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मंगलवार, 23 जून 2009

सम्पर्क फरवरी २००२: आराधना का आधार

प्रार्थना कहीं पर स्वार्थ की पतली गली से होकर भी जा सकती है, पर आराधना स्वार्थ से कहीं परे, प्यारे प्रभु को एक खुले आकाश में दिल से गाती है।

जब स्नेह भरी सेवा शब्दों के साथ करते हैं तो वह स्तुती का स्वरूप धारण कर लेती है।

विशाल सागरों की अपनी सीमाएं हैं, शब्दों की भी अपनी सीमाएं हैं, मानव की सोच की भी अपनी ही सीमाएं हैं।पर प्यारे प्रभु के प्यार की कोई सिमाएं नहीं। वह दया का ऐसा सागर है जो मुझ जैसे को प्यार कर सकता है, क्षमा दे सकता है।

परमेश्वर अपने इकलौते पुत्र को पीड़ा की चरम सीमाओं के समय क्रूस पर भूल सकता है, त्याग सकता है; पर उसका एक अजीब प्यार है जो मुझ जैसे से वाय्दा करता है कि मैं न तुझे कभी छोड़ुंगा न त्यागुंगा।

यह वास्तविक सच्चाई है कि मेरे पास याकूब का सा स्वभाव है, पर इसमें ज़रा भी शक नहीं कि मेरे पास याकूब का परमेश्वर भी है, जो मुझे कभी नहीं छोड़ेगा।

एक व्यक्ति बहुत कुड़कुड़ा रहा था कि उस के पास एक जोड़ी जूते भी नहीं हैं, तभी उस्की नज़र एक ऐसे व्यक्ति पर पड़ी जिसके पास दोनों पैर ही नहीं थे। वह धन्यवाद से भर गया और बोला, “प्रभु भले ही मेरे पास जूते नहीं, पर दोनो पैर तो सही सलामत हैं।”

हर ‘असम्भव’ के ‘अ’ को हटाकर ‘सम्भव’ करना, केवल परमेश्वर के लिए ही सम्भव है। मौत पर विजय पाना असम्भव था, पर उसने इसे सम्भव बना डाला। मेरे जीवन से मेरे पापों को हटाना मेरे लिए कभी सम्भव था ही नहीं, पर उसने इसे सम्भव बना डाला।

कुछ विश्वासी शैतान से बहुत परेशान रहते हैं। लेकिन कुछ ऐसे हैं जिनसे शैतान बहुत परेशान रहता है - ये वे हैं जो हर हाल में प्यारे प्रभु को भजते हैं, शैतान के आगे समर्पण नहीं करते, उसका सामना करते हैं।


रविवार, 21 जून 2009

सम्पर्क फरवरी २००२: सम्पादकिय

सम्पर्क परिवार आपको सप्रेम नववर्ष की शुभकामनाएं समर्पित करता है। क्षमा चाहते हैं कि यह अंक आपके हाथों में कुछ देर से पहुँच रहा है। आपकी प्यार भरी प्रार्थनाओं और पत्रों से हम हर बार एक नया हियाव पाते जाते हैं।

तैरता हुअ वक्त ऐसे गुज़रा कि पता ही नहीं चला और हम एक नए वर्ष में आकर खड़े हो गये। एक साल चला गया और एक मौका भी इसके साथ निकल गया जो अब कभी नहीम लौटेगा। अब यह नया साल हमारे लिए फिर से एक नया मौका लेकर आया है। लूका १३:७-१० में एक अंजीर के पेड़, उसके मालिक और उसके माली की कहानी है। इस अंजीर के पेड़ ने पिछले सालों में एक अच्छी सुरक्षा और देखभाल पाई थी। इसे अच्छी भूमी पर लगाया गया और इसकी अच्छी देखभाल की गई, किस लिए? दिखाने, सजाने या जलाने की लकड़ी के लिए नहीं, वरन उससे फल की उम्मीद थी। तीन साल तक मालिक उससे फल की आस लगाए रहा और इसी उम्मीद में उसके पास आता रहा, “मैं तीन वर्ष से इसमें फल ढूँढने आता हूँ पर नहीं पाता”(लूका १३:७)। पेड़ तीन साल का नहीं था, तीन साल पहले फल देने लायक हो चुका था। इसीलिए मालिक तीन साल से उसमें फल ढूँढ रहा था, पर हर बार निराशा ही पाता था। पेड़ अपने जीवन से दिखाता है कि उसने उस अनुग्रह के समय को व्यर्थ ठहरा दिया जब उस पर कृपा दृष्टि की गई। अन्ततः मालिक ने उस पेड़ को हटाकर उसकी जगह एक दूसरे पेड़ को लगाने और नए पेड़ पर परिश्रम करने का निश्चय किया। लेकिन माली ने मालिक से विन्ती की “हे स्वामी इसे इस वर्ष और रहने दे कि मैं इसके चारों ओर खोदकर खाद डालूँ” (लूका १३:८) और मालिक से उसके लिए एक साल और माँग लिया। इस अंजीर के पेड़ की जगह हम अपने आप को रखकर सवाल करें, “प्रभु ने मुझे इस संसार में किस काम के लिए रखा है? क्या मैं प्रभु की बारी पर एक बोझ बन कर तो नहीं जी रहा? क्या अपने अनुग्रह के समय को व्यर्थ तो नहीं ठहरा रहा?” इस पेड़ ने पिछले तीन सालों की चेतावनी को लापरवाही से टाल दिया था, अगर यह बचा हुआ था तो सिर्फ अनुग्रह से। बीते साल कितने ही लोग इस संसार रूपी प्रभु की बारी से उखाड़ कर निकाल लिए गए। हम अगर बचे हैं तो सिर्फ प्रभु के अनुग्रह से। वह एक मौका और देना चाहता है कि हम उसके दिए हुए वरदान को उसके लिए उपयोग करें और उसके लिए फल लाएं, न कि उस वरदान को संसार में दफन कर दें, उसे व्यर्थ ठहरा दें।

आदम तो अपने समय को पूरा कर इस संसार से चला गया, पर आदम का स्वभाव आज भी उसकी संतान में ज़िन्दा है। बुलबुल का बोल बड़ा प्यारा है, वह अपने स्वभाव से बहुतों को लुभाती है, किसी को नुक्सान नहीं पहुँचाती। यदि बुल्बुल कौवे की तरह करकश बोले, बस रोटी और बोटी के चक्कर में रहे, जहाँ मौका लगे वहीं झपटे, तो क्या लोग उसे बुलबुल कहेंगे? यही हाल कई ‘विश्वासियों’ का है, उनके जीवन में भी ऐसा ही विरोधाभास दिखता है। भक्त यदि सख़्त बोले, स्वार्थी स्वभाव और कसैले मिज़ाज़ के साथ जिए तो लोग उसे क्या कहेंगे? ऐसे लोग जहाँ बिगाड़ न भी हो वहाँ बिगाड़ पैदा कर डालते हैं। गधे पर हाथी का लेबल लगाने से वह हाथी नहीं बन जाता। विश्वासी का लेबल लगा लेने से कोई विश्वासी नहीं बन जाता। जीवन शैली से, बोल-चाल से, व्यवहार से विश्वासी अलग ही पहचाना जाता है।

ऐसे ही कुछ लोग कहते हैं कि उनमें धीरे-धीरे परिवर्तन आ रहा है। उदाहरण देते हैं कि पहले एक हज़ार रुपये रोज़ रिश्वत लेता था, अब सौ रूपये से ज़्यादा छूता भी नहीं; पहले एक ‘बोतल’ से कम नहीं पीता था, अब तो आधी में ही काम चला लेता हूँ। वह जो सत्य को जानता है पर मानता नहीं, वह आधे सत्य के साथ जीता है। सत्य को सिर्फ जानना परन्तु उसका जीवन में उपयोग न करना, सत्य न जानने से ज़्यादा खतर्नाक है। ऐसों के पास प्रभु का वचन जब आता है, उनके सीने में चुभता है, उन्हें कायल करता है, फिर भी वे उसे नहीं मानते, उसे नज़रंदाज़ कर जाते हैं, वे अपने लिए भयानक दंड जमा कर रहे हैं। परमेश्वर मक्कारों और पाखंडियों को ज़रा पसन्द नहीं करता। वचन कहता है, “वह जो अपने स्वामी की इच्छा जानता था और तैयार न रहा... बहुत मार खाएगा” (लूका १२:४७); “ तू गुनगुना है, न ठन्डा है और न गर्म, इसलिए मैं तुझे अपने मुँह से उगलने पर हूँ” (प्रकाशितवाक्य ३:१६); “... भला होता कि वे इस सच्चाई को जानते ही नहीं” (२ पतरस २:२१)।

कई हैं जो आराधना करते हैं, प्रभु भोज में सम्मिलित होत हैं, वचन पढ़ते हैं और फिर भी मन में बदले और बैर की भावना रखते हैं, कितनों के पैसे और सामन वापस नहीं करते, अहंकार, जलन, विरोध सीने में सजाए रखते हैं सालों गुज़र गये पर आत्मा के फल उनके जीवन में कहीं नहीं दिखते। ऐसे लोग मसीही जीवन की गवाही के लिए ठोकर के कारण हैं “... तुम्हारे कारण अन्यजातियों में परमेश्वर के नाम की निन्दा की जाती है” (रोमियों २:२४); “...ये उसके पत्र नहीं, यह उनका कलंक है” (व्यवस्थाविवरण ३२:५)। उनके लिए भला होता कि चक्की का पाट गले में डालकर, उन्हें सागर में डाल दिया जाता (मत्ती १८:६)। उन्होंने मात्र घर की दीवारों पर पवित्र वचन के पदों को ठोक रखा है, पर उनके दिलों में पवित्र वचन कभी नहीं बसने पाया। वे कान रखते हुए भी बहिरे और आँख रखते हुए भी अँधे हैं, क्योंकि वे जानबूझकर समझना ही नहीं चाहते, उन्हें समझाना भी बड़ी टेढ़ी खीर है।

एक बार एक दावत में एक देहाती अन्धे ने जीवन में पहली बार मेवों से भरी हुई खीर खाई, उसे बड़ा मज़ा आया। अन्धे ने बगल में बैठे एक व्यक्ति से पूछा “ये क्या चीज़ है?” व्यक्ति ने जवाब दिया, “खीर है।” अन्धे ने फिर पूछा “खीर देखने में कैसी होती है?” फिर जवाब मिला “सफेद होती है।” अन्धे ने फिर पूछा “सफेद कैसा होता है?” उस व्यक्ति ने कुछ परेशान होकर कहा “सूरदास जी बगुले की तरह।” अन्धे ने फिर पूछा “भाई बगुला कैसा होता है?” बगल वाले ने अपने हाथ को बगुले की गर्दन की तरह बनाया और अन्धे को छुआकर बताया कि “बगुला ऐसी मुड़ी गर्दन का होता है।” अन्धे ने मुड़ा हाथ टटोलकर कहा “यार खीर तो बड़ी टेढ़ी होती है!” कुछ ऐसे ही आत्मिक अन्धों को समझाना है।

लूका १९:४१-४४ में लिखा है कि जब यीशु यरूशलेम के निकट आया तो नगर को देखकर रोया और कहा “क्या ही भला होता कि तू हाँ तु ही इस दिन कुशल की बातें जानता। क्योंकि तूने वह अवसर जब तुझपर कृपादृष्टि की गयी न पहिचाना।” यहूदियों का नया साल शुरू ही हुआ था, चार दिन बाद होने वाले यहूदियों के सबसे बड़े त्योहार की तैयारियाँ की जा रहीं थीं। यरुशलेम तीर्थ यात्रियों से खचा-खच भरा हुआ था। लोग जोश और खुशी से भरे जय-जयकार कर रहे थे। प्रभु एक ऐसे स्थान पर खड़ा था जहाँ से सारा यरुशलेम शहर एक नज़र में देखा जा सकता था। पर प्रभु न सिर्फ उसका वर्तमान देख रहा था, उसे यरुशलेम का भविष्य भी दिखाई दे रहा था। यरूशलेम, जो शान्ति का नगर कहलाता था (इब्रानियों ७:२), उसने शान्ति के राजकुमार को अर्थात परमेश्वर के पुत्र और उसके वचनों को ठुकरा दिया था। परमेश्वर की चेतावनियों की बेपरवाही और बेकद्री के कारण अब यरुशलेम पर कहर बरसने को तैयार था। लोग खुश हो रहे थे पर प्रभु रो रहा था। वह नहीं चाहता कि कोई नाश हो। प्रभु दुखी मन से उस शहर को कह रहा था कि जब तुझ पर रहम किया गया तो तूने उस समय को नहीं पहिचाना और परमेश्वर की चेतावनी को लापरवाही से लिया। तब से छः सौ साल पहले राजा नबूकदनेस्सर ने, परमेश्वर की चेताविनियों की अन्धेखी करने और ऐसी ही ढिटाई में बने रहने के कारण यरूशलेम को पहली बार बरबाद कर डाला था। अब फिर वैसे ही स्वभाव के कारण, उसकी दूसरी बरबादी निकट आ रही थी। हम प्रेरितों के काम में देखते हैं कि जिन्होंने चेताव्नियों को मान लिया वे तो बच निकले पर यरुशलेम नहीं बचा। ऐसे ही संसार भी अपनी दूसरी बरबादी के निकट आ खड़ा हुआ है; पहली बरबादी नूह के समय हुई थी। एक बड़ी दहशतनाक बरबादी अब संसार से सटी खड़ी है।

उस समय यरूशलेम के मंदिर में परमेश्वर की आराधना, प्रार्थना, बलिदान, भेंट, भजन, संगीत सब चल रहा था,पर प्रभु कह रहा था कि तुमने इसे डाकुओं की खोह बना दिया है। आज भी मण्डलियों में आराधना, प्रभु भोज, प्रार्थना सब कुछ वैसे ही चल रहा है, पर अन्दर की वास्तविक दशा भी प्रभु से छुपी नहीं है।

जब पहली बार यरुशलेम बरबाद हुआ तब राजा यहोयकीम क राज्य था (दानिएल १:१) अंजीर के पेड़ के समान, परमेश्वर ने यहोयकीम को भी तीन साल दिए, पर उसने अपने पाप से मन नहीं फिराया। नबूकदनेस्सर ने यरुशलेम को घेर कर बरबाद कर डाला। इसके लगभग छः सौ साल बाद सन ७० में रोमी सम्राट वैस्पियन के पुत्र तीतुस ने यरुशलेम को पूरी तरह से बरबाद कर डाला। सम्सार के इतिहासकार बताते हैं के नबूकदनेस्सर और वैस्पियन दोद्नो बहुत ही सामर्थी सम्राट थे, इस कारण वे यरुशलेम को बरबाद कर पाए। पर बाईबल बताती है कि यहूदी लोगों के पाप के कारण यरुशलेम की बरबादी हुई। यदि ये सम्राट दस गुणा और भी सामर्थी होते, तो भी यरुशलेम के पत्थरों पर से एक पत्थर भी न हटा पाते, यदि पाप ने उसकी सुरक्षा को पहले ही न हटा दिया होता। अब दूसरी बार यह पृथ्वी भी अपने पाप के कारण अपनी बरबादी के करीब खड़ी है।


नबुकदनेस्सर ने यहूदी राजपुत्रों में से जो योग्य थे, उन्हें अपने महल में अपनी सेवा के लिए लगा लिया (दानियेल १:३,४)। आज परमेश्वर की सन्तान को शैतान ने पद, पैसे और परिवार की सेवा में ही लगा रखा है। वे परमेश्वर के लिए नहीं, शैतान के लिए उपयोगी बन गए हैं। उनका परमेश्वर के लिए काम न करना ही शैतान के लिए काम करने जैसा है। संसार की चकाचौंध, समपदा और उपलभदियों ने स्वर्ग के धन को उनके लिए छोटा कर दिया है, वे उस चिरस्थाई धन को छोड़, इस नाश्मान धन को संजोने में लगे हैं। लूका १९:४५ की ऐसी दशा में, जब मन्दिर डाकुओं की खोह बन चुका था, तब प्रभु ने मन्दिर को शुद्ध करने की आखिरी कोशिश एक बार फिर की। क्या आप को यह एहसास है कि आप परमेश्वर का मन्दिर हैं (१ कुरिन्थियों ३:१६)?

प्रिय पाठक प्रभु आपसे कह रहा है कि पाप को छुपाना कितनी बड़ी बेवकूफी होगी, जबकि हम जानते हैं कि प्रभु से हमारा कोई पाप छुपा नहीं है, और प्रभु हमारे हर एक पाप को बड़ी सहजता से क्षमा भी कर देगा यदि हम दिल की ईमान्दारी से उसे मान लें और उससे क्षमा माँग लें। प्रभु चाहता है कि हम शिक्षा, सेवा और संबंध, इन तीनों में सही हों। कितने हैं जो शिक्षा में सही हैं, पर सेवा में आलसी हैं; कितने सेवा में बड़े चुस्त रहते हैं पर ग़लत शिक्षा में फंसे रहते हैं। संबंधों में सही होने के लिए हम इन छः सवालों से अपने आप को जाँच सकते हैं:-

१. परमेश्वर से व्यक्तिगत संबंध - व्यक्तिगत प्रार्थना, बाईबल अद्धयन, पारिवारिक प्रार्थना का जीवन कैसा है?
२. परिवार के सदस्यों से संबंधओं की दशा कैसी है?
३. मण्डली के सदस्यों से सम्बंध; क्या सिर्फ दूसरों की आलोचना करने, उन्हें ‘ठीक’ करने में ही लगे हैं या उनके साथ मिल-बैठकर उनकी परिस्थित्यों और समस्याओं को समझने और सुलझाने में भी कार्यशील हैं?
४. हमारे शत्रुओं से हमारे संबंध; क्या उनका बुरा देखना चाहते हैं या उनका उद्धार? क्या उनके लिए प्रार्थना कर सकते हैं कि ‘हे पिता इन्हें क्षमा कर’?
५. आप के कार्य स्थल में सहकर्मियों से संबंध; क्या आप के जीवन और कार्य में वे मसीह की गवाही को देखते हैं?
६. उन विश्वासियों से आपके संबंध जिनसे आप सहमत नहीं हैं, कैसे हैं?

अगर संबंध सही नहीं हैं तो आपने कहीं न कहीं शैतान से कोई छिपा समझौता कर रखा है। अपने दोष छुपने के लिए दूसरों पर दोष लगाना बहुत सहज है, पर इससे आपके दोष दूर नहीं हो जाते। परमेश्वर और उसका वचन ठठों में नहीं उड़ाया जा सकता, जो आप बोएंगे, वही आपको काटना भी पड़ेगा (गलतियों ६:७)।

अब अपनी इस ढलती शाम में, जहान कुछ ज़यादा ही ज़हरीला हो चला है। संसार की यह शाम भी दबे पाँव चुपचाप निकल जाएगी और अचानक ही समय, शून्य के सरोवर में, हमेशा के लिए लुप्त हो जाएगा; पीछे छोड़ जाएगा कुछ के लिए एक दिन, और कुछ के लिए एक रात। जो तैयार हैं उनके लिए धार्मिक्ता का सूर्य चँगाई लिए हुए आएगा (मलाकी ४:२) उस सदा काल के दिन में वे परमेश्वर के राज्य में उसके साथ सर्वदा राज्य करेंगे (प्रकाशितवाक्य २२:५)। परन्तु जो तैयार नहीं हैं, उनके लिए वो रात आ पहुँचेगी जिसकी फिर कोई सुबह नहीं होगी। उस भयानक रात में कोई कभी कुछ भी नहीं कर पाएगा (यूहन्ना ९:४), बस जो समय रहते किया या नहीं किया उसी का प्रतिफल भोगने के लिए रह जाएगा (मत्ती २५:३०)।

क्या आप तैयार हैं?

एक टुकड़ा प्रभु के स्वर का,
साँसों से सरक कर सीने पर ठहर गया,
तब पाप कहाँ चला गया, पता ही न चला
शून्य के सरोवर में वो सब समा गया
और, पता ही न चला
कितने सालों के साथ, ये साल भी चला गया
और सच मानो, पता ही न चला

- सम्पर्क परिवार





शुक्रवार, 12 जून 2009

सम्पर्क नवम्बर २००२: बस अब बिखरना ही बाकी बचा है

अगर हम धर्म के नाम पर आपस में नहीं लड़ेंगेऔर यदि हम अपने धर्म को ऊँचा और दूसरे के धर्म को नीचा दिखाने के अहंकारी विवाद में आपस में नहीं उलझेंगे तो सच मानिएगा हमारे धर्म-नेता और राज-नेता भूखों मर जाएंगे, क्योंकि इसी आग पर तो इनकी रोटियां सिकती हैं। राज्नेताओं का सिद्धांत है कि बन्दूक हमेशा दूसरों के कन्धों पर रख कर चलाई जाती है, बेवकूफ ही बन्दूक का बोझ अपने कन्धों पर ढोते हैं। जीवन में नैतिकता ज़रूरी नहीं है, नारों में नैतिकता दिखाओ; मात्र शब्दों में ईमान्दारी दिखाने में क्या घिसता है?

कितनी बार ज्ञानवान लोग अज्ञानियों की भाषा का उपयोग करते हैं। हमें अक्सर एक थके हुए सवाल का सामना करना पड़ता है - “आप कौन है?” जवाब में यदि कहें कि “जनाब आदमी हूँ”, तो जनाब की असली मनषा एक दूसरे सवाल में सामने आती है जब वो मुस्कुराते हुए फिर पूछते हैं - “ साहब आदमी तो सभी हैं, मेरा मतलब था कि आप इसाई हैं या मुसलमान हैं, आखिर आप कौन हैं”? क्या मैं इसाई, मुसलमान, हिन्दू आदि बन्धनों के ऊपर उठकर एक इन्सान नहीं हो सकता? धर्म एक बड़ी बाधा है, हाँ सच मानिए एक दिमाग़ी बाधा है। धर्म तोड़ता है, जोड़ता नहीं। हमारे धर्म हमें परमेश्वर से कब जोड़ते हैं, वे तो आदमी को आदमी से तोड़ते हैं। धर्म हमें विरोध से, अहंकार से और बदले की भावना से भर देते हैं। स्वयं एक नज़र अपने समाज पर दृष्टि डालिए, उसने कैसे हमारे संसार को टुकड़ों में तोड़ डाला है। बस अब संसार का बिखरना ही तो बाकी बचा है।

किसी भी धर्म की दुकान पर चैन और शान्ति नहीं बिकती। ज़रा ग़ौर कीजीएगा, जब खुद धर्म की दुकान चलने वालों के पास ही चैन और शान्ति नहीं है तो वे फिर औरों को कैसे और क्या देंगे? हमारे धर्म स्थानों में अधर्म का कारोबार खूब चलता, पनपता है चाहे-किसी भी धर्म का स्थान क्यों न हो। यहाँ आए जीवन से निराश और थके-हारे लोगों को झूठी शान्ति के बहलावे देकर बड़ी चतुराई से लूटा जाता है। क्या कभी परमेश्वर इन्सान को इन्सानियत से दूर ले जाएगा? क्या परमेश्वर इतना पराया है कि वह अपने नाम पर इतना कुछ करने देगा? यह भयानकता तो सिर्फ धर्म के नाम पर ही होती है। धर्म ही आदमी को परमेश्वर से दूर ले गया है।

हम भी तो कुछ कम दोषी नहीं। हमार जीवन में धर्म के लिए जगह है पर ईमान्दारी और सच्चाई के लिए कोई जगह है ही नहीं। हम भी अपने स्वार्थ और लालच के कारण अलग-अलग धर्मों से जुड़े हैं। हमारा मन धर्म-गुरूओं से कहता है कि महाराज कोई ऐसा गुरू मंत्र बताओ कि बस नोट बरसने लगें। परमेश्वर के घर के बाहर जूते उतारते हैं तब अन्दर जाते हैं कि वो स्थान अपवित्र न हो, पर मन की अपवित्रता क्यों नहीं उतारते, उसे क्यों साथ ही ले जाते हैं? आराधना स्थल पहुँचने से पहले हम अपनी दाढ़ी रगड़ते, खोपड़ी रंगते, नहाते-धोते और शरीर संवारते हैं; परन्तु परमेश्वर तो मन को देखता है (१ शमूएल १६:७), उस मन की दशा का क्या कभी स्वच्छ करते हैं? मन में तो बैर, जलन, लालच, झूठ और अहंकार है। सारी गंदगी तो वहीं धरी है, और धरी ही रहती है। यहीं तो सारी बात गड़बड़ा जाती है। जूते उतारने, शरीर संवारने से फर्क नहीं पड़ता, ऐसा करने में कोई बुराई या ग़लत बात भी नहीं है; पर जब मन ही साफ न रखा हो तो ऐसी बाहरी सफाई से क्या लाभ? परिवार का झगड़ा मन में भरे लोग, गाली बकने वाले, व्यभिचारी, रिश्वतखोर, लालची, दुराचारी परमेश्वर के भवन में हाथ जोड़े, आंखें बन्द किए, मन में परमेश्वर से संसार को ही मांगा करते हैं। उन्होंने कहां कभी अपने पाप की गन्दगी और बेचैनी को स्वीकारा और उससे छुटकारा मांगा?

युग बदले पर आदमी का स्वभाव नहीं बदला। शिक्षा, समाज, संगत, सरकार कोई भी उसको नहीं बदल पाया। आदमी का स्वभाव आदमी के साथ ही पैदा होता है। इन्सान दो तरह से जीता है-एक जो प्रगट में और दूसरा छिपकर। खाने के दांत अलग, दिखाने के अलग। शब्दों को भी दो तरह से इस्तेमाल करता है, कुछ बात बताने के लिए, कुछ बात छिपाने के लिए। चश्मे भी दो तरह के रखता है, एक देखने के लिए दूसरा दिखाने के लिए। वैसे ही आदमी के स्थायी स्वभाव का एक भाग व्यभिचार भी है। यह उम्र के साथ समाप्त नहीं होता। मैंने बूढ़े लोगों को अक्सर कहते सुना है, “क्या ज़माना आ गया है, कितना नंगापन और अशलीलता आजकल की फिल्मों और टी०वी० कार्यक्रमों में दिखाया जाता है।” यह शब्द सिर्फ सुनाने के लिए हैं, मोटे चश्मों में से कितनी ही बूढ़ी तरसती आंखें झांकती फिरती हैं कि कहीं कुछ नंगापन दिख जाए।

एक जवान औरत बोली, “अंकल इस ऑफिस में गन्दी निगाह रखने वाले लोग हैं, एक भी राखी बंधवाने को तैयार नहीं है। मेरे कोई भाई नहीं है, आप ही बुज़ुर्ग हैं कल मैं आपको ही राखी बांधूंगी। बस आपको ५१ रू० और एक सूट देना पड़ेगा।” यह सुनते ही बज़ुर्ग कुछ गड़बड़ा सा गया। जवान स्त्री मुस्कुराई और बोली, “परेशान मत होइए, ५१ रू० और सूट वूट की कोई ज़रूरत नहीं है।” बुज़ुर्ग बोले, “५१ की जगह १०१ रू० ले लो, एक छोड़ दो सूट दे दूंगा, पर परेशानी तो राखी से है।” ‘शरीर’ तो मरा सा है पर व्यभिचार की लालसा ज़रा भी कम नहीं हुई। श्री. भास्कर का कहना है कि ९० प्रतिशत शादी शुदा लोग व्यभिचारी होते हैं। पति-पत्नि अलग-अलग ग़लत संबंध छिपकर पालते हैं। हम कितने मक्कार हैं, कैसे ईमानदारी से मक्कारी को ओढ़े रहते हैं। कितने ही लोग सुबह से ही मक्कारी शुरू कर लेते हैं; ऑफिस में, मन मारकर साहब को सलाम मारना पड़ता है। मुंह मुस्कुराता है पर मन कोसता है। हमारी मक्कारी को अगला सहजता से समझ भी लेता है, लेकिन उसे अपनी मक्कारी के पीछे छिपा, अन्जान बन जाता है। मक्कारी थोड़ी हो या बहुत, हमारे स्वभाव का एक हिस्सा तो है ही।

आज सबसे अधिक फलती, फूलती और फैलती कला है चापलूसी, जो सर्वत्र सर्वाधिक विकासमान है। इसे ‘कुत्ते-गिरी’ का स्वभाव भी कहते हैं। टुकड़ों के लिए दुम हिलाते फिरिएगा, पहले मक्खन लगायिगा और मौका लगते ही ज़बर्दस्त चूना लगा जाइये। स्वार्थ साधने के लिए कुछ न कुछ तो लगाना ही पड़ेगा, नोट लगाओ या सिफारिश, पर चिकनाहट भरी चापलूसी के साथ लगाओ। मक्खन मारने में माहिर कलर्क, शाम को साहब के घर सामान पहुंचाने पहुंचा, घर में नए पर्दे लगे देख साहब से बोला, “साहब, मेम साहब ने क्या पर्दे लटकाए हैं, मेरा तो दिल ही लटका रह गया।”

जनाब यह जग ज़ाहिर है कि हर धंधे में धांधलियां हैं; बिना गोट फिट किए, काम फिट नहीं बैठता। हमारे समाज का कोई भी भाग भ्रष्टाचार से बचा नहीं है। कानून के रखवालों और बदमाशों में बहुत ‘भाईचारा’ है; यदि ये रखवाले बदमाशों को ‘भाई’ न बनायें तो ‘चारा’ कहां से खाएं? यदि मुजिरम समाप्त कर दिए जाएं तो इन रखवालों की रोज़ी रोटी ही चौपट हो जाएगी। इन रखवालों के लिए बदमाश सोने का अंडा देने वाली मुर्गी हैं। एस० जे० उदय की एक छोटी सी कहानी है ‘ग़लती’ जिसमें एक औरत अपने आप का गुण्डों के हाथों से छुड़ाकर भागी और सीधे थाने में घुसती चली गई, यही उसकी सब से बड़ी ग़लती थी। कहानी दर्शाती है कि सुरक्षा कर्मियों के हाथों में भी हम कितने असुरक्षित हैं। आप बदमाशों के हाथों से तो छूट सकते हैं, पर एक बार ऐसे ‘रक्षकों’ के हाथों में पड़े तो फिर बच निकलना मुशकिल ही होता है।

“भईया सबसे बड़ा रुपईया” ‘पैसा’ सब को अच्छा लगता है, ज़रूरी भी है; पर पैसा हर ज़रूरत कतई पूरी नहीं कर सकता। अगर आपकी पैसे की समस्या समाप्त हो जाए तो क्या हर समस्या समाप्त हो जाएगी? सोचिए तो सही, क्या पैसे वालों के पास समस्याओं की कमी है? पैसे से समस्याएं कम नहीं होतीं पर चिंताएं ज़रूर बढ़ जाती हैं, खतरे बढ़ जाते हैं, अहंकार, शत्रु और पाप की अभिलाषाएं भी बढ़ जाती हैं। पैसे से आप बहुत कुछ खरीद सकते हैं पर घर में प्यार भरी खुशी नहीं ला सकते। बच्चों को अच्छी और उच्च शिक्षा दिला सकते हैं पर उन्हें सुधार नहीं सकते। हर तरह के साज-सामान से भरा महल तो बना सकते हैं पर प्रेम और अपनेपन से भरा परिवार नहीं बना सकत। पैसे से परिवार में कलह तो हो जाते हैं, पर पैसे से पारिवारिक कलह सुलझ नहीं सकते।

धन के बारे में दो बातें कही जाती हैं, पैसा पाने के लिए आदमी ‘उल्लू’ बन जाता है; या, पैसा पाकर ‘उल्लू’ बन जाता है। ‘उल्लू’ अन्धेरे का बड़ा शातिर खिलाड़ी होता है। वह अन्धकार की सारी सुविधाओं का उपयोग करता है और अन्धेरे में ही अपने शिकार पर चतुराई से वार करता है। उजाले को वह सह नहीं पाता। पैसे के लिए बने ये ‘उल्लू’ भी ईमान्दारी और सच्चाई के उजाले को सह नहीं पाते, उस से दूर ही भागते हैं। पैसा हमारे सब सवालों का जवाब नहीं है। झोपड़ों में रहने वाला हर व्यक्ति इस भ्रम में जीता है कि महलों में रहने वाला हर व्यक्ति सुखी है। सच तो यह है दोनों ही जगह रहने वाले दुखी और परेशान हैं। दोनो ही एक ऐसी दौड़ में जुते हैं जहाँ पहुँचकर लगता है कि यहाँ तो कुछ भी नहीं, सब व्यर्थ ही व्यर्थ है। जीवन एक ऐसे रेगिस्तान में फंसा है जहाँ रास्ता है ही नहीं, बस एक बेचैन करने वाली थकान है। एक ऐसी भटकन है जिसमें फंसकर बेचैन आदमी और अधिक तनावग्रस्त व उग्र स्वभाव का होता जा रहा है। हमारे समाज के संवरने की सभी संभावनाएं अब समाप्त हो चुकी हैं।

आदमी की मजबूरी है मन मार कर जीता है। निराश और हताश मन में सवाल उठते हैं, “तू क्यों जीता है?” “इस सब का हासिल क्या है?” “मौत क्यों नहीं आती?” ऐसे निराश और हताश लोगों को प्रभु यीशु निमंत्रण देता है “हे सब बोझ से दबे और थके लोगों मेरे पास आओ, मैं तुम्हें विश्राम दूंगा।” (मत्ती ११:२८) एक प्रश्न उठा “लोग यीशु मसीह के बारे में क्या सोचते हैं?” (मत्ती १६:१८) और अलग अलग विचारधाराओं के अनुसार, कई उत्तर आए। आज भी जब कभी यही प्रश्न लोगों के सामने रखा जाता है तो ऐसे ही अलग अलग उत्तर मिलते हैं- “इसाई धर्मगुरू है, विदेशी धर्म है, इसाई ऐसे होते हैं, वैसे होते हैं, बाहर से पैसा आता है, लालच देकर ग़रीब लोगों को इसाई बनाते हैं”, इत्यादि। जनाब, प्रश्न यीशु मसीह के बारे में था, इसाई धर्म के बारे में नहीं। जब हमें किसी जन के बारे में सही जानकारी नहीं होती, तब हम विभिन्न धारणाओं और ग़लतफहमीयों के शिकार हो जाते हैं। ग़लतफहमी से प्रेम बैर में बदल जाता है। बाईबल प्रमाणित शास्त्र है जो सदियों से हर हालात में परखा गया और सिर्फ सत्य ही निकला है। वही यीशु के बारे में सही जानकारी देता है, इसाई धर्म हमें यीशु के बारे में सही जनकारी नहीं देता। प्रभु यीशु का सन्देश शुभ सन्देश है, धर्म उपदेश नहीं। बाईबल में लिखा है, “मैं तुम्हें बड़े आनन्द का सुसामाचार सुनाता हूँ जो सब लोगों के लिए है।”(लूका २:१०) केवल किसी धर्म विशेष के लिए कदापि नहीं।

मेरे मित्र, आपके पास पैसा है, परिवार है, नाम है और एक धर्म भी है; पर क्या सच्ची स्थायी खुशी और चैन भी है? धर्म हमें जाति में, वर्गों में, मिशनों में, ग्रुपों में तोड़ता है पर प्रेम हमें जोड़ता है क्योंकि परमेश्वर प्रेम है (१ युहन्ना ४:८)। यदि आपके पास यह प्रेम नहीं तो कुछ भी नहीं (१ कुरंथियों १३:१)। प्रेम हमें परमेश्वर से, एक-दूसरे से, चैन और शान्ति से जोड़ता है। हमारे पापों ने हमें बेचैनी में धकेला है, और मौत के बाद हमेशा की बर्बादी में धकेल देंगे। पाप कभी पीछा नहीं छोड़ता, जो बोया है वही काटना भी होगा। मक्का बोया है तो गेहूँ नहीं काटेंगे। पाप बोया है तो पाप ही का फल काटेंगे। केवल समाजिक दृष्टि में ‘छोटे’ कहलाने वाले लोग ही चोर नहीं होते, ‘बड़े’ लोग भी बड़ी चोरियां करते हैं, जैसे इन्कमटैक्स की चोरी। मध्यम वर्ग के कर्मचारी बिजली की चोरी, ऑफिस के सामान की चोरी कर लेते हैं। यानि, जिसका जहाँ दाँव चल गया, वह वहीं हाथ साफ कर जाता है, क्योंकि यह पाप का व्यवहार तो मन में बसा है, बस जैसा मौका मिले उसी के अनुरूप अपनी मौजूदगी प्रकट कर देता है। परमेश्वर का सत्य वचन बाईबल कहती है कि सबने पाप किया है; सवाल ‘छोटे’ या ‘बड़े’ पाप का या ‘थोड़े’ और ‘बहुत’ पापों का नहीं है, पाप जैसा भी है, जितना भी है, है तो पाप ही। इसिलिए सब बेचैन हैं और सबका अन्त अनन्त विनाश है।

इसी सत्य वचन में एक टैक्स कलक्टर की सत्य कथा है (लूका १९:१-९)। वह यीशू को देखना चाहता था कि वह कौन है? उसके साथ दो परेशानियाँ थीं, पहली वह भीड़ जो यीशु को घेरे रहती थी और दूसरी उसका कद - वह खुद नाटा था। यही दो बातें आज भी अधिकांश लोगों को यीशु की वास्तविकता जानने से रोकतीं हैं। धर्म, मिशन, ग्रुपों और उनकी निहित शिक्षाओं की एक बड़ी भीड़, और दुसरे, हमारे दिमाग़ हमारी सोच तथा हमारी धारणाओं का बौनापन हमें वास्तविक यीशु को देखने और जानने से रोकता है। हम हमेशा सोचते हैं कि यीशु इसाई धर्म देने आया, पर बाईबल क्या कहती है?

बाईबल के कुछ पदों पर ग़ौर कीजिए:-

यीशु ने कहा:-
  • “मैं धर्मियों के लिए नहीं, परन्तु पापियों को बुलाने आया हूँ” (मरकुस २:१७);
  • “मनुष्य का पुत्र खोये हुओं को ढूंढने और उनका उद्धार करने के लिए आया है” (लूका १९:१०);
  • “मैं इसलिए आया कि वो जीवन पाएं”(यूहन्ना १०:१०);
  • “मैं जगत में ज्योति बनकर आया हूँ तकि जो कोई मुझ पर विश्वास करे वह अन्धकार में न रहे” (यूहन्ना १२:४६);
  • “मैं जगत को दोषी ठहराने के लिए नहीं परन्तु जगत का उद्धार करने के लिए आया हूँ” (यूहन्ना १२:४७);
  • “इसलिए जगत में आया हूँ कि सत्य पर गवाही दूँ” (यूहन्ना १८:३७) ।
  • “यह बात सच और हर तरह से मानने के योग्य है कि प्रभु यीशु पापियों का उद्धार करने आया” (१ तिमुथियुस १:१५)।
क्या अब भी यीशु के आने के उद्धेश्य में आप किसी भी ‘धर्म’ के प्रतिपादन को देखते हैं?

प्रभु यीशु पर उसके दुश्मन दोष देते थे कि वह पापियों के साथ क्यों खाता-पीता है? साधारण सी बात है, क्या कोई डॉक्टर मरीज़ों से अलग रह कर अपना काम कर सकता है? यह टैक्स कलेक्टर साहब एक पेड़ पर चढ़कर, अपने आप को पत्तियों से छिपाकर यीशु को देखना चाहते थे। पर वो प्रभु से छिप नहीं सके, प्रभु से तो उनके कर्म भी नहीं छुपे थे। प्रभु ने उस पेड़ के नीचे आकर उससे कहा “तुरन्त नीचे उतर आ” और वह उतर आया; सिर्फ पेड़ से ही नहीं, अपने घमंड और अहंकार और व्यवहार से भी उतर आया और सबके सामने अपने पाप मान लिए (लूका १९:८)। जैसे ही उसने ऐसा किया, यीशु ने कहा ‘आज’ इस घर में उद्धार आया है। उसके परिवार में पैसा था, स्वास्थय और धर्म भी था, पर चैन और शान्ति इस पापों की क्षमा और उद्धार के साथ ही आई। प्रभु यीशु कोई ज़बर्दस्ती नहीं करता, वह ऐसी ही क्षमा, उद्धार और शान्ति आपको भी देना चाहता है, यदि अपने पापों को मान लें और साथ ही इस बात पर विश्वास कर लें कि वह हमारे पापों के लिए क्रूस पर मारा गया और तीसरे दिन जी उठा, उसका लहू हमें सब पापों से शुद्ध करता है। मित्र मेरे एक बार दिल से पुकार कर कहें “हे यीशु मुझ पापी पर दया कर” (लूका १८:१३)। एक बार प्रार्थना से परख कर तो देखिए यीशु कैसा भला है।

मौत सदा मौजूद है, उससे न कोई सुरक्षा है और न कोई सुरक्षित है। आप अपने घर में, अपने बिस्तर पर अपने आप को सबसे अधिक सुरक्षित समझते होंगे, पर हकीकत तो यह है कि सबसे अधिक मनुष्य अपने बिस्तर पर ही मरते हैं!

हमारे पापों की कहानी हमारे कब्र में दफन होने पर खत्म होने वाली नहीं है। पाप का परिणाम मौत के बाद भी पीछा नहीं छोड़ेगा। हर बात का एक समय है, इस लेख के शुरू होने का समय था अब इसके समाप्त होने का समय है। इस दौरान परमेश्वर आपसे बातें कर रहा था, आपको आपके पाप, पाप की दशा और आपके अनन्त काल की दिशा दिखा रहा था। अब सबसे महत्तवपूर्ण समय है - प्रभु यीशु से पापों की क्षमा माँगने का, एक पश्चाताप की प्रार्थना का। यदि आप प्रार्थना नहीं करें, खामोश रहें तो आपकी यही खामोशी चीख़-चीख़ कर बता रही है कि आप पाप क्षमा के प्रभु यीशु के इस निमंत्रण को बकवास समझते हैं। मित्र मेरे, इस क्षमा पाने के मौके को टालने से सज़ा नहीं टलेगी। दूसरा कोई और मार्ग है ही नहीं। “मार्ग, सत्य और जीवन मैं ही हूँ” ... यीशु ने कहा।



गुरुवार, 11 जून 2009

सम्पर्क नवम्बर २००२: आज सोचती हूँ

मेरा नाम राजकुमारी गोयल है। कोटा (राजस्थान) में जन्मी, हिन्दू विचारों में व मर्यादाओं में पली और बड़ी हुई। जैसा मेरा नाम, वैसा ही मेरा व्यवहार था। मुझ में अहं कूट कूट कर भरा हुआ था। मेरी बहिनों के साथ भी मेरा व्यवहार अच्छा नहीं था। बहिनों में सबसे छोटी और भाईयों में सबसे बड़ी होने के काराण मेरे चारों तरफ प्यार ही प्यार था सिर्फ मेरे परिवार से ही नहीं, मेरे समस्त खानदान से मुझे अलग ही प्यार मिलता था। पिता के खास प्रेम के कारण मेरा सिक्का चलता था। मेरे पिता टी०बी० के मरीज़ थे। उन्से मेरा विशेष प्रेम था और वे मेरे पिता, माँ, दोस्त सब कुछ थे। चौदह वर्ष की उम्र तक तो सब कुछ यथावत चलता रहा। घर में सब लोग पूजा-पाठ करते, मंदिर जाते थे। लेकिन मेरी श्रद्धा शुरू से ही पूजा-पाठ में नहीं रही। ईश्वर के आगे बस इऱ्म्तहान के दिनों में ही हाथ जोड़े जाते थे, तकि अच्छे नंबरों से पास हो सकूँ। वैसे पढ़ने में मैं शुरू से ही अच्छी थी। घर में पण्डितों व साधू-संतों का आना जाना लगा रहता था।


अभी मैं दसवीं कक्षा में ही थी कि पिताजी खि तबियत टी०बी० की वजह से काफी खराब हो गई और हम लोग उन्हें लेकर अजमेर के पास मदार सैनिटोरियम गए जहाँ उन्हें भर्ती कर लिया गया। वहाँ एक नई बात देखने को मिली कि डॉक्टर राउण्ड पर आने से पहले, प्रार्थना स्थल पर एकत्रित होते थे, एक गीत गाते थे व प्रार्थना करते थे। यद्यपि उस समय कुछ समझ में नहीं आया लेकिन सुनने में अच्छा लगा। दुसरे दिन मैं और मेरे मामा प्रार्थना स्थल पर पहुँचे। वहाँ बताया गया कि यहाँ रोगियों के लिए प्रार्थना की जाती है। प्रभु यीशु रोगी को ठीक कर देते हैं। मामा और मैं प्रार्थना करने लगे कि प्रभु तू यदि मेरे पिता को ठीक कर देगा तो हम इसाई बन जाएंगे। मैं करीब एक महीना मदार अस्पताल में रही, लेकिन शायद ईश्वर को यह मन्ज़ूर नहीं था और पिताजी इस दुनिया से चल बसे। मैं पिता के देहाँत का सदमा बरदाश्त नहीं कर पाई और पिता के जाने के बाद मैं एक ज़िन्दा लाश बन गई। करीब छः महीने तक मैं बीमार रही। उस समय हर शनिवार रेडियो पर सुबह एक कार्यक्रम - मसीही वन्दना आता था; जिसमें एक गीत फिर एक छोटी सी कहानी सुनाई जाती थी। यह कार्यक्रम सुनना मुझे अच्छा लगने लगा और एक अजीब सा सुकून मिलने लगा। कुछ समय के लिए ज़िन्दगी बहुत नीरस बन गई थी। कहीं जाना अच्छा नहीं लगता था। भाई को चौदह वर्ष की उम्र में ही पिताजी का ज्वैलरी का व्यवसाय संभालना पड़ा।


मेरी ज़िन्दगी में खुशी नाम की चीज़ नहीं थी। मेरे कमिशनर या जज बनने के सारे सपने चूर-चूर हो गए। मैं शान्ति पाने के लिए इधर उधर भटकने लगी, कई ईशवरों को मानने लगी, लेकिन शान्ति कहीं नहीं मिली। मुझे लगने लगा कि मेरे नसीब में केवल दुःख ही दुःख है। इसके बाद मुझ में कुछ बदलाव आए। मेरे मामा ने मेरा दाखिला उदैपुर विश्वविद्यालय में एम०ए० में करवा दिया। वहाँ भी मेरा मन नहीं लगा और मैं एक वर्ष पश्चात कोटा वापस लौट आई। उस समय सारे प्रोफैसर मुझे समझाने लगे कि मैं फाईनल की परीक्षा दे दूँ तथा वे लोग मुझे लेक्चरार की नौकरी लगवा देंगे।


आज सोचती हूँ कि यदि मैं रुक जाती तो प्रभु में कैसे आती? कैसे अनन्त जीवन की भगीदार बनती? कोटा आने के पश्चात मैंने एम०एम० फाईनल और बी०एड० साथ साथ किया। तभी मेरे मामा ने मेरे लिए एक नर्सरी स्कूल शुरू कर्वा दिया और मुझे प्रिंसिपल बना दिया। काम था और इज़्ज़त थी लेकिन मायूसी साथ साथ थी। सब लोग मुझे शादी के लिए मनाने लगे लेकिन मेरा शादी का शुरू से ही कोई इरादा नहीं था। शादी के कई प्रस्ताव आए लेकिन मैं नहीं मानी। अन्त्तः बी०सी० गोयल, जो कि मेरे पति हैं, उन से विवाह के लिए कैसे हाँ कर दी मुझे सव्यं नहीं पता परन्तु आज मुझे पक्का विश्वास है कि यह योजना प्रभु की ओर से थी। शादी के बाद मैं पति के साथ आगरा आ गई और मैंने उनके साथ बाईबल पढ़ना शुरू किया। प्रत्येक रविवार हम दोनों आराधना के लिए जाते थे। आराधनालय में भाई ने बताया कि हम सब काफी समय से तुम दोनों की शादी के लिए प्रार्थना कर रहे थे। मुझे बाईबल पढ़ना और समझना अच्छा लगने लगा, लेकिन मैं पापी हूँ, इस बात से अन्जान थी। समय निकलता गया, मेरे पति को उनके दोस्त ने धोखा दिया तथा आर्थिक परेशनी और बेटे की फीस वगैरह के कारण देहरादून के एक स्कूल में मुझे नौकरी करनी पड़ी। मैं तो इस लायक नहीं थी लेकिन यह प्रभु की दया थी कि मैं रोज़ स्कूल जाने से पहिले बाईबल पढ़ती थी, लेकिन रिवाज़ की तरह। सन १९७९ में मुझे नौकरी छोड़ कर हरिद्वार आना पड़ा क्योंकि पति मानसिक रीति से काफी तनाव मेम रहते थे। १९८१ में फैक्ट्री का कार्य सुचारू रूप से चलने लगा लेकिन शान्ति नहीं थी। १९८४ में हरिद्वार में एक महासभा हुई उस समय मैंने प्रभु को ग्रहण किया लेकिन मजबूरी में। उस समय मेरे दिल में प्रभु का कम नहीं था। भाई लोग जब भी हमारे घर आते, मुझे बुरा लगता, कि इनके लिए चाए बनाओ, खान बनाओ। मेरे पति मुझ से कहते कि सेब खने वाला ही उसके स्वाद को बता सकता है, प्रभु का स्वाद भी ऐसा ही है। मुझे लगता सब दिखावा ही है, स्वर्ग-नरक किसने देखा है? क्या गारण्टी है कि स्वर्ग में ही जाएंगे?


यह सच है कि प्रभु एक बार जिसे चुन लेता है उसे फिर छोड़ता नहीं। १९९० में एक विदेशी परिवार हमारे यहां आया। रात के करीब १२ बज रहे थे, हम्ज सब प्रार्थना कर रहे थे, उस समय पवित्र आत्मा ने मुझ में काम किया जिसक एहसास मैं पूर्ण रूप से कर सकी। उस रात मेरा जीवन बदल गया। मुझे अब सब कुछ नया-नया मिल गया, मैं अपनी खुशी बयन नहीं कर सकती। अब प्रभु मेरे साथ है। यद्यपि मुसीबतों के दौर बराबर चलते रहे लेकिन प्रभु ने मुझे विचिलित नहीं होने दिया। सन १९९०-९१ में मेरे पति का ऑपरेशन मेरठ में हुआ, उस समय प्रभु की दी हुई प्रतिज्ञा ने मेरे विश्वास को और भी बढ़ा दिया। मुझे इस समय विपिरीत परिस्थित्यों से निकलना पड़ा, फिर भी प्रभु ने इन परिस्थित्यों में गिरने नहीं दिया। १९९८ में मेरे पति को ब्रेन ट्यूमर यानि दिमाग़ की रसौली हो गयी। स्थिति बहुत नाज़ुक थी, इस स्थिति में भी प्रभु ने मुझे उस पर विश्वास करना सिखाया। मुझे सिखाया कि मैं समाज के सामने कह सकूँ कि प्रभु यीशु ही मेरा उद्धारकर्ता परमेश्वर है। आज मेरा परिवार, ससुराल और मायके हमारे पक्ष से बिलकुल अलग नज़र आते हैं; क्योंकि हम प्रभु में विश्वास रखते हैं। दोनो पक्ष प्रभु को गहण करने से हिचकिचाते हैं। आज प्रभु की दया से मेरा परिवार प्रभु में है। प्रभु की स्तुति हो आज मैं प्रभु में बहुत खुश हूँ। मेरे वास्तविक रिश्तेदार मेरे मसीही भाई-बहन हैं। मेरे लिए प्रार्थना कीजिए कि मैं प्रभु की जीवित पत्री बन सकूँ ताकि लोग मुझे पढ़कर मेरे प्रभु पर विश्वास कर सकें।

शुक्रवार, 5 जून 2009

सम्पर्क नवम्बर २००२: एक खोया सा जीवन जब फूट फूट कर रोया

मेरा नाम बी. सी. गोयल है। मेरा जन्म आगरा के एक व्यवसायिक हिन्दू परिवार में हुआ। आठवीं से दसवीं कक्षा तक मेरी पढ़ाई आगरा के बैपटिस्ट सकूल में हुई। मुझे वहां एक अच्छी बात यह लगी कि सकूल लगने से पहले, हैडमास्टार साहब बाईबल में से कुछ आयतें पढ़ते और प्रार्थना करते थे। मुझे यह सब कुछ समझ में तो नहीं आता था परन्तु सुनने में अच्छा लगता था। एक दिन हैडमास्टर साहब ने मत्ती ७:७ - ‘माँगो तो तुम्हें दिया जाएगा’ पढ़ा; इस आयत से मुझे लगा कि मैं जो माँगूंगा मुझे अवश्य मिलेगा। अब यह आयत मेरे दिमाग़ में घूमने लगी। स्कूल के पश्चात मुझे कॉलिज में दाखिला मिल गया, लेकिन मैं बी०एस०सी० पास नहीं कर सका जब कि मेरे दोस्तों को इंजीनियरिंग में दाखिला मिल चुका था। अब मैं उदास रहने लगा। लेकिन कुछ समय बाद मेरे एक दोस्त ने मुझे जर्मनी पढने के लिए बुला लिया और मेरा वहाँ दाखिला हो गया। फैकट्री के पास ही मैंने एक कमरा किराए पर ले लिया। मेरे मकान मालिक ८० वर्ष के एक नामधारी इसाई दम्पति थे। एक दिन उनके यहाँ आयोजित एक संगति सभा में उन्होंने मुझे भी बुलाया। उस सभा में यद्यपि मुझे ज़्यादा कुछ समझ में तो नहीं आया पर अच्छा लगा। अब मेरा उनके साथ संगति में आना जाना शुरू हो गया। मेरी ट्रेनिंग पूरी होने के बाद मुझे यह घर छोड़ना पढ़ा और मेरा संगति में जाना भी बंद हो गया। एक दिन मेरे एक दोस्त ने, जो लंदन में था, बताया कि वहाँ एक रबड़ इंजिनीयरिंग का कॉलेज है और उसमें दाखिले का तरीका बिल्कुल भारतीय पद्धति पर ही है। अतः मैंने लंदन जाकर कॉलेज के प्रिंसिपल से वहाँ दाखिले की बात की। उन्होंने बताया कि यदि मेरी अर्ज़ी भारतीय दूतावास के द्वारा भेजी जाए तभी उसपर विचार हो सकता है। जब इस प्रयोजन से मैं भारतीय दूतावास गया तो वहां इसके लिए मुझ से रिश्वत माँगी गयी, इसलिए मैं निराश होकर जर्मनी लौट आया। वहाँ पढने में मेरा मन नहीं लगता था, मैं लंदन के उस कॉलेज में जाना चाहता था।

एक शाम जब मैं बहुत उदास था, मैंने सोचा कि चलो प्रार्थना करके देखें। मैंने प्रार्थना करी और फिर लंदन कॉलेज फोन किया, तो प्रिंसिपल भारतीय दूतावास से अर्ज़ी की मंज़ूरी के बिना ही मुझे दाखिला देने को तैयार हो गया। इस बात से मेरे अन्दर एक छोटा सा विश्वास यीशु मसीह के प्रति जागा। मैं लंदन जाने की तैयारी करने लगा, मेरी मकान मालकिन ने मुझे लंदन स्थित विश्वासी परिवरों के दो-तीन पते दिये जिससे मैं वहाँ संगति कर सकूँ। लंदन आने पर मैं प्रभु यीशु की संगति में जाने लगा। अब मुझे पाप की सज़ा मृत्यु तथा पाप से पश्चाताप और क्षमा व अनन्त जीवन जो प्रभु यीशु के द्वारा मिलता है, के बारे में पता चला। तब मैंने अपने पापों से पश्चताप किया और मुझे अपने साथ प्रभु की उपस्थिति का एहसास होने लगा। इस तरह मुझ में परिवर्तन आने लगा। प्रभु की दया से मैं पढ़ने में बहुत अच्छा हो गया था। अच्छे नंबरों से पास होता देख प्रोफैसर मेरी पीठ थपथपाते थे। ऐसा होते देख मेरा विश्वास प्रभु में और भी बढ़ गया। अब मुझे संगति में और भी आनंद आने लगा। सन १९९६ में मुझे डॉ० बिली ग्राहम की सभा में जाने का अवसर मिला। उनके द्वारा दिए गए एक प्रवचन और वहाँ गाए गए भजन “यीशु कैसा मित्र प्यारा” ने मुझे बिलकुल बदल दिया। मैं फूट फूट कर रोने लगा तथा पापों की माफी मांगी और तब मुझे नए जीवन का अनुभव हुआ। मुझे लगा कि एक बहुत बड़ा बोझ मेरे सिर पर से हट गया। अब कॉलेज के बाद मेरा ज़्यादा समय प्रार्थना व संगति में बीतने लगा। प्रभु की दया से मुझे रबड़ इंजीनियरिंग की डिग्री मिल गयी और मेरे जीवन में प्रभु का वचन “माँगो तो तुम्हें दिया जाएगा” पूरा हुआ। सन १९६७ में अपनी पढ़ाई पूरी करके मैं भारत वापस अपने शहर आगरा आ गया। यहाँ मेरी मुलाकात प्रभु के एक सेवक, भाई रामेश्वर लाल, से हुई। वे मेरे घर संगति के लिए भी आने लगे, लेकिन प्रभु की दया से मेरे घर वालों ने कभी उनका विरोध नहीं किया। इसके बाद मेरा विवाह भी हो गया। मैं अपनी पत्नी को भी संगति में ले जाता था। धीरे धीरे मेरी पत्नी भी प्रभु में आ गयी। मुझे कई जगह विदेशों में भी नौकरी करने का मौका मिला। मेरा बपतिस्मा इथोपिया के एडिसबाबा शहर में हुआ। यहाँ भी प्रभु की दया से मुझे अच्छी संगति मिली।

सन १९८५ में मैं फिर से वापस भारत आ गया क्योंकि मुझे हरिद्वार में फक्ट्री डालने का अवसर मिला। यहाँ मेरा एक दोस्त, जिसे मैं बहुत मानता था, अपनी फैक्ट्री चल रहा था, उसी ने मुझे बुलाया। अब मुसीबतों का दौर शुरू हो गया और मेरे दोस्त ने भी मुझे धोखा दे दिया जिसकी मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था। मेरी फैक्ट्री भी बन्द हो गयी। मुझे बड़ा झटका लगा और मैं सड़क पर आ गया। बच्चे की फीस जमा करने के लिए भी नहीं होती थी। यह दोस्त चाहता था कि हम उसके आगे हाथ फैलाएं, लेकिन प्रभु जो कभी नहीं छोड़ता, उसने मेरी पत्नी को देहरादून में नौकरी दिलवाकर इस तथा अन्य समस्याओं को हल कर दिया। सन १९८० में प्रभु ने ही हमारे एक अन्य रिशतेदार को हमारी मदद के लिए भेजा। फिर प्रभु ने मेरे सोचने समझने से बढ़कर मुझे लौटा दिया। लेकिन मुझे प्रभु में जितना बढ़ जाना चाहिए था, नहीं बढ़ सका। हालांकि प्रभु के दासों का आना जाना व संगति करना लगा ही रहता था। सन १९९० में मैं बिमार पड़ा और मेरी हालत बहुत गंभीर हो गयी। मैं प्रभु से अपनी चँगाई की प्रार्थना करने लगा और प्रभु ने मुझे चँगा कर दिया। जून १९९८ में मेरी हालत ऐसे ही कभी ठीक कभी ख़राब चलती रही। लेकिन प्रभु के लोगों की संगति व प्रार्थना से मुझे बहुत हियाव मिलता था, जिसके कारण मैं आज भी प्रभु में बना हूँ। जुलाई १९९८ में मुझे ब्रेन ट्यूमर, यानि दिमाग़ की रसौली हो गयी। मुझे इलाज के लिए दिल्ली के एक अस्पताल में दाखिल किया गया। मेरे अपने रिशतेदार मुझे देखने नहीं आए. लेकिन प्रभु के दासों से मेरा कमरा भरा रहता था। प्रभु ने फिर एक और आश्चर्यकर्म किया, अपने दासों की प्रार्थनओं के उत्तर में मुझे पूरी चँगाई दी तथा निर्गमन ३४:१० मेरे लिए पूरा किया। प्रभु की दया से अब मैं बिल्कुल ठीक हूँ।

जब कभी मैं पीछे मुड़कर देखता हूँ तो मुझे एहसास होता है कि प्रभु कितना महान है। उसका प्रेम अद्भुत है, वह मुझे हर समय संभाले रहता है। मेरी इच्छा है कि मैं ज़्यादा से ज़्यादा समय प्रभु के चरणों में बिताऊँ।

मुझे आप सब की प्रार्थनों की बहुत ज़रूरत है।

गुरुवार, 4 जून 2009

सम्पर्क नवम्बर २००२: आराधना का आधार

रात तो काफी गहरा चुकी थी। बाहर बड़े आंगन में काफी गहमा-गहमी थी। मौसम काफी ठंडा ज़रूर था, पर माहौल बहुत गरमाया हुआ था। कुछ लोग आंगन में आग के चारों ओर बैठे थे। शायद, जैसे ही किसी ने दबी आग पर कुछ लकड़ियाँ लगा कर आग दहकाई, तैसे ही आग के चारों ओर बैठे लोगों के चेहरे साफ दिखने लगे। महायाजक की लौंडियों में से एक वहाँ आई और पतरस को आग तापते देख कर कहा कि तू भी तो यीशु नासरी के साथ था। पतरस तुरन्त मुकर गया (मरकुस १४:६८)। प्रभु यीशु के साथ जीने-मरने की कसम खाने वाला वह चेला, उस एक रात में, मुर्गे के बांग देने के पहले, तीन बार कसम खाकर अपने प्रभु का साफ इंकार कर गया। दूसरी तरफ पतरस का प्रभु, सारी रात अपमानित और प्रताड़ित होता रहा। इस अपमान और ताड़ना के समय में एक पल ऐसा आया जब इन्कार करते हुए पतरस का सामना प्रभु से हुआ। प्रभु ने पतरस को देखा और अपनी आँखों से ही उससे कुछ कहा, शायद ये कि, “हाँ पतरस, मैं तुझे अब भी प्यार करता हूँ, मैं तुझे कभी नहीं छोड़ूंगा, कभी नहीं त्यागुंगा” (लूका २२:६०-६२)। कैसा अद्भुत प्रेम, कैसी अद्भुत वफादारी, अपनी असहनीय पीड़ा में भी अपने इन्कार करने वाले कमज़ोर चेले को हियाव देना, उसे फिर से उठा कर खड़ा करना। इस प्रेम, इस अपनेपन का कोई सानी नहीं। ऐसा प्रेमी परमेश्वर ही आराधना का सच्चा हकदार है, उसका यह क्षमा करने वाला प्रेम ही हमारी आराधना का आधार है।

मैं आपसे, मनुष्य रूप में आए इस प्रभु परमेश्वर की कहानी कहना चाहता हूँ। आप इस कहानी को उसके प्यार के प्रकाश में देखिएगा। इसी का नाम मेरे सीने में बसता है। वही मेरी आराधना का आधार है।

* दो हज़ार साल पहले एक बहुत ही ग़रीब और मामूली परिवार में उसका जन्म हुआ, ऐसा परिवार जिसके पास न धन था, न संपत्ति और न कोई प्रभाव। बहुत ही ग़रीबी की हालत में पला-बड़ा हुआ और गुज़र किया । आज उसका प्रभाव सारे संसार में है, उसके वचन को आधार बनाकर कई देशों ने अपने संविधान बनाए हैं; समाज सुधरकों ने समाज के उत्थान की प्रेरणा और मार्ग दर्शन पाया है; रंग भेद, जाति भेद, लिंग भेद आदि से ऊपर उठ कर सभी इन्सानों के समान स्तर होने को समझा और समझाया है। समाज के हर वर्ग के लोग उसके अनुयायी हैं, धनवान भी, आलिम और दानिश्मंद भी, वैज्ञानिक भी, साधारण भी।

* एक देश के छोटे से दायरे में ही सम्पूर्ण जीवन जिया। उसके जीवन में केवल एक बार, उसके शिशुकाल में, उसकी जान बचाने को, उसके माँ-बाप थोड़े समय के लिए उसे देश की सीमाओं से बाहर ले गए। लेकिन आज संसार का कोई ऐसा देश नहीं है जहाँ उसका नाम और उसके अनुयायी नहीं हैं।

* आम आदमी की तरह उसे भूख, प्यास लगती थी; कभी-कभी झील पर तैरती नाव में ही सो जाता था।

* उसने कभी डॉकटरी नहीं सीखी पर बिना दवाईयों के ही बिमारों को चंगा कर देता था और कोई फीस भी नहीं लेता था, हर टूटे दिल को जोडने की सामर्थ रखता है।

* उसने खुद कभी कोई किताब नहीं लिखी; पर आज संसार में कोई ऐसी लाईब्रेरी नहीं है जहाँ उससे संबंधित कोई किताब न हो। मानव इतिहास में आदमी की कलम से कभी किसी एक आदमी के बारे में इतनी किताबें नहीं लिखीं गयीं जितनी इसके बारे में लिखी गयीं।

* उसने कभी कोई गीत नहीं लिखा; लेकिन इसके बारे में, सारे संसार में, न केवल इतने गीत लिखे गए जितने किसी और के बारे में कभी नहीं लिखे गए; और इतने लोग उन गीतों को आज भी गाते हैं जितने किसी और के लिए नहीं गाते।

* वह कभी कोई सैनिक अधिकारी नहीं रहा, न कभी कोई हथियार चलाया न किसी को कभी मारा या सताया; लेकिन इसके प्रेम और कुर्बानी को संसार में पहुँचाने और बयान करने के लिए सबसे अधिक लोगों ने अपनी जान जोखिम में डाली, सबसे अधिक लोगों ने अपनी जान कुर्बान भी की और आज भी उस प्रेम और कुर्बानी के सुसमाचार का बयान करने के लिए सबसे अधिक लोग ऐसा करने को तैयार हैं।

* जो देश कभी इसके विरोधी थे, आज वही उसके अराधक हैं। सारे संसार में, हर सात दिन के चक्र के समाप्त होते ही, लाखों लोग इसकी आराधना के लिए इकठ्ठे होते हैं।

* उसके जन्म के दो हज़ार साल बाद भी, उसके अनुयायियों की संख्या, सारे विश्व में, समाज के हर वर्ग में से, बढ़ती ही जा रही है, कभी घटी नहीं है।

* इस देने वाले ने इतना दिया कि अपने आप को ही दे डाला। लगभग दो हज़ार साल पहले उसे नाश करने के लिए उसके समाज के हाकिमों ने षड़यंत्र रचकर उसे पकड़ा और झूठे मुकद्दमे के द्वारा क्रूस पर चढ़ा कर मार डाला। कब्र उसे रख न सकी और वह तीसरे दिन जीवित होकर, बंद कब्र से बाहर आ गया, चालीस दिन तक उन्हीं लोगों के बीच में रहा और उनके देखते हुए स्वर्ग पर चला गया। वह आज भी जीवित है और लोगों के जीवन बदल रहा है।

* उन बदले हुए जीवन वाले लाखों मनों की ऊंचाई पर विराजमान होकर आज उनका परमेश्वर कहलाता है। स्वर्गदूत इस बात को स्वीकारते हैं, सन्त सराहते हैं और शैतान उसके नाम से ही सहमता है।

* इस जीवित, सर्वसामर्थी, सर्वव्यापी, सर्वज्ञानी, शाश्वत, परमसत्य का नाम प्रभु यीशु है; वो मेरा उद्धारकर्ता है, मेरा प्रभु है, मेरा स्वामी है।

जो जन हमारे लिए सब कुछ होता है, हम उसके लिए सब कुछ कर गुज़रते हैं। क्या आपको मालूम है कि आप प्रभु यीशु के लिए सब कुछ हैं? इसीलिए वह आपके लिए सब कुछ कर गुज़रा। आप ही उसकी खुशी हैं, जैसे ही कोई मन फिराकर प्रभु में आता है, स्वर्ग में खुशी और जश्न मनता है। वह आपको अपनी जान से ज़्यादा प्यार करता है, इसलिए उसने अपनी जान आपके लिए दे दी।

मैंने प्रभु की एक बात पकड़ी है; एक बात है जिसके करने के लिए हमें मना करता है, लेकिन खुद करता है। देखिए वह क्या कहता है, “प्रभु को उस पर तरस आया और कहा मत रो” (लूका ७:१३); “तू क्यों रोती है?” (यूहन्ना २०:१५); “वह नगर के निकट आया तो नगर को देखकर रोया” (लूका १९:४१); “यीशु के आंसू बहने लगे” (यूहन्ना ११:३५); “वह आंसू बहा-बहा कर प्रार्थना करता था” (इब्रानियों ५:७)।
क्या बात इस प्यार की जो हमें रोता हुआ तो देख नहीं पाता और खुद हमारे लिए रोता है।



बुधवार, 3 जून 2009

सम्पर्क नवम्बर २००२: सम्पादकीय

प्रभु यीशु के प्यारे नाम से सम्पर्क आपके सम्मुख है। क्षमा चाहते हैं कि यह अंक काफी देर से आपके हाथों में पहुँचा पा रहे हैं। आपकी प्रार्थनाएं और पत्र हमें हमेशा हियाव देते हैं। हमारी अभिलाशा है कि स्याही से छपी इस छोटी काग़ज़ी किताब से आप परमेश्वर की आवाज़ को सुन सकें। यह बात आप पर है कि आप उसकी बात को स्वीकारें या ठुकराएं। आप कह सकते हैं कि ये लोग पुरानी कहानी, बासी शब्दों के साथ फिर हमारे सामने परोसने में लगे हैं। सम्पर्क आपके हाथ में है, आप सम्पर्क के हाथ में नहीं। आप जब चाहें इसे खोल कर पढ़ सकते हैं, जब मन ऊबे तो बंद कर सकते हैं, यदि झुंझला जाएं तो फेंक सकते हैं और फाड़कर जला भी सकते हैं। यह बात आपके हाथ में है। पर प्रभु की दया से सत्य को साफ कह देना सम्पर्क का कर्तव्य है। प्रभु करे कि जो लिखा है, उसके वास्तविक अर्थ को आप समझ सकें।

पवित्रशास्त्र कोई मुर्दा लाश नहीं है, परन्तु परमेश्वर की जीवित सामर्थ है। परमेश्वर का वचन बीज है और उसमें जीवन है जो बढ़ने और फलने को मचलता है। बस उसे एक अच्छी भूमि की ज़रूरत है, जिससे तीस गुणा, साठ गुणा, सौ गुणा फल सके। पवित्रआत्मा तो तैयार है पर बहुतों का मन पवित्रआत्मा की बात मानने को तैयार नहीं है; वे आत्मा को बुझा देते हैं, उसको शोकित कर उसकी आवाज़ को दबा डालते हैं। वे सारी सम्भावनाओं को खुद ही समाप्त कर डालते हैं।

ऐसे विश्वासी धीरे-धीरे स्वभाविकता को उतार कर मक्कारी को पहन लेते हैं। वे हमेशा दूसरों पर दोष लगाते मिलेंगे और अपनी मजबूरियाँ गिनाते रहेंगे। वे मौका और मौसम देख कर चलते हैं। वे प्रार्थना सभा, बाईबल अद्ध्यन की सभाओं से अलग होकर, धीरे-धीरे आराधना सभा के दिन भी गोल होने लगते हैं। इनके जीवन में प्रभु की मेज़ का कोई विशेष महत्त्व नहीं रह जाता। कितनों ने खुद अपनी गवाही की ही हत्या कर डाली है; बस विरोध से भरे रहते हैं। कहीं यह आपके व्यवहार का चित्रण तो नहीं है?

आपको लगभग हर मंडली में कुछ बड़े मंझे हुए झूठे विश्वासी मिल जाएंगे। तोते के रटने के समान, बाईबल के पदों को दिमाग़ से रट कर तो रखते हैं पर उसे दिल में ज़रा जगह नहीं देते, निज जीवन में कतई लागू नहीं करते; उस वचन से उनमें बूंद भर भी परिवर्तन नहीं होता। इन्होंने मंडलियों में बड़ा अनर्थ कर डाला है। वे पवित्रशास्त्र का उपयोग अर्थशास्त्र की तरह करते हैं। इनका प्रचार पैसा बनाने का साधन मात्र है। शैतान ने इन्हीं झूठे लोगों पर प्रभु का काम बिगाड़ाने का दयित्व सौंपा हुआ है। यह जितनों को जितना भरमा सकते हैं उतना भरमा देते हैं। ऐसे तिकड़मी लोग मंडलियों में दोष लगाते और विरोध उपजाते हैं और प्रभु का पैसा भी मार लेते हैं। शैतान इनकी जी तोड़ सहायता करता है। वे परमेश्वर की सहनशीलता को तुच्छ जानते हैं। वे दूसरों के लिए भारी और ऊंचे सिद्धांतों को स्थापित करते हैं पर मसीही जीवन के मूलभूत सिद्धांत-प्रेम, दया और क्षमा को हमेशा दबा देते हैं। जीवित वचन कहता है “वे एक ऐसे भारी बोझ को, जिसको उठाना कठिन है, बांधकर उन्हें मनुष्यों के कंधों पर रखते तो हैं; परन्तु आप उन्हें अपनी उंगली से भी सरकाना नहीं चाहते” (मत्ती २३:४,५)। ये सब काम वो लोगों को दिखाने के लिए करते हैं। सच तो यह है कि इन्होंने अपनी बरबादी की कब्र खुद ही खोद ली है।

बच्चों की कहानी बड़ों को सुनाने का अवसर मिला है, कहानी जानी पहिचानी है, सबने कभी न कभी तो सुनी होगी। आस-पास की दुकान, मकान के सभी चूहों ने एक एमरजैन्सी मीटिंग बुलाई। मामला था कि लाला की बिल्ली ने बड़ा आतंक मचा रखा था। चूहों कि पूरी कौम खतरे में थी, अस्तितव का सवाल था। बिल्ली के करीब आने की खबर कैसे लगे, कि समय रहते जान बचाकर भागा जा सके, इसी समस्या का हल ढूंढना था। बहुत विचार-विमर्श हुआ, अलग-अलग तरिके सुझाए गए, पर कोई भी तरीका जमा नहीं। काफी देर बाद एक बूढ़े चूहे ने सिर खुजाते हुए सुझाव दिया ‘अरे मूर्खों, सरल सी बात है, बिल्ली के गले में घंटी बांध दो।’ सुझाव सुनते ही चूहों ने ज़ोरदार तालियां पीटीं, बड़ी वाह-वाही हुई। एक छोटा चूहा डोरी के साथ एक छोटी घंटी ले भी आया। अब सवाल उठा कि घंटी कौन बांधेगा? सब एक दुसरे का मूँह देखते रहे पर कोई आगे नहीं आया। अन्त में उसी बूढ़े चूहे से पूछा गया कि अब आप ही कोई राह बताईए। बूढ़े चूहे ने जवाब दिया, ‘देखो भाई, हम तो सिद्धांत प्रतिपादित करते हैं, यानि थ्योरी बताते हैं; प्रैकटिकल तो खुद ही करो।’ चूहों की सभा बिना किसी नतीजे पर पहुँचे बर्ख़ास्त हो गयी। लेकिन अगले दिन सभी चूहे यह देखकर अवाक रह गये कि बिल्ली के गले में घंटी बंधी थी। पूछ-ताछ हुई तो मालूम चला कि जो छोटा चूहा घंटी लाया था, उसी ने बांध भी दी और अभी ज़िन्दा भी है। चूहों ने उसे बुलाकर उससे पूछा कि यह कैसे किया? वो बोला, कुछ खास नहीं, बस नींद की गोली कुतर कर बिल्ली के दूध में डाल दी, जब वो गहरी नींद में सो गयी तो काम कर डाला।

अक्सर यह देखा जाता है कि छोटे ईमान्दार विश्वासी, बड़े-बड़े काम बड़ी खामोशी से कर जाते हैं; जबकि बड़े-बड़े नामधारी विश्वासी छोटी-छोटी बातों पर बड़ी-बड़ी राजनीति खेलते रह जाते हैं। ये वे लोग हैं जिन्होंने अपने विवेक को जलते हुए कोयले से दाग़ लिया है। इस अन्त के समय में तो ऐसे लोगों की भरमार होगी। इनका विनाश ऊंघता नहीं, बस परमेश्वर का धैर्य ही है जो इनके इस विनाश को रोके हुए है। इन लोगों को देखकर हमें निराश और हताश होने की ज़रूरत नहीं, बस प्रभु मुझ पर और आप पर दया करे कि हम इन्के साथ न लग जाएं।

जाते-जाते प्रभु के प्रेम की एक कहानी आपके सामने रखना चाहता हूँ। बाईबल में, लूका ७:११-१७ के पन्नों में, नाइन शहर की एक विधवा की कहानी खुदी है जो अपने इकलौते बेटे के जनाज़े में चल रही थी। वह कभी सोच भी नहीं सकती थी कि अपने जवान बेटे को अपनी ही आँखों के सामने दफनाना पड़ेगा। बेटे की बिमारी मौत में बदलते ही उसकी आखिरी उम्मीद भी ढह गयी। इस विधवा के दिल पर क्या बीती होगी? सही एहसास तो हम नहीं कर पाएंगे। माँ ने रात-दिन जागकर, सब कुछ करके देखा होगा। अब जन्म देने वाली माँ जीवन देने में असहाय और अस्मर्थ थी। वैसे तो हमने कितनों के अंतिम संसकार होते हुए देख होंगे, उन्में सम्मिलित भी हुए होंगे। पर जब हम किसी अपने को अंतिम विदाई देते हैं तो दिल पर क्या बीतती है, शब्दों में उस दर्द को ब्यान करने की सामर्थ नहीं है। जैसे-जैसे कब्रिस्तान करीब आता जाता, माँ बार-बार बेटे के चेहरे को चूमती, थोड़ी ही देर में उस चेहरे को हमेशा के लिए कफन से ढाँक दिया जाएगा और लाश पर मिट्टी डाल दी जाएगी। वो माँ कैसे बिलखती हुई लौटेगी अपने सुनसान खाली घर में। लोग शब्दों से आगे क्या सहारा दे पाएंगे? तभी शहर से बाहर जाता हुआ वह जनाज़ा, शहर के अन्दर आते प्रभु यीशु और उसके साथ चल रहे चेलों से रू-ब-रू हुआ। परमेश्वर का बेटा, बेटे के वियोग में तड़पती माँ को देखकर अपने आप को रोक न सका। उस माँ को देखकर प्रभु को तरस आया और प्रभु ने उससे कहा ‘मत रो’ (लूका ७:१३)। ठीक जीवन के सबसे अंधियारे समय में, उस माँ की मुलाकात जीवन की ज्योति से हुई, और ज्योति ने कहा ‘मत रो’। फिर प्रभु उसके बेटे के पास गया जो अब एक लाश, एक दुखदायी बोझ भर बन के रह गया था; अब कहीं कोई उम्मीद बाकी थी ही नहीं। प्रभु ने उस बेटे की लाश से कहा “मैं तुझ से कहता हूँ उठ” और वह जवान ज़िन्दा हो कर उठ बैठा और बोलने लगा। ज्योति ने अंधकार को हर लिया, असंभव संभव हो गया, माँ का मातम आनंद में बदल गया।

शायद आप अपने जीवन में किसी निराशा में फंसे होंगे, हालात से हार चुके होंगे। शायद अब दुनियाँ में कोई रास्ता, कोई उम्मीद की किरण बाकी नहीं होगी। लेकिन प्रभु कहता है “उठ! मत डर, मैं तुझे बनाऊँगा”। अपने घुटनों पर आईये, प्रभु की ओर अपने हाथ फैलाईये और प्रभु से कहिए “हे प्रभु मैं पूरी तरह से हार चुका हूँ, प्रभु मेरी सुधि लें, मुझ पर दया करें।” अपने अंधियारों को उस ‘जीवन की ज्योति’ को सौंप दें और उसकी ज्योति और प्रेम से अपने जीवन को भर लें। वह असंभव को संभव करने वाला, कुछ नहीं से सब कुछ उत्पन्न करने वाला सृष्टिकर्ता परमेश्वर है। वही मार्ग, जीवन और सत्य है (यूहन्ना १४:६)।
सम्पर्क की सीमाएं सीमित हैं, बस अब यहीं ठहरने को कहती हैं। आपकी प्रार्थनों के अभिलाषी.....
सम्पर्क परिवार।