सूचना: ई-मेल के द्वारा ब्लोग्स के लेख प्राप्त करने की सुविधा ब्लोगर द्वारा जुलाई महीने से समाप्त कर दी जाएगी. इसलिए यदि आप ने इस ब्लॉग के लेखों को स्वचालित रीति से ई-मेल द्वारा प्राप्त करने की सुविधा में अपना ई-मेल पता डाला हुआ है, तो आप इन लेखों अब सीधे इस वेब-साईट के द्वारा ही देखने और पढ़ने पाएँगे.

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2009

संपर्क दिसम्बर २००८: एहमियत का एहसास


(यह लेख, आई० आई० टी० - रूड़की के स्नातक श्री शशि शेखर की गवाही, अर्थात उनके व्यक्तिगत अनुभव की अभिव्यक्ति, है।)

मेरा नाम शशि शेखर है। मेरा जन्म पटना बिहार में हुआ। मैं बच्पन से ही अपने सब भाई-बहिनों में सबसे अधिक धार्मिक था और कभी त्यौहार के मौके पर उपवास भी रख लिया करता था। मैं ही अकेला था जो धार्मिक था। मैंने कभी भी अपने परिवार और अपने माता-पिता से ज़्यादा किसी और चीज़ के बारे में नहीं सोचा।

जब मैं दो-तीन साल का था तो उस समय मैं एक बड़ी ही विकट स्थिती से गुज़रा और मरते-मरते बचा। उस समय ऐसा हुआ कि मैं एक टूटी हुई चूड़ी को अपने मूँह से तोड़ने की कोशिश कर रहा था जबकि मेरे मुँह में दाँत नहीं थे। लेकिन मैंने उसको अपने मुँह से तोड़ने की पूरी कोशिश की। परिणामस्वरूप मेरा गला कट गया और बहुत ख़ून बहने लगा। तुरंत मेरे माता-पिता मुझे पटना लेकर भागे। उन दिनों गंगा नदी में बहुत बाढ़ आई हुई थी और स्टीमर बोट (स्वचालित नाव) को छोड़ और कोई आने-जाने का साधन नहीं था। ऐसे में कोई भी बोट मालिक स्टीमर से नदी पार करने के लिए तैयार नहीं था और मेरे माता-पिता ने मेरे जीवन कि बची संभावना की सारी आशा भी छोड़ दी थी। उसी समय बहुत कोशिश करने के बाद परमेश्वर के अनुग्रह से बाढ़ से भरी नदी को पार करने के लिए एक आदमी तैयार हुआ और बहुत ही कठिनाई से नदी को पार किया।

वह समय मेरे माता-पिता के लिए बहुत ही दुख़दायी था। मेरे इलाज में बहुत बड़ी रकम खर्च हुई, जिसके चलते मुझे बचाने के लिए मेरे माता-पिता ने बहुत ही दुख़ उठाया। इलाज के बाद धीरे-धीरे मैं ठीक होने लगा।

मेरी प्राथमिक शिक्षा पहली से पाँच कक्षा तक एक हॉस्टल में हुई जहाँ मेरे अन्दर एक अलग तरह का व्यवाहर विकसित हुआ। मैं दूसरों को पसंद नहीं करता था और अपने हृदय में बुरा सोचता था और भला करने की सोचता भी नहीं था। इस तरह मैं पूरी तरह पाप में था।

मैंने कभी ऐसा पाप तो नहीं किया जो यदि मेरे माता-पिता, भाई-बहिन या किसी और को पता चलता तो वे मेरे बारे में बुरा सोचते। मैं हमेशा यही चाहता था कि लोग मेरे बारे में अच्छा सोचें। मैं चाहता था कि मैं कोई ऐसा बुरा काम ना करूँ जिसका किसी को पता चले तो मेरी एक आज्ञाकारी बालक की छवि धूमिल हो जाए। बचपन से ही मैं अपनी छवि के बारे में बड़ा ध्यान रखता था। इस तरह, अपनी सोच के अनुसार, मैं अपने माता-पिता और शिक्षकों की राय में एक ‘अच्छा लड़का’ था।

मैं अपने ही तरीके से पाप का मज़ा ले रहा था। मैं एक बहुत ही घमंडी, स्वार्थी और क्रूर लड़का था और अपने माँ-बाप के सामने हमेशा साफ-सुथरा दिखना चाहता था। अर्थात आप कह सकते हैं कि मैं केवल एक पाखंडी था। यह इस तरह से है जैसे ‘एक कब्र, जिसके अन्दर हड्डियाँ और मलिन्ता और सड़न है, परन्तु बाहर से देखने में साफ़ और संवरी हुई है।’ वैसे ही, मेरे हृदय के अन्दर तो बुरी सोच थी लेकिन मैं बाहर से एक आज्ञाकारी और सभ्य बालक के रूप में संवरना चाहता था।

बच्पन से ही विज्ञान में मेरी रुची नहीं थी। मैंने कभी पढ़ाई की एहमियत का एहसास नहीं किया। क्योंकि सब पढ़ते हैं इसलिए मुझे पढ़ना है और यह मुझे अच्छा लगता था। मुझमें एक देश्प्रेम की भावना थी सो मैं एक सेना का अधिकारी बन्कर देश की सेवा करना चाहता था। मुझे बच्पने से ही एक अच्छा दिमाग़ नहीं मिला, मैं केवल एक सामन्य बुद्धि का लड़का था। परन्तु फिर भी मैं बचपन से ही अपनी पढ़ाई में हमेशा अच्छा था। जिस स्कूल में मैं पढ़ा वहाँ हमें आम तौर से खाना खाने से पहले और सोने से पहले प्रार्थना कराई जाती थी।

जब मैं १२ साल का था तब मेरे जीवन में एक बुरा मोड़ आया। १९९४ में मुझे ‘एनसैफलाईटिस’ नामक बीमारी हो गयी - एक ऐसा बुखार जिसने रांची में रहने वाले बहुत से लोगों को मार दिया था। जब मुझे अस्पताल में भर्ती कराया गया तो मेरी माँ बहुत घबरा गयी थी और उसने मेरे जीवन की आशा छोड़ दी थी। क्येंकि लोग रोज़ सुबह भर्ती होते और दोपहर या शाम तक उन्हें मरा घोषित कर दिया जाता था। एक समय तो मुझे भी मरा घोषित कर दिया गया परन्तु आश्चर्यजनक रीती से जीवन मुझमें दोबारा आ गया। बहुत इलाज के बाद मैं कुछ हद तक ठीक हो गया। और एक महीने के बाद मेरे माता-पिता को डाक्टर ने सलाह दी कि ‘इसको घर ले जा कर सायकोथेरापी (मान्सिक चिकित्सा) के द्वारा इलाज करो’। इसके तीन साल के बाद मैं अपनी पढ़ाई दोबारा ज़ारी कर सका। बहुत मेहनत के बाद मैंने १९९९ में अपना इंटरमीडीयट सी०बी०एस०सी० बोर्ड से पूरा किया।

उसके बाद परमेश्वर के अनुग्रह से मैंने प्रतियोगी इंजिनियरिंग की परीक्षाएं दीं और मुझे रूड़की आई०आई०टी० इंजिनियरिंग परीक्षा के लिये चुन लिया गया और मैं रूड़की आ गया। यहाँ आकर अपने साथ के पढ़ने वालों को देखकर बहुत उलझन में था कि उनके लिये गाली देना, गन्दे काम करना और सिगरेट और शराब पीना एक रिवाज़ है। मेरे सीनियर और मेरे मित्र मुझ से कहते कि एक इंजिनियर के लिये यह सब करना बहुत ज़रूरी होता है। क्योंकि मैं किसी को गाली नहीं देता था, अपशब्द भी नहीं बोलता था और मुझ में कोई बुरी आदत भी नहीं थी इसलिए मैं केवल अपने आप में संतुष्ट रहता था और मुझे अपने अंदर कोई बुराई नहीं दिखती थी। मैंने बहुत कोशिश की अपने आप को इन चीज़ों से दूर रखने और अपने आप में और अपने मित्रों की दृष्टि में ठीक दिखने की परन्तु मेरा मन उन दिनों बहुत ही भ्रष्ट हो गया था।

मैं अपने पहले साल के आखिरी सैमस्टर में एक धर्मी जन से मिला। वह मुझे प्रभु के पास लाया। पहले तो मैं उसकी कोई बात सुनने के लिये तैयार नहीं था। परन्तु धीरे-धीरे मैंने उसकी बात सुनना शुरु किया और उसके बारे में जाना। मैं प्रभु के लोगों की संगति में बना रहा और लम्बे समय बाद, यह जान्कर कि वह मुझ जैसे को भी, जो इतना बुरा है, ग्रहण कर सकता है, और केवल वही है जो मुझे मेरे पापों से क्षमा और मुझे एक नया मन दे सकता है, मैंने व्यक्तिगत रीति से, पश्चाताप के साथ, प्रभु यीशु को ग्रहण किया ।

पहले मैं उनके पीछे चलता था जो मुझे धर्म के पास ले जाता था लेकिन जिसके अंत मेम कुछ भी नहीं है। परन्तु जब मैंने प्रभु यीशु पर विश्वास किया तो जाना कि केवल वही पापों की क्षमा और उद्धार का मार्ग है जो कलवरी के क्रूस पर उसके बलिदान पर विश्वास के द्वारा मिलता है। अब मैं कह सकता हूँ कि जब मैं प्रभु को नहीं जनता था, तब भी प्रभु मुझे जानता था और जो भी मेरे जीवन में हुआ परिणामस्वरूप भला ही हुआ।

कुछ बातों को मैं आज सोचता हूँ। अगर मैं धर्मी था तो क्यों बुरी बातें और बुरे विचार मेरे मन में बने रहते थे? क्या वे मुझे अच्छा बना सकते थे? तब मैं एक व्यक्तिगत निर्णय पर आया कि मुझे अच्छे और बुरे के बीच एक फैसला करना है। प्रभु ने मुझे उत्तर दिया और मैं पूरी तरह इस बात से सहमत हो गया कि मैं यीशु पर पूरे हियाव के साथ भरोसा रख सकता हूँ और मेरा हृदय जिसकी खोज कर रहा था उसकी खोज अब पूरी हो गयी।

मेरे जीवन में प्रभु ने बहुत काम किये हैं। मैं प्रभु का बहुत आभारी हूँ और अब मैं चाहता हूँ कि वह मुझ जैसे कमज़ोर आदमी को अपने सेवक के रूप में चुन ले।

1 टिप्पणी: