मेरा नाम राजकुमारी गोयल है। कोटा (राजस्थान) में जन्मी, हिन्दू विचारों में व मर्यादाओं में पली और बड़ी हुई। जैसा मेरा नाम, वैसा ही मेरा व्यवहार था। मुझ में अहं कूट कूट कर भरा हुआ था। मेरी बहिनों के साथ भी मेरा व्यवहार अच्छा नहीं था। बहिनों में सबसे छोटी और भाईयों में सबसे बड़ी होने के काराण मेरे चारों तरफ प्यार ही प्यार था सिर्फ मेरे परिवार से ही नहीं, मेरे समस्त खानदान से मुझे अलग ही प्यार मिलता था। पिता के खास प्रेम के कारण मेरा सिक्का चलता था। मेरे पिता टी०बी० के मरीज़ थे। उन्से मेरा विशेष प्रेम था और वे मेरे पिता, माँ, दोस्त सब कुछ थे। चौदह वर्ष की उम्र तक तो सब कुछ यथावत चलता रहा। घर में सब लोग पूजा-पाठ करते, मंदिर जाते थे। लेकिन मेरी श्रद्धा शुरू से ही पूजा-पाठ में नहीं रही। ईश्वर के आगे बस इऱ्म्तहान के दिनों में ही हाथ जोड़े जाते थे, तकि अच्छे नंबरों से पास हो सकूँ। वैसे पढ़ने में मैं शुरू से ही अच्छी थी। घर में पण्डितों व साधू-संतों का आना जाना लगा रहता था।
अभी मैं दसवीं कक्षा में ही थी कि पिताजी खि तबियत टी०बी० की वजह से काफी खराब हो गई और हम लोग उन्हें लेकर अजमेर के पास मदार सैनिटोरियम गए जहाँ उन्हें भर्ती कर लिया गया। वहाँ एक नई बात देखने को मिली कि डॉक्टर राउण्ड पर आने से पहले, प्रार्थना स्थल पर एकत्रित होते थे, एक गीत गाते थे व प्रार्थना करते थे। यद्यपि उस समय कुछ समझ में नहीं आया लेकिन सुनने में अच्छा लगा। दुसरे दिन मैं और मेरे मामा प्रार्थना स्थल पर पहुँचे। वहाँ बताया गया कि यहाँ रोगियों के लिए प्रार्थना की जाती है। प्रभु यीशु रोगी को ठीक कर देते हैं। मामा और मैं प्रार्थना करने लगे कि प्रभु तू यदि मेरे पिता को ठीक कर देगा तो हम इसाई बन जाएंगे। मैं करीब एक महीना मदार अस्पताल में रही, लेकिन शायद ईश्वर को यह मन्ज़ूर नहीं था और पिताजी इस दुनिया से चल बसे। मैं पिता के देहाँत का सदमा बरदाश्त नहीं कर पाई और पिता के जाने के बाद मैं एक ज़िन्दा लाश बन गई। करीब छः महीने तक मैं बीमार रही। उस समय हर शनिवार रेडियो पर सुबह एक कार्यक्रम - मसीही वन्दना आता था; जिसमें एक गीत फिर एक छोटी सी कहानी सुनाई जाती थी। यह कार्यक्रम सुनना मुझे अच्छा लगने लगा और एक अजीब सा सुकून मिलने लगा। कुछ समय के लिए ज़िन्दगी बहुत नीरस बन गई थी। कहीं जाना अच्छा नहीं लगता था। भाई को चौदह वर्ष की उम्र में ही पिताजी का ज्वैलरी का व्यवसाय संभालना पड़ा।
मेरी ज़िन्दगी में खुशी नाम की चीज़ नहीं थी। मेरे कमिशनर या जज बनने के सारे सपने चूर-चूर हो गए। मैं शान्ति पाने के लिए इधर उधर भटकने लगी, कई ईशवरों को मानने लगी, लेकिन शान्ति कहीं नहीं मिली। मुझे लगने लगा कि मेरे नसीब में केवल दुःख ही दुःख है। इसके बाद मुझ में कुछ बदलाव आए। मेरे मामा ने मेरा दाखिला उदैपुर विश्वविद्यालय में एम०ए० में करवा दिया। वहाँ भी मेरा मन नहीं लगा और मैं एक वर्ष पश्चात कोटा वापस लौट आई। उस समय सारे प्रोफैसर मुझे समझाने लगे कि मैं फाईनल की परीक्षा दे दूँ तथा वे लोग मुझे लेक्चरार की नौकरी लगवा देंगे।
आज सोचती हूँ कि यदि मैं रुक जाती तो प्रभु में कैसे आती? कैसे अनन्त जीवन की भगीदार बनती? कोटा आने के पश्चात मैंने एम०एम० फाईनल और बी०एड० साथ साथ किया। तभी मेरे मामा ने मेरे लिए एक नर्सरी स्कूल शुरू कर्वा दिया और मुझे प्रिंसिपल बना दिया। काम था और इज़्ज़त थी लेकिन मायूसी साथ साथ थी। सब लोग मुझे शादी के लिए मनाने लगे लेकिन मेरा शादी का शुरू से ही कोई इरादा नहीं था। शादी के कई प्रस्ताव आए लेकिन मैं नहीं मानी। अन्त्तः बी०सी० गोयल, जो कि मेरे पति हैं, उन से विवाह के लिए कैसे हाँ कर दी मुझे सव्यं नहीं पता परन्तु आज मुझे पक्का विश्वास है कि यह योजना प्रभु की ओर से थी। शादी के बाद मैं पति के साथ आगरा आ गई और मैंने उनके साथ बाईबल पढ़ना शुरू किया। प्रत्येक रविवार हम दोनों आराधना के लिए जाते थे। आराधनालय में भाई ने बताया कि हम सब काफी समय से तुम दोनों की शादी के लिए प्रार्थना कर रहे थे। मुझे बाईबल पढ़ना और समझना अच्छा लगने लगा, लेकिन मैं पापी हूँ, इस बात से अन्जान थी। समय निकलता गया, मेरे पति को उनके दोस्त ने धोखा दिया तथा आर्थिक परेशनी और बेटे की फीस वगैरह के कारण देहरादून के एक स्कूल में मुझे नौकरी करनी पड़ी। मैं तो इस लायक नहीं थी लेकिन यह प्रभु की दया थी कि मैं रोज़ स्कूल जाने से पहिले बाईबल पढ़ती थी, लेकिन रिवाज़ की तरह। सन १९७९ में मुझे नौकरी छोड़ कर हरिद्वार आना पड़ा क्योंकि पति मानसिक रीति से काफी तनाव मेम रहते थे। १९८१ में फैक्ट्री का कार्य सुचारू रूप से चलने लगा लेकिन शान्ति नहीं थी। १९८४ में हरिद्वार में एक महासभा हुई उस समय मैंने प्रभु को ग्रहण किया लेकिन मजबूरी में। उस समय मेरे दिल में प्रभु का कम नहीं था। भाई लोग जब भी हमारे घर आते, मुझे बुरा लगता, कि इनके लिए चाए बनाओ, खान बनाओ। मेरे पति मुझ से कहते कि सेब खने वाला ही उसके स्वाद को बता सकता है, प्रभु का स्वाद भी ऐसा ही है। मुझे लगता सब दिखावा ही है, स्वर्ग-नरक किसने देखा है? क्या गारण्टी है कि स्वर्ग में ही जाएंगे?
यह सच है कि प्रभु एक बार जिसे चुन लेता है उसे फिर छोड़ता नहीं। १९९० में एक विदेशी परिवार हमारे यहां आया। रात के करीब १२ बज रहे थे, हम्ज सब प्रार्थना कर रहे थे, उस समय पवित्र आत्मा ने मुझ में काम किया जिसक एहसास मैं पूर्ण रूप से कर सकी। उस रात मेरा जीवन बदल गया। मुझे अब सब कुछ नया-नया मिल गया, मैं अपनी खुशी बयन नहीं कर सकती। अब प्रभु मेरे साथ है। यद्यपि मुसीबतों के दौर बराबर चलते रहे लेकिन प्रभु ने मुझे विचिलित नहीं होने दिया। सन १९९०-९१ में मेरे पति का ऑपरेशन मेरठ में हुआ, उस समय प्रभु की दी हुई प्रतिज्ञा ने मेरे विश्वास को और भी बढ़ा दिया। मुझे इस समय विपिरीत परिस्थित्यों से निकलना पड़ा, फिर भी प्रभु ने इन परिस्थित्यों में गिरने नहीं दिया। १९९८ में मेरे पति को ब्रेन ट्यूमर यानि दिमाग़ की रसौली हो गयी। स्थिति बहुत नाज़ुक थी, इस स्थिति में भी प्रभु ने मुझे उस पर विश्वास करना सिखाया। मुझे सिखाया कि मैं समाज के सामने कह सकूँ कि प्रभु यीशु ही मेरा उद्धारकर्ता परमेश्वर है। आज मेरा परिवार, ससुराल और मायके हमारे पक्ष से बिलकुल अलग नज़र आते हैं; क्योंकि हम प्रभु में विश्वास रखते हैं। दोनो पक्ष प्रभु को गहण करने से हिचकिचाते हैं। आज प्रभु की दया से मेरा परिवार प्रभु में है। प्रभु की स्तुति हो आज मैं प्रभु में बहुत खुश हूँ। मेरे वास्तविक रिश्तेदार मेरे मसीही भाई-बहन हैं। मेरे लिए प्रार्थना कीजिए कि मैं प्रभु की जीवित पत्री बन सकूँ ताकि लोग मुझे पढ़कर मेरे प्रभु पर विश्वास कर सकें।
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