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शुक्रवार, 5 जून 2009

सम्पर्क नवम्बर २००२: एक खोया सा जीवन जब फूट फूट कर रोया

मेरा नाम बी. सी. गोयल है। मेरा जन्म आगरा के एक व्यवसायिक हिन्दू परिवार में हुआ। आठवीं से दसवीं कक्षा तक मेरी पढ़ाई आगरा के बैपटिस्ट सकूल में हुई। मुझे वहां एक अच्छी बात यह लगी कि सकूल लगने से पहले, हैडमास्टार साहब बाईबल में से कुछ आयतें पढ़ते और प्रार्थना करते थे। मुझे यह सब कुछ समझ में तो नहीं आता था परन्तु सुनने में अच्छा लगता था। एक दिन हैडमास्टर साहब ने मत्ती ७:७ - ‘माँगो तो तुम्हें दिया जाएगा’ पढ़ा; इस आयत से मुझे लगा कि मैं जो माँगूंगा मुझे अवश्य मिलेगा। अब यह आयत मेरे दिमाग़ में घूमने लगी। स्कूल के पश्चात मुझे कॉलिज में दाखिला मिल गया, लेकिन मैं बी०एस०सी० पास नहीं कर सका जब कि मेरे दोस्तों को इंजीनियरिंग में दाखिला मिल चुका था। अब मैं उदास रहने लगा। लेकिन कुछ समय बाद मेरे एक दोस्त ने मुझे जर्मनी पढने के लिए बुला लिया और मेरा वहाँ दाखिला हो गया। फैकट्री के पास ही मैंने एक कमरा किराए पर ले लिया। मेरे मकान मालिक ८० वर्ष के एक नामधारी इसाई दम्पति थे। एक दिन उनके यहाँ आयोजित एक संगति सभा में उन्होंने मुझे भी बुलाया। उस सभा में यद्यपि मुझे ज़्यादा कुछ समझ में तो नहीं आया पर अच्छा लगा। अब मेरा उनके साथ संगति में आना जाना शुरू हो गया। मेरी ट्रेनिंग पूरी होने के बाद मुझे यह घर छोड़ना पढ़ा और मेरा संगति में जाना भी बंद हो गया। एक दिन मेरे एक दोस्त ने, जो लंदन में था, बताया कि वहाँ एक रबड़ इंजिनीयरिंग का कॉलेज है और उसमें दाखिले का तरीका बिल्कुल भारतीय पद्धति पर ही है। अतः मैंने लंदन जाकर कॉलेज के प्रिंसिपल से वहाँ दाखिले की बात की। उन्होंने बताया कि यदि मेरी अर्ज़ी भारतीय दूतावास के द्वारा भेजी जाए तभी उसपर विचार हो सकता है। जब इस प्रयोजन से मैं भारतीय दूतावास गया तो वहां इसके लिए मुझ से रिश्वत माँगी गयी, इसलिए मैं निराश होकर जर्मनी लौट आया। वहाँ पढने में मेरा मन नहीं लगता था, मैं लंदन के उस कॉलेज में जाना चाहता था।

एक शाम जब मैं बहुत उदास था, मैंने सोचा कि चलो प्रार्थना करके देखें। मैंने प्रार्थना करी और फिर लंदन कॉलेज फोन किया, तो प्रिंसिपल भारतीय दूतावास से अर्ज़ी की मंज़ूरी के बिना ही मुझे दाखिला देने को तैयार हो गया। इस बात से मेरे अन्दर एक छोटा सा विश्वास यीशु मसीह के प्रति जागा। मैं लंदन जाने की तैयारी करने लगा, मेरी मकान मालकिन ने मुझे लंदन स्थित विश्वासी परिवरों के दो-तीन पते दिये जिससे मैं वहाँ संगति कर सकूँ। लंदन आने पर मैं प्रभु यीशु की संगति में जाने लगा। अब मुझे पाप की सज़ा मृत्यु तथा पाप से पश्चाताप और क्षमा व अनन्त जीवन जो प्रभु यीशु के द्वारा मिलता है, के बारे में पता चला। तब मैंने अपने पापों से पश्चताप किया और मुझे अपने साथ प्रभु की उपस्थिति का एहसास होने लगा। इस तरह मुझ में परिवर्तन आने लगा। प्रभु की दया से मैं पढ़ने में बहुत अच्छा हो गया था। अच्छे नंबरों से पास होता देख प्रोफैसर मेरी पीठ थपथपाते थे। ऐसा होते देख मेरा विश्वास प्रभु में और भी बढ़ गया। अब मुझे संगति में और भी आनंद आने लगा। सन १९९६ में मुझे डॉ० बिली ग्राहम की सभा में जाने का अवसर मिला। उनके द्वारा दिए गए एक प्रवचन और वहाँ गाए गए भजन “यीशु कैसा मित्र प्यारा” ने मुझे बिलकुल बदल दिया। मैं फूट फूट कर रोने लगा तथा पापों की माफी मांगी और तब मुझे नए जीवन का अनुभव हुआ। मुझे लगा कि एक बहुत बड़ा बोझ मेरे सिर पर से हट गया। अब कॉलेज के बाद मेरा ज़्यादा समय प्रार्थना व संगति में बीतने लगा। प्रभु की दया से मुझे रबड़ इंजीनियरिंग की डिग्री मिल गयी और मेरे जीवन में प्रभु का वचन “माँगो तो तुम्हें दिया जाएगा” पूरा हुआ। सन १९६७ में अपनी पढ़ाई पूरी करके मैं भारत वापस अपने शहर आगरा आ गया। यहाँ मेरी मुलाकात प्रभु के एक सेवक, भाई रामेश्वर लाल, से हुई। वे मेरे घर संगति के लिए भी आने लगे, लेकिन प्रभु की दया से मेरे घर वालों ने कभी उनका विरोध नहीं किया। इसके बाद मेरा विवाह भी हो गया। मैं अपनी पत्नी को भी संगति में ले जाता था। धीरे धीरे मेरी पत्नी भी प्रभु में आ गयी। मुझे कई जगह विदेशों में भी नौकरी करने का मौका मिला। मेरा बपतिस्मा इथोपिया के एडिसबाबा शहर में हुआ। यहाँ भी प्रभु की दया से मुझे अच्छी संगति मिली।

सन १९८५ में मैं फिर से वापस भारत आ गया क्योंकि मुझे हरिद्वार में फक्ट्री डालने का अवसर मिला। यहाँ मेरा एक दोस्त, जिसे मैं बहुत मानता था, अपनी फैक्ट्री चल रहा था, उसी ने मुझे बुलाया। अब मुसीबतों का दौर शुरू हो गया और मेरे दोस्त ने भी मुझे धोखा दे दिया जिसकी मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था। मेरी फैक्ट्री भी बन्द हो गयी। मुझे बड़ा झटका लगा और मैं सड़क पर आ गया। बच्चे की फीस जमा करने के लिए भी नहीं होती थी। यह दोस्त चाहता था कि हम उसके आगे हाथ फैलाएं, लेकिन प्रभु जो कभी नहीं छोड़ता, उसने मेरी पत्नी को देहरादून में नौकरी दिलवाकर इस तथा अन्य समस्याओं को हल कर दिया। सन १९८० में प्रभु ने ही हमारे एक अन्य रिशतेदार को हमारी मदद के लिए भेजा। फिर प्रभु ने मेरे सोचने समझने से बढ़कर मुझे लौटा दिया। लेकिन मुझे प्रभु में जितना बढ़ जाना चाहिए था, नहीं बढ़ सका। हालांकि प्रभु के दासों का आना जाना व संगति करना लगा ही रहता था। सन १९९० में मैं बिमार पड़ा और मेरी हालत बहुत गंभीर हो गयी। मैं प्रभु से अपनी चँगाई की प्रार्थना करने लगा और प्रभु ने मुझे चँगा कर दिया। जून १९९८ में मेरी हालत ऐसे ही कभी ठीक कभी ख़राब चलती रही। लेकिन प्रभु के लोगों की संगति व प्रार्थना से मुझे बहुत हियाव मिलता था, जिसके कारण मैं आज भी प्रभु में बना हूँ। जुलाई १९९८ में मुझे ब्रेन ट्यूमर, यानि दिमाग़ की रसौली हो गयी। मुझे इलाज के लिए दिल्ली के एक अस्पताल में दाखिल किया गया। मेरे अपने रिशतेदार मुझे देखने नहीं आए. लेकिन प्रभु के दासों से मेरा कमरा भरा रहता था। प्रभु ने फिर एक और आश्चर्यकर्म किया, अपने दासों की प्रार्थनओं के उत्तर में मुझे पूरी चँगाई दी तथा निर्गमन ३४:१० मेरे लिए पूरा किया। प्रभु की दया से अब मैं बिल्कुल ठीक हूँ।

जब कभी मैं पीछे मुड़कर देखता हूँ तो मुझे एहसास होता है कि प्रभु कितना महान है। उसका प्रेम अद्भुत है, वह मुझे हर समय संभाले रहता है। मेरी इच्छा है कि मैं ज़्यादा से ज़्यादा समय प्रभु के चरणों में बिताऊँ।

मुझे आप सब की प्रार्थनों की बहुत ज़रूरत है।

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