सूचना: ई-मेल के द्वारा ब्लोग्स के लेख प्राप्त करने की सुविधा ब्लोगर द्वारा जुलाई महीने से समाप्त कर दी जाएगी. इसलिए यदि आप ने इस ब्लॉग के लेखों को स्वचालित रीति से ई-मेल द्वारा प्राप्त करने की सुविधा में अपना ई-मेल पता डाला हुआ है, तो आप इन लेखों अब सीधे इस वेब-साईट के द्वारा ही देखने और पढ़ने पाएँगे.

रविवार, 5 अप्रैल 2009

संपर्क दिसम्बर २००८: आदमी भी क्या है


एक बाज़ीगर बाबा रेल से बिना टिकिट यात्रा कर रहा थे। टिकिट कलैक्टर ने उनसे टिकिट माँगा। बाबा बोले, “बाबा लोग कहाँ टिकिट लेते हैं?” टिकिट कलैक्टर बोला, “यह तेरे बाप की गाड़ी नहीं है, नीचे उतर।” बात बिगड़ गई। बाबा को अगले स्टेशन पर उतार दिया गया। बड़ा शोर-शराबा मचा और भीड़ इकट्ठी हो गयी। बाज़ीगर बाबा बोले, “देखता हूँ यह गाड़ी कैसे चलती है?” थोड़ी देर में गार्ड ने सीटी बजाई और हरी झंडी दिखाई। ड्राईवर ने गाड़ी चलानी शुरू की - गाड़ी थी कि आगे खिसकने का नाम ही ना ले। ड्राईवर की सारी कोशिशों के बावजूद भी गाड़ी हिल नहीं पाई। अब धीरे-धीरे लोगों में घबराहट बढ़ने लगी और सवारियॊं में गुस्सा भड़कने लगा। स्टेशन मास्टर परेशान होकर टिकिट कलैक्टर से कहने लगा, “क्यों पचड़ंगा खड़ा कर लिया। इससे पहिले कि लोग तोड़-फोड़ माचाएं, बाबा से माफी माँग लो।” टिकिट कलैक्टर अड़ा रहा और बात बढ़ती गई। आखिर मजबूरी में उसने माफी मांग ही ली। पर तब तक बाबा के तेवर बहुत बढ़ चुके थे। बाबा बोला, “फूल लाओ, मिष्ठान लाओ और पैरों में प़ड़कर माफी माँगो।” खैर मामला निपट गया। बाबा ने बड़े नाटकीय ढंग से आदेश दिया और गाड़ी चल पड़ी। गाड़ी क्या चली, बाबा का धंधा चल पड़ा। ख़बर फैलती गयी और बाबा की किस्मत फलती गयी।

बाबा की मौत के समय उनके एक पुराने ख़ास करीबी चेले ने उनसे पूछा, “रेल का चक्का जाम करके आपने अपना सिक्का कैसे जमाया?” बाबा बोले, “बेटा मरते वक्त क्या झूट बोलूँ। मैंने रेल के ड्राईवर को बड़ी मोटी रिशवत दे रखी थी!”

ऐसे ही कई धोखेबाज़ लोगों ने आम लोगों की आस्था के साथ खिलवाड़ किया है। इसीलिए कई लोगों को तो परमेश्वर के अस्तितव पर विश्वास ही नहीं रहा। ऐसे लोगों से अगर परमेश्वर के बारे में बात करो तो वे कैसे बात करते हैं - “अपने परमेश्वर को अपने पास रखो। परमेश्वर कहाँ है? किसने देखा है? क्या सबूत है? तुम लोगों को स्वर्ग का लालच और नर्क का डर दिखाकर डराते फिरते हो कि न्याय आएगा, नर्क जाओगे। यह पट्टी डरपोकों को ही पढ़ाना। देखो ध्यान रहे, दुबारा मूँह मत लगना, नहीं तो तुमको भी तुमहारे परमेश्वर के पास पहुँचा दूँगा।” वे ऐसा इसलिए कहते हैं क्योंकि उन्हे यह विश्वास हो गया है कि परमेश्वर है ही नहीं।

कुछ लोग इससे हलके मिजाज़ के होते हैं। वे अक्सर यह कहते हैं “परमेश्वर की क्या ज़रूरत है? जब उसके बिना कम चल रहा है तो क्यों ज़बरदस्ती परमेश्वर को गले लपेटना?” वे भी पर्मेश्वर की सत्यता को स्वीकार नहीं करना चाहते। या ऐसे भी कुछ लोग हैं जो किसी रस्म के तौर पर या स्वार्थ से, दिखावे या डर के कारण या उनके साथ कुछ बुरा ना हो इस कारण परमेश्वर को मानते हैं। पर कुछ लोग होते हैं जो सच्चे दिल और ईमानदारी से परमेश्वर को खोजते हैं। तरिका सही या ग़लत हो सकता है, पर वे दिल से परमेश्वर का आदर करते हैं, मतलब या दिखावे से कतई नहीं।

बहुत ही साधारण समझ की ज़रूरत है। क्या बिना बनाए कुछ बनता है? “ इसलिए जिसने सब कुछ बनाया वह परमेश्वर है।”

मर्दानगी रफूचककर हो जाती है

ज़िन्दगी के सफर में हमें रास्तों की ज़रूरत होती है। इस बात को इस तरह समझिएगा - आदमी शरीर से तो बुरे हालातों का सामना नहीं कर पाता। जंगली जानवरों का भी वह सीधा सामना नहीं कर सकता। और शेर, उसको तो देखकर ही उसकी सारी मर्दानगी रफूचककर हो जाती है। शेर की तो बात ही छोड़ो, अगर कोई कुत्ता भी पीछे दौड़ पड़े तो वह चौकड़ी भूल जाता है। आदमी के पास न तो जानवरों की सी आँखें हैं, न ही तेज़ी, न ही ताकत। न नाखून हैं न पंजे और न ही उन जैसे दाँत और न ही वह पक्षियों की तरह उड़ सकता है। इसलिए उसने तीर, तलवार, चाकू, बन्दूक, तोप, हवाई जहाज़ और नाव बनाए हैं। यह आदमी की मजबूरी थी कि उसने ऐसे हथियारों की खोज की। हर बात के लिए उसने अपने रास्ते बनाए हैं। उसने तो मौत के बाद स्वर्ग जाने के भी रास्ते बनाए हैं! जी हाँ, धर्म के रास्ते, जो उसे यहाँ से वहाँ पहुँचा सकें।

हर चीज़ के दो पहलू होते हैं, एक बाहरी और दूसरा भीतरी। बाहर से सब सामन्य से दिखते हैं पर भीतर बहुत फर्क होता है। इसी तरह धर्म का भी बाहरी रूप बहुत अच्छा लगता है पर भीतरी रूप बहुत भयानक है। क्या उग्रवाद, जातिवाद, प्रदेशवाद सब धर्म की ही देन नहीं हैं? हमारे इन्हीं धर्मों ने आम आदमी के अहँकार को उसकी ऊँचाई पर पहुँचा दिया है - गर्व से कहो मैं फलाँ धर्म का हूँ। यह वास्तव में दूसरे को नीचा दिखाना ही तो है! कौन कहता है - “गर्व से कहो कि मैं इन्सान हूँ?” वह यह कभी नहीं कह सकता क्योंकि उसमें इन्सानियत बची ही नहीं है। आज महत्तव धर्म का है, परमेश्वर का नहीं। धर्म तो आज दहशत का एक नया नाम है।

राजनेताओं के लिए धर्म समस्या नहीं है। कोई भी साफ समझ सकता है कि धर्म उनके लिए स्वार्थसिद्धी का साधन मात्र है। आर्थिक जगत में भी इन्सान को सबसे सस्ती और अच्छी मशीन माना जाता है। इन्सानियत के लिए वहाँ कोई जगह नहीं है, सिर्फ मुनाफा ही सब कुछ है। हमारे देश में किसी भी वस्तु की कोई कमी नहीं है, फिर भी इन्सान यहाँ परेशान है। कमी है तो सिर्फ ईमान्दारी की।

कोई गुलाब नहीं है इस दुनिया में जो बिन काटों का हो। ये काँटे हमारे पाप के कारण हैं जो आदमी ने खुद अपने जीवन में बोए हैं। कोई घर नहीं बचा जहाँ कँ तों की सी चुभन ना हो। ज़रा अपने घर को टटोल के देखिए कितने ही काँटे बिखरे हैं। अहँकार, क्रोध, लालच के कारण सब परेशानियाँ हैं इस लिए सब परेशान हैं। परेशानियाँ हमेशा इन्सान के साथ बनी रहती हैं। जब तक इन्सान इस पृथवी पर जीएगा, परेशानियाँ उसके साथ बनी रहेंगी। सारी परेशानियों का कारण पाप ही तो है।

सगा भाई भी सगा नहीं है। अगर कोई सगा है तो सिर्फ स्वार्थ का सगा है। अब हालात दिन-ब-दिन बद् से बद्तर हो रहे हैं। इन्ही के कारण संसार अपने सबसे मुश्किल समय पर आ खड़ा हुआ है। हर जगह एक ही चर्चा है कि क्या होगा? कैसे होगा? आफ़तें और परेशानियाँ ऐसे आती हैं जैसे भूचाल, जो बिना बताए अचानक आ पड़ते हैं। आदमी ने अपनी बेचैनी खुद पैदा की है और उस बेचैनी से निकलने के लिए उसे कोई मार्ग नहीं दिखता। फिर दोष कहाँ है? सच तो यह है कि दोष मेरे और आपके स्वाभाव में है और हममें बसा हुआ है। भूख या प्यास लगानी नहीं पड़ती, अपने आप लगती है, क्योंकि यह शरीर का स्वाभाव है। ऐसे ही हमारे मन का स्वाभाव है - लालच, लगाना नहीं प़ड़ता पर अपने आप आता है; अहँकार उठाना नहीं पड़ता, मन खुद उठाता है।

नाम खरे और दर्शन खोटे

हम अपनी बातों और कमों में बड़े उलट होते हैं, जैसे - “गरीबदास” बहुत बड़े सेठ हैं; “अमीरचँद” को दो वक्त की रोटी नहीं मिलती; “शाँति” ने मुहल्ले में बड़ी अशाँति फैला रखी है; “कामराज” (सुन्दरता के देवता) का रूप शाम को अगर बच्चे को दिखा दिया जए तो मारे डर के रात भर उसे नींद नहीं आएगी। जो हम होते हैं वह हम दिखते नहीं और जो हम नहीं होते वह हम दिखाते हैं।

मुल्ला नसरूद्दीन ने एक शास्त्रिय संगीतज्ञ मित्र को शाम के खाने पर बुलाया और कहा कि साथियों तथा साज़-ओ-सामान के साथ आना, खाने के बाद महिफल सजेगी। संगीतज्ञ दिन भर परेशान रहा कि मुल्ला को शास्त्रिय संगीत का शौक कब से चढ़ा। ख़ैर, संगीतज्ञ साथियों के साथ पहुँच गए, खाने पीने का दौर चलता रहा। आधी रात बीत गई तो मुल्ला बोले, ‘यार अब शुरू करो।” संगीतज्ञ बोला, “मियाँ यह कोई वक्त है? सारा मोहल्ला सो गया है।” मुल्ला बोले, सारि-सारी रात इन्के कुत्ते भोंकते रहते हैं, मैं कभी कुछ नहीं बोलता। पर आज इन्हे मालूम होगा, भले ही मेरे पास कुत्ते नहीं हैं तो क्या हुआ, शास्त्रिय संगीतज्ञ तो है।” इसी तरह बदला लेने का स्वभाव सबमें है और इससे कोई भी बचा नहीं। कुछ लोगों ने बदला लेने के तरीके बदले हैं पर जीवन में कुछ नहीं बदला।

ज़रा एक दूसरे के घर की हालत भी तो देखिए

बीवी कहती है यह मनहूस आदमी जितनी देर घर से बाहर रहता है घर में चैन बना रहता है। इस मनहूस की शक्ल देखते ही गुस्सा आना शुरू हो जाता है। कभी वो दिन थे कि इसी शक्ल को देखने को आँखे तरसती रहती थीं। जो कभी कहती थी कि मैं आपके चरणों की दासी हूँ, आज उसी चरणों की दासी ने इस तरह ऐसी की तैसी फेर रखी है कि मियाँ के चरण काँपने लगते हैं। जिसे वह जान से प्यार करता था वही आज जी का जंजाल बन गयी है।

जो होता है वह दिखता नहीं। हमारी आँखें हमें धोखा देती हैं। आकाश नीला दिखता है। आकाश में जहाँ कुछ नहीं, वहाँ कौन नीला रंग पोत कर आया? वास्तव में वहाँ कुछ नहीं है। यह नीला रंग तो मात्र हमारी आँखों का धोखा है। जहाँ सुख की बू नहीं, वहाँ दूर से सुख का सागर लहराता हुआ दिखाई देता है। ऐसे ही सांसारिक सुख वह सिक्का है जिसे जब तक नहीं पाया तब तक उसमें सुख दिखता है, पाते ही वही सुख फिर दुख बन जाता है।

हमारे समाज से जब तक पाप की समस्या न सुलझे तब तक कुछ भी सुलझने वाला नहीं। हमारा ज्ञान, धर्म, धन हमें और ज़्यादा परेशानियों में उलझाए रखेगा। हमने अपने जल-जन्तु, जीवन, वायु, समाज और सामाजिक सम्बंध और पारिवारिक सम्बंध सब बिगाड़ लिए हैं। अब हम कितने ही धर्म बदल डालें, सरकार बदलें या पड़ोस और परिवार बदल डालें, इससे कुछ भी बदलने वाला नहीं। जब तक मन न बदले तब तक जीवन नहीं बदलेगा।

मौत के इन्तिज़ार में जी रही ज़िन्दगी

एक जवान की जीवन कथा इस तरह की है - जीवन कि कथा न कहकर अगर जीवन व्यथा कहें तो कहीं ज़्यादा ठीक होगा। उससे पूछा, “तुम क्यों जी रहे हो?” तो बोला, “आत्म्हत्या करने की हिम्मत नहीं है, मरने से डरता हूँ। लेकिन जीवित रहना मेरे लिए ज़रूरी नहीं, महज़ एक मजबूरी ज़रूर है। तकदीर के तीर ने ऐसा मारा है कि न ज़िन्दा रहा हूँ और न मुर्दा।”

जीवन का शाश्वत नियम है ‘मृत्यु’ और वह भी बड़ी अजीब चीज़ है। जो उसके इन्तिज़ार में बैठे हों उन्हे छोड़ जाती है और जो जाना नहीं चाहते उन्हें ले जाती है। कौन जाने कब किसकी बारी हो। कुछ तो मौत के पास से भी साफ बचकर निकल आते हैं; कुछ की सोच में भी मौत नहीं होती परन्तु मौत उन्हे दबोच ले जाती है। सच मानिए अब किसकी बारी है मालूम नहीं, पर किसी न किसी की बारी तो ज़रूर है। अगर आप अपने पाप के साथ मरे, तो खुद सोचिए मौत के बाद कहाँ होंगे?

‘बाऊल’ बंगाल की एक सूफी परम्परा है जिसमें वे ‘एक तारा’ बजाकर गीत गाते हैं और अपने में मस्त घूमते हैं। एक बाऊल एक जवान की लाश के सामने एक गीत में परमेश्वर से शिकायत करता है - “अजीब है, मुझे जाना चाहिए था, नहीं गया। जिन्हें नहीं जाना चाहिए था, वे चले गए। जो जाना नहीं चाहते हैं उन्हें ले लिया जाता है।”

जीवन के दिन गिने हुए हैं। एक एक करके हर एक दिन मरर्ता जाता है। कुछ अपने दिन पूरे कर चुके हैं और कुछ पूरा करने ही वाले हैं। कुछ आने वाले दिनों में अपने दिन पूरे कर लेंगे। हर एक मौत के मार्ग पर है। कोई धर्म, पैसा, ज्ञान और विज्ञान मौत से पार नहीं निकाल सकता। आप आने वाले कल से बिलकुल अन्जान हैं।

बेबसी से भरी आँखें

एक डाक्टर ने ८० साल के एक बुज़ुर्ग को सलह दी कि आपकी आँख के एक छोटे से ऑपरेशन से आपका अन्धापन दूर हो जाएगा। बुज़ुर्ग ने डाक्टर को जवाब देते हुए कहा, “३४ आँखें हैं जो रात-दिन मुझे संभालने में लगी रहती हैं। आठ बेटों की १६ आँखें, उनकी बहुओं की १६ आँखें और मेरि बीवी की २ आँखें। और फिर इस उम्र में ऑपरेशन कराने का क्या फायदा?” इस तरह वह डाक्टर की सलह को टाल गया। अभी ह्फता भी नहीं बीता था कि उसके घर में आग लग गई। सब तेज़ी के साथ बाहर भाग गये और यह बुज़ुर्ग अपने उपर के कमरे में फंसा रह गया। वह अपनी अंधी आँखों से दरवाज़ा टटोलता रहा पर बाहर निकलने का रस्ता न पा सका। धुंएं और आग ने उसे बुरी तरह घेर लिया। अब उसे डाक्टर की सलह याद आई, पर काफी देर हो चुकी थी। वे ३४ आँखें, जिनका वह दम भरता था, आँसुओं से भरी और बेबस रह गईं।

अगर हम ज़िद्द छोड़ दें तो पाप से छूटने में देर नहीं लगेगी। पाप मरता नहीं, मार देता है। वह हमारी हर खुशी और चैन को मार देता है। जब हम पाप के विरोध में बोलते हैं तो ध्यान रहे, हम किसी पापी के विरोध में नहीं, पर पाप के विरोध में बोल रहे हैं। हम किसी विशेष इन्सान या धर्म के विरोधी नहीं हैं। हम पाप के विरोध में हैं जो पापी का विनाश कर डालता है; और हम पापी का विनाश नहीं, बचाव देखना चाहते हैं।

अब अगर हम बात यीशु की करें, तो यीशु का नाम सुनते ही दिमाग़ दौड़कर कहता है अच्छा “इसाईयों का यीशु।” अरे वही इसाई जो दूसरों को इसाई बनाते फिरते हैं, विदेशियों का धर्म है और विदेशी पैसे से लोगों को भरमाते फिरते हैं - नौकरी मिल जाएगी, चँगाई हो जाएगी। ऐसे लालच लटकाकर इन्होंने दूआ की दुकाने खोल रखी हैं। कुछ लोग कहते हैं, इनके पास भीड़ की भीड़ आती है। कुछ ये भी कहते हैं कि सारी भीड़ पागल थोड़े ही है। सच मानिए, भीड़ ही पागलपन का व्यावहार करती है। यीशु ने कभी नहीं कहा कि तुम इसाई बन जाओ तो तुमको नौकरी मिल जाएगी और चँगाई मिल जाएगी। मैं दावा करता हूँ कि बाईबिल के सात लाख चोहत्तर हज़ार सात सौ छियालिस शब्दों में एक भी ऐसा शब्द नहीं जो ऐसा कहता हो।

सच्चाई तो यह है कि आपको धर्म परिवर्तन की कतई ज़रूरत नहीं। धर्म परिवर्तन करना और कराना वास्ताव में पाप है। प्रभु यीशु तो आपके मन परिवर्तन करने की बात करता है। वही मन जो परेशान, दुखी और बेचैन है। जो झूठ, जलन, लालच, व्यभिचार और गन्दे विचारों से भरा है। इन्ही से छुटकारा देने के लिए यीशु क्रूस पर मरा और तीसरे दिन जी उठा। उसका लहू हमें सब पापों से शुद्ध करता है। मात्र एक प्रार्थना दिल से करके देखें - “हे यीशु, मुझ पापी पर दया करके मेरे पाप क्षमा करें।”

सुनना तो सहज है पर सुनकर मानने में परेशानी लगती है कि लोग क्या कहेंगे? कितने ही लोग स्वार्थ की प्रार्थना तो करते हैं पर इतना साहस नहीं रखते कि अपने पाप से पश्चाताप की एक प्रर्थना कर लें। शर्म उन्हें रोकती है। कितने लोग अपने आप को समझा रहे होंगे कि प्रार्थना करने से कुछ नहीं होने वाला। पर इसमें ज़रा भी शक नहीं कि जिसने भी प्रभु यीशु के पास आने की हिम्मत जुटाई है, उसने उसे कभी नहीं निकाला (यूहन्ना ६:३७)। अब इस दोराहे पर कोई तीसरा रास्ता नहीं है।

मान लीजिए आपकी कोई भयानक सज़ा को राष्ट्रपति माफ करने के लिए तैयार हों और आप कहें कि मुझे किसी माफी-वाफी की ज़रूरत नहीं है। एक तरह से यह राष्ट्रपति का अपमान करना है। इसी तरह परमेश्वर आपके सारे पापों से माफी देने के लिए तैयार हओ और आप ऐसी क्षमा को ठुकरा कर चले जाएं तो आप परमेश्वर की आत्मा का अपमान करते हैं।

अगर हिम्मत और ईमान्दारी है तो अपना बही खाता देखकर अपने बारे में बताएं। आपके बही खाते में बहुत कुछ आपके नाम के विरोध में लिखा है जिसके बारे में सोचते हुए आपको खुद शर्म आएगी। हर बात का एक वक्त है। अब एक वक्त फिर आपके सामने है इस बात को अपानाने या ठुकराने के लिए। कुछ हैं जो सिर्फ मज़ा लेने के पढ़ रहे हैं। पर यह भी ज़रूर है कि कुछ गंभीरता से इन बातों को ले रहे हैं।

अब वक्त आ गया है कि आप अपने बारे में कोई फैसला लें या फिर उसे टाल दें। अगर न मानने की ज़िद्द पर अड़े हैं तो फिर कुछ कहने को बचता ही नहीं। यह पत्रिका आपके हाथों में परमेश्वर ने अपनी दया से पहुँचाई है। मैं आप से, हाँ प्यारे पाठक आप से पूछता हूँ कि आप अपने बारे में क्या सोचते हैं? अब आपके पास अपनी सारी परेशानी और निराशा से बाहर निकलने का वक्त आ गया है। यह शब्दों की कारीगरी नहीं, परमेश्वर की आवाज़ है। अब वह आप पर अपनी दया बरसाने के लिए तैयार है। बस आप एक बार कह कर तो देखिए, ‘हे यीशु, मुझ पापी पर दया करें।’




कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें