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शुक्रवार, 17 अप्रैल 2009

संपर्क दिसम्बर २००८: एहमियत का एहसास


(यह लेख, आई० आई० टी० - रूड़की के स्नातक श्री शशि शेखर की गवाही, अर्थात उनके व्यक्तिगत अनुभव की अभिव्यक्ति, है।)

मेरा नाम शशि शेखर है। मेरा जन्म पटना बिहार में हुआ। मैं बच्पन से ही अपने सब भाई-बहिनों में सबसे अधिक धार्मिक था और कभी त्यौहार के मौके पर उपवास भी रख लिया करता था। मैं ही अकेला था जो धार्मिक था। मैंने कभी भी अपने परिवार और अपने माता-पिता से ज़्यादा किसी और चीज़ के बारे में नहीं सोचा।

जब मैं दो-तीन साल का था तो उस समय मैं एक बड़ी ही विकट स्थिती से गुज़रा और मरते-मरते बचा। उस समय ऐसा हुआ कि मैं एक टूटी हुई चूड़ी को अपने मूँह से तोड़ने की कोशिश कर रहा था जबकि मेरे मुँह में दाँत नहीं थे। लेकिन मैंने उसको अपने मुँह से तोड़ने की पूरी कोशिश की। परिणामस्वरूप मेरा गला कट गया और बहुत ख़ून बहने लगा। तुरंत मेरे माता-पिता मुझे पटना लेकर भागे। उन दिनों गंगा नदी में बहुत बाढ़ आई हुई थी और स्टीमर बोट (स्वचालित नाव) को छोड़ और कोई आने-जाने का साधन नहीं था। ऐसे में कोई भी बोट मालिक स्टीमर से नदी पार करने के लिए तैयार नहीं था और मेरे माता-पिता ने मेरे जीवन कि बची संभावना की सारी आशा भी छोड़ दी थी। उसी समय बहुत कोशिश करने के बाद परमेश्वर के अनुग्रह से बाढ़ से भरी नदी को पार करने के लिए एक आदमी तैयार हुआ और बहुत ही कठिनाई से नदी को पार किया।

वह समय मेरे माता-पिता के लिए बहुत ही दुख़दायी था। मेरे इलाज में बहुत बड़ी रकम खर्च हुई, जिसके चलते मुझे बचाने के लिए मेरे माता-पिता ने बहुत ही दुख़ उठाया। इलाज के बाद धीरे-धीरे मैं ठीक होने लगा।

मेरी प्राथमिक शिक्षा पहली से पाँच कक्षा तक एक हॉस्टल में हुई जहाँ मेरे अन्दर एक अलग तरह का व्यवाहर विकसित हुआ। मैं दूसरों को पसंद नहीं करता था और अपने हृदय में बुरा सोचता था और भला करने की सोचता भी नहीं था। इस तरह मैं पूरी तरह पाप में था।

मैंने कभी ऐसा पाप तो नहीं किया जो यदि मेरे माता-पिता, भाई-बहिन या किसी और को पता चलता तो वे मेरे बारे में बुरा सोचते। मैं हमेशा यही चाहता था कि लोग मेरे बारे में अच्छा सोचें। मैं चाहता था कि मैं कोई ऐसा बुरा काम ना करूँ जिसका किसी को पता चले तो मेरी एक आज्ञाकारी बालक की छवि धूमिल हो जाए। बचपन से ही मैं अपनी छवि के बारे में बड़ा ध्यान रखता था। इस तरह, अपनी सोच के अनुसार, मैं अपने माता-पिता और शिक्षकों की राय में एक ‘अच्छा लड़का’ था।

मैं अपने ही तरीके से पाप का मज़ा ले रहा था। मैं एक बहुत ही घमंडी, स्वार्थी और क्रूर लड़का था और अपने माँ-बाप के सामने हमेशा साफ-सुथरा दिखना चाहता था। अर्थात आप कह सकते हैं कि मैं केवल एक पाखंडी था। यह इस तरह से है जैसे ‘एक कब्र, जिसके अन्दर हड्डियाँ और मलिन्ता और सड़न है, परन्तु बाहर से देखने में साफ़ और संवरी हुई है।’ वैसे ही, मेरे हृदय के अन्दर तो बुरी सोच थी लेकिन मैं बाहर से एक आज्ञाकारी और सभ्य बालक के रूप में संवरना चाहता था।

बच्पन से ही विज्ञान में मेरी रुची नहीं थी। मैंने कभी पढ़ाई की एहमियत का एहसास नहीं किया। क्योंकि सब पढ़ते हैं इसलिए मुझे पढ़ना है और यह मुझे अच्छा लगता था। मुझमें एक देश्प्रेम की भावना थी सो मैं एक सेना का अधिकारी बन्कर देश की सेवा करना चाहता था। मुझे बच्पने से ही एक अच्छा दिमाग़ नहीं मिला, मैं केवल एक सामन्य बुद्धि का लड़का था। परन्तु फिर भी मैं बचपन से ही अपनी पढ़ाई में हमेशा अच्छा था। जिस स्कूल में मैं पढ़ा वहाँ हमें आम तौर से खाना खाने से पहले और सोने से पहले प्रार्थना कराई जाती थी।

जब मैं १२ साल का था तब मेरे जीवन में एक बुरा मोड़ आया। १९९४ में मुझे ‘एनसैफलाईटिस’ नामक बीमारी हो गयी - एक ऐसा बुखार जिसने रांची में रहने वाले बहुत से लोगों को मार दिया था। जब मुझे अस्पताल में भर्ती कराया गया तो मेरी माँ बहुत घबरा गयी थी और उसने मेरे जीवन की आशा छोड़ दी थी। क्येंकि लोग रोज़ सुबह भर्ती होते और दोपहर या शाम तक उन्हें मरा घोषित कर दिया जाता था। एक समय तो मुझे भी मरा घोषित कर दिया गया परन्तु आश्चर्यजनक रीती से जीवन मुझमें दोबारा आ गया। बहुत इलाज के बाद मैं कुछ हद तक ठीक हो गया। और एक महीने के बाद मेरे माता-पिता को डाक्टर ने सलाह दी कि ‘इसको घर ले जा कर सायकोथेरापी (मान्सिक चिकित्सा) के द्वारा इलाज करो’। इसके तीन साल के बाद मैं अपनी पढ़ाई दोबारा ज़ारी कर सका। बहुत मेहनत के बाद मैंने १९९९ में अपना इंटरमीडीयट सी०बी०एस०सी० बोर्ड से पूरा किया।

उसके बाद परमेश्वर के अनुग्रह से मैंने प्रतियोगी इंजिनियरिंग की परीक्षाएं दीं और मुझे रूड़की आई०आई०टी० इंजिनियरिंग परीक्षा के लिये चुन लिया गया और मैं रूड़की आ गया। यहाँ आकर अपने साथ के पढ़ने वालों को देखकर बहुत उलझन में था कि उनके लिये गाली देना, गन्दे काम करना और सिगरेट और शराब पीना एक रिवाज़ है। मेरे सीनियर और मेरे मित्र मुझ से कहते कि एक इंजिनियर के लिये यह सब करना बहुत ज़रूरी होता है। क्योंकि मैं किसी को गाली नहीं देता था, अपशब्द भी नहीं बोलता था और मुझ में कोई बुरी आदत भी नहीं थी इसलिए मैं केवल अपने आप में संतुष्ट रहता था और मुझे अपने अंदर कोई बुराई नहीं दिखती थी। मैंने बहुत कोशिश की अपने आप को इन चीज़ों से दूर रखने और अपने आप में और अपने मित्रों की दृष्टि में ठीक दिखने की परन्तु मेरा मन उन दिनों बहुत ही भ्रष्ट हो गया था।

मैं अपने पहले साल के आखिरी सैमस्टर में एक धर्मी जन से मिला। वह मुझे प्रभु के पास लाया। पहले तो मैं उसकी कोई बात सुनने के लिये तैयार नहीं था। परन्तु धीरे-धीरे मैंने उसकी बात सुनना शुरु किया और उसके बारे में जाना। मैं प्रभु के लोगों की संगति में बना रहा और लम्बे समय बाद, यह जान्कर कि वह मुझ जैसे को भी, जो इतना बुरा है, ग्रहण कर सकता है, और केवल वही है जो मुझे मेरे पापों से क्षमा और मुझे एक नया मन दे सकता है, मैंने व्यक्तिगत रीति से, पश्चाताप के साथ, प्रभु यीशु को ग्रहण किया ।

पहले मैं उनके पीछे चलता था जो मुझे धर्म के पास ले जाता था लेकिन जिसके अंत मेम कुछ भी नहीं है। परन्तु जब मैंने प्रभु यीशु पर विश्वास किया तो जाना कि केवल वही पापों की क्षमा और उद्धार का मार्ग है जो कलवरी के क्रूस पर उसके बलिदान पर विश्वास के द्वारा मिलता है। अब मैं कह सकता हूँ कि जब मैं प्रभु को नहीं जनता था, तब भी प्रभु मुझे जानता था और जो भी मेरे जीवन में हुआ परिणामस्वरूप भला ही हुआ।

कुछ बातों को मैं आज सोचता हूँ। अगर मैं धर्मी था तो क्यों बुरी बातें और बुरे विचार मेरे मन में बने रहते थे? क्या वे मुझे अच्छा बना सकते थे? तब मैं एक व्यक्तिगत निर्णय पर आया कि मुझे अच्छे और बुरे के बीच एक फैसला करना है। प्रभु ने मुझे उत्तर दिया और मैं पूरी तरह इस बात से सहमत हो गया कि मैं यीशु पर पूरे हियाव के साथ भरोसा रख सकता हूँ और मेरा हृदय जिसकी खोज कर रहा था उसकी खोज अब पूरी हो गयी।

मेरे जीवन में प्रभु ने बहुत काम किये हैं। मैं प्रभु का बहुत आभारी हूँ और अब मैं चाहता हूँ कि वह मुझ जैसे कमज़ोर आदमी को अपने सेवक के रूप में चुन ले।

संपर्क दिसम्बर २००८: ज़रा सुन तो लो

मिलावट और बनावटीपन इस युग की सबसे ज़रूरी बात बन गई है। जल, वायु, भोजन सब मिलावटी है। जीवन रक्षक दवाईयों में भी मौत मिलकर बेची जाती है। अगर आप मरना चाहें तो असली ज़हर भी मिलना मुशकिल है। क्या आपने कभी सुना है कि कीड़े मारने वाली दवाई में भी कीड़े पड़ गए? इस बनावटी और मिलावटी युग में परमेश्वार के वच्न में भी मिलावट होने लगी है। बनावटी प्राचारकों की भी भरमार है। दानियेल भविष्यद्वक्ता की भविश्यवणी में अन्तिम युग लोहे और मिट्टी के मिलावटी पैरों पर खड़ा है (दानियेल २:३३,४१,४२)।

आज पाप सिर्फ कोई मजबूरी मात्र ही नहीं, पर पाप एक मनोरंजन का साधन भी बन गया है। किसी को बेवकूफ बनाकर और धोखा देकर बड़ा मज़ा आता है। हम अपनी पेहचान भूल गये हैं। वास्तव में हम क्या हैं? हम दूसरों को तो कहते हैं कि लोग बैर हैं, झूठ बोलते हैं, लालची हैं; पर मैं क्या हूँ? अगर कभी कोई कमी दिखती भी है तो हम उसे सही ठहराने की कोशिश करते हैं या फिर मजबूरी गिनाते हैं।

बीवी कह रही थी, “दुनिया में इमान्दारी नहीं बची। लोग धोखा दे रहे हैं और धोखा खा रहे हैं। बड़े से बड़ा आदमी क्या, छोटा भी दे रह है। बस संसार का अन्त आ गया है। देखो सुबह क्या हुआ, सबज़ीवाला मुझे एक खोटा सिक्का थमा गया; एक रुपये के लिये भी ईमान बेच दिया! वैसे तो खुदा खुदा कर रहा था।” पती बोला, “ज़रा वह खोटा सिक्का तो दिखाओ।” बीवी बोली, “वह तो मैंने दूधवाले को भेड़ दिया!” जब कोई हमें कुछ नोटों के बीच में एक फटा हुआ नोट चला देता है तो हमें उसके धोखे पर बहुत दुख, गुस्सा और झुँझलाहट आती है। पर अगर वही नोट हम उसी तरह से दूसरों को थमा देते हैं तो हमें बड़ी खुशी मिलती है और हम राहत महसूस करते हैं कि नोट चल गया।

शैतान एक ऐसा सेल्समैन है जो बड़े वायदे करता है और बड़े-बड़े लालच सामने रखता है; पर असल बात तो बाद में खुलती है और तब तक आदमी लुट चुका होता है। वह ऐसे आश्वासनों की भरमाई मन में भर देता है, जो कभी पूरे नहीं होते। शैतान, अपने झांसे में लाकर, हज़ारों सालों से, हव्वा से लेकर अब तक, न जाने कितनों को परमेश्वर के तुल्य हो जाने का ख़्वाब दिखाता रहा है। शैतान ने आदमी को अंश-अंश करके अपने स्वरूप में ढाल दिया है।

अगर झूठ सच सा न लगे तो झूठ कभी चल नहीं पायेगा। नकली नोट अगर असली सा ना दिखे तो चलेगा नहीं। काँटे पर आटा लगाया जाता है। काँटे पर यदि आटा न हो तो मछ्ली फंसेगी कैसे? काँटे को छिपाने के लिये आटा लगाना ही पड़ता है। लोभ के आटे की सच्चाई, बिना सटके, सहजता से समझ में नहीं आती। पर बाद में जब समझ में आती है, तब तक काफी देर हो चुकी होती है। हव्वा ने शैतान के एक ही झूठ को सच समझ कर उसका विश्वास किया था। एक बार आप फंस गये तो फिर बस छटपटाते रहेंगे।

लोग आश्चर्यकर्म देखना चाहते हैं, चँगाई देखना चाहते हैं। ज़्यादतर लोग परमेश्वर की खोज में नहीं. परन्तु वे किसी मदारी की खोज में हैं। अधिकतर तो अपने स्वार्थ की ही खोज में जुटे हैं। यह बात सच है कि प्रभु यीशु पाप से छुटकारा देने आया। पर ऐसे प्रचारकों की भर्मार है जो उछ्ल-कूद दिखाते हैं और बड़े-बड़े लालच देते हैं, और एक बड़ी भीड़ उनके पीछे है - “ ... और कितनों के विश्वास को उलट-पुलट कर देते हैं (२ तिमुथियस २:१८)।” “ ... हे सोने वाले जाग और मुर्दों में से जी उठ; तो मसीह की ज्योति तुझ पर चमकेगी (इफ़सियों ५:१४)।”

रविवार, 5 अप्रैल 2009

संपर्क दिसम्बर २००८: आदमी भी क्या है


एक बाज़ीगर बाबा रेल से बिना टिकिट यात्रा कर रहा थे। टिकिट कलैक्टर ने उनसे टिकिट माँगा। बाबा बोले, “बाबा लोग कहाँ टिकिट लेते हैं?” टिकिट कलैक्टर बोला, “यह तेरे बाप की गाड़ी नहीं है, नीचे उतर।” बात बिगड़ गई। बाबा को अगले स्टेशन पर उतार दिया गया। बड़ा शोर-शराबा मचा और भीड़ इकट्ठी हो गयी। बाज़ीगर बाबा बोले, “देखता हूँ यह गाड़ी कैसे चलती है?” थोड़ी देर में गार्ड ने सीटी बजाई और हरी झंडी दिखाई। ड्राईवर ने गाड़ी चलानी शुरू की - गाड़ी थी कि आगे खिसकने का नाम ही ना ले। ड्राईवर की सारी कोशिशों के बावजूद भी गाड़ी हिल नहीं पाई। अब धीरे-धीरे लोगों में घबराहट बढ़ने लगी और सवारियॊं में गुस्सा भड़कने लगा। स्टेशन मास्टर परेशान होकर टिकिट कलैक्टर से कहने लगा, “क्यों पचड़ंगा खड़ा कर लिया। इससे पहिले कि लोग तोड़-फोड़ माचाएं, बाबा से माफी माँग लो।” टिकिट कलैक्टर अड़ा रहा और बात बढ़ती गई। आखिर मजबूरी में उसने माफी मांग ही ली। पर तब तक बाबा के तेवर बहुत बढ़ चुके थे। बाबा बोला, “फूल लाओ, मिष्ठान लाओ और पैरों में प़ड़कर माफी माँगो।” खैर मामला निपट गया। बाबा ने बड़े नाटकीय ढंग से आदेश दिया और गाड़ी चल पड़ी। गाड़ी क्या चली, बाबा का धंधा चल पड़ा। ख़बर फैलती गयी और बाबा की किस्मत फलती गयी।

बाबा की मौत के समय उनके एक पुराने ख़ास करीबी चेले ने उनसे पूछा, “रेल का चक्का जाम करके आपने अपना सिक्का कैसे जमाया?” बाबा बोले, “बेटा मरते वक्त क्या झूट बोलूँ। मैंने रेल के ड्राईवर को बड़ी मोटी रिशवत दे रखी थी!”

ऐसे ही कई धोखेबाज़ लोगों ने आम लोगों की आस्था के साथ खिलवाड़ किया है। इसीलिए कई लोगों को तो परमेश्वर के अस्तितव पर विश्वास ही नहीं रहा। ऐसे लोगों से अगर परमेश्वर के बारे में बात करो तो वे कैसे बात करते हैं - “अपने परमेश्वर को अपने पास रखो। परमेश्वर कहाँ है? किसने देखा है? क्या सबूत है? तुम लोगों को स्वर्ग का लालच और नर्क का डर दिखाकर डराते फिरते हो कि न्याय आएगा, नर्क जाओगे। यह पट्टी डरपोकों को ही पढ़ाना। देखो ध्यान रहे, दुबारा मूँह मत लगना, नहीं तो तुमको भी तुमहारे परमेश्वर के पास पहुँचा दूँगा।” वे ऐसा इसलिए कहते हैं क्योंकि उन्हे यह विश्वास हो गया है कि परमेश्वर है ही नहीं।

कुछ लोग इससे हलके मिजाज़ के होते हैं। वे अक्सर यह कहते हैं “परमेश्वर की क्या ज़रूरत है? जब उसके बिना कम चल रहा है तो क्यों ज़बरदस्ती परमेश्वर को गले लपेटना?” वे भी पर्मेश्वर की सत्यता को स्वीकार नहीं करना चाहते। या ऐसे भी कुछ लोग हैं जो किसी रस्म के तौर पर या स्वार्थ से, दिखावे या डर के कारण या उनके साथ कुछ बुरा ना हो इस कारण परमेश्वर को मानते हैं। पर कुछ लोग होते हैं जो सच्चे दिल और ईमानदारी से परमेश्वर को खोजते हैं। तरिका सही या ग़लत हो सकता है, पर वे दिल से परमेश्वर का आदर करते हैं, मतलब या दिखावे से कतई नहीं।

बहुत ही साधारण समझ की ज़रूरत है। क्या बिना बनाए कुछ बनता है? “ इसलिए जिसने सब कुछ बनाया वह परमेश्वर है।”

मर्दानगी रफूचककर हो जाती है

ज़िन्दगी के सफर में हमें रास्तों की ज़रूरत होती है। इस बात को इस तरह समझिएगा - आदमी शरीर से तो बुरे हालातों का सामना नहीं कर पाता। जंगली जानवरों का भी वह सीधा सामना नहीं कर सकता। और शेर, उसको तो देखकर ही उसकी सारी मर्दानगी रफूचककर हो जाती है। शेर की तो बात ही छोड़ो, अगर कोई कुत्ता भी पीछे दौड़ पड़े तो वह चौकड़ी भूल जाता है। आदमी के पास न तो जानवरों की सी आँखें हैं, न ही तेज़ी, न ही ताकत। न नाखून हैं न पंजे और न ही उन जैसे दाँत और न ही वह पक्षियों की तरह उड़ सकता है। इसलिए उसने तीर, तलवार, चाकू, बन्दूक, तोप, हवाई जहाज़ और नाव बनाए हैं। यह आदमी की मजबूरी थी कि उसने ऐसे हथियारों की खोज की। हर बात के लिए उसने अपने रास्ते बनाए हैं। उसने तो मौत के बाद स्वर्ग जाने के भी रास्ते बनाए हैं! जी हाँ, धर्म के रास्ते, जो उसे यहाँ से वहाँ पहुँचा सकें।

हर चीज़ के दो पहलू होते हैं, एक बाहरी और दूसरा भीतरी। बाहर से सब सामन्य से दिखते हैं पर भीतर बहुत फर्क होता है। इसी तरह धर्म का भी बाहरी रूप बहुत अच्छा लगता है पर भीतरी रूप बहुत भयानक है। क्या उग्रवाद, जातिवाद, प्रदेशवाद सब धर्म की ही देन नहीं हैं? हमारे इन्हीं धर्मों ने आम आदमी के अहँकार को उसकी ऊँचाई पर पहुँचा दिया है - गर्व से कहो मैं फलाँ धर्म का हूँ। यह वास्तव में दूसरे को नीचा दिखाना ही तो है! कौन कहता है - “गर्व से कहो कि मैं इन्सान हूँ?” वह यह कभी नहीं कह सकता क्योंकि उसमें इन्सानियत बची ही नहीं है। आज महत्तव धर्म का है, परमेश्वर का नहीं। धर्म तो आज दहशत का एक नया नाम है।

राजनेताओं के लिए धर्म समस्या नहीं है। कोई भी साफ समझ सकता है कि धर्म उनके लिए स्वार्थसिद्धी का साधन मात्र है। आर्थिक जगत में भी इन्सान को सबसे सस्ती और अच्छी मशीन माना जाता है। इन्सानियत के लिए वहाँ कोई जगह नहीं है, सिर्फ मुनाफा ही सब कुछ है। हमारे देश में किसी भी वस्तु की कोई कमी नहीं है, फिर भी इन्सान यहाँ परेशान है। कमी है तो सिर्फ ईमान्दारी की।

कोई गुलाब नहीं है इस दुनिया में जो बिन काटों का हो। ये काँटे हमारे पाप के कारण हैं जो आदमी ने खुद अपने जीवन में बोए हैं। कोई घर नहीं बचा जहाँ कँ तों की सी चुभन ना हो। ज़रा अपने घर को टटोल के देखिए कितने ही काँटे बिखरे हैं। अहँकार, क्रोध, लालच के कारण सब परेशानियाँ हैं इस लिए सब परेशान हैं। परेशानियाँ हमेशा इन्सान के साथ बनी रहती हैं। जब तक इन्सान इस पृथवी पर जीएगा, परेशानियाँ उसके साथ बनी रहेंगी। सारी परेशानियों का कारण पाप ही तो है।

सगा भाई भी सगा नहीं है। अगर कोई सगा है तो सिर्फ स्वार्थ का सगा है। अब हालात दिन-ब-दिन बद् से बद्तर हो रहे हैं। इन्ही के कारण संसार अपने सबसे मुश्किल समय पर आ खड़ा हुआ है। हर जगह एक ही चर्चा है कि क्या होगा? कैसे होगा? आफ़तें और परेशानियाँ ऐसे आती हैं जैसे भूचाल, जो बिना बताए अचानक आ पड़ते हैं। आदमी ने अपनी बेचैनी खुद पैदा की है और उस बेचैनी से निकलने के लिए उसे कोई मार्ग नहीं दिखता। फिर दोष कहाँ है? सच तो यह है कि दोष मेरे और आपके स्वाभाव में है और हममें बसा हुआ है। भूख या प्यास लगानी नहीं पड़ती, अपने आप लगती है, क्योंकि यह शरीर का स्वाभाव है। ऐसे ही हमारे मन का स्वाभाव है - लालच, लगाना नहीं प़ड़ता पर अपने आप आता है; अहँकार उठाना नहीं पड़ता, मन खुद उठाता है।

नाम खरे और दर्शन खोटे

हम अपनी बातों और कमों में बड़े उलट होते हैं, जैसे - “गरीबदास” बहुत बड़े सेठ हैं; “अमीरचँद” को दो वक्त की रोटी नहीं मिलती; “शाँति” ने मुहल्ले में बड़ी अशाँति फैला रखी है; “कामराज” (सुन्दरता के देवता) का रूप शाम को अगर बच्चे को दिखा दिया जए तो मारे डर के रात भर उसे नींद नहीं आएगी। जो हम होते हैं वह हम दिखते नहीं और जो हम नहीं होते वह हम दिखाते हैं।

मुल्ला नसरूद्दीन ने एक शास्त्रिय संगीतज्ञ मित्र को शाम के खाने पर बुलाया और कहा कि साथियों तथा साज़-ओ-सामान के साथ आना, खाने के बाद महिफल सजेगी। संगीतज्ञ दिन भर परेशान रहा कि मुल्ला को शास्त्रिय संगीत का शौक कब से चढ़ा। ख़ैर, संगीतज्ञ साथियों के साथ पहुँच गए, खाने पीने का दौर चलता रहा। आधी रात बीत गई तो मुल्ला बोले, ‘यार अब शुरू करो।” संगीतज्ञ बोला, “मियाँ यह कोई वक्त है? सारा मोहल्ला सो गया है।” मुल्ला बोले, सारि-सारी रात इन्के कुत्ते भोंकते रहते हैं, मैं कभी कुछ नहीं बोलता। पर आज इन्हे मालूम होगा, भले ही मेरे पास कुत्ते नहीं हैं तो क्या हुआ, शास्त्रिय संगीतज्ञ तो है।” इसी तरह बदला लेने का स्वभाव सबमें है और इससे कोई भी बचा नहीं। कुछ लोगों ने बदला लेने के तरीके बदले हैं पर जीवन में कुछ नहीं बदला।

ज़रा एक दूसरे के घर की हालत भी तो देखिए

बीवी कहती है यह मनहूस आदमी जितनी देर घर से बाहर रहता है घर में चैन बना रहता है। इस मनहूस की शक्ल देखते ही गुस्सा आना शुरू हो जाता है। कभी वो दिन थे कि इसी शक्ल को देखने को आँखे तरसती रहती थीं। जो कभी कहती थी कि मैं आपके चरणों की दासी हूँ, आज उसी चरणों की दासी ने इस तरह ऐसी की तैसी फेर रखी है कि मियाँ के चरण काँपने लगते हैं। जिसे वह जान से प्यार करता था वही आज जी का जंजाल बन गयी है।

जो होता है वह दिखता नहीं। हमारी आँखें हमें धोखा देती हैं। आकाश नीला दिखता है। आकाश में जहाँ कुछ नहीं, वहाँ कौन नीला रंग पोत कर आया? वास्तव में वहाँ कुछ नहीं है। यह नीला रंग तो मात्र हमारी आँखों का धोखा है। जहाँ सुख की बू नहीं, वहाँ दूर से सुख का सागर लहराता हुआ दिखाई देता है। ऐसे ही सांसारिक सुख वह सिक्का है जिसे जब तक नहीं पाया तब तक उसमें सुख दिखता है, पाते ही वही सुख फिर दुख बन जाता है।

हमारे समाज से जब तक पाप की समस्या न सुलझे तब तक कुछ भी सुलझने वाला नहीं। हमारा ज्ञान, धर्म, धन हमें और ज़्यादा परेशानियों में उलझाए रखेगा। हमने अपने जल-जन्तु, जीवन, वायु, समाज और सामाजिक सम्बंध और पारिवारिक सम्बंध सब बिगाड़ लिए हैं। अब हम कितने ही धर्म बदल डालें, सरकार बदलें या पड़ोस और परिवार बदल डालें, इससे कुछ भी बदलने वाला नहीं। जब तक मन न बदले तब तक जीवन नहीं बदलेगा।

मौत के इन्तिज़ार में जी रही ज़िन्दगी

एक जवान की जीवन कथा इस तरह की है - जीवन कि कथा न कहकर अगर जीवन व्यथा कहें तो कहीं ज़्यादा ठीक होगा। उससे पूछा, “तुम क्यों जी रहे हो?” तो बोला, “आत्म्हत्या करने की हिम्मत नहीं है, मरने से डरता हूँ। लेकिन जीवित रहना मेरे लिए ज़रूरी नहीं, महज़ एक मजबूरी ज़रूर है। तकदीर के तीर ने ऐसा मारा है कि न ज़िन्दा रहा हूँ और न मुर्दा।”

जीवन का शाश्वत नियम है ‘मृत्यु’ और वह भी बड़ी अजीब चीज़ है। जो उसके इन्तिज़ार में बैठे हों उन्हे छोड़ जाती है और जो जाना नहीं चाहते उन्हें ले जाती है। कौन जाने कब किसकी बारी हो। कुछ तो मौत के पास से भी साफ बचकर निकल आते हैं; कुछ की सोच में भी मौत नहीं होती परन्तु मौत उन्हे दबोच ले जाती है। सच मानिए अब किसकी बारी है मालूम नहीं, पर किसी न किसी की बारी तो ज़रूर है। अगर आप अपने पाप के साथ मरे, तो खुद सोचिए मौत के बाद कहाँ होंगे?

‘बाऊल’ बंगाल की एक सूफी परम्परा है जिसमें वे ‘एक तारा’ बजाकर गीत गाते हैं और अपने में मस्त घूमते हैं। एक बाऊल एक जवान की लाश के सामने एक गीत में परमेश्वर से शिकायत करता है - “अजीब है, मुझे जाना चाहिए था, नहीं गया। जिन्हें नहीं जाना चाहिए था, वे चले गए। जो जाना नहीं चाहते हैं उन्हें ले लिया जाता है।”

जीवन के दिन गिने हुए हैं। एक एक करके हर एक दिन मरर्ता जाता है। कुछ अपने दिन पूरे कर चुके हैं और कुछ पूरा करने ही वाले हैं। कुछ आने वाले दिनों में अपने दिन पूरे कर लेंगे। हर एक मौत के मार्ग पर है। कोई धर्म, पैसा, ज्ञान और विज्ञान मौत से पार नहीं निकाल सकता। आप आने वाले कल से बिलकुल अन्जान हैं।

बेबसी से भरी आँखें

एक डाक्टर ने ८० साल के एक बुज़ुर्ग को सलह दी कि आपकी आँख के एक छोटे से ऑपरेशन से आपका अन्धापन दूर हो जाएगा। बुज़ुर्ग ने डाक्टर को जवाब देते हुए कहा, “३४ आँखें हैं जो रात-दिन मुझे संभालने में लगी रहती हैं। आठ बेटों की १६ आँखें, उनकी बहुओं की १६ आँखें और मेरि बीवी की २ आँखें। और फिर इस उम्र में ऑपरेशन कराने का क्या फायदा?” इस तरह वह डाक्टर की सलह को टाल गया। अभी ह्फता भी नहीं बीता था कि उसके घर में आग लग गई। सब तेज़ी के साथ बाहर भाग गये और यह बुज़ुर्ग अपने उपर के कमरे में फंसा रह गया। वह अपनी अंधी आँखों से दरवाज़ा टटोलता रहा पर बाहर निकलने का रस्ता न पा सका। धुंएं और आग ने उसे बुरी तरह घेर लिया। अब उसे डाक्टर की सलह याद आई, पर काफी देर हो चुकी थी। वे ३४ आँखें, जिनका वह दम भरता था, आँसुओं से भरी और बेबस रह गईं।

अगर हम ज़िद्द छोड़ दें तो पाप से छूटने में देर नहीं लगेगी। पाप मरता नहीं, मार देता है। वह हमारी हर खुशी और चैन को मार देता है। जब हम पाप के विरोध में बोलते हैं तो ध्यान रहे, हम किसी पापी के विरोध में नहीं, पर पाप के विरोध में बोल रहे हैं। हम किसी विशेष इन्सान या धर्म के विरोधी नहीं हैं। हम पाप के विरोध में हैं जो पापी का विनाश कर डालता है; और हम पापी का विनाश नहीं, बचाव देखना चाहते हैं।

अब अगर हम बात यीशु की करें, तो यीशु का नाम सुनते ही दिमाग़ दौड़कर कहता है अच्छा “इसाईयों का यीशु।” अरे वही इसाई जो दूसरों को इसाई बनाते फिरते हैं, विदेशियों का धर्म है और विदेशी पैसे से लोगों को भरमाते फिरते हैं - नौकरी मिल जाएगी, चँगाई हो जाएगी। ऐसे लालच लटकाकर इन्होंने दूआ की दुकाने खोल रखी हैं। कुछ लोग कहते हैं, इनके पास भीड़ की भीड़ आती है। कुछ ये भी कहते हैं कि सारी भीड़ पागल थोड़े ही है। सच मानिए, भीड़ ही पागलपन का व्यावहार करती है। यीशु ने कभी नहीं कहा कि तुम इसाई बन जाओ तो तुमको नौकरी मिल जाएगी और चँगाई मिल जाएगी। मैं दावा करता हूँ कि बाईबिल के सात लाख चोहत्तर हज़ार सात सौ छियालिस शब्दों में एक भी ऐसा शब्द नहीं जो ऐसा कहता हो।

सच्चाई तो यह है कि आपको धर्म परिवर्तन की कतई ज़रूरत नहीं। धर्म परिवर्तन करना और कराना वास्ताव में पाप है। प्रभु यीशु तो आपके मन परिवर्तन करने की बात करता है। वही मन जो परेशान, दुखी और बेचैन है। जो झूठ, जलन, लालच, व्यभिचार और गन्दे विचारों से भरा है। इन्ही से छुटकारा देने के लिए यीशु क्रूस पर मरा और तीसरे दिन जी उठा। उसका लहू हमें सब पापों से शुद्ध करता है। मात्र एक प्रार्थना दिल से करके देखें - “हे यीशु, मुझ पापी पर दया करके मेरे पाप क्षमा करें।”

सुनना तो सहज है पर सुनकर मानने में परेशानी लगती है कि लोग क्या कहेंगे? कितने ही लोग स्वार्थ की प्रार्थना तो करते हैं पर इतना साहस नहीं रखते कि अपने पाप से पश्चाताप की एक प्रर्थना कर लें। शर्म उन्हें रोकती है। कितने लोग अपने आप को समझा रहे होंगे कि प्रार्थना करने से कुछ नहीं होने वाला। पर इसमें ज़रा भी शक नहीं कि जिसने भी प्रभु यीशु के पास आने की हिम्मत जुटाई है, उसने उसे कभी नहीं निकाला (यूहन्ना ६:३७)। अब इस दोराहे पर कोई तीसरा रास्ता नहीं है।

मान लीजिए आपकी कोई भयानक सज़ा को राष्ट्रपति माफ करने के लिए तैयार हों और आप कहें कि मुझे किसी माफी-वाफी की ज़रूरत नहीं है। एक तरह से यह राष्ट्रपति का अपमान करना है। इसी तरह परमेश्वर आपके सारे पापों से माफी देने के लिए तैयार हओ और आप ऐसी क्षमा को ठुकरा कर चले जाएं तो आप परमेश्वर की आत्मा का अपमान करते हैं।

अगर हिम्मत और ईमान्दारी है तो अपना बही खाता देखकर अपने बारे में बताएं। आपके बही खाते में बहुत कुछ आपके नाम के विरोध में लिखा है जिसके बारे में सोचते हुए आपको खुद शर्म आएगी। हर बात का एक वक्त है। अब एक वक्त फिर आपके सामने है इस बात को अपानाने या ठुकराने के लिए। कुछ हैं जो सिर्फ मज़ा लेने के पढ़ रहे हैं। पर यह भी ज़रूर है कि कुछ गंभीरता से इन बातों को ले रहे हैं।

अब वक्त आ गया है कि आप अपने बारे में कोई फैसला लें या फिर उसे टाल दें। अगर न मानने की ज़िद्द पर अड़े हैं तो फिर कुछ कहने को बचता ही नहीं। यह पत्रिका आपके हाथों में परमेश्वर ने अपनी दया से पहुँचाई है। मैं आप से, हाँ प्यारे पाठक आप से पूछता हूँ कि आप अपने बारे में क्या सोचते हैं? अब आपके पास अपनी सारी परेशानी और निराशा से बाहर निकलने का वक्त आ गया है। यह शब्दों की कारीगरी नहीं, परमेश्वर की आवाज़ है। अब वह आप पर अपनी दया बरसाने के लिए तैयार है। बस आप एक बार कह कर तो देखिए, ‘हे यीशु, मुझ पापी पर दया करें।’




गुरुवार, 2 अप्रैल 2009

संपर्क दिसम्बर २००८: दिल की बात

एक बच्ची से पूछा, “ऎसा क्या है जो यीशु नहीं कर सकता?” बच्ची थोड़ी देर सोचती रही फिर वह अचानक चौंक कर बोली, “मेरा प्रभु पाप नहीं कर सकता।” जी हाँ, प्रभु पाप नहीं कर सकता और झूठ नहीं बोल सकता। उसने मुझ जैसे धोखेबाज़ को आज तक धोखा नहीं दिया। तभी तो आज उसकी दया से यह दीया मुझमें जल रहा है। इसलिए मैं उसके ‘शब्द’ पर सिर रखकर परेशानियों में भी शान से जीता हूँ और बेचैनियों में चैन से सोता हूँ। 

प्रभु ने कहा, “मैं हूँ।” बड़ा अजीब सा नाम है। जब मैं जीवन से निराश होता हूँ और कहीं दूर तक भी मेरे पास कोई आस नहीं होती तब यह आवाज़ “मैं हूँ” बड़ा हियाव देती है। जब कभी मैं पाप में गिर जाता हूँ और उठ नहीं पाता, तब यह आवाज़ कहती है “मैं हूँ।” जब लगता है कि सबने छोड़ दिया तब यह आवाज़ कहती है “मैं हूँ।” कई बार जब मैं सोचता हूँ कि मेरा क्या होगा और मेरे परिवार का क्या होगा तब यह आवाज़ कहती है “मत डर केवल विश्वास रख, मैं हूँ।” पूरे सम्मान के साथ प्रभु का एहसान मानना ही स्तुती है। दिल से निकली हुई आराधना ही परमेश्वर के दिल तक पहुँचती है। ऎसा आदर ही आराधना का आधार है। 

बाज़ारू शब्दॊं के तकियॊं क चलन बहुत है मगर उनमें अर्थ नहीं है। बाज़ारू शब्दॊं के तकियॊं में भूसा भरा होता है। पर वचन के तकिये में सच्चाई, प्यार, दया और क्षमा होती है। वह इतना मुलायम है कि उस पर सिर रखते ही लगता है कि जैसे बाप के कन्धे पर सिर टिका दिया हो। थके आदमी को वचन के मुलायम शब्दॊं का तकिया दे दीजिए ताकि वह साँस ले सके और जी हलका कर सके। तब वह सही सोचना शुरू करेगा।  

जिस घर में आप बैठे हैं उस घर की हर ईंट को जो़ड़ने में बहुत से बेघर म़ज़दूरॊं ने तपती धूप में बहुत पसीना बहाया है ताकि आप तपती धूप से बचे रहें। शायद हमने कभी सोचा भी नहीं और एहसास भी नहीं किया। परमेश्वर का घर उसने अपने पुत्र प्रभु यीशु के लहू की कीमत पर बनाया है। उस लहू के द्वारा जो पसीने की तरह बहा था। 

हम अच्छे हैं क्योंकि हम उसके बच्चे हैं, इसलिए नहीं कि हमारे कर्म अच्छे हैं। पर प्रभु मुझ जैसे आदमी को क्यॊं प्यार करता है? इस बात को यूँ समझिए - आप अपने छोटे बच्चॊं को क्यॊं प्यार करते हैं? उन्हॊंने आप के लिए क्या किया और क्या दिया - परेशानी, चिंताएं और नुक्सान? फिर भी आप उन्हें प्यार करते हैं। दुनिया में और भी बच्चे हैं जो आपके बच्चॊं से कहीं अच्छे हैं, बहुत सुँदर, और बहुत समझदार हैं; पर आप अपने ही बच्चॊं से प्यार करते हैं, क्यॊं? सिर्फ इसलिए क्यॊंकि वे आपके बच्चे हैं। हम भले ही उतने अच्छे न हॊं जितना हमॆं होना चाहिए, पर हम उसके बच्चे हैं। 

अपनी बात बंद करने के साथ एक और बात आपके पास छोड़ जाता हूँ - 
 
जब अब्राहम के पास कोई सन्तान नहीं थी, तब उसने अपने भाई के बेटे लूत को अपने बेटे की तरह पाला। लूत का पिता इस सँसार को छोड़ कर जा चुका था। अब्राहम ने लूत को पाला-पोसा और उसको सब कुछ दिया। समय के साथ लूत के पास परिवार, पत्नी, पैसा और सम्पत्ती सब था। लूत को एहसास होने लगा था कि अब अब्रहम के साथ रहना परेशानी के साथ रहना है। अब्राहम ने सोचा होगा कि अगर रहना है तो प्यार से रहना है, मजबूरी से नहीं। इसलिए उसने लूत से कहा, “तू जो जगह चाहे, चुन ले।” रेगिस्तान में अगर हज़ारॊं जानवरॊं के साथ जीना है तो उसे हरियाली को ही चुनना था (उत्पत्ति १२)। सो लूत ने बूढ़े अब्राहम के लिए सूखा रेगिस्तान छोड़ दिया और अपने लिए हरियाली को चुन लिया। कुछ सालॊं बाद लूत का सब कुछ लुट गया (उत्पत्ति १४:११, १२)। बूढ़ा अब्राहम फिर अपने सैनिकॊं के साथ दौड़ा और अपनी जान जोखिम में डालकर लूत के परिवार और सम्पत्ति को छुड़ा लाया (उत्पत्ति १४:१४, १६)। लेकिन लूत फिर से उसी सदॊम में जा बसा। वह अब्राहम को छोड़ सकता था पर सदॊम को नहीं। अब सदॊम का समय भी समाप्ति पर आ गया था। अब्राहम फिर परेशान हुआ कि कहीं सदॊम के साथ लूत नाश न हो जाए। वह परमेश्वर से उसके लिए लगतार प्रार्थना करता रहा कि वह नाश न हॊ पर किसी तरह बच जाए। लेकिन लूत इन सालों में कभी बूढ़े अब्राहम को देखने तक नहीं आया। अब्राहम लूत से क्यों प्यार करता था? क्या लूत बहुत अच्छा था? जी नहीं, सिर्फ इसलिए कि वह अब्राहम का अपना था। “... प्रभु अपनों को पहचानता है... ” (२ तिमुथियुस २:१९)। 

अगर आपने प्रभु को अपनाया है तो उसने आप ही कहा है, हाँ आपसे ही कहा है, “... मैं तुम्हें कभी नहीं छोड़ूँगा और ना कभी त्यागूँगा” (इब्रानियों १३:५)|

संपर्क दिसम्बर-२००८: सम्पादकीय

यह अंक आपके हाथ में सिर्फ  इसलिए है क्योंकि बहुत सारे हाथ प्रार्थना में लगे रहे। मैं उन सब के लिए अपने दिल  से परमेश्वर का धन्यवाद करता हूँ। मैं कभी भी इस अंक को आपके पास नहीं ला पाता। सच  मानिएगा यह बहुत से भाई-बहनॊं के  सहयोग से सम्भव हो पाया है।

एक आदमी एक तैराक के साथ  नदी पर तैरना सीखने के लिए गया। नदी के किनारे पत्थरॊं पर काफी काई जमी थी। उसका उस्ताद  अभी कपड़े उतार ही रहा था कि मियाँ का पाँव किनारे पर फिसला और ज़ोर से गिरे। तभी उस्ताद  ने देखा कि मियाँ तो तेज़ी से वापस लौट रहे हैं। उस्ताद चिल्लाया, मियाँ कहाँ चले? मियाँ बोले, उस्ताद जी मामला बड़ा ख़तरनाक है, अभी तो पैर बाहर  ही फिसला है, अगर कहीं नदी में उतरते ही फिसल जाता तो क्या होता? पहले मैं तैरना सीखूँगा तभी पानी में उतरूँगा। क्या यह तर्क सही  है? पर बिना पानी में उतरे क्या कोई तैरना सीख सकता है? ऐसा ही एक डर है जो हमें आगे नहीं बढ़ने देता।

जब-जब हम हार का सामना करते हैं, तब-तब अक्सर हम हिम्मत भी हारना शुरू कर देते हैं। पर  हार भी एक अच्छा अनुभव बन सकती है। अगर हम हार के कारणॊं से सीख लेते हैं तो वही हार  हमारे लिए कई जीतों के द्वार खोल देती है (रोमियों ८:२८)। हार हमें सिखा देती है कि हम अपने उपर विश्वास रखना  छोड़ दें। तब हम विश्वासयोग्य परेमेश्वर पर ही विश्वास रखकर चलने लगते हैं। शायद आपकी  परेशानियॊं ने, आपके स्वाभाव या आपके परिवार ने आप को हरा डाला  होगा। डरिएगा नहीं! आप हारे हैं, आपका परमेश्वर  नहीं हारा। आपका परेमेश्वर आपकी परेशानियों से बहुत सामर्थी है।

परमेश्वर के वचन की हर कहानी कुछ कहती है। वह मुझसे और आपसे और हर एक हारे हुए  इन्सान से कहती है देख! एक बड़ी जीत तेरा इन्तज़ार कर रही है। मरकुस ५:२२-४२ में दो हारे हुऒं की कहानी है। याइर नामक एक आराधनालय के सरदार के घर में १२ साल पहले एकलौती खुशी ने जन्म लिया  था। यही लड़की आज मरने के करीब थी। यह व्यक्ति प्रभु के पास आया। प्रभु फौरन उसके घर  की ओर चला। तभी एक और औरत जिसके जिस्म में १२ साल पहले बीमारी के रूप में एक दुख ने  जन्म लिया था वहाँ आई। अब वह शरीर से और पैसे से पूरी तरह हार चुकी थी। पर उसने मन  में यह माना था कि अगर मैं प्रभु यीशु के आँचल को छू लूँगी तो चँगी हो जाऊँगी। उसके  पास एक विश्वास था और सामने एक मौका भी। पर उसके सामने एक बड़ी भी़ड़ थी जो एक दूसरे  पर गिरी पड़ती थी। प्रभु के पास पहुँचना उसकी पहुँच से बाहर था। अजीब बात यह हुई कि  १२ साल से बिमार यह स्त्री एसी भीढ़ को पार कर प्रभु के पास पहुँच गई। यह असम्भव बात  सम्भव कैसे हुई? प्रभु ने कहा था, कोई मेरे पास नहीं आ सकता, जब तक पिता उसे खींच ना ले” (यूहन्ना ६:४४)। प्रभु की शक्ति ही उसे प्रभु के पास खींच लाई। प्रभु के एक स्पर्श ने ही  उस स्त्री की निराशा को आशा में और उसकी हार को जीत में बदल डाला।

चँगाई पाकर यह स्त्री उस भीड़ में चुपचाप छिप जाना चाहती थी। पर वह प्रभु के सामने  छिप न सकी। उसको बड़ी भीड़ के सामने एक छोटी गवाही देनी ही पड़ी। पर यह देर उस बाप के  लिए जिसकी इकलौती बेटी अपनी आखरी साँसे ले रही थी, एहसास  दे रही थी कि यह देरी कहीं हमेशा की दूरी न पैदा कर डाले। परन्तु उस स्त्री की गवाही  इस डरे हुए बाप के लिए ज़रूरी थी। इतने में बेटी की मौत खबर ने उसकी आखरी उम्मीद को  भी मसल डाला। परन्तु प्रभु ने पूरी तरह हारे हुए इस व्यक्ति से कहा, मत डर, केवल विश्वास रख । मौत ने जिसे हरा दिया, उस मौत को प्रभु ने हरा दिया। ज़रा सोचिएगा! अब कौन सी हार है जो आपको हरा पाएगी

हारे हुए मूसा ने मौत मांगी, निराश एल्लियाह ने मौत मांगी और सब कुछ लुटे हुए अय्यूब ने मौत मांगी। अपने स्वभाव से हारा हुआ पौलूस भी चिल्लाया, मैं कैसा अभागा मनुष्य हुँ, कौन मुझे... छुड़ाएगा” (रोमियों७:२४)। प्यारे प्रभु ने उनकी  हार को ही नहीं, पर उन्हे ही बदल डाला।

सच मानिए, मैंने खुद भी सालॊं एक शर्मनाक हारा हुआ जीवन  जीया है; जहां मुझे आत्महत्या के अलावा कोई दूसरा रास्ता सूझता  नहीं था। यह वही हारे हुए हाथ हैं जो आज विजय का सन्देश आपके लिए लिख रहे हैं। इसे  कहते हैं क्रूस पर बहे हुए लहू की सामर्थ। 

यह अंक आपको कैसा लगा हमें ज़रूर लिखिएगा। आपके पत्र हमें  हियाव और आपके सुझाव हमें सुधार देते हैं।

प्रभु में आपका

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रविवार, 29 मार्च 2009

सम्पर्क अप्रेल २००८: बहुत भटकने के बाद

बहुत भटकने के बाद  

(यह लेख, आई० आई० टी० - रूड़की में सीनियर रिसर्च स्कालर, एम० जी० पुथूरन, की गवाही, अर्थात उनके व्यक्तिगत अनुभव की अभिव्यक्ति, है।)  

“...क्योंकि तुमने मुझे देखा, इसलिए विश्वास किया। परन्तु धन्य हैं वे जिन्होंने बिन देखे विश्वास किया।” - यहून्ना २०:२९ 

मैं बहुत भटकने के बाद प्रभु के पास आया, जिससे मैं शर्मिन्दा हूँ। क्योंकि मेरा कठोर हृदय प्रभु पर विश्वास नहीं करता था। ऊपर लिखा हुआ वचन केवल प्रेरित थोमा के लिये ही नहीं था जिसने विश्वास करने के लिये ठोस सबूत मांगा बल्कि यह बात मेरे लिये भी सच है।  

मेरा नाम एम० जी० पूथरन है और मेरा जन्म केरला के एक पुराने रीति-रिवाज़ों को मानने वाले इसाई परिवार में हुआ। हमारे वंशजॊं ने २००० हज़ार साल पहले ही, उसी प्रेरित थोमा के द्वारा प्रभु यीशु मसीह को ग्रहण कर लिया था। जब थोमा, जो प्रभु यीशु मसीह का विशेष शिष्य था, भारत आया, तब मेरे पूर्वजों ने प्रेरित थोमा के द्वारा प्रभु यीशु मसीह के सुसमाचार को सुना।  

बहुत छोटी उम्र से ही मैं एक अलगाव का जीवन जीता था। क्योंकि मेरी माँ मुझे सिखाती थी कि ‘बुरी संगति में नहीं पड़ना’ तथा ‘बुरे लोगों के से काम नहीं करना’। मेरे माता-पिता मुझसे और मेरी बहन से बहुत ही प्यार करते थे और हमारी बहुत चिंता करते थे। इसलिए मेरे लिए भी यह मुश्किल था कि मैं उनकी बात ना मानूँ। मैं इस बात का भी यत्न करता था कि मेरे किसी बुरे काम के द्वारा उनका अनादर ना हो। मुझे यह भी डर रहता था कि अगर मेरे माता-पिता को मेरे बुरे कामों के बारे में पता चल गया तो मैं उनका सामना कैसे करूँगा? मैं जानता था कि वे मुझे बुरी तरह दण्ड तो नहीं देंगे, परन्तु मेरा संबन्ध उनसे टूट जाएगा। 

मेरे माता-पिता बहुत धार्मिक तो नहीं थे, परन्तु वे कोई भी भला काम करने से पहले और मुशकिलों में भी प्रार्थना करते थे। मैं यह भी विश्वास करता था कि कोई अदृश्य शक्ति है जिसका नाम परमेश्वर है, जो सब कुछ देखता है और जो सब कुछ करने की सामर्थ रखता है। 

मैं अपने माँ-बाप, अध्यापकों, रिश्तेदारों, पड़ोसियों और दोस्तों की राय में एक अच्छा लड़का था। मेरे दोस्त मुझ पर भरोसा करते थे कि मैं हमेशा सच बोलता हूँ, और यदि किसी बात के बारे में सच जानना होता था तो वे केवल मुझसे ही पूछते थे। मैं अपनी दृष्टि में भला था और अपने दोस्तॊं से अपने आपको बेह्तर समझता था। मैं काफी ढीट था और यदि मैं कोई निर्णय लेता तो यह चाह्ता था कि मेरे माता-पिता भी उससे सहमत हों। 

जैसे-जैसे समय बीतता गया मुझे विज्ञान में बहुत रुचि होने लगी। मैं समझता था कि परमेश्वर ने मुझे इस क्षेत्र में ज्ञान दिया है और यह उसका वरदान है मेरा नहीं। मैं सोचता था कि विज्ञान सारी मानव जाति को और हमारे देश को उनके सारे दुखों से छुड़ाकर समृद्धि और खुशी दे सकता है। मैं इस विशाल सृष्टि के भेदों और मानवीय दिमाग़ के भेदों को जानने के लिए भी रुचि रखता था। मैं ने तो यहां तक सोचा था कि मैं विज्ञान के द्वारा परमेश्वर को भी खोज लूँगा। इस तरह मेरा उद्देश्य था कि मैं सत्य को खोजूँ और आईन्स्टीन की तरह एक बड़ा वैज्ञानिक बनूँ।  

१२वीं कक्षा के बाद मेरा दख़िला इंजिनियरिंग में हो गया और वहां छात्रों के लिये ये रिवाज़ होता था कि वे गन्दे शब्दों का इस्तेमाल करें, गन्दे काम करें, सिगरेट और शराब पीयें। सीनियर छात्र जूनियर छात्रों को निर्देश देते थे कि एक अच्छा इंजीनियर बनने के लिए ये सब करना बहुत ज़रूरी होता है। जबकि मैं इन चीज़ों से अलग रहता और अपने दोस्तों की दृष्टि में और अपनी दृष्टि में भला दिखता था। फिर भी चार सालों में मेरा मन बुरा हो चुका था। मैंने पाया कि मेरे हृदय के विचार बुरे और स्वार्थी हैं। मैं ने अपने अंदर यहाँ तक पाया कि भला बनने की जो मेरे अंदर अभिलाषा है वह भी अन्ततः मेरे अपने लिए ही है। 

फिर मुझे एह्सास हुआ कि कोई ज़्यादा फर्क नहीं मुझ जैसे एक ‘भले आदमी’ में और एक ‘बुरे आदमी’ में। अगर मैं इस को इस तरह कहूँ, तो यह एक सड़े हुए अन्डे की तरह है जो अन्दर से पूरी तरह गंदगी से भरा हुआ है परन्तु बाहर से बिल्कुल साफ और सफ़ेद है। परन्तु जहां तक एक ‘बुरे व्यक्ती’ का सवाल है वह उस सड़े हुए अन्डे की तरह है जिसका छिल्का टूटा हुआ है और जिसकी बदबू बाहर आकर दूसरों को परेशान करती है। लेकिन दूसरी तरफ़ जहां तक एक ‘अच्छे व्यक्ती’ का सवाल है, वह भी उसी सड़े हुए अन्डे की तरह ही है, बस उसमें फर्क इतना है कि उसके उपर का छिल्का अभी तक टूटा नहीं है पर उसकी सड़ाह्ट और बदबू उसके अन्दर लगातार बनी हुई है। यहाँ दोनों ही व्यक्तियों की मूलभूत स्थिती एक जैसी ही है और आखिर में दोनों ही कूड़ेदान में पाए जाएंगे। 

जब मैं आठवीं कक्षा में था तो उस दौरान मैंने कई बार बाईबिल के नए नियम को भी पढ़ा था। परन्तु उसमें मुझे बहुत कुछ समझ में नहीं आता था। मेरे अन्दर बहुत से सवाल और उलझने थीं कि क्या परमेश्वर वास्तव में व्यक्ति है या फिर वह कोई हमारी दिमाग़ी कल्पना है? परमेश्वर ने मनुष्य को इस तरह से क्यों बनाया? परन्तु उस नए नियम को पढ़ने के बाद मुझे एक बात का एह्सास हो गया था कि इस सांसारिक दुनिया से परे भी कोई है जिसको मैं अभी देख नहीं पा रहा हूँ। और जो कुछ मुझे सँसार में दिखाई देता है वह वास्तव में वह ही सब कुछ नहीं है। इस तरह विज्ञान की महिमा मेरी आँखों में घटती चली गयी। जिसके परिणाम स्वरूप मैं आत्मिक बातों तथा दार्शनिकता में बहुत रुची लेने लगा जिसमें उद्धार के मार्गों और मरने के बाद क्या होगा बताया गया था।  

जब मैं एक इंजीनियर के रूप में काम कर रहा था, तो मेरा एक सहयोगी मेरे कमरे में आता था और वह मेरे साथ परमेश्वर के वचन की बातें बांटता था। यह मेरे लिए लाभदायक था और मैं उसके ज्ञान से बहुत प्रभावित हुआ। परन्तु मुझे एह्सास हुआ कि वह जो कुछ बोलता था वह सब सच नहीं था। तो मैंने शुरु से आख़िर तक बड़े ध्यान से बाईबिल अध्ययन करने का निर्णय किया। मैं बहुत सी बातों से कायल हुआ, परन्तु विशेषकर दो बातें मेरे मन में बैठ गयीं - (१) क्योंकि पुराने नियम में परमेश्वर के लोग कोई भी निर्णय लेने से पहले परमेश्वर से पूछ्ते थे, तो मुझे भी कोई भी काम करने से पहले परमेश्वर की इच्छा को जानना चाहिए। (२) मैं अपने भले कामों के द्वारा से जो मैंने इस जीवन में किए हैं परमेश्वर के सामने खड़ा नहीं हो सकता।  

तब मुझे एह्सास हुआ कि मुझे एक निर्णय लेना है और मैं अपनी बहुत सारी योजनाओं के सहारे बहुत देर तक नहीं चल पाउँगा। जब मैंने इन बातों को प्रभु के सामने मान लिया तो मैंने यीशु मसीह को पूरे मानव इतहास में बिल्कुल अलग पाया। जो मेरे लिए मरा और जिस पर मैं भरोसा रख सकता हूँ और पूरे हियाव के साथ जिसको मैं अपने आप को सौंप सकता हूँ। परन्तु एक पद मुझे प्रभु के पास आने से रोकता था, “जो कोई अपना क्रूस उठाकर मेरे पीछे न हो ले, वह मेरा चेला नहीं।” इसी के साथ प्रभु यीशु ने नए नियम में एक व्यक्ति का उदाहरण दिया जिसने एक गुम्मट बनाना शुरू किया था और जिसको वह ख़त्म नहीं कर सका। क्योंकि मैं प्रभु यीशु पर विश्वास करता था और उसके महान प्रेम से आकर्षित था इसलिए सन् २००२ में, एक दिन घुटनॊं पर आकर मैंने अपने जीवन को प्रभु के हाथों में सौंप दिया। मैं जैसा भी अयोग्य था वैसा ही प्रभु के पास आ गया। अब मेरी सारी उलझने चली गयीं और मुझे एक बड़ी सन्तुष्टि मिली कि मेरी सत्य की खोज पूरी हुई और मेरे जीवन का अर्थ जो स्वयं प्रभु यीशु है, मैं ने पा लिया है। अब प्रभु यीशु ही मेरे लिये हर एक बात का उत्तर है। इसके बाद मैं प्रभु की इच्छा में निर्णय लेने की कोशिश करने लगा और प्रभु मेरी अगुवाई करता और अपने वचनों से मुझे सांत्वना देता और मुश्किल समयों में उसकी उपस्थिती मेरे साथ-साथ रहती थी। अब मैं जान गया कि प्रभु यीशु ही एक सच्चा परमेश्वर है। 

प्रभु के अनुग्रह से मुझे केन्द्रिय सरकार अनुसंधान संस्थान (सी०-डाक०) में अस्थाई रूप से एक रिसर्च का काम मिल गया। जब मैं वहाँ पर काम कर रहा था, तो मेरे एक साथी ने मुझे मजबूर किया कि मैं एम० टैक० (गेट) की परिक्षा दूँ - क्योंकि मेरी नौकरी पककी नहीं थी और मैं ऊँची पढ़ाई के बारे में भी सोचता था। उस समय मैं सरकारी काम से एक दौरे पर था तो इसलिए मैं उस परिक्षा के लिए बहुत तैयारी नहीं कर सका। परिक्षा से पहली रात मैं बहुत ही दुखी हृदय से अपने भविष्य और परिक्षा के बारे में सोच रहा था। इसलिए मैं हिम्मत पाने के लिए प्रभु के पास आया और परिक्षा के परिणाम को प्रभु के हाथ में सौंप दिया कि चाहे अच्छा हो या बुरा जो भी हो, मैं उसे स्वीकार कर लूँगा। तब एक अजीब सी शान्ति मेरे हृदय में भर गयी और मैं परिक्षा की अपनी तैयारी बन्द करके बिना किसी भविष्य की चिन्ता किए शान्ति से सो गया।  

अगले दिन सुबह मैंने बड़ी शान्ति से उस पेपर को लिखा। लेकिन फिर भी सोचा कि मुझे अच्छे अंक तो मिलंगे नहीं, क्योंकि मैंने इसके लिए बहुत ही कम तैयारी की थी और यह परिक्षा भी मैंने बी० टैक० करने के ४ साल बाद लिखी थी। परन्तु जब परिणाम आया, जो मैं इन्टरनैट पर देख रहा था, तो मैं अचम्भित रह गया और दस मिनिट तक अपनी आँखों पर विश्वास नहीं कर सका। पुरे भारत में मेरी रैंक ३६ थी। प्रभु ने उस रात के रोने को सुन लिया था। उसके बाद मुझे आई० आई० टी० रूड़की से बुलावा आया। मैं कभी भी उत्तर भारत में नहीं जाना चाह्ता था परन्तु प्रभु ने मुझे अपने वचन के कुछ पदों के द्वारा अगुवाई की।  

इसके बाद मैं रूड़की आ गया। अन्जान जगह थी, ना कोई दोस्त था न कोई रिश्तेदार। लेकिन क्योंकि मैं प्रभु की आवाज़ सुनकर आया था तो प्रभु ने मुझे अकेला नहीं छोड़ा और अपने लोगों की संगति भी दी। उनके उस दृढ़ निर्णय के द्वारा, जो उन्होंने प्रभु यीशु के लिये लिया था, मैं बहुत ही प्रोत्साहित हुआ, और उनके द्वारा परमेश्वर के वचन में से दिये हुए संदेशों से मैं आशीशित भी हुआ और प्रभु में म़ज़बूत भी हुआ। उनकी मेरे लिये चिन्ता और प्रेम ने मुझे उनके बीच में अपने घर का सा एह्सास दिया है।  

प्रभु ने मेरे जीवन में कई अद्भुत काम किए हैं जिनको मैं कई बार भूल गया, लेकिन मैं प्रभु यीशु का धन्यवाद देता हुँ कि इन सारे पिछ्ले सालॊं में वह फिर भी मेरा प्रभु रहा है। मेरी यह इच्छा है कि जब कभी मेरी प्रार्थनाऒं का उत्तर न भी मिले तब भी मैं मुश्किलों में प्रभु पर भरोसा करता रहूँ। मैं आपको उभारता हूँ कि आप उसके करीब आएं और उसके महान प्रेम पर भरोसा करें और उसकी इच्छा के आधीन आ जाएं। इस प्रकार वह आपका व्यकतिगत उधारकर्ता बन जाएगा और आपको पापॊं की क्षमा प्राप्त होगी तथा आप उसके साथ अनन्त जीवन बिताएंगे। चाहे आप किसी भी देश, धर्म, वर्ग और किसी भी संस्कृति के हों, परमेश्वर की दृष्टि में एक समान हैं और परमेश्वर किसी का पक्षपात नहीं करता। प्रभु आपको अपने प्रेम के असीम खज़ाने से आशीश दे।

शनिवार, 14 मार्च 2009

बिन शब्दों का संदेश!!

“न तो कोई शब्द है और न कोई भाषा” (भजन १९:३)
फिर है क्या? बिन शब्दों का संदेश!!
“हे आलसी चीटियों के पास जा” ( नीतिवचन ६:६)


चीटियों के जीवन की कहनी में एक सिरे से प्रवेश करके पहाड़ सी सच्चाई को खोजेंगे... चीटियाँ शब्दों से तो प्रचार नहीं करतीं क्योंकि शब्द तो उनके पास हैं ही नहीं। पर एक जीवन है जो प्रचार करता है। हाँ उनके जीवन की जड़ें कुछ सच्चाईयों से जुड़ी हैं।

चीटियों के पास काम तो बड़ा है पर समस्याएं भी कुछ कम नहीं। शरीर और सामर्थ भी बहुत छोटी है। पर अपनी हिम्मत और एकमनता के बल पर यह छोटा सा जीव बड़े काम कर जाता है। वे इस तरह जुड़कर जीती हैं कि उनका जीवन एक उदाहरण बन जाता है। हार तो वे मानती ही नहीं। लक्ष्य पर नज़र रखती हैं और इस तरह मुसीबत को पार कर जाती हैं।

गार्मियों में ही सर्दियों की तैयारी कर लेती हैं। इस बात का उन्हें हमेशा ध्यान रहता है कि... “वे दिन आने वाले हैं कि जिसमें कोई काम नहीं कर पाएगा” (यूहन्ना ९:४)। इसी बात को सामने रखकर वे जीती हैं। मुश्किलों के दिनों में वे मुश्किलों से भागती नहीं पर उनका पूरा सामना करतीं हैं। मामूली काम को भी पूरे मन और यत्न से करती हैं। अच्छे से अच्छे परिणाम देने के लिए जी जान लगा देती हैं। वे अपनी ताकत को व्यर्थ में खर्च नहीं करतीं। वह मैदान छोड़कर भागने वाला जीव नहीं है। इसीलिए विजय हमेशा उनका स्वागत करती है और परमेश्वर का वचन उनकॊ आदर देता है।

यह जीव तो छोटा सा है और उसके पास जीवन भी बहुत छोटा है। जीवन का महत्व इस बात से नहीं है कि जीवन बड़ा है या छोटा। पर महत्व तो इस बात का होता है कि हमने कैसा जीवन जिया?

इस समुदाय का हर अंग अपना काम पूरा करता है। वे व्यक्तिगत स्वार्थ से नहीं जुड़ी रहतीं। अगर वे आपस में एकमनता से जुड़ी ना हों तो अलग-अलग होकर कुछ भी नहीं कर सकतीं। जो विश्वासी अपने व्यक्तिगत स्वार्थ से ही जुड़ा रहता है और सिर्फ अपने ही बारे में सोचता है और अपने ही लिए जीता है, वह एक ओछा विश्वासी है। चाहे उसके पास सँसार कि हर खुशी भी हो तो भी वह कभी खुश नहीं रह पाएगा।

वे जन्दगी को इस तरह जीती हैं कि जीतना ही है। वे हर दिन जीत के लिए जीती हैं और हर हार को जीत में बदल देतीं हैं। इसलिए जन्दगी को ऐसे ही नहीं जीना है... जो जय पाए वो ही जीवन का मुकुट पाएगा।

चीटियाँ आपस में बेहतर सम्बंध बनाए रखतीं हैं। विनम्रता उनकी कमज़ोरी नहीं है। इसी विनम्रता ही से वे समूह में काम कर पाती हैं। विनम्रता, संगति और अनुशासन उनके विकास का मूल मंत्र है। अकाल के दिनों में भरपूरी के साथ विजय के जीवन को जी लेतीं हैं। सच तो यह है कि सृष्टि में इनकी कोई औकात नहीं फिर भी औकात वालों को सही समझ देने के लिए बहुत बड़ी सौगात हैं। ऐसी ही संगति की सौगात प्रभु ने हमें भी दी है।

क्या इस कहानी ने आपके अन्दर झांका है?... कोई विश्वासी इतना अंधा तो नहीं कि वह अपने अन्दर ना झांक सके और इतना कमज़ोर भी नहीं कि अपनी कमज़ोरी के लिए प्रभु से सामर्थ न मांग सके।


इस बात के बाद आप क्या करेंगे?... इस छोटे जीव ने कुछ बड़े सवाल आपके जीवन पर ला खड़े किये हैं। अब इन बातों पर आप सोचेंगे या उन्हें ऐसे ही छोड़ देंगे?... यह बात हम आप पर ही छोड़ देते हैं।