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शुक्रवार, 12 जून 2009

सम्पर्क नवम्बर २००२: बस अब बिखरना ही बाकी बचा है

अगर हम धर्म के नाम पर आपस में नहीं लड़ेंगेऔर यदि हम अपने धर्म को ऊँचा और दूसरे के धर्म को नीचा दिखाने के अहंकारी विवाद में आपस में नहीं उलझेंगे तो सच मानिएगा हमारे धर्म-नेता और राज-नेता भूखों मर जाएंगे, क्योंकि इसी आग पर तो इनकी रोटियां सिकती हैं। राज्नेताओं का सिद्धांत है कि बन्दूक हमेशा दूसरों के कन्धों पर रख कर चलाई जाती है, बेवकूफ ही बन्दूक का बोझ अपने कन्धों पर ढोते हैं। जीवन में नैतिकता ज़रूरी नहीं है, नारों में नैतिकता दिखाओ; मात्र शब्दों में ईमान्दारी दिखाने में क्या घिसता है?

कितनी बार ज्ञानवान लोग अज्ञानियों की भाषा का उपयोग करते हैं। हमें अक्सर एक थके हुए सवाल का सामना करना पड़ता है - “आप कौन है?” जवाब में यदि कहें कि “जनाब आदमी हूँ”, तो जनाब की असली मनषा एक दूसरे सवाल में सामने आती है जब वो मुस्कुराते हुए फिर पूछते हैं - “ साहब आदमी तो सभी हैं, मेरा मतलब था कि आप इसाई हैं या मुसलमान हैं, आखिर आप कौन हैं”? क्या मैं इसाई, मुसलमान, हिन्दू आदि बन्धनों के ऊपर उठकर एक इन्सान नहीं हो सकता? धर्म एक बड़ी बाधा है, हाँ सच मानिए एक दिमाग़ी बाधा है। धर्म तोड़ता है, जोड़ता नहीं। हमारे धर्म हमें परमेश्वर से कब जोड़ते हैं, वे तो आदमी को आदमी से तोड़ते हैं। धर्म हमें विरोध से, अहंकार से और बदले की भावना से भर देते हैं। स्वयं एक नज़र अपने समाज पर दृष्टि डालिए, उसने कैसे हमारे संसार को टुकड़ों में तोड़ डाला है। बस अब संसार का बिखरना ही तो बाकी बचा है।

किसी भी धर्म की दुकान पर चैन और शान्ति नहीं बिकती। ज़रा ग़ौर कीजीएगा, जब खुद धर्म की दुकान चलने वालों के पास ही चैन और शान्ति नहीं है तो वे फिर औरों को कैसे और क्या देंगे? हमारे धर्म स्थानों में अधर्म का कारोबार खूब चलता, पनपता है चाहे-किसी भी धर्म का स्थान क्यों न हो। यहाँ आए जीवन से निराश और थके-हारे लोगों को झूठी शान्ति के बहलावे देकर बड़ी चतुराई से लूटा जाता है। क्या कभी परमेश्वर इन्सान को इन्सानियत से दूर ले जाएगा? क्या परमेश्वर इतना पराया है कि वह अपने नाम पर इतना कुछ करने देगा? यह भयानकता तो सिर्फ धर्म के नाम पर ही होती है। धर्म ही आदमी को परमेश्वर से दूर ले गया है।

हम भी तो कुछ कम दोषी नहीं। हमार जीवन में धर्म के लिए जगह है पर ईमान्दारी और सच्चाई के लिए कोई जगह है ही नहीं। हम भी अपने स्वार्थ और लालच के कारण अलग-अलग धर्मों से जुड़े हैं। हमारा मन धर्म-गुरूओं से कहता है कि महाराज कोई ऐसा गुरू मंत्र बताओ कि बस नोट बरसने लगें। परमेश्वर के घर के बाहर जूते उतारते हैं तब अन्दर जाते हैं कि वो स्थान अपवित्र न हो, पर मन की अपवित्रता क्यों नहीं उतारते, उसे क्यों साथ ही ले जाते हैं? आराधना स्थल पहुँचने से पहले हम अपनी दाढ़ी रगड़ते, खोपड़ी रंगते, नहाते-धोते और शरीर संवारते हैं; परन्तु परमेश्वर तो मन को देखता है (१ शमूएल १६:७), उस मन की दशा का क्या कभी स्वच्छ करते हैं? मन में तो बैर, जलन, लालच, झूठ और अहंकार है। सारी गंदगी तो वहीं धरी है, और धरी ही रहती है। यहीं तो सारी बात गड़बड़ा जाती है। जूते उतारने, शरीर संवारने से फर्क नहीं पड़ता, ऐसा करने में कोई बुराई या ग़लत बात भी नहीं है; पर जब मन ही साफ न रखा हो तो ऐसी बाहरी सफाई से क्या लाभ? परिवार का झगड़ा मन में भरे लोग, गाली बकने वाले, व्यभिचारी, रिश्वतखोर, लालची, दुराचारी परमेश्वर के भवन में हाथ जोड़े, आंखें बन्द किए, मन में परमेश्वर से संसार को ही मांगा करते हैं। उन्होंने कहां कभी अपने पाप की गन्दगी और बेचैनी को स्वीकारा और उससे छुटकारा मांगा?

युग बदले पर आदमी का स्वभाव नहीं बदला। शिक्षा, समाज, संगत, सरकार कोई भी उसको नहीं बदल पाया। आदमी का स्वभाव आदमी के साथ ही पैदा होता है। इन्सान दो तरह से जीता है-एक जो प्रगट में और दूसरा छिपकर। खाने के दांत अलग, दिखाने के अलग। शब्दों को भी दो तरह से इस्तेमाल करता है, कुछ बात बताने के लिए, कुछ बात छिपाने के लिए। चश्मे भी दो तरह के रखता है, एक देखने के लिए दूसरा दिखाने के लिए। वैसे ही आदमी के स्थायी स्वभाव का एक भाग व्यभिचार भी है। यह उम्र के साथ समाप्त नहीं होता। मैंने बूढ़े लोगों को अक्सर कहते सुना है, “क्या ज़माना आ गया है, कितना नंगापन और अशलीलता आजकल की फिल्मों और टी०वी० कार्यक्रमों में दिखाया जाता है।” यह शब्द सिर्फ सुनाने के लिए हैं, मोटे चश्मों में से कितनी ही बूढ़ी तरसती आंखें झांकती फिरती हैं कि कहीं कुछ नंगापन दिख जाए।

एक जवान औरत बोली, “अंकल इस ऑफिस में गन्दी निगाह रखने वाले लोग हैं, एक भी राखी बंधवाने को तैयार नहीं है। मेरे कोई भाई नहीं है, आप ही बुज़ुर्ग हैं कल मैं आपको ही राखी बांधूंगी। बस आपको ५१ रू० और एक सूट देना पड़ेगा।” यह सुनते ही बज़ुर्ग कुछ गड़बड़ा सा गया। जवान स्त्री मुस्कुराई और बोली, “परेशान मत होइए, ५१ रू० और सूट वूट की कोई ज़रूरत नहीं है।” बुज़ुर्ग बोले, “५१ की जगह १०१ रू० ले लो, एक छोड़ दो सूट दे दूंगा, पर परेशानी तो राखी से है।” ‘शरीर’ तो मरा सा है पर व्यभिचार की लालसा ज़रा भी कम नहीं हुई। श्री. भास्कर का कहना है कि ९० प्रतिशत शादी शुदा लोग व्यभिचारी होते हैं। पति-पत्नि अलग-अलग ग़लत संबंध छिपकर पालते हैं। हम कितने मक्कार हैं, कैसे ईमानदारी से मक्कारी को ओढ़े रहते हैं। कितने ही लोग सुबह से ही मक्कारी शुरू कर लेते हैं; ऑफिस में, मन मारकर साहब को सलाम मारना पड़ता है। मुंह मुस्कुराता है पर मन कोसता है। हमारी मक्कारी को अगला सहजता से समझ भी लेता है, लेकिन उसे अपनी मक्कारी के पीछे छिपा, अन्जान बन जाता है। मक्कारी थोड़ी हो या बहुत, हमारे स्वभाव का एक हिस्सा तो है ही।

आज सबसे अधिक फलती, फूलती और फैलती कला है चापलूसी, जो सर्वत्र सर्वाधिक विकासमान है। इसे ‘कुत्ते-गिरी’ का स्वभाव भी कहते हैं। टुकड़ों के लिए दुम हिलाते फिरिएगा, पहले मक्खन लगायिगा और मौका लगते ही ज़बर्दस्त चूना लगा जाइये। स्वार्थ साधने के लिए कुछ न कुछ तो लगाना ही पड़ेगा, नोट लगाओ या सिफारिश, पर चिकनाहट भरी चापलूसी के साथ लगाओ। मक्खन मारने में माहिर कलर्क, शाम को साहब के घर सामान पहुंचाने पहुंचा, घर में नए पर्दे लगे देख साहब से बोला, “साहब, मेम साहब ने क्या पर्दे लटकाए हैं, मेरा तो दिल ही लटका रह गया।”

जनाब यह जग ज़ाहिर है कि हर धंधे में धांधलियां हैं; बिना गोट फिट किए, काम फिट नहीं बैठता। हमारे समाज का कोई भी भाग भ्रष्टाचार से बचा नहीं है। कानून के रखवालों और बदमाशों में बहुत ‘भाईचारा’ है; यदि ये रखवाले बदमाशों को ‘भाई’ न बनायें तो ‘चारा’ कहां से खाएं? यदि मुजिरम समाप्त कर दिए जाएं तो इन रखवालों की रोज़ी रोटी ही चौपट हो जाएगी। इन रखवालों के लिए बदमाश सोने का अंडा देने वाली मुर्गी हैं। एस० जे० उदय की एक छोटी सी कहानी है ‘ग़लती’ जिसमें एक औरत अपने आप का गुण्डों के हाथों से छुड़ाकर भागी और सीधे थाने में घुसती चली गई, यही उसकी सब से बड़ी ग़लती थी। कहानी दर्शाती है कि सुरक्षा कर्मियों के हाथों में भी हम कितने असुरक्षित हैं। आप बदमाशों के हाथों से तो छूट सकते हैं, पर एक बार ऐसे ‘रक्षकों’ के हाथों में पड़े तो फिर बच निकलना मुशकिल ही होता है।

“भईया सबसे बड़ा रुपईया” ‘पैसा’ सब को अच्छा लगता है, ज़रूरी भी है; पर पैसा हर ज़रूरत कतई पूरी नहीं कर सकता। अगर आपकी पैसे की समस्या समाप्त हो जाए तो क्या हर समस्या समाप्त हो जाएगी? सोचिए तो सही, क्या पैसे वालों के पास समस्याओं की कमी है? पैसे से समस्याएं कम नहीं होतीं पर चिंताएं ज़रूर बढ़ जाती हैं, खतरे बढ़ जाते हैं, अहंकार, शत्रु और पाप की अभिलाषाएं भी बढ़ जाती हैं। पैसे से आप बहुत कुछ खरीद सकते हैं पर घर में प्यार भरी खुशी नहीं ला सकते। बच्चों को अच्छी और उच्च शिक्षा दिला सकते हैं पर उन्हें सुधार नहीं सकते। हर तरह के साज-सामान से भरा महल तो बना सकते हैं पर प्रेम और अपनेपन से भरा परिवार नहीं बना सकत। पैसे से परिवार में कलह तो हो जाते हैं, पर पैसे से पारिवारिक कलह सुलझ नहीं सकते।

धन के बारे में दो बातें कही जाती हैं, पैसा पाने के लिए आदमी ‘उल्लू’ बन जाता है; या, पैसा पाकर ‘उल्लू’ बन जाता है। ‘उल्लू’ अन्धेरे का बड़ा शातिर खिलाड़ी होता है। वह अन्धकार की सारी सुविधाओं का उपयोग करता है और अन्धेरे में ही अपने शिकार पर चतुराई से वार करता है। उजाले को वह सह नहीं पाता। पैसे के लिए बने ये ‘उल्लू’ भी ईमान्दारी और सच्चाई के उजाले को सह नहीं पाते, उस से दूर ही भागते हैं। पैसा हमारे सब सवालों का जवाब नहीं है। झोपड़ों में रहने वाला हर व्यक्ति इस भ्रम में जीता है कि महलों में रहने वाला हर व्यक्ति सुखी है। सच तो यह है दोनों ही जगह रहने वाले दुखी और परेशान हैं। दोनो ही एक ऐसी दौड़ में जुते हैं जहाँ पहुँचकर लगता है कि यहाँ तो कुछ भी नहीं, सब व्यर्थ ही व्यर्थ है। जीवन एक ऐसे रेगिस्तान में फंसा है जहाँ रास्ता है ही नहीं, बस एक बेचैन करने वाली थकान है। एक ऐसी भटकन है जिसमें फंसकर बेचैन आदमी और अधिक तनावग्रस्त व उग्र स्वभाव का होता जा रहा है। हमारे समाज के संवरने की सभी संभावनाएं अब समाप्त हो चुकी हैं।

आदमी की मजबूरी है मन मार कर जीता है। निराश और हताश मन में सवाल उठते हैं, “तू क्यों जीता है?” “इस सब का हासिल क्या है?” “मौत क्यों नहीं आती?” ऐसे निराश और हताश लोगों को प्रभु यीशु निमंत्रण देता है “हे सब बोझ से दबे और थके लोगों मेरे पास आओ, मैं तुम्हें विश्राम दूंगा।” (मत्ती ११:२८) एक प्रश्न उठा “लोग यीशु मसीह के बारे में क्या सोचते हैं?” (मत्ती १६:१८) और अलग अलग विचारधाराओं के अनुसार, कई उत्तर आए। आज भी जब कभी यही प्रश्न लोगों के सामने रखा जाता है तो ऐसे ही अलग अलग उत्तर मिलते हैं- “इसाई धर्मगुरू है, विदेशी धर्म है, इसाई ऐसे होते हैं, वैसे होते हैं, बाहर से पैसा आता है, लालच देकर ग़रीब लोगों को इसाई बनाते हैं”, इत्यादि। जनाब, प्रश्न यीशु मसीह के बारे में था, इसाई धर्म के बारे में नहीं। जब हमें किसी जन के बारे में सही जानकारी नहीं होती, तब हम विभिन्न धारणाओं और ग़लतफहमीयों के शिकार हो जाते हैं। ग़लतफहमी से प्रेम बैर में बदल जाता है। बाईबल प्रमाणित शास्त्र है जो सदियों से हर हालात में परखा गया और सिर्फ सत्य ही निकला है। वही यीशु के बारे में सही जानकारी देता है, इसाई धर्म हमें यीशु के बारे में सही जनकारी नहीं देता। प्रभु यीशु का सन्देश शुभ सन्देश है, धर्म उपदेश नहीं। बाईबल में लिखा है, “मैं तुम्हें बड़े आनन्द का सुसामाचार सुनाता हूँ जो सब लोगों के लिए है।”(लूका २:१०) केवल किसी धर्म विशेष के लिए कदापि नहीं।

मेरे मित्र, आपके पास पैसा है, परिवार है, नाम है और एक धर्म भी है; पर क्या सच्ची स्थायी खुशी और चैन भी है? धर्म हमें जाति में, वर्गों में, मिशनों में, ग्रुपों में तोड़ता है पर प्रेम हमें जोड़ता है क्योंकि परमेश्वर प्रेम है (१ युहन्ना ४:८)। यदि आपके पास यह प्रेम नहीं तो कुछ भी नहीं (१ कुरंथियों १३:१)। प्रेम हमें परमेश्वर से, एक-दूसरे से, चैन और शान्ति से जोड़ता है। हमारे पापों ने हमें बेचैनी में धकेला है, और मौत के बाद हमेशा की बर्बादी में धकेल देंगे। पाप कभी पीछा नहीं छोड़ता, जो बोया है वही काटना भी होगा। मक्का बोया है तो गेहूँ नहीं काटेंगे। पाप बोया है तो पाप ही का फल काटेंगे। केवल समाजिक दृष्टि में ‘छोटे’ कहलाने वाले लोग ही चोर नहीं होते, ‘बड़े’ लोग भी बड़ी चोरियां करते हैं, जैसे इन्कमटैक्स की चोरी। मध्यम वर्ग के कर्मचारी बिजली की चोरी, ऑफिस के सामान की चोरी कर लेते हैं। यानि, जिसका जहाँ दाँव चल गया, वह वहीं हाथ साफ कर जाता है, क्योंकि यह पाप का व्यवहार तो मन में बसा है, बस जैसा मौका मिले उसी के अनुरूप अपनी मौजूदगी प्रकट कर देता है। परमेश्वर का सत्य वचन बाईबल कहती है कि सबने पाप किया है; सवाल ‘छोटे’ या ‘बड़े’ पाप का या ‘थोड़े’ और ‘बहुत’ पापों का नहीं है, पाप जैसा भी है, जितना भी है, है तो पाप ही। इसिलिए सब बेचैन हैं और सबका अन्त अनन्त विनाश है।

इसी सत्य वचन में एक टैक्स कलक्टर की सत्य कथा है (लूका १९:१-९)। वह यीशू को देखना चाहता था कि वह कौन है? उसके साथ दो परेशानियाँ थीं, पहली वह भीड़ जो यीशु को घेरे रहती थी और दूसरी उसका कद - वह खुद नाटा था। यही दो बातें आज भी अधिकांश लोगों को यीशु की वास्तविकता जानने से रोकतीं हैं। धर्म, मिशन, ग्रुपों और उनकी निहित शिक्षाओं की एक बड़ी भीड़, और दुसरे, हमारे दिमाग़ हमारी सोच तथा हमारी धारणाओं का बौनापन हमें वास्तविक यीशु को देखने और जानने से रोकता है। हम हमेशा सोचते हैं कि यीशु इसाई धर्म देने आया, पर बाईबल क्या कहती है?

बाईबल के कुछ पदों पर ग़ौर कीजिए:-

यीशु ने कहा:-
  • “मैं धर्मियों के लिए नहीं, परन्तु पापियों को बुलाने आया हूँ” (मरकुस २:१७);
  • “मनुष्य का पुत्र खोये हुओं को ढूंढने और उनका उद्धार करने के लिए आया है” (लूका १९:१०);
  • “मैं इसलिए आया कि वो जीवन पाएं”(यूहन्ना १०:१०);
  • “मैं जगत में ज्योति बनकर आया हूँ तकि जो कोई मुझ पर विश्वास करे वह अन्धकार में न रहे” (यूहन्ना १२:४६);
  • “मैं जगत को दोषी ठहराने के लिए नहीं परन्तु जगत का उद्धार करने के लिए आया हूँ” (यूहन्ना १२:४७);
  • “इसलिए जगत में आया हूँ कि सत्य पर गवाही दूँ” (यूहन्ना १८:३७) ।
  • “यह बात सच और हर तरह से मानने के योग्य है कि प्रभु यीशु पापियों का उद्धार करने आया” (१ तिमुथियुस १:१५)।
क्या अब भी यीशु के आने के उद्धेश्य में आप किसी भी ‘धर्म’ के प्रतिपादन को देखते हैं?

प्रभु यीशु पर उसके दुश्मन दोष देते थे कि वह पापियों के साथ क्यों खाता-पीता है? साधारण सी बात है, क्या कोई डॉक्टर मरीज़ों से अलग रह कर अपना काम कर सकता है? यह टैक्स कलेक्टर साहब एक पेड़ पर चढ़कर, अपने आप को पत्तियों से छिपाकर यीशु को देखना चाहते थे। पर वो प्रभु से छिप नहीं सके, प्रभु से तो उनके कर्म भी नहीं छुपे थे। प्रभु ने उस पेड़ के नीचे आकर उससे कहा “तुरन्त नीचे उतर आ” और वह उतर आया; सिर्फ पेड़ से ही नहीं, अपने घमंड और अहंकार और व्यवहार से भी उतर आया और सबके सामने अपने पाप मान लिए (लूका १९:८)। जैसे ही उसने ऐसा किया, यीशु ने कहा ‘आज’ इस घर में उद्धार आया है। उसके परिवार में पैसा था, स्वास्थय और धर्म भी था, पर चैन और शान्ति इस पापों की क्षमा और उद्धार के साथ ही आई। प्रभु यीशु कोई ज़बर्दस्ती नहीं करता, वह ऐसी ही क्षमा, उद्धार और शान्ति आपको भी देना चाहता है, यदि अपने पापों को मान लें और साथ ही इस बात पर विश्वास कर लें कि वह हमारे पापों के लिए क्रूस पर मारा गया और तीसरे दिन जी उठा, उसका लहू हमें सब पापों से शुद्ध करता है। मित्र मेरे एक बार दिल से पुकार कर कहें “हे यीशु मुझ पापी पर दया कर” (लूका १८:१३)। एक बार प्रार्थना से परख कर तो देखिए यीशु कैसा भला है।

मौत सदा मौजूद है, उससे न कोई सुरक्षा है और न कोई सुरक्षित है। आप अपने घर में, अपने बिस्तर पर अपने आप को सबसे अधिक सुरक्षित समझते होंगे, पर हकीकत तो यह है कि सबसे अधिक मनुष्य अपने बिस्तर पर ही मरते हैं!

हमारे पापों की कहानी हमारे कब्र में दफन होने पर खत्म होने वाली नहीं है। पाप का परिणाम मौत के बाद भी पीछा नहीं छोड़ेगा। हर बात का एक समय है, इस लेख के शुरू होने का समय था अब इसके समाप्त होने का समय है। इस दौरान परमेश्वर आपसे बातें कर रहा था, आपको आपके पाप, पाप की दशा और आपके अनन्त काल की दिशा दिखा रहा था। अब सबसे महत्तवपूर्ण समय है - प्रभु यीशु से पापों की क्षमा माँगने का, एक पश्चाताप की प्रार्थना का। यदि आप प्रार्थना नहीं करें, खामोश रहें तो आपकी यही खामोशी चीख़-चीख़ कर बता रही है कि आप पाप क्षमा के प्रभु यीशु के इस निमंत्रण को बकवास समझते हैं। मित्र मेरे, इस क्षमा पाने के मौके को टालने से सज़ा नहीं टलेगी। दूसरा कोई और मार्ग है ही नहीं। “मार्ग, सत्य और जीवन मैं ही हूँ” ... यीशु ने कहा।



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