम्र आदमी धारणाओं की एक कैद में जीता है, धर्म की ज़ंज़ीरों को गहने की तरह पहिनता है, और इन धारणाओं से जुड़े भले-बुरे के बोझ से दबी ज़िन्दगी को शमशान तक घसीटता है। धर्म हमारी एक ऐसी कैद है जहाँ हम आजीवन कारावास काटते हैं, जन्म से मृत्यु तक। धर्म के बाहर झांकना भी पाप समझा जाता है, पर जो वास्तव में पाप है, उसे पाप नहीं मानते।
एक भी ऐसा धर्म दिखा दीजीए या ढूँढ कर बताईये जिसमें जान लेने वालों या देने वालों, झूठ बोलने वालों आदि की कमी हो। सिर्फ नाम का ही तो फर्क है, व्यवहार तो सब के अनुयायियों में एक जैसा ही है। क्या यह सब चचेरे - मौसेरे भाई नहीं? धर्म पहिले तो हमें अन्धा बना देता है, और फिर हमें आईना दिखाता है। परमेश्वर पहिले हमारी आँखें खोलता है, तब हमें आईना दिखाता है, हमारी बेचैनी, निराशा, बोझ बनी ज़िन्दगी और इन सब की वजह हमारे जीवन का पाप हमें दिखाता है। रिशवत लेना और देना आज एक आम और खुली बात हो गयी है। झूठ और फरेब के सहारे अपना उल्लू सीधा करना अक्लमंदी मानी जाती है। अश्लीलता का खुला नाच हमारे परिवारों में घुस आया है। स्वयं माँ-बाप अपने बच्चों को अशलील नाच-गानों में भाग लेने और नुमाइश बनने को उत्साहित कर रहे हैं। टी०वी० ने बच्चों को बचपन में ही जवान बना दिया है। जिस किसी जीवन में पाप है, उस में पाप का श्राप और उससे उत्पन्न बेचैनी भी होगी। यही बेचैनी हर एक मनुष्य, मनुष्यों के परिवार और फिर इन परिवारों से बने हमारे समाज में भी दिखेगी, उन पर प्रभाव करेगी। इसीलिए हमारे परिवार और समाज इस बेचैनी को ढो रहे हैं।
एक आयकर विभाग में काम करने वाला व्यक्ति मुझे अपना नया घर दिखा रहा था। घर काफी बड़ा और महंगी चीज़ों से सुसज्जित था। वह व्यक्ति बार बार मुझ से कहता “बस यह सब ऊपर वाले की कृपा है” और मैं अपने मन में कह रहा था कि यह सब ऊपरी कमाई की कृपा है। बस चोरी करने का अवसर मिलना चाहिये - बिजली की चोरी या ऑफिस से कागज़ कलम की चोरी हो। रेल में बिन टिकट यात्रा कर लो। शादी से पहिले और शादी के बाद भी गलत सम्बंध रख लो, कितने गर्भपात करा लो। मुझे ताज्जुब होता है ऐसे बूढ़े लोगों को देखकर जिनके पैर कब्र में लटके हैं, मुँह में दाँत नहीं, पेट में आँत काम नहीं करती, आँखों पर मोटे चश्मे लगे हैं लेकिन अशलील पुस्तक-पत्रिकाओं, चित्रों और फिल्मों में पोपले मुँह खोलकर ऐसी ललचाई निगाहों से घूरते हैं कि यदि मौका मिले तो पता नहीं क्या कुछ कर डालें।
कितनों ने अपनी बुरी लतों से अपने परिवारों को नरक बना डाला है। कितने ही पति-पत्नी मजबूरी में साथ जुड़कर रहते दिखते हैं, पर उनके दिल कभी जुड़े नहीं। कुछ के पास बहुत धारदार बुद्धी और पैसे की भरमार है फिर भी अन्दर एक खालीपन और बेचैनी है। परेशान से एक मजबूरी की ज़िन्दगी जी रहे हैं और अपनी बेचैनी दुसरों के जीवन में भी घोल रहे हैं। ऐसी ज़िन्दगी को क्या खाक ज़िन्दगी कहेंगे? इन्सान ने इन्सानियत को कन्धा देकर शमशान तक पहुँचा दिया है। बस अब इस मरी हुई इन्सानियत का दाह संस्कार भर करना ही बाकी है। जो भी हम बो रहे हैं उन पापों का परिणाम भी हम ही काटेंगे। अचानक वह सब हो जाएगा जिसकी आप कल्पना भी नहीं करते हैं। अब इस संसार का अन्त उसके समीप खड़ा है। परमेश्वर आपके और हर एक के हर एक पाप का खुला हिसाब लेगा, चाहे वह कितने ही छिप कर या चालाकी से क्यों न किये गए हों। मौत के बाद की भयाकनता को शायद हम अपने शब्दों के सहारे आपको नहीं समझा पाएं, परमेश्वर का वचन कहता है “जीवते परमेश्वर के हाथों में पड़ना भयानक बात है (इब्रानियों १०:३१)” और उससे बचकर भागना असंभव है। लेकिन अपने न्याय से पहिले, परमेश्वर अपने प्रेम में, आपको पश्चाताप का अवसर और निमंत्रण दे रहा है।
मेरे प्रिय पाठक, कहीं आपके जीवन में कुछ ऐसे छिपे पाप तो नहीं जो आपको बेचैन करते हैं, कचोटते हैं? आप कैसे ही क्यों न हों, आपके काम कितने ही शर्मनाक क्यों न हों, परमेश्वर का प्रेम सब को क्षमा करने की क्षमता रखता है। प्रेम सब कुछ सह लेता है। प्रभु यीशु प्रेम है, उसने जगत से ऐसा प्रेम किया और उपाय किया कि जो कोई विश्वास करे वह नाश न हो(यूहन्ना ३:१६)। बस इतना ध्यान रखियेगा कि जब तक आप जगत में हैं तब तक उसके प्रेम की सीमाओं में हैं, जगत से बाहर निकलते ही आप उसके न्याय के अन्तर्गत आ जाते हैं जहां क्षमा नहीं, हिसाब लेना ही है।
आपका मन आपको धोखा दे सकता है और कह सकता है कि आपकी सच्चाई जानने के बाद आप जैसे व्यक्ति को कोई कैसे क्षमा कर सकता है, कैसे प्यार कर सकता है? वह तो आपके जीवन की हर बात और हर पाप को जानता है, केवल उसके सम्मुख उन्हें स्वीकार करने और क्षमा माँगने भर की बात है। या फिर आपको बहका सकता है कि यह तो छोटी सी बात है, सभी करते हैं, ऐसा किये बिना तो काम नहीं चल सकता, आदि। लेकिन जान रखिये पाप तो पाप ही है और उसका अन्जाम भी करने वाले को भुगतना ही है, फिर वह पाप छोटा हो या बड़ा, सब करते हों या कभी कोई करता हो। साथ ही यह भी जान रखिये कि कोई पाप या पापी परमेश्वर प्रभु यीशु की क्षमा और प्रेम से बड़ा नहीं है। परमेश्वर ऐसा प्यार क्यूँ करता है? क्यूँकि वह स्वभाव से ही प्रेम है। आपसे पूछा जाये कि माँ अपने बच्चों से ऐसा प्यार क्यूँ करती है? क्यूँकि यह माँ का स्वभाव है। यदि मैं आपसे कहूँ कि ‘ज़रा पानी को आग पर रखकर ठंडा कर लो’ तो यह बात निरर्थक होगी। क्यूँकि आग का स्वभाव है गर्म करना या जलाना और वह अपने स्वभाव के अनुसार ही कार्य करेगी, स्वभाव के विपरीत नहीं। इसी तरह प्रभु यीशु का स्वभाव है प्रेम करना, ऐसा प्रेम जो सबके सब पापों को क्षमा कर सकता है। वह नहीं चाहता कि आप इस जग पर आने वाली भयानक विपदाओं को भोगें और मौत के बाद हमेशा की भयानकता को।
प्रभु यीशु को धर्म के कट्टर अनुयायियों ने इतनी बुरी तरह ताड़ना दे देकर और अपमानित करके मारा कि उसकी स्वरूप आदमियों का सा नहीं दिखता था। कोड़ों से मार मार कर उसकी पीठ की खाल उधेड़ दी, थप्पड़ और घूँसे मारकर उसके चेहरा बिगाड़ दिया, सिर पर काँटों का ताज गूंथकर फंसा दिया। इस लहुलुहान और दयनीय दशा में भारी काठ का क्रुस उसकी पीठ पर लादकर उसे शहर से बाहर एक पहाड़ी पर ले गये, निर्वस्त्र किया, उसके हाथ और पाँव में कील ठोककर उस क्रूस पर लटका दिया फिर उसका ठठा करने लगे। अपने इन शत्रुओं को, इस भारी यातना में भी, प्रभु ने प्रेम से ही देखा और उनके नाश के लिये नहीं वरन उनके क्षमा के लिए प्रार्थना की “हे पिता इन्हें क्षमा कर, ये जानते नहीं कि ये क्या कर रहे हैं (लूका २३:३४)।”
लोग तो परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं, यहाँ परमेश्वर आपसे प्रार्थना कर रहा है कि आप अपने पाप की क्षमा माँग लें। संसार अपनी क्षमा की सीमाओं को लाँघ रहा है। कल का इन्तज़ार न कीजियेगा, कल कहीं काल के गाल में न हो। बस ‘आज’ आपके हाथ में है। प्रभु की तरफ क्षमा के लिये हाथ फैलाइये। इस धरती के धरातल पर कोई ऐसा दुष्ट नहीं है जिसे वह क्षमा न कर सके। वह नहीं चाहता कि आप नाश हों, इसिलिये उसने क्रूस पर अपनी जान दी और तीसरे दिन जी भी उठा। वह जीवित परमेश्वर है। अब आपके फैसले का समय है। या तो आप उसके ऐसे बेमिसाल और समझ के बाहर प्यार को ठोकर मारकर कहिये कि यह सब बकवास है, या फिर उसकी क्षमा को आदर और प्यार से अपने दिल में स्वीकार कीजिये और उससे कहिये - ‘हे प्रभु यीशु मुझ पापी पर दया कर, मेरे पाप क्षमा कर।’
बुधवार, 28 अक्तूबर 2009
सम्पर्क फरवरी २००१: यात्रा की समाप्ति के समीप
एक ऐसे जीवन के साथ थोड़ी देर गुज़ारिएगा जो अब मौत के बिल्कुल करीब खड़ा है। मालूम नहीं पर ऐसा हो सकता है कि जब तक “सम्पर्क” का यह अंक आप तक पहुँचे वह प्रभु के पास न पहुँच जाए। डॉक्टरों के अनुसार उसके जिस्म में जीने के लिए अब ज़्यादा कुछ बचा ही नहीं है। जनवरी में इस भाई का यह संदेश मुझे मिला कि वह मुझ से मिलना चाहता है। मैं उससे जाकर मिला। मिलते ही उसने मुझसे पूछा, भाई आपकी तबियत कैसी है? और कहा मैं आपके लिए प्रार्थना करता हूँ। उसके चेहरे पर कोई उदासी नहीं थी, वह खुश था, जबकि वह मौत के इतना करीब था, मौत का ज़रा सा भी डर उसमें नहीं था। मौत के सामने खड़ा होकर जैसे मौत का मज़ाक बना रहा हो। वह अपने प्रभु के पास जाने की तैयारी में था। जब हम उसे छोड़ कर जाने लगे तो उसने मुझसे कहा कि मेरे पास लोग आते हैं पर उन्हें देने के लिए मेरे पास सुसमाचार के पर्चे नहीं हैं। मैंने जाते हुए पिछले सम्पर्क के अंक की कुछ प्रतियां उसे दीं। उसमें इस संसार से जाते जाते भी अपने प्रभु के लिए कुछ कर डालने की साहसिक इच्छा थी। ऐसे जलते हुए जीवन के सामने खड़ा होना ज़रा भी सहज नहीं है।
(अनिल भाई ने यह गवाही खुद नहीं लिखी क्योंकि वह लिखने लायक हाल में नहीं था। वह जो बोलता गया, एक दूसरा भाई लिखता रहा।)
मेरा नाम अनिल कुमार है। मेरा जन्म उत्तरांचल के हरिपुर गाँव, ज़िला देहरादून में सन् १९६५ में हुआ। कई साल के बाद हम हिमाचल प्रदेश के किल्लौड़ गाँव में आकर बस गए। जब मैं बड़ा हुआ तो मेरे मन में यह इच्छा जन्मी के मैं परमेश्वर को कैसे पा सकता हूँ? इसलिए मैं हमेशा परमेश्वर की खोज में लगा रहा करता था। मैंने बहुत दूर दूर अनेकों तीर्थों की यात्राएं भी कर डालीं लेकिन मुझे सच्चे परमेश्वर की शांति नहीं मिल पाई। एक दिन मुझे एक जन ने प्रभु यीशु के बारे में पढ़ने के लिए एक पर्चा दिया। मैंने उसे पढ़ा पर विश्वास नहीं कर पाया कि प्रभु यीशु ही सच्चा परमेश्वर है और वही मुझे सच्ची शाँति दे सकता है। इसके बाद मैं अचानक बहुत बिमार हो गया और मुझे अस्पताल में भर्ती कराया गया। उस अस्पताल में भी प्रभु यीशु का सुसमाचार सुनाया जाता था। एक दिन मैंने परमेश्वर के वचन से एक पद, “हे सब बोझ से दबे और थके लोगों मेरे पास आओ मैं तुम्हें विश्राम दूंगा-मत्ती ११:२८” पर सुसामाचार सुना। पहली बार मुझे एहसास हुआ जैसे कोई मुझसे बात कर रहा है और आशवासन दे रहा है कि मैं तुम्हें विश्राम दूँगा। मुझे निश्चय हो गय कि यह किसी मनुष्य की आवाज़ नहीं है, यह परमेश्वर ही मुझसे बोल रहा है।
इसके बाद मुझे यह अहसास हुआ कि मैं एक पापी मनुष्य हूँ और पाप के बोझ से दबा एक बेचैन व्यक्ति हूँ। मुझे पाप के बोझ से छुटकारे की ज़रूरत है। मैंने परमेश्वर के वचन की इस सच्चाई पर विश्वास किया कि प्रभु यीशु ने मेरे पापों का बोझ अपने उपर लेकर अपनी जान दी और मर कर तीसरे दिन जी उठा। अचानक मेरी बीमारी बढ़ने लगी और मुझे खून की काफी उल्टियाँ आने लगीं। लेकिन मैं प्रभु की दया के सहरे चँगा होकर घर आ गया। घर आने के बाद मैं प्रभु यीशु को और जो काम उसने मेरे जीवन में किया था, फिर सब भूल गया।
यूं सालों बीत गये, तब एक दिन हमारे गाँव में कुछ विश्वासी भाई प्रभु यीशु का संदेश लेकर आये। उन भाईयों ने मुझे फिर प्रभु यीशु के प्रेम के बारे में बताया। इससे मेरे विश्वास में एक नयी जान जागी और मैं प्रभु में बढ़ने लगा। उन्होंने मुझे निमंत्रण दिया कि भाई आप हमारे यहाँ संगति में आया करो। फिर मैं लगातार प्रभु के लोगों की संगति में जाने लगा। जब मैं प्रभु के लोगों में आया तो तब प्रभु ने मुझे अपने वचन से यह निश्चय दिया कि उसने मेरे पापों को माफ कर दिया और मेरे अन्दर पाप की बिमारी को चंगा कर दिया है। प्रभु ने मुझे अद्भुत शांति और अद्भुत आनंद से भर दिया।
आज भी मैं शारीरिक तौर से बहुत बीमार हूँ और बीमारी के बिस्तर पर हूँ लेकिन तौ भी मेरे पास प्रभु की अद्भुत शांति और आनन्द है। मैंने परमेश्वर के वचन में अय्युब नाम के एक व्यक्ति के बारे में पढ़ा है कि वह कैसी कैसी मुशकिलों और दुखों से होकर गुज़रा लेकिन तब भी उसने न केवल विश्वास को थामे रखा, वरन उसने परमेश्वर को धन्यवाद ही दिया। इससे मेरे विश्वास को और बढ़ोत्री मिली कि चाहे दुख हो या खुशी, हमें प्रभु को नहीं भूलना चाहिए, बल्कि धन्यावाद ही देना चाहिए कि प्रभु परमेश्वर जो भी तूने किया उसके लिए तेरा धन्यवाद हो। परमेश्वर के वचन में मैंने पढ़ा कि सब बातें मिलकर, उनके लिए जो परमेश्वर से प्रेम करते हैं, भला ही उत्पन्न करती हैं - रोमियों ८:२८। अब मेरे पास एक जीवित आशा है कि चाहे मैं मरुं या जीऊँ, प्रभु मुझे नहीं छोड़ेगा। अगर मैं मर गया तो एक दिन प्रभु के साथ स्वर्ग में होऊंगा। इस संसार से जाने से पहले मैं आप से कहना चाहता हूँ, प्रियों क्या आपके पास ऐसा अद्भुत आनन्द और सच्ची शांति है? यदि नहीं तो आज ही प्रभु यीशु की तरफ अपने हाथ फैला कर उससे माँगें और वह आपको देगा।
सोमवार, 19 अक्तूबर 2009
सम्पर्क फरवरी २००१: परमेश्वर के वचन से सम्पर्क
यूहन्ना यहूदी धर्म का अनुयायी और गलील प्राँत के बेथसदा के निवासी जब्दी और शलोमी के छोटे बेटे थे। ये लोग गलील की झील से मछली पकड़ने का धंधा किया करते थे। यह झील २१ की०मी० लम्बी और ११ की०मी० चौड़ी है। इतनी बड़ी झील में वे पूरी पूरी रात मशालें लेकर नाव खेते थे। भारी जाल जो १०० फीट के घेरे में फैलता था, उसे उन्हें बार बार फेंकना और खींचना पड़ता था। ऐसी सख्त मेहनत ने इनके कंधों, हाथों और जिस्म को आम आदमी से कहीं ज़्यादा मज़बूत बना दिया था।
ये लोग अपना दिमाग का कम और शरीर का ज़्यादा उपयोग करते थे और लड़ने मरने को तैयार रहते थे। इसलिए इस्त्रायली लोग गलील के लोगों को बिलकुल अक्ल से पैदल समझते थे। इस्त्राएल के सर्वोच्च धर्म गुरुओं का विश्वास था कि गलील से कभी कोई नबी प्रकट नहीं होगा (यूहन्ना ७:५२)। अजीब बात यह थी कि प्रभु ने अपने १२ में से ११ चेलों को ऐसे गलील से ही चुना; बस एक यहूदा से था और वह था यहूदा इस्करियोती।
प्रभु के चुनाव को देखिये, उसने जगत के बेवकूफों को चुन लिया, जिन्होंने जगत को उथल पुथल कर डाला और मानवीय इतिहास में ऐसा परिवर्तन लाए जो आज २००० साल बाद भी रुका नहीं। मेरे प्रभु ने ऐसे लोगों को ऐसा बना दिया जैसा कभी कोई सोच भी नहीं सकता। वही प्रभु आज भी वैसा ही है और उसने कहा “मैं तुम्हें बनाऊँगा (मत्ती ४:१९)। जो कोई मेरे पास आयेगा उसे मैं कभी न निकालूँगा (यूहन्ना ६:३७)।” जो भी हो, जैसा भी हो, वह उसे निकालेगा नहीं पर बना देगा।
प्रेरितों के काम ५:३६,३७ पद बताते हैं किउस काल में इस्त्राएलियों ने रोमी सरकार के विरुद्ध कई विद्रोह किये थे और और उन विद्रोहों को रोमियों ने बुरी तरह कुचल डाला था। यूहन्ना ऐसे माहौल में पैदा हुआ और बड़ा हुआ परन्तु वह एक सच्ची शाँती का खोजी था इसलिए वह यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले का चेला बन गया। एक दिन उसके इस गुरू ने एक व्यक्ति को उसे दिखाया और उससे एक बड़े भेद की बात कही। उसने प्रभु की ओर इशारा करते हुए कहा “देखो यह परमेश्वर का मेमना है जो जगत के पाप उठा ले जाता है (यूहन्ना १:२९)।” बस फिर क्या था, उसने अपनी जवानी में ही अपना जीवन प्रभु को समर्पित कर दिया और प्रभु ने उसे एक ऐसा साहसिक पुरुष बना डाला जो इतिहास में अनन्त तक जीवित रहेगा।
यूहन्ना रचित सुसमाचार में यूहन्ना प्रेरित पवित्र आत्मा के द्वारा इतने सटीक शब्द चित्र प्रस्तुत करता है जैसे सीधे घटना स्थल से कोई चश्मदीद गवाह बोल रहा हो। इन बातों को कोई चुनौती दे नहीं सकता, जैसे: “यह बात दसवें घंटे की है(यूहन्ना १:३९)”; “और यह बात छटे घंटे के लगभग हुई (यूहन्ना ४:६)।” यह सुसमाचार इन घटनाओं के लगभग ५० साल बाद लिखा गया था पर इन घटनाओं का प्रभाव देखिये कि यूहन्ना को घंटे तक याद थे।
यूहन्ना प्रेरित हमारे सामने किसी एतिहासिक यीशु को नहीं रखता पर एक वास्तविक यीशु को जो स्वयं परमेश्वर है प्रस्तुत करता है। वह इसी बुनियादी सच्चाई को लेकर चलता है। वह अपना सुसमाचार आरंभ करता है “आदि में वचन था, और वचन परमेश्वर के साथ था और वचन ही परमेश्वर था। यही आदि में परमेश्वर के साथ था (यूहन्ना १:१,२)।” “आदि” शब्द किसी भी समय सीमा के साथ बांधा नहीं जा सकता। इन दो पदों में चार बार “था” शब्द का प्रयोग किया गया है। “आदि” में कितना भी पीछे चले जाएं, जहाँ जाएं वहाँ वचन “था” । यह वचन पैदा नहीं हुआ परन्तु हर जगह पहले ही से “था” । यह वचन सृष्टि नहीं, सृष्टिकर्ता है।
ध्यान दें इन तीन शब्दों पर - (१) ध्वनि, (२) शब्द, और (३) वचन। ध्वनि अर्थहीन होती है और शब्द या आवाज़ सन्देश वाहक होते हैं, जिनके द्वारा सन्देश या विचार हम तक पहुँचता है। लेकिन जिस “वचन” शब्द का प्रयोग यहाँ किया गया है वह इन दोनो से बिलकुल अलग है। उसमें अर्थ है, सामर्थ है: “और वह सब वस्तुओं को अपनी सामर्थ के वचन से सम्भालता है...” (इब्रानियों १:३)। इसी वचन के सुनने से विश्वास उत्पन्न होता है (रोमियों १०:१७)। यही वचन हमें सम्भालता और सुधारता है। यह वचन कोई फिलौसफी नहीं है, यह परमेश्वर के दिल की आवाज़ है। इसी वचन में परमेश्वर की सामर्थ और परमेश्वर की इच्छा है। यूहन्ना अपने इस सुसमाचार में ३६ बार इस “वचन” का प्रयोग करता है। ध्यान दें “वचन” शब्द का उप्योग करता है, वचन्मों का नहीं। प्रभु यीशु के ३७ नामों में से एक नम “परमेश्वर का वचन” भी है। यानि यही एकलौता वचन जो एकलौता पुत्र है।
मेरे लिए तो एक और बात है कि मैं इस वचन के द्वारा अपने अन्दर तक इमानदारी से देख पाता हूँ और यह मेरे लिए पवित्र आत्मा की आवाज़ है। प्रभु की दया से मैं इस वचन काअपने दिल से आदर करता हूँ, क्योंकि मैं जानता हूँ कि यही परमेश्वर है। यह मेरे लिए कोई इतिहास की किताब नहीं है, हर रोज़ का जीवन है। यह मेरे लिए ‘बड़े दिन’ या जन्म दिन का केक नहीं पर हर रोज़ की रोटी है। जब मैं दिल की सच्चाई से इसे पढ़ता हूँ तो मैं कई बार इसके सहारे अपने जीवन को पढ़ने लगता हूँ। जब मैं भटकने लगता हूँ तब यह मेरी अगुवाई कर सही मार्ग पर लाता है। इसमें ज़रा भी मिलावट नहीं है। शुरू में सारी सृष्टी इसी वचन के द्वारा ही सृजी गई और सृष्टी का अन्त भी इसी वचन के द्वारा ही होगा, और फिर सबका न्याय भी इसी वचन के अनुसार ही होना है।
यही वचन आदि में परमेश्वर के साथ था और आज यही वचन आपके पास है, जो आज आपसे बात कर रहा है। इसी वचन में प्रभु ने आज्ञाएं भी दीं हैं पर प्रभु बड़े दुखी मन से कहता है “जब तुम मेरा कहना नहीं मानतॆ तो क्यों मुझे हे प्रभु हे प्रभु कहते हो?” (लूका ६:४६)।
बहुतेरे विश्वासी बहुत सी पाप की छोटी छोटी रस्सियों से बन्धे खड़े हैं। जैसे इर्ष्या, विरोध, लालच, कई छिपे गंदे काम, दोगलापन-बोलते कुछ हैं पर करते कुछ और ही हैं। पाप की ऐसी छोटी छोटी रस्सियों से बन्धा जन कुछ भी करने की सामर्थ खो देता है।
एक बार हमारे आदरणीय भाई जॉर्डन खान मेरठ में आए थे। मैं उस समय लड़का सा ही था। वहाँ एक आदमी प्रार्थना में ज़ोर ज़ोर से शैतान को बाँध रहा था (शायद भाई जॉर्डन खान उस व्यक्ति को जानते हों)। भाई ने बीच में ही ज़ोर से डाँटकर कहा, “चुप कर तू क्या शैतान को बाँधेगा, तुझे तो खुद शैतान ने बाँध रखा है।” शब्द तीखे थे पर सत्य थे। अनेक लोग परमेश्वर के सामने घुटने झुकाए दिखते हैं पर वास्तव में उन्होंने अपने व्यक्तिगत जीवन में शैतान के सामने घुटने झुका रखे हैं। जब उनके काम फंस जाते हैं तो चुपचाप इधर उधर रिश्वत देकर अपना काम निकलवा लेते हैं और फिर आकर सुनाते हैं कि कैसे प्रभु ने मेरे काम करवा डाले। क्या वास्तव में वह कम प्रभु ने करवाये या रिशवत ने? ये वे जीवन हैं जिनमें परमेश्वर के वचन का कोई काम नहीं है। ऐसे जीवन परमेश्वर के वचन का सीधा अपमान करते हैं, उस वचन का जो स्वयं परमेश्वर ही है।
एक बार की बात है, एक बूढ़े व्यक्ति ने अपने साथियों से पूछा, “ज़रा सामने देखो, वह जो आदमी बकरी को बाँधकर खींचे ले ज रहा है; क्या तुम मुझे बता सकते हो कि उस आदमी ने बकरी को बाँध रखा है या बकरी ने उस आदमी को?” उसके दोस्तों ने कहा “अबे यार तू वाकई में सठिया गया है। क्य तुझे दिखता नहीं कि आदमी ने बकरी को बाँध रखा है।” बुज़ुर्ग ने जवाब दिया “तो यार इन दोनो के बीच से इस रस्सी को हटा दे और तब बता कि बकरी आदमी के पीछे आएगी या आदमी बकरी के पीछे भागेगा।”
चाहे देखने में आदमी ने बकरी को बाँध रखा हो पर वासत्व में बकरी ने आदमी को बाँध रखा है। ऐसे ही कई नामधारी विश्वासियों को शैतान ने पाप की छोटी छोटी रस्सियों से बाँध रखा है। लेकिन इसी वचन में प्रभु ने अपनी बड़ी दया में कहा है “तुम सत्य को जानोगे और सत्य तुम्हें स्वतंत्र करेगा...(यूहन्ना ८:३२)।” “उसका वचन सत्य है। (यूहन्ना १७:१७)”
अगली बार प्रभु ने चाहा तो “सम्पर्क” के माध्यम से आप और हम फिर परमेश्वर के इस जीवित वचन से सम्पर्क करेंगे।
शनिवार, 17 अक्तूबर 2009
सम्पर्क फरवरी २००१: मैं तुझे न छोड़ूँगा, तू मेरा है
उन मुश्किल के दिनों में जब मैं हाई स्कूल का छात्र था, तब कुछ लोगों ने मेरे स्कूल में बाईबल के नए निय्म की कुछ प्रतियाँ बाँटीं। मैं जब जब उस नए नियम को पढ़ता था तब तब मुझे एक अजीब सी शाँति मिलती थी। इसके बाद मैं अपने कुछ दोस्तों के साथ एक प्रार्थना घर में जाने लगा। वहाँ पर सन्देश सुनने और नया नियम पढ़ने से मुझे प्रभु यीशु मसीह के प्रेम का एहसास होने लगा। प्रभु यीशु मसीह के क्रूस की गाथा मुझे बड़ी अजीब लगती थी। परन्तु धीरे धीरे मुझे बाईबल की इस सच्चाई पर विश्वास हो गया कि मैं एक पापी हूँ और प्रभु मेरे पापों के लिए क्रूस पर मारे गए, गाड़े गए और तीसरे दिन जी उठे। तब मैंने अपने पापों का पश्चाताप किया और प्रभु यीशु को अपने दिल में ग्रहण किया। मुझे विश्वास हो गया कि प्रभु ने मेरे सारे पापों को माफ कर दिया है। उसी क्षण मेरे जीवन में एक अद्भुत शान्ति आ गई।
उन्हीं दिनों मेरी बड़ी बहन ने भी प्रभु यीशु पर विश्वास करके अपने पापों से पश्चाताप किया, जिससे प्रभु यीशु पर मेरा विश्वास और भी मज़बूत हो गया। मैं हर रविवार को प्रभु के लोगों की संगति में जाने लगा। वहाँ मुझे बड़ा अद्भुत आनन्द मिलता था। परमेश्वर के अनुग्रह से १९९८ में जब मैं रुड़की विश्वविद्यालय में पढ़ने के लिए आया तो यहाँ पर भी मुझे प्रभु के लोगों की संगति मिल गई। यह सब पढ़ कर आप सोच रहे होंगे मैं प्रभु में आगे ही बढ़ते जा रहा था; लेकिन ऐसा नहीं था। अब मैं आपको अपने जीवन के उस दुखदायी हिस्से के बारे में बताना चाहता हूँ।
इन सब आशीशों के बाद भी मेरे जीवन में कई गलत समझौते सालों तक पनपते रहे, पर मैं उनको लापरवाही से लेता रहा। इन समझौतों के चलते मैं धीरे धीरे परमेश्वर के लोगों की संगति से दूर होने लगा और मेरा समय बुरे दोस्तों के साथ मौज मस्ती में बीतने लगा। मैंने शैतान को अपने जीवन में काम करने का खुला द्वार दे दिया, जिसके चलते मैं एक भयानक पाप में फँस गया जिसके बारे में बताते हुए मुझे आज भी बहुत शर्म आती है। मैं जानता था कि परमेश्वर की नज़रों में मैं दोषी हूँ, परन्तु फिर भी इस पाप में मैं गिरता चला गया। मेरे जीवन के इन भयानक दिनों में मैं बहुत मानसिक तनाव से दब गया, लेकिन मेरा दिल इतना कठोर हो चुका था कि मैं अपनी इस दुर्दशा से छुटकारा पाने के लिये प्रभु की ओर अपने हाथ नहीं फैला रहा था।
इन्हीं दिनों मेरे पिताजी का देहान्त हो गया और मेरा देश भी एक बड़े राजनैतिक संकट में पड़ गया। यह सारी विपरीत परिस्थितियाँ मिलकर मेरे सहने से बाहर हो रही थीं। गर्मियों की छुट्टियों में अपने परिवार से मिलने मैं फिजी गया लेकिन उन दिनों में भी मैंने परमेश्वर से और उसके वचन से मिलने का कोई प्रयास नहीं किया। अपनी मूर्खता में मैं यही सोचता रहा कि मैं खुद अपनी आत्म शक्ति से अपने पापों और विपरीत परिस्थितियों पर काबू पा लूँगा। मैं यह भूल गया कि शैतान और अंधकार की शक्तियाँ मेरी आत्म शक्ति से कहीं अधिक शक्तिशाली हैं।
जब मैं छुट्टियों के बाद वापस अपने विश्वविद्यलय लौट के आया तो वही पाप मुझे फिर से जकड़ने लगे। ऐसी बुरी हालत में भी प्रभु यीशु ने मुझे नहीं छोड़ा और मुझे अपना ही सर्वनाश करने से रोके रखा। इस बार प्रभु ने अपनी बड़ी दया से उन दोस्तों की संगति से अलग कर दिया जो मेरे पतन का कारण थे। अचानक वही दोस्त मेरे शत्रु बन गये और मैं बिल्कुल अकेला पड़ गया। इस अकेलेपन में मैं एक बार फिर परमेश्वर के वचन को पढ़ने लग गया और वह वचन मुझे उस गिरी हुई दशा से फिर से उठाने लगा।
मैंने फिर से अपने विश्वासी भाइयों की संगति में जाना शुरु कर दिया जो मेरे बुरे दिनों में भी, जब मैं प्रभु और उसके लोगों की संगति से दूर रहा, मेरे लिये प्रार्थना करते रहे। प्रभु ने मुझ भगौड़े बेटे को उसी प्रेम से फिर स्वीकार किया जैसे उसने मुझे पहले ग्रहण किया था। उसके वचन और संगति ने मुझे फिर से उभार कर खड़ा कर दिया।
आज जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूँ तो मेरा दिल खुशी से भर जाता है, यह सोच कर कि मैं कहाँ तक गिरा और उसने मुझे कहाँ से उठा लिया। कितना सच है उसका यह कथन “मैं तुझे कभी नहीं छोड़ूँगा और न कभी त्यागूँगा (इब्रानियों १३:५)।”