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शुक्रवार, 18 दिसंबर 2009

सम्पर्क मई २००९: पूरे पन्नों की अधूरी कहानी

आसमान पर छाये बादल ढलती हुई शाम को और गहरा कर रहे थे। आने वाले तूफान के अंदेशे से शहर की सड़कों सुन्सान थीं। तेज़ सरसराती हवाओं ने सर्दी को शिद्दत तक पहुँचा दिया था। एक संत, आती रात बिताने और बिगड़ते हुये मौसम से बचने के लिये जगह ढूँढता फिर रहा था। तभी उस सन्नाटे को तोड़ती एक आवाज़ ने उसे चौंका दिया “महाराज, ठहरने की जगह ढूँढ रहे हैं? क्या आप मेरे घर चलकर ठहरना चाहेंगे?” इससे पहले कि वह संत कुछ कह पाता, उस व्यक्ति ने आगे कहा “महाराज, प्रतीत होता है कि आप संत हैं? मैं आपसे क्या छुपाऊँ, मैं एक चोर हूँ। अगर आपको इससे कोई ऐतराज़ न हो तो मेरे घर ठहर कर मुझे धन्य कर सकते हैं।” संत दुविधा में फंस गया। मन में विचार चलने लगे “अगर इस चोर के यहाँ ठहरा तो लोग क्या कहेंगे, मेरी प्रतिष्ठा का क्या होगा? अगर नहीं ठहरा तो इस सर्दी और खराब मौसम में सुबह होने तक मेरा क्या होगा?” मरता क्या न करता, मन मार कर चोर के पीछे पीछे चल दिया। चोर ने संत को अपने घर लाकर उसकी बड़ी आव-भगत की। संत सोचने लगा “मेरे सामने इस चोर ने अपनी असलियत नहीं छुपाई पर मैं तो अपने मन में क्या क्या छुपाये बैठा हूँ। यह चोर जो है सो है पर मक्कार तो नहीं है।” आखिरकर संत अपने आप को रोक न सका, वह चोर के पैरों पर गिर पड़ा और कहने लगा “मैं जो दिखता हूँ वास्तव में वैसा हूँ नहीं; लालच, अभिमान और पाखँड मुझ में भरा है। मैं यह तो सदा सोचता हूँ कि लोग मेरे बारे क्या सोचेंगे पर कभी यह नहीं सोचता कि परमेश्वर मेरे बारे में क्या सोचेगा?”

मेरी और आपकी अन्दर की हालत कुछ ऐसी ही है। ज्ञान तो बहुत लोग बाँटते हैं पर स्वयं उस ज्ञान का अनुसरण कितने करते हैं? अपने द्वारा प्रचार की गई शिक्षाओं का पालन स्वयं कितने करते हैं? परमेश्वर का वचन चिताता है “सो हे दोष लगाने वाले, तू कोई क्यों न हो, तू निरुत्तर है। क्योंकि जिस बात में तू दूसरे पर दोष लगाता है, उसी बात में अपने आप को भी दोषी ठहराता है। इसलिये कि तू जो दोष लगाता है, आप ही वह काम करता है।” “और हे मनुष्य तू जो ऐसे ऐसे काम करने वालों पर दोष लगाता है और आप ही वह कम करता है, क्या यह समझता है कि परमेश्वर की दण्ड की आज्ञा से बच जायेगा?” (रोमियों २:१, ३)। भले ही आप माने या न माने पर सच्चाई यही है।

एक बड़ी सीधी और स्वाभाविक सी बात है कि खुद खोया हुआ आदमी दूसरों को क्या राह दिखायेगा? अन्धा अन्धों को क्या मार्ग बतायेगा? फिर भी आज ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो स्वयं संसार में लिप्त हैं पर दूसरों को बैराग का पाठ पढ़ाते हैं, जो स्वयं परमेश्वर की राह से कोसों से दूर हैं पर दूसरों को परमेश्वर को पाने का मार्ग बताते हैं। आये दिन ऐसे पाखंडियों की पोल खुलने के समाचार आते रहते हैं फिर भी अनेक लोग अपनी आँखों से उस पाखंड को देखते हुए भी उनके अनुसरण करने में ज़रा भी नहीं हिचकते।

हमारा अहंकार हमें इस बात को स्वीकारने से रोकता है कि मैं एक पापी हूँ। बस फर्क इतना ही है कि कुछ के पाप खुले हैं और कुछ के अभी तक छिपे हैं। गलती होना स्वाभाविक है, पर गलती मानकर माफी पा लेना समझदारी है। गलती को जान कर भी उसे छिपाना मक्कारी है और गलती को जान बूझ कर उसे सही साबित करने में लग जाना एक भयानक बेवकूफी है। आप जितना अपने बारे में जानते हैं उससे कहीं अधिक परमेश्वर आपके बारे में जानता है।

दो तरह के चश्मे दिमाग पर चढ़े होते हैं। अपने को देखने के और दूसरों को देखने के। बुज़ुर्ग अक्सर कहते हैं कि हमारा ज़माना शराफत का ज़माना था। पर हकीकत यह है कि उस ‘शराफत के ज़माने’ में पले-बड़े ये लोग भी ईमान्दारी को सिर्फ मक्कारी से ओढ़े रहते हैं। कितने ही ‘शरीफ’ बुज़ुर्ग आँखों पर मोटा चश्मा लगाये अख़बार, पत्रिकाओं, सड़क के किनारों पर लगे विज्ञापनों, टी०वी० और सिनेमा में अशलीलता देखने को नज़रें घुमाते फिरते हैं, इस फिराक में रहते हैं कि कहीं कुछ नंगापन देखने को मिल जाये। कहीं न कहीं हम सब किसी न किसी मक्कारी से भरे जीते हैं। मुँह मुसकुराता है पर मन कोसता है। मन मारकर ही तो साहब को सलाम ठोकना पड़ता है। मन मक्कारी से भरा है।

जब परेशानियाँ खत्म नहीं होतीं तब आदमी अपने आपको खत्म करने की कोशिश कर जाता है। वह यह नहीं समझता कि जान देने से सिर्फ शरीर से ही छुटकारा पाया जा सकता है पर पाप की परेशानी तो आपके साथ ही जायेगी। आपकी परेशानी का कारण परिस्थितियाँ नहीं पाप है। अगर छूटना ही है तो पाप से छूटना है।

समस्याएं हैं, पर क्या हैं वे समस्याएं? मूल समस्या तो यही है कि हम सही समस्या को समझ नहीं पा रहे हैं। जानते ज़रूर हैं कि समस्याएं हैं, एक का समाधान ढूंढो तो दूसरी आ पड़ती है, कभी खत्म नहीं होतीं। सच तो यह है कि पाप ही आपके जीवन की एक मात्र समस्या है, इस एक समस्या से बाकी सब समस्याएं हैं। यही आज तक इन्सान समझ नहीं पाया है।

निर्धन की समस्या है कि क्या खाऊँ कि भूख मिटे? धनवान की समस्या है कि क्या खाऊँ कि भूख लगे? चिन्ताएं और परेशानियाँ दोनो के पास हैं। न गरीब न अमीर, न अन्पढ़ और न पढ़ा लिखा, न उच्च पद पर बैठने वाला न निम्न स्तर पर काम करने वाला, न पाश्चत्य सभ्यता वाला न अन्य किसी सभ्यता वाला, कोई नहीं है जो समस्याओं से बचा हुआ है। हर देश, जाति, वर्ग का हर जन किसी न किसी समस्या से घिरा है और छुटकारा ढूंढ रहा है लेकिन फिर भी अपने पाप का अंगीकार करने को तैयार नहीं है। अहंकार की पट्टी अपनी आँखों पर बाँधे, अन्धेरे कुएं में पड़े अन्धे व्यक्ति की तरह बाहर निकलने को दीवारें टटोल रहा है पर उस पट्टी को उतारकर ऊपर की ओर देखने और बच निक्लने को तैयार नहीं है।

प्रश्न यह नहीं है कि पाप की मात्रा कितनी है? असल प्रश्न है कि पाप है या नहीं? सभोपदेशक ७:२० में लिखा है “एक भी धर्मी नहीं है जिससे पाप न हुआ हो।” वह अधर्मी की नहीं धर्मी की बात कर रहा है।

धर्म परिवर्तन से पाप की समस्या का समाधान नहीं होने वाला। धर्म परिवर्तन कोई सच्चा परिवर्तन नहीं ला पायेगा, पर मन परिवर्तन ही वास्तविक परिवर्तन ला पायेगा।

जीवन एक मैच की तरह चल रहा है। कब किस की गिल्ली उड़ जाये पता भी नहीं चलेगा। कभी कभी इतने शॉर्ट नोटिस पर यहाँ से जाना पड़ता है कि सोचने का मौका भी हाथ नहीं लगता। कब स्वर्गीय अम्पायर की ऊठी कि आप खेल से बाहर जाते दिखाई देंगे। ज़्यादतर तो मूँह लटकाये ही जाते हैं, थोड़े ही हैं जो हाथ उठाये हुए आनन्द से जाते हैं। आपका अपने बारे में क्या विचार है? कुछ भी अनहोनी हो जाए तो आप कैसे जाएंगे? कभी सोचा भी है कि जब जाएंगे तो कहाँ जाएंगे? सच तो यह है कि हर हारा हुआ इन्सान हमेशा की हार में जा पहुंचेगा। स्वर्गीय अम्पायर ने अपनी उंगली से आपकी असली दशा और आपके अन्जाम की दिशा दर्शायी है। यह उंगली सिर्फ पाप को ही प्रकट नहीं करती पर पाप के परिणाम को भी प्रकट करती है, और पाप के परिणाम से बच निकलने का मार्ग भी दिखाती है।

बस अब दिल का दरवाज़ा खोलने की देर है। सूर्य का प्रकाश तो आपके दरवाज़े पर आपका इंतिज़ार कर रहा है, केवल आपके दरवाज़ा खोलने की देर है, वह प्रकाश सारे अंधकार को क्षण भर में दूर कर डालेगा। प्रभु यीशु आपके पापों को हर लेने के लिये ही आया। इसलिए वह हर हारे और परेशान इन्सान से कहता है, मत डर मैं हूँ मेरे पास आओ।

अब मैं इन आखिरी लाईनों में आखिरी बात दिल से कहता हूँ। दिल चाहता है कि यह बातें आपके दिल पर लिख जायें, सिर्फ कलम से उतर कर कागज़ तक न रह जाएं। आप दिल से विश्वास करके मुँह से सिर्फ एक छोटी प्रार्थना में दो बातें कह जाएं। पहली बात मान लें; दूसरी बात माँग लें। पहले यह मान लें कि “मैं एक पापी हूँ”, और दूसरा अपने पापों की क्षमा माँग लें। प्रभु यीशु से प्रार्थना में कहें कि “हे यीशु मैं पापी हूँ, मैं बेचैन और परेशान हूँ, मुझपर दया करके मेरे पाप क्षमा करें, मेरे मन में आयें, मुझे अपने लहू से शुद्ध और पवित्र करें।”

यही एक ऐसी प्रार्थना है जो आपको एक ऐसी ज़िन्दगी जीने का मौका देती है जो आपने कभी जी नहीं होगी। ज़रा यह प्रार्थना एक सच्चे दिल से करके तो देखिये....

मंगलवार, 15 दिसंबर 2009

सम्पर्क मई २००९: मुठ्ठी भर माटी का मानव

मेरा नाम फिलिप रत्‌नम है। मैं एक प्रभु को प्यार करने वाले परिवार में पैदा हुआ। परिवार में मेरे माता, पिता और हम चार भाई और बहनें हमेशा पारिवारिक प्रार्थना करते थे। पिताजी लगातार प्रभु की सेवा में बने रहते थे। अक्सर पिताजी को बीमारों और दुष्टात्माओं से ग्रसित लोगों के लिये विशेष प्रार्थना करने के लिये बुलाया जाता था। जहाँ तक स्वर्गीय स्वामी की सेवा करने की बात थी, वह रात हो या दिन कभी नहीं चूकते थे। वे एक गरीब परिवार से थे इसलिये लम्बी दूरियाँ अक्सर साईकिल या बस में तय करनी पड़ती थीं।

मैं अपने परिवार में सबसे छोटा था। जब मैं १३ सालो का होने को था उससे ७ दिन पहले ही पिताजी परमेश्वर के पास चले गये (यद्यपि हमारे लिये वह अभी भी जीवित हैं)। जबकि मैं ऐसे भक्त परिवार में पला फिर भी मेरा हृदय संसार के पीछे जाने लगा। १२ वर्ष की उम्र तक तो मुझे परमेश्वर के वचन के प्रति बहुत आकर्शण था लेकिन मेरे पिता के देहाँत के बाद मेरे परिवार ने परमेश्वर के घर में जाना छोड़ दिया। केवल मेरी बड़ी बहन ही परमेश्वर की संगति में जाती थी।

एक अच्छे विश्वासी परिवार में पले-बड़े होने का लाभ मुझे यह रहा कि एक ढाल मेरे जीवन में रहती थी। मेरा संसार स्कूल, घर और दोस्त ही थे। जबकि मैं मोहल्ले में रहने वाले दोस्तों के साथ खेलता पर फिर भी मैं उनकी तरह व्यवहार नहीं कर पाता था। न ही मैं गाली दे पाता था, न ही उनकी तरह लड़ पाता था, न ही उनकी तरह धोखा दे पाता था और न ही उनकी तरह बन पाता था। मैं सारी गालियाँ मुँहज़ुबानी जानता था पर उनको मुँह खोलकर इस्तेमाल नहीं कर पाता था। मैं सारी दुष्ट बातें जानता था पर उनको व्यवाहरिक तौर से कर नहीं पाता था। मैं एहसास करता था कि हर वक्त कोई सामर्थ मुझे इन बुराईयों से रोके रहती है।

एक दिन मैंने अपने आप में यह फैसला लिया कि मुझे परमेश्वर की ज़रूरत नहीं है, अब मैं खुद ही अपने आप को बहुत अच्छी तरह सम्भाल सकता हूँ। क्योंकि मैं सोचता था कि मैं दूसरों से होशियार हूँ इसलिये मैं स्वयं सारी परिस्थितियों का सामना कर सकता हूँ। उस दिन से मैंने बाईबल पढ़ना और नियमित प्रार्थना करना बन्द कर दिया और धीरे धीरे मेरी जो भी अभिलाशायें परमेश्वर से सम्बन्ध रखती थीं मिटती चली गईं और एक लम्बे समय के बाद पूरी तौर से मर गईं। अब मैं भी किसी अन्य ऐसे व्यक्ति के समान बन गया जो परमेश्वर पर निर्भर नहीं। अब मैं जो चाहे वह करने के लिये पूरी तरह आज़ाद था। परिवार में केवल मेरी बड़ी बहन ही अकेली इन सालों में प्रभु के साथ चलती रही। वह अकेली ही हर एक रविवार आराधना के लिये संगति में जाती, प्रार्थना करती और परमेश्वर के वचन को पढ़ती थी, और आज तक वैसे ही है, उसका विवाह भी एक अच्छे विश्वासी के साथ हुआ है।

मेरे बड़े भाई और मैंने परिवार की ज़रूरतों के कारण कम उम्र में ही काम करना शुरू कर दिया था। तब मेरी उम्र १८ साल की थी। अब जब मैं उन बातों पर विचार करता हूँ तो मुझे सोच कर आश्चर्य होता है कि जबकि मेरे पास कोई योग्यता या पढ़ाई की डिग्री नहीं थी फिर भी मैं जहाँ भी जाता और जो भी करता, उसमें सफलता मेरे आगे आगे चलती थी। मुझे लगता था कि मेरा जीवन ठीक सा चल रहा है लेकिन आज मैं एहसास करता हूँ कि मेरी ज़िन्दगी सच्चाई की समझ से हटकर एक पागलपन की तरफ दौड़ने लगी थी। मेरे अन्दर और ज़्यादा पाने की अभिलाशाएं पनपने लगीं और मैं संसार में ही सन्तोष ढूँढने लगा। इन बातों से अनजने में ही मेरे अन्दर यह धारणा पैदा होने लगी कि जब तक तुम किसी को दुःख न दो, कानून न तोड़ो या फिर पकड़े न जाओ जीवन में सब कुछ ठीक है । एक ही जीवन है इसलिये जितना हो सके उसका आनन्द उठाओ। जब तक जो तुम्हारे साथ हैं, सहमत हैं, तब तक सब बातें ठीक हैं। जीवन चलता गया और मेरी आदतें बुरी होती गईं लेकिन मेरे लिये वे बातें मात्र मनोरंजन थीं। मेरे परिवार वालों को इसके बारे में कुछ मालूम नहीं था। मेरी माँ, परिवार और अन्य लोग सोचते थे कि मैं एक बहुत अच्छा और सभ्य व्यक्ति हूँ। मेरे अन्दर एक दोहरा व्यक्तित्व पैदा हो गया। एक चेहरा जो दूसरों को दिखाने के लिये और दूसरा अपने आप को खुश करने के लिये। जैसे जैसे समय बीतता गया इन दोनो चेहरों को वक्त-ज़रूरत अनुसार इस्तेमाल करने में मैं माहिर हो गया।

एक समय ऐसा भी आया कि मैं एक छोटी गैंगवॉर में फँस गया। मैं एक ऐसे गिरोह के लोगों के साथ रहने लगा जो सिर्फ मुहल्ले की गलियों, इलाकों या कॉलेज में छोटी मोटी गुन्डागर्दी करते थे। हमने कुछ लोगों से दुश्मनी पाल ली। हममें से कुछ लोग और मैं अपने पास चाकू रखने लगे। मेरे कुछ दोस्त अपनी ताकत दिखाने के लिये कभी कभी चाकू का इस्तेमाल भी करते थे। एक बार हमारा यह गैंग एक चाकूबाज़ी के केस में फंस गया। मैं भाग्यशाली था कि मैं उस शाम उनके साथ नहीं था। मेरे ३ करीबी दोस्त हत्या करने के ज़ुर्म में पकड़े गये और उन्हें तिहाड़ जेल भेज दिया गया, जबकि मेरे यह दोस्त बड़े सरकारी अफसरों के बच्चे थे। भाग्यवश, जिसको चाकू लगा था उसकी जान बच गई और मेरे दोस्त ज़मानत पर छूट गये, लेकिन उन पर दायर हुए यह मुकद्मे २० साल से ज़्यादा चले। मेरा विवेक मरता जा रहा था और भयानक पापों के लिये मेरी अभिलाषा बढ़ती जा रही थी। मेरी दोस्ती सब प्रकार की गहरी बुराई में रहने वाले लोगों से बढ़ती गई। मुझ पर नियंत्रण रखने वाला कोई नहीं था। मैं घर देरी से आता, सुबह जल्दी चला जाता और कभी कभी रविवार को भी घर नहीं लौटता था।

मेरी बड़ी बहन, जो प्रभु के प्रेम में बनी हुई थी, अपने परिवार के साथ छुट्टियों में कुछ महीने हमारे साथ बिताने स्विट्ज़रलैंड से आती थी। जब वह आती तो उसके भक्ति के जीवन के कारण एक अजीब सा भय मुझ पर छा जाता था और मेरी आदतों पर अपने आप रोक लग जाती थी। जब तक वह हमारे यहाँ रहती थी तब तक हमारे यहाँ पारिवारिक प्रार्थना भी सुबह-शाम होती थी। परिवार से प्रभु का आदर चला गया था इस बात के लिये वह हमें घुड़कती थी। मेरे लिये तो रविवार का दिन मौज मस्ती, फिल्में और दोस्तों के साथ घूमने के लिये होता था। पर मैं अपनी बहन को देखता था, जो ज़्यादतर सर्दियों में हमारे पास आती थी, कि रविवार को चाहे बहुत धुंध वाली सुबह हो, तब भी वह अकेली ही, प्रभु की आराधना के लिये, बस में जाती थी। मैं अपनी बहन के साथ, उसको प्रसन्न करने की मनसा से, चला जाता था।

दिसम्बर १९९२ के एक रविवार की बात है, मैं परमेश्वर के घर गया हुआ था। हमेशा की तरह मैं पूरी सभा के दौरान परमेश्वर के घर के मुख्य स्भास्थल से बाहर आहते में बैठा हुआ था जहाँ माताएं अपने बहुत छोटे बच्चों के साथ बैठती थीं। उनके लिये उस आहते में एक स्पीकर भी लगा हुआ था जिससे अन्दर चल रहे प्रवचन और सन्देश उन तक पहुँचते रहें। उस दिन भी प्रचारक सन्देश दे रहा था और मैं हमेशा की तरह उस सन्देश पर कोई ध्यान नहीं दे रहा था। अचानक उसने सन्देश में सफाई से एक वाक्य कहा “तूने पाप किया है।” यह बात मेरे अन्तःकरण तक पहुँची और मैंने एकदम अपने आप से कहा “तो क्या हुआ?” बात यह नहीं थी कि मैं पापी था या नहीं, पर यह थी कि मैं पाप को पाप नहीं समझता था। मैंने उस आवाज़ को उस समय तो दबा दिया पर यह वाक्य “तूने पाप किया है” मेरे कानों में गूँजता रहा।

एक दिन मैं बाज़ार से गुज़र रहा था। एक दुकान की खिड़की से एक बहुत सुन्दर जिल्द वाली किताब ने मुझे आकर्षित किया। वह एक मसीही किताबों की दुकान थी। उस पुस्तक का शीर्षक था “३६५ दिन में बाईबल।” मुझे उस पुस्तक के लेख ने नहीं पर उसकी सुन्दर जिल्द ने आकर्षित किया। मैं उस दुकान में चला गया और मैंने उस पुस्तक को खरीद लिया। घर आने के बाद मेरी इच्छा उसे पढ़ने की हुई लेकिन यह मुझे एक व्यंग्य जैसा लगा क्योंकि अब बाईबल खोलकर पढ़ने में मुझे शर्म आती थी। मेरा विवेक मुझे कचोट रहा था कि मेरे जैसा व्यक्ति बाईबल पढ़ना चाह रहा है? पर मैंने हियाव बांधा और बाईबल को छुपाकर छत पर जाकर अन्दर से ताला मारकर पढ़ना शुरू किया। तभी एक अजीब चैन और शांति मुझपर आ उतरी और मुझे लगा कि यह शब्द मुझ से ही बातें कर रहे हैं। जब भी मैं उसे पढ़ता तब एक अद्भुत शांति मुझे घेर लेती थी। मैं उसमें लिखा सब कुछ तो समझ नहीं पा रहा था परन्तु मेरा दिल मान रहा था कि उत्पत्ति से प्रकाशित्वाक्य तक लिखा उसका एक एक शब्द सौ प्रतिशत सही है। मुझे उससे बहुत लगाव होने लगा और हमेशा यह जिज्ञासा रहती कि अब इस अध्याय के बाद क्या होगा? परमेश्वर का आत्मा लगातार मुझसे बातें करता रहा। पहले तो मैंने एहसास ही नहीं किया कि परमेश्वर इस तरह भी बातें करता है। मैं सोचता था कि यह तो मेरा मन है जो मुझसे पाप करवाता है और फिर बाईबल पढ़ने को कहता है। जब भी मैं बाईबल पढ़ता तो हर बार मुझे एहसास होता कि कोई मुझे बहुत सुन्दर शब्दों से समझा रहा है। बाईबल के प्रति मेरा प्रेम बढ़ता गया और अजीब रीति से मैं घर पर ज़्यादा समय बिताने लग और दोस्तों से कटने लगा।

यह मई १९९३ की बात थी जब परमेश्वर के आत्मा ने मेरे अन्दर अपना काम करना शुरू किया। तब से वह मुझे बदलता गया, नया बनाता गया और मुझे सत्य के एहसास पर ले आया। अब तक मैं उत्पत्ति से शुरू करके प्रेरितों के काम तक बाईबल पढ़ चुका था। मेरा हृदय भी बड़ी सफाई से यह जान चुका था कि पूरी सृष्टि का मालिक और कर्ता कौन है, यीशु कौन है, मनुष्य ने पाप क्यों किया, शैतान कौन है, परमेश्वर की मनसा क्या है और आज तक कौन इस पूरी सृष्टि को सम्भालता है।

अब मैं शैतान और अंधकार की ताकत के भय से आज़ाद हो गया और बाईबल के परमेश्वर के प्रति एक पवित्र और आदरमय भय मेरे जीवन में प्रवेश कर गया। अब मेरा सवाल यह नहीं था कि कौन मुझे पापी साबित करेगा? कयोंकि मैं ऐसे महान सृष्टिकर्ता के सामने बिल्कुल बेपर्दा था। मेरा सवाल अब यह था कि सूरज, चाँद, सितारों को अपने मूँह के शब्द भर से बनाने वाला महान सृष्टिकर्ता मुझ जैसे मूर्ख, लापरवाह और अयोग्य पापी में क्यों इतनी रुचि रखता है? मेरे जैसा व्यक्ति तो स्वर्ग में भी लज्जा का कारण होगा। यद्यपि मुझे मेरे इस सवाल का जवाब नहीं मिला परन्तु इस पूरे समय के दौरान जब मैं इस सर्वशक्तिमान परमेश्वर की पहिचान में लाया गया तो मैंने फिर कभी अपने आप को उससे भयभीत नहीं पाया। बल्कि मैं उसकी तरफ और भी खिंचा चला गया, उससे मिले हर प्रकाशन ने मेरे हर एक शक को दूर कर दिया।

एक दिन मेरी आँख रोमियों ५:८ पर पड़ी और तब मुझे समझ में आया कि परमेश्वर एक बेकार मुठ्ठी भर मिट्टी के मानव में क्यों रुचि रखता है। रोमियों ५:८ में लिखा है “परन्तु परमेश्वर हमपर अपने प्रेम की भलाई इस रीति से प्रगट करता है कि जब हम पापी ही थे तभी मसीह हमारे लिये मरा।” मैं आगे और नहीं पढ़ पाया और बिल्कुल टूट गया। मेरा हदय बहुत भारी हो गया और मैं भावुक्ता से भर गया कि ऐसे सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने मुझ से प्रेम किया, इतना झुक गया और मेरे लिये पापबलि बनकर मर गया। मैंने व्यक्तिगत रीति से प्रमेश्वर के प्रेम का एहसास किया और मैं आँसुओं से रोने लगा। मुझे ऐसा लगा कि प्रभु मुझ से पूछ रहा है कि अगर आज तू पृथ्वी छोड़ दे तो कहाँ जाएगा? और मेरा उत्तर था “नरक”। मैंने फिर उसकी आवाज़ सुनी “तू कहाँ जाना चाहता है?” मैंने कहा “प्रभु कोई भी नरक नहीं जाना चाहता, सब स्वर्ग जाना चाहते हैं।” मैंने फिर उसकी आवाज़ सुनी “तू कहाँ जाना चहता है?” मैंने कहा “स्वर्ग।” फिर मैंने सुना “मेरे पुत्र यीशु पर विश्वास कर जिसने तेरी खातिर अपने प्राण क्रूस पर दिए और उसके लहु से धुल जा।” मैंने एकदम अपना हृदय प्रभु को दे दिया और एक छोटी सी प्रार्थना करी, जिसे करने में मुझे शायद ३० सैकिण्ड ही लगे होंगे, शायद आपको मेरी यह प्रार्थना मूर्खता लगे। मैंने प्रभु से कहा कि “हे प्रभु मैं स्वर्ग में रहना चाहता हूँ पर मेरे पाप अनगिनित हैं और मुझे पता नहीं कि तू मेरे इन सब पापों को क्षमा कर सकता है या नहीं। लेकिन अगर तू ऐसा कर सकता है तो मैं एक नयी ज़िन्दगी बिताना चाहता हूँ और मैं अपने बीते हुए कल को भूल जाना चहता हूँ। मेरी इच्छा है कि मैं एक नई शुरुआत करूँ, लेकिन क्या मैं २६ साल के पापमय और दुष्टता से भरे जीवन से निकलकर नया बन सकता हूँ? पर फिर भी मैं अपने जीवन को सम्पूर्ण रीति से तेरे हाथों में सौंपता हूँ और विश्वास करता हूँ कि प्रभु यीशु ने मेरे लिए क्रूस पर अपने प्राण दिए और अपना लहू बहाया। जबकि वह पाप रहित था पर मेरे लिए बलि बन गया और मुझे धर्मी ठहराने के लिए जी उठा। तो कृपा करके मुझ अयोग्य की यह प्रार्थना हो सके तो ग्रहण करें।”

जैसे ही मैंने यह प्रार्थना पूरी की तो मुझे मेरे हृदय में एक ऐसा हल्कापन महसूस हुआ जिसको मैं बयान नहीं कर सकता। एक बड़ा और पुराना बोझ मुझ पर से हट गया। जैसे ही मैंने आँख खोली तो मुझे लगा कि मैं सम्पूर्ण बदला हुआ व्यक्ति हूँ। मेरे अन्दर एक अजीब आनन्द फूट निकला और मेरा हृदय खुशी से भर गया। मैंने तभी दूसरे कमरे में जाकर अपनी माँ और बहन से कहा “मेरा नया जन्म हो गया है।” जब भी मैं और लोगों से मिलता तो यही वाक्य बोलता था, मुझे इस बात की चिन्ता नहीं थी कि उन्हे यह समझ में आता था कि नहीं। मैं सबसे कहने लगा कि मेरे पाप क्षमा हो गये हैं। मेरे अद्भुत आनन्द को देखकर और विश्वासी भी प्रभावित होते थे।

मेरा नया जन्म होने के पश्चात मेरे अन्दर से एक अद्भुत आनन्द, जो बयान से बाहर था प्रवाहित होने लगा, मैं हर समय आनन्दित और प्रसन्नचित्त रहने लगा। परमेश्वर के वचन - बाईबल को पढ़ने से मुझे आनन्द मिलता और ऐसा प्रतीत होता जैसे परमेश्वर एक मित्र के समान मेरे करीब बैठकर मुझसे बातें कर रहा है। बाईबल की हर बात पर मुझे विश्वास होने लगा और चाहे कितनी भी असंभव प्रतीत होने वाली बात क्यों न हो, मुझे उस पर ज़रा भी अविश्वास नहीं होता था। परमेश्वर ने मेरे जीवन में अद्भुत रीति से काम करना शुरू कर दिया। मेरा पहला डर अपने दोस्तों के बारे में था कि मैं उनका सामना कैसे करूंगा? मैं सोचता था कि ‘हे परमेश्वर मैं इन दोस्तों से क्या कहूंगा’? वे कभी विश्वास नहीं करेंगे कि एक व्यक्ति जो इतना लड़ता था, इतनी गालीयाँ बकता था, इतना झगड़ालू था, वो अब एक दम से शाँत और शालीन स्वभाव का हो गया है और परमेश्वर के बारे में बातें करने लगा है; जो इसाई अपने होश संभालने के बाद कभी चर्च नहीं गया अब अचानक से बाइबल और चर्च की बातें करने लगा है और सप्ताह के सातों दिन बाईबल अध्यन के लिये एक बाईबल के पढ़ाने वाले भाई जौन कुमार, जिन्हे परमेश्वर ने अपने बड़े अनुग्रह से मुझे मिलाया, के पास जाने लगा है।

लेकिन कुछ बहुत अजीब होने लगा। पहले मेरे दोस्त प्रतिदिन मेरे घर अपनी मोटर साईकिल और स्कूटर पर आते और हौर्न बजाते थे, और फिर मैं उनके साथ निकल जाता था। लेकिन मेरे नया जन्म होने के बाद, जैसे शाम होने लगी, उनके सामने जाने की मेरी चिंता बढ़ने लगी, लेकिन उस शाम कोई नहीं आया, किसी ने हौर्न नहीं बजाया। यह एक बड़ी विचित्र और अविशवस्नीय बात थी। यह वास्तव में एक चमत्कार था कि उनमें से कोई मेरे घर नहीं आया। मैंने बाद में नीतिवचन में से सीखा कि परमेश्वर मनुष्य और राजाओं के हृदय को मोड़ देता है, और यही हुआ। मेरे सारे ऐसे दोस्त जिनके सामने जाने से मैं घबराता था मुझे लगभग एक वर्ष तक बिलकुल भूल गये, और इस समय में मैं परमेश्वर की निकटता और प्रेम में बढ़कर विश्वास में दृढ़ और स्थिर हो गया। फिर बाद में जब मैं उनमें से एक से मिला तो वह मुझसे यह कहकर क्षमा माँगने लगा कि फिलिप, मैं बहुत व्यस्त हो गया और तुमसे मिल नहीं सका। मैं अचंभित था और मैंने परमेश्वर का धन्यवाद किया कि यह उसी का कार्य था। वह मुझसे कितना प्रेम करता है, वह मेरे दिल की बातें और मेरे भय भी जान लेता है, मुझे सुरक्षित रखता है और मेरी भलाई के लिये कार्य भी करता है। ऐसे ही सैंकड़ों अनुभवों के द्वारा मैंने अपने जीवन में परमेश्वर की मौजूदगी को बारंबार महसूस किया है।

उसने मेरे जीवन में कई अद्भुत कार्य किये, अब उसके साथ मुझे १६ वर्ष बीत चुके हैं, मेरी शादी हो चुकी है, मेरे तीन बच्चे हैं और मैंने ज़िन्दगी के कई उतार चढ़ाव देखे हैं, लेकिन मैं किसी एक भी ऐसे क्षण को नहीं जानता जिसमें परमेश्वर का प्रेम, उसकी विश्वासयोग्यता,भलाई और दया मेरे साथ न रहीं हों। मैं कितनी ही बार उसकी भलाई के अनुसार उसके साथ विश्वासयोग्य नहीं रहा, किंतु वह वैसा ही रहा, कभी नहीं बदला; प्रत्येक परिस्थिति में मेरा परमेश्वर, मेरा बचानेवाला, मेरा प्रभु, मेरा पिता, मेरा मित्र और मेरा राजा बनकर।

मैं आरधाना करता हूँ परमेश्वर की जो मेरी अर्थहीन ज़िन्दगी में आया और उसे एक महिमामय आशा, ज्योति और जीवन से भर दिया।

प्रीय पाठक यदि मेरा जैसा टेढ़ा और व्यर्थ मनुष्य अनन्त जीवन और वर्णन से बाहर आनन्द प्राप्त कर सकता है, तो आप भी, अभी, एक प्रार्थना के द्वारा प्रभु यीशु को अपने जीवन में आमंत्रित करके ऐसे ही अनन्त जीवन और आनन्द को प्राप्त कर सकते हैं। आपको केवल यह विश्वास करना है कि प्रभु यीशु आपके पापों के लिये मारा गया, गाड़ा गया और फिर तीसरे दिन मुर्दों में से जी उठा ताकि जो कोई उसके नाम में विश्वास करे वह उसके द्वारा अनन्त जीवन, शांति, आनन्द और बहुत कुछ पाये।

रविवार, 6 दिसंबर 2009

सम्पर्क मई २००९: कल का सामना करने की सामर्थ...?

सूफी परम्परा की एक प्राचीन कहानी है। किसी राजा ने कहा “मुझे एक ऐसी सलाह चाहिये जो मेरे आड़े वक्त काम आये।” किसी सन्त ने एक कागज के टकड़े पर कुछ शब्द लिखकर राजा के पास भिजवा दिये और कहा “जब ज़रूरत पड़े तब खोल के पढ़ लेना।” राजा ने कागज़ के टुकड़े को अपने गले के लॉकेट में रखकर लटका लिया। सालों सिलसिला चलता रहा और वह सलह ऐसे ही गले में लटकी रही। लम्बे समय बाद राजा एक युद्ध पर निकला और आशा के विपरीत, जीत की बजाए उसे एक भारी हार का सामना करना पड़ा। हारे हुए राजा के विश्वास्योग्य साथी भी उसे छोड़कर भाग खड़े हुये। अकेला राजा भी अपनी जान बचाने को भागा, दुश्मन सिपाही उसके पीछे भागे। आखिर उसके प्रीय घोड़े ने भी थककर उसका साथ छोड़ दिया। राजा पैदल ही भागा लेकिन आखिर थके शरीर ने भी साथ देने से इंकार कर दिया, तौ भी वह हिम्मत करके आगे ही बढ़ता रहा, पीछा करने वाले भी बढ़ते आ रहे थे। अचानक उसके सामने एक बड़ी खाई आ गई, खाई के इधर उधर कोई रास्ता नहीं था, पीछे से पीछा करने वाले भी समीप आते जा रहे थे। अब राजा की हिम्मत भी जवाब दे गई, और वह थका और निराश औंधे मूँह खाई के किनारे जा गिरा। पीछा करने वाले घुड़सवारों की आवाज़ करीब आती जा रही थी और राजा को अपना पकड़ा जाना निश्चित लग रहा था। उसने सोचा इस अपमानजनक कैद से तो मौत भली और वह खाई में कूदकर आत्महत्या करने के इरादे से हाथों की टेक लगाकर उपर को उठा तो गले में लटके लौकेट में रखी सन्त की सलाह ध्यान आई। उसने जलदी से गले में झूलते हुए उस लॉकेट में से वह कागज़ का टुकड़ा निकाला और उसे खिलकर पढ़ा, जिसपर लिखा हुआ था “मत डर, यह वक्त भी न रहेगा।” उसे पढ़कर वह वैसे ही लेट गया। घोड़ों के टापों की आवाज़ कहीं पास आकर रुक गई और फिर धीर-धीरे हल्की होती गई और कहीं हवा में खो गई। कुछ समय बाद राजा भी उठा और अपने राज्य की ओर बढ़ चला, और बचते बचाते आखिर सुरक्षित पहुँच भी गया। राज्य में पहुँचकर उसने उस सन्त को बुलवाया, बड़े सम्मान के साथ उसका स्वागत किया, और उससे कहा “सच में जीवन के सबसे आड़े वक्त में आपकी सलाह जीवन दे गई। मैं तो खाई में कूदकर आत्महत्या करने ही वाला था पर आपके दिए यह कुछ शब्द काम आ गये।”

यह कहानी आपसे और मुझसे क्या कहती है? यदि परमेश्वर का वचन हमारे मन में रखा होगा तो वक्त के अनुसार वह हमारा मार्ग दर्शन भी करेगा। क्योंकि वचन ही बुरे वक्त में हर बुराई से बचने का एक अद्भुत सहारा है, इसलिये वचन को अपने मन में अधिकाई से बसने दो (कुलुसियों ३:१६)। अगर हम अपने मन में उसे रख छोड़ेंगे तो बुरे वक्त में परिस्थितयों का सामना करने और स्थिर रहने की सामर्थ भी उस वचन से मिलेगी।

इतिहास कहता है कि यीशु मसीह मारा गया पर परमेश्वर का वचन कहता है कि यीशु मसिह मेरे पापों के लिये मारा गया (१ कुरिन्थियों १५:३)। इतिहास कहता है कि मरने के तीन दिन बाद उसकी देह नहीं मिली पर परमेश्वर का वचन कहता है कि वह उसी देह में फिर से जी उठा। परमेश्वर के वचन का सत्य इतना सस्ता नहीं कि चश्मा चढ़ाकर पढ़ लेने मात्र से ही समझ में आ जायेगा। उसपर तो मन से विश्वास किया जाता है और मुँह से अंगीकार करना पड़ता है। विश्वास वचन के सुनने से आता है और मन में रख लेने से बढ़ता जाता है। परमेश्वर का वचन कभी खाली नहीं लौटता, यदि मन में लटका है तो एक दिन अपना काम ज़रूर करेगा (यशायाह ५५:११)।

जो पैग़ाम अम्बर से लाता है उस इन्सान को पैग़म्बर कहते हैं। पर जिस पैग़ाम को परमेश्वर खुद ही लाया हो और जिसके शब्दों में कुछ भी इन्सानी बुद्धी की बात न हो उस सत्य वचन को परमेश्वर का वचन कहते हैं। यह परमेश्वर का वचन इसीलिये उतना ही सत्य है जितना परमेश्वर और उतने ही आदर का पत्र है जितना स्वयं परमेश्वर। आज परमेश्वर का पैग़ाम अपके पास आया है “जिसके पास मेरा वचन है और वह उसका पालन करता है, वही है जो मुझ से प्रेम रखता है” (युहन्ना १४:२१), “समय पूरा हुआ है और परमेश्वर का राज्य निकट है इसलिये मन फिराओ और सुसमाचार पर विश्वास करो” (मरकुस १:१५), “परन्तु जितनों ने उसे (प्रभु यीशु को) ग्रहण किया उसने उन्हें परमेश्वर की सन्तान होने का अधिकार दिया अर्थात उन्हें जो उसके नाम पर विश्वास करते हैं” (यूहन्ना १:१२)।

आज वचन ने आपसे क्या कहा “सुन तो लो” (याकूब ४:१४)?


बुधवार, 2 दिसंबर 2009

सम्पर्क मई २००९: प्यार पहचाना नहीं

घर में एक माँ अपने बच्चे के बचे हुये भोजन के आखिरी निवाले को फेंकती नहीं, पर खुद खा लेती है क्योंकि उसमें उसकी लागत और मेहनत लगी है। वही माँ किसी शादी के भोज में उसी बच्चे की भोजन वस्तुओं से भरी हुई प्लेट को, जो वह खा नहीं पाता, बड़े आराम से कहती है, “इसे कचरे में डाल दे।” कहते हैं ‘माल-ए-मुफ्त दिल-ए-बेरहम’ यानि मुफ्त के माल को बड़ी बेरहमी से उपयोग किया जाता है। यह आदमी का स्वभाव है।

प्रभु ने हमें इतना प्रेम दिया, ऐसा बेमिसाल और बयान से बाहर प्रेम किया। क्योंकि प्रभु ने हमें यह प्रेम मुफ्त में दिया इसलिये मैं और आप इस प्रेम की कीमत को नहीं पहचानते, उसकी कद्र नहीं करते। उसने हमें अद्भुत जीवन दिया, और मुफ्त में दिया पर हमने उसकी कीमत को नहीं जाना। उसने इतना अद्भुत वचन दिया, मुफ्त दिया पर हमने उसके बेशकीमती होने को नहीं जाना।

चिंता ऐसी चिता है जिस पर आते ही आदमी मुर्दा सा हो जाता है। चिंता एक शक है जो मन पर सवार होते ही कहता है, क्या होगा? कैसे होगा? शक की लहरों पर डोलता मन हर एक लहर से कभी इधर तो कभी उधर होता रहता है। जब हम चिंता को पहन लेते हैं तो वह हमारे चेहरे और हमारे व्यवहार पर साफ झलकती है। मुझे मेरी प्यारी सी पत्नि सुंदर दिखना बंद हो जाती है, अच्छे से अच्छे खाने का मज़ा चला जाता है, भूख मरने लगती है, नींद उड़ने लगती है और ‘कल क्या होगा’ सोच सोचकर जीने का विश्वास जाता रहता है। लेकिन “धर्मी जन विश्वास से जीता है” (इब्रानियों १०:३८)। चिंता करने से कल के दुःख तो कम नहीं होते पर कल के दुःखों का सामना करने की शक्ति ज़रूर कम हो जाती है।

परमेश्वर ने चिड़िया को यदि चिंता करने की समझ दी होती तो उसने कब की आत्महत्या कर ली होती। उसमें न ही समझ है और न ही ताकत। वह एक एक दाना ढूँढकर खाती है फिर उन्हीं दानों से अपने बच्चों को पालती है। तिनका तिनका ढूँढकर अपना घर बनाती है, और वह भी ऐसा जो किसी आंधी या दुशमन का सामना नहीं कर सकता। पर प्रभु एक ऐसी ही छोटी सी चिड़िया को उदाहरण बनाकर कहता है “इसलिए डरो नहीं, तुम गौरयों से बहुत बढ़कर हो” “... क्या तुम उनसे अधिक मूल्य नहीं रखते?” (मत्ती ६:२६, १०:३१)। ज़रा सोचो तो सही मैं तुम्हें कैसे छोड़ सकता हूँ?

यीशु की देह इस जगत में इस जगत के लिये अपनी जान देने के लिये ही जन्मी; क्योंकि वह जगत से प्यार करता था। वह इस जगत के सिर्फ भलों से ही नहीं पर एक डाकू से भी प्यार करता है। उसने उस डाकू के लिये भी अपनी जान दी जो दूसरों की जान लेता है। एक भी ऐसा नहीं जिसे प्रभु प्यार न करता हो। आप कैसे ही क्यों न हों प्रभु आपको प्यार करता है।

प्रभु की देह की जिस दिन हत्या की गई, वह सृष्टि का सबसे अंधकारपूर्ण दिन था। पर परमेश्वर ने वह दिन अनन्तकाल का ज्योतिर्मय दिन बना दिया। क्रूस के द्वारा जहाँ आदमी ने अपना सबसे बड़ा दुष्कर्म दिखाया, वहीं परमेश्वर ने अपना सबसे बड़ा प्रेम और सुकर्म दिखाया। आदमी तो ज़्यादा से ज़्यादा जान ले सकता था और वह उसने ले ली। लेकिन यीशु ज़्यादा से ज़्यादा अपनी जान दे सकता था जो उसने मेरे और आप के लिये अपना प्रेम प्रमाणित करने को दे दी ।

जब मैंने उसके इस बलिदान को स्वीकर कर स्वयं को उसके हाथ में सौंप दिया तो उसने यह निश्चय भी मुझे दिया कि जो भला काम वह मुझ में आरंभ कर रहा है, अर्थात मुझे अपनी समान्ता में बदलने का काम, उसे वह पूरा भी करेगा । वह तब तक चैन से नहीं बैठेगा जब तक मुझे निर्दोष, निष्कलंक, बेझुर्री और बेदाग़ करके अपनी समान्ता में न ले आये। क्योंकि एक दिन उसे मुझे अपने स्वर्गीय राज्य का एक निवासी बनाना है, अपने साथ अनन्त काल के लिये रखना है।

एक प्रभु के दास ने एक दिन में ४० लोगों को दफनाया जिनमें से एक उसकी पत्नि भी थी। उसी शाम जब वह बच्चों के साथ भोजन करने बैठा तो उस दास ने भोजन के लिये प्रभु को इस प्रकार धन्यवाद दिया, “प्रभु बाहर युद्ध और मौत है और अन्दर बहुत दुख है, पर मैं आभारी हूँ कि इस हाल में भी अपने मुझे धन्यवाद देने के योग्य बनाया है।”

कितनी बार हम दान तो लेते हैं और दान का आनन्द भी लेते हैं पर दाता को भूल जाते हैं। प्रार्थना में बहुत तेज़ और आरधना में बहुत धीमे होते हैं, प्रार्थना में शब्दों की कमी नहीं होती पर आराधना के लिये शब्द ढूँढते रह जाते हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि उसके एहसानों का एहसास हम में बहुत कम बचा हो?

“...यहोवा का धन्यवाद करो, क्योंकि वह भला है और उसकी करुणा सदा की है” (भजनसंहिता १०६:१)।

शनिवार, 28 नवंबर 2009

सम्पर्क मई २००९: सम्पादकीय

एक बार फिर सम्पर्क आपके साथ आपके हाथ में है। यह सिर्फ आपकी प्रार्थनाओं का परिणाम है।
कभी तो नौ साल के बच्चे की भी मौत से मुलाकात हो जाती है और कभी ९० साल तक मौत का इंतिज़ार करना पड़ता है। जीवन निश्चित नहीं है पर मौत निश्चित है। संसार अपनी आखिरी सांसों पर टिका है।

दो हज़ार वर्षों से जो मंडलियाँ संसार को यह सण्देश दे रही हैं कि मन फिराओ, क्योंकि परमेश्वर का राज्य निकट है, अब अन्तिम पलों में प्रभु को इन्हीं से कहना पड़ रहा है कि अब तो तुम्हें ही मन फिराने की आवश्यकता आ गयी है। प्रकाशितवाक्य ३:१५ में प्रभु कह रहा है “मैं तेरे कामों को जानता हूँ।” वह मेरे और आपके सब कामों को जानता है। यूहन्ना ५: में प्रभु कहता है कि “मैं तुम्हें जानता हूँ कि तुममें परमेश्वर का प्रेम नहीं।” फिर वह २ कुरिन्थियों ५:१० में कहता है कि यह ज़रूरी है कि मेरे और आपके काम एक दिन सबके सामने खुलेंगे। जी हाँ, उस दिन अगर यह पाप धुले हुए नहीं होंगे, तो फिर ज़रूर सबके सामने खुले हुए होंगे।

किसी ने पूछा कि दुनिया का सबसे बड़ा झूठ क्या है? उत्तर मिला, यह कहना कि “मैं झूठ नहीं बोलता।” प्रभु का वचन कहता है कि “यदि हम कहें कि हममें कुछ भी पाप नहीं ... तो हम परमेश्वर को झूठा ठहराते हैं” (१ यूहन्ना १:८,१०)। प्रकाशितवाक्य २:५ में वह पूछता है “देख तो सही कि तू कहाँ से गिरा है?” फिर वह कहता है कि मैंने तुझे मन फिराने का मौका दिया है ताकि तू सब का सब लौटा ले आये। आने वाली रात में उपयोगी होने वाले दीये को दिन ढलने से पहिले संवार लेने में ही समझदारी है “क्योंकि वह रात आने वाली है जिसमें कोई काम नहीं कर सकता” (युहन्ना ९:४)।

जहाँ परमेश्वर के लोगों की आँखें परमेश्वर से हटीं, वहीं उनके जीवन में कोई दुर्घटना घटी। पहिले आदमी की आँखें जैसे ही परमेश्वर के वचन से हटीं वैसे ही संसार की सबसे बड़ी दुर्घटना घटी। परमेश्वर ने उसे अपनी बारी का माली बनाया था ताकि वह उसकि देखभाल करे और उसकी रक्षा करे (उत्पत्ति २:१५)। पर शैतान ने उस माली को मालिक बनने का ख़्वाब दिखाकर (“तू परमेश्वर के तुल्य हो जायेगा” उत्पत्ति ३:५) बहका दिया और परमेश्वर से दूर कर दिया। प्रभु यीशु ने अपने समय में एक ऐसी ही कहानी के द्वारा, जहाँ बारी के कुछ माली मालिक बनने की इच्छा में मालिक के उत्तराधिकारी का कत्ल कर देते हैं, उस समय के धर्मगुरों को उनके अनुचित व्यवहार और उसके परिणाम के बारे में जताया (मत्ती २१:२३-४६)। इस अंतिम युग में भी एक बारी बनायी गयी और उस बारी की ज़िम्मेदारी भी सेवकों को दी गयी। अब वे सेवक अपने आप को मालिक समझने लगे हैं और उन्होंने मालिक को निकाल कर बाहर कर दिया है। पर आज वह मालिक द्वार पर खड़ा खटखटा रहा है, अन्दर आना चाहता है, फिर से उन सेवकों के साथ संगति करना चाहता है - “देख मैं द्वार पर खड़ा खटखटाता हूँ, यदि कोई मेरी आवाज़ सुनकर द्वार खोलेगा तो मैं अन्दर आकर उसके साथ भोजन करूंगा और वह मेरे साथ।” (प्रकाशितवाक्य ३:२०)। उसने आप को और मुझे इस जीवन के लिये माली ठहराया है ताकि हम मालिक के लिये फल लायें (यूहन्ना १५:८, १६)। हमने परमेश्वर की इच्छाओं को अपने जीवन से बाहर कर दिया है ताकि हम अपनी इच्छाएं पूरी कर सकें। पर प्यारा प्रभु अभी भी हम से उम्मीद रखता है, वह द्वार पर खड़ा हुआ आज भी हमारा इंतिज़ार कर रहा है।

जीवन एक मौका है, खोने या पाने का। मैंने भी बहुत बार हारा हुआ जीवन जीया है। मेरे पास कोई उम्मीद ही बाकी नहीं बची थी। पर मेरे साथियों ने मेरी कमज़ोरियों का तमाशा नहीं बनाया। उन्होंने प्रभु के उस बड़े प्रेम में होकर, अपनी प्रार्थनाओं और परमेश्वर के वचन से मुझे फिर उभार लिया। यही आज मैं आप के साथ कर रहा हूँ। परमेश्वर के साथ आपके सम्बंध कैसे हैं? कहीं उससे कोई मनमुटाव तो नहीं चल रहा? यदि ऐसा है तो समय रहते ठीक-ठाक कर लीजीये। इससे पहिले देर हो जाये, जाग जाओ। मेरा फर्ज़ है आवाज़ लगाना। कोई जागता है या नहीं यह मेरे बस की बात नहीं है। ज़िन्दा पाप मन में कभी मरते नहीं हैं, ज़िन्दा पाप हमारी आशीशों को मारते हैं। पाप के इन जीवाणुओं को मार पाना किसी इन्सान या इन्सानी कार्य के बस में नहीं, इन्हें तो मसीह की मौत ही मार सकती है और मारती है-उनके अन्दर से जो मसीह की मौत को अपने अनन्त जीवन का मार्ग बना लेते हैं।

अब प्रभु की दया की दुहाई देने का वक्त है, अभी प्रभु की क्षमा आपके लिये उपलब्ध है। केवल एक सच्चे मन से की गई एक प्रार्थना - “हे यीशु, मेरे पाप क्षमा कर; मुझे सुधार दे, मुझे एक बार फिर उभार दे” न सिर्फ आपके वर्तमान को, वरन आपके अनन्त को भी बदलने की क्षमता रखती है।

आपकी प्रार्थनाओं और आपके सहयोग से सम्पर्क यहाँ तक आ पाया है। आपका इतना प्यार, इतने पत्र, फोन और सुझाव मुझे हिम्मत देते आये हैं, विनती है कि इस प्रेम और सम्पर्क को ऐसे ही बनाये रखिये। आपकी प्रार्थनाएं और प्रभु का आसरा सम्पर्क को उसके साहिल तक पहुंचाएगा।

प्रभु में आपका,
“सम्पर्क परिवार”

शनिवार, 21 नवंबर 2009

सम्पर्क दिसम्बर २०००: बात मौत के बाद की!

इस संसार के लिये मृत आत्माओं के देश से एक संदेश भेजा है - “जो कुछ सच्ची बातों से भरी पुस्तक में लिखा है वह मैं तुझे बताता हूँ (दानिय्येल १०:२१)।” “ऐसा न हो कि वे भी इस पीड़ा की जगह में आयें (लूका १६:२८)।” बहुतों के लिये स्वर्ग और नर्क एक नानी की कहनी सी है। बाईबल का दावा है कि उसमें लिखी एक भी बात झूठी नहीं है, कर सको तो कोई भी बात झूठी सबित करके दिखाओ। बाईबल के विरोधि एक नास्तिक वैज्ञानिक ने स्वीकारा कि यह एक अजीब सी बात है, इस किताब की भविष्यवाणी इतनी सत्य कैसे हैं? वह बाईबल को झूठा साबित कर नहीं पाया और अपने अहम के कारण प्रत्य्क्ष सत्य को स्वीकारना भी नहीं चाहा।

जीवन ही अकेला सत्य नहीं है। मौत भी उतना ही बड़ा सत्य है; और मौत के बाद आपकी हर बात का न्याय होना भी एक कड़ुवा सत्य है। इस सत्य से बचकर भागना मनुष्य की सीमाओं से बाहर है। इस सत्य को इन्सान नज़रंदाज़ कर सकता है, मिटा नहीं जा सकता, हटा नहीं सकता। “मनुष्य के लिये एक बार मरना फिर न्याय का होना अनिवार्य है - इब्रानियों ९:२७”

हमारे दिमाग़ की अपनी सीमाएं हैं, हम दिमाग़ी तौर पर बहुत बौने हैं। मौत के बाद की बात देख नहीं पाते। चिता हमें क्या चिताती है? वह हमारी सोई चेतना को जगाती है और कहती है कि तू भी एक दिन ऐसे ही जाएगा। मौत का कोई खास मौसम नहीं होता, न ही कोई खास उम्र और न ही कोई खास समय। शाम को हर कोई घर लौट कर नहीं आता, न ही हर एक स्वयं घर आ पाता है। कुछ लोगों को कुछ लोग उठा कर लाते हैं, फिर उठा कर ले जाने के लिये। कोई एक ऐसी ही शाम हमारे नाम की भी होगी। पर उसके बाद क्या होगा? परमेश्वर का वचन मौत की सीमाओं से आगे दिखाता है; और उससे पहिले हमारे दिल को हमें दिखाता है “क्योंकि वह आप ही जानता है कि मनुष्य के दिल में क्या है (यूहन्ना २:२५)।” एक दिन की बात है सुबह-सुबह हम अध्यापक हाज़िरी के रजिस्टर पर हस्ताक्षर कर रहे थे। बातों बातों में एक अध्यापक ने एक दूसरे अध्यापक से कहा ‘दास सहब आपके बाल तो बिल्कुल सफेद हो गये हैं।’ तभी एक और अध्यापक ने चुटकी ली ‘दास सहब के बाल ही सफेद हुये हैं दिल तो अभी भी वैसे का वैसा ही काला है।’ था तो यह मज़ाक पर सत्य था। आदमी का मन बहुत काला है। हम मन के तहखाने में बहुत सी शर्मनाक बातें छुपाकर रखते हैं। हमारा मन छुपकर बहुत से घिनौने विचारों से खेलता है, उनका मज़ा लेता है। हम अपने विचारों को जैसे ही आवारा छोड़ते हैं, वैसे ही वो विचार अपराधी बन जाते हैं।

आपके पास ऐसी पारखी आँखें नहीं हैं जो मन के भीतर झाँक सकें। आप कैसे ही क्यूँ न दिखते हों, प्रभु आपके मन को जानता है; क्योंकि उसने सृष्टि को रचा है और उसे उसका सम्पूर्ण ज्ञान है। उसको हमारे हर एक पल की और हर एक कल की खबर है। उसे मालूम है कि हम क्या क्या सोचते और क्या क्या करते हैं। वह हमारा शर्मनाक इतिहास जानता है। वह हर उस हरकत को जानता है जो आपने शर्म की सीमाओं को लाँघकर करी है, या जिसका विचार किया है और उसमें मज़ा लिया है। अपने अन्दर झाँक कर देखियेगा कि इस बात में कितना सत्य है। न जाने कितने काले कारनामों का इतिहास अपने सीने में छुपाकर, हम एक शरीफ इन्सान की तरह जीते हैं, वह हमारी और हमारी शराफत की हर हकीकत को जानता है।

आज बहुत सी माताएं हैं, जिन्होंने अपने उन बच्चों की हत्या कर दी है जो न चिल्ला सकते हैं, न कुछ बोल सकते हैं। आज माँ ही अपने बच्चों के साथ ऐसे भयानक ज़ुल्म कर रही है कि अपने पेट में ही गर्भपात करवा कर उन्होंने उन्हें मरवा रही है। उन्हें इस बात का एहसास ही नहीं होता कि उन्होंने हत्या का घिनौना पाप किया है। इस अन्तिम युग की त्रासदी यही है - पाप का एहसास ही इन्सान के जीवन से समाप्त हो चुका है। संसार के बुद्धीजीवियों के मुताबिक कोई परमेश्वर नहीं है। स्वर्ग नरक जो कुछ भी हो यहीं इस पृथ्वी पर ही है। क्योंकि वे सच्चे और न्यायी परमेश्वर को मानते ही नहीं इसिलिये पाप के परिणामों की चिन्ता भी उन्हें नहीं है। संसार अपनी बुद्धिमता पर इतराता है, कहता है:

मौज लो, मस्ती से जीओ,
भलाई को रौन्दकर,
मलाई मारते चलो,
बढ़े चलो, बढ़े चलो।


ईमानदार व्यक्ति को बेवकूफ कहा जाता है, दूसरों को धोख देना समझदारी कहलाती है। गरीब लोग वहशियों के शहरों में सहमें हुए से जीते हैं, दुराचरियों का सामना करने की हिम्मत जुटा पाना दुर्लभ होता जा रहा है। आदमी कोरे स्वार्थ में ढलता जा रहा है।

हमारी पृथ्वी भी कफी बूढ़ी हो चली है, उसकी भी समय सीमा समीप आ पहुँची है। इतनी गन्दगी ढोने की क्षम्ता उसमें नहीं है। हमने उसके जल, वायु, मिट्टी सब को दूषित कर डाला है, उसपर हमारे भयानक पापों का भार है। “सृष्टि करहा रही है और अपने छुटकारे की आशा देखती है (रोमियों ८:२२)।” सब वैज्ञानिक कहते हैं कि हमने पृथ्वी को बरबाद कर डाला है। बड़ी अजीब बात है कि हम बरबादी के कगार पर खड़े हैं फिर भी इतनी लपरवाही से जी रहे हैं। आदमी में एक अजीब सी प्यास है, जिसे वह पैसे से, अशलीलता और कामुक्ता से, तरह तरह के नशीले पदार्थों के सेवन से, स्वार्थ सिद्धी से बुझाने को जूझ रहा है, लेकिन असफल है। कोई बेरोज़्गारी से तो कोई परिवरिक परिस्थितियों और अशाँति से हताश है। आदमी भीतर से बहुत बेचैन है, अशाँत है। सोचता है कि क्या करूँ, कैसे करूँ; बस अब बहुत हो चुका है, अब और नहीं सहा जाता; कहाँ जाऊँ, कैसे जीऊँ। लेकिन उसका कोई प्रयास स्थायी शाँति नहीं देता। बेचैनी फिर लौट लौट कर आती है। भारत में ही लगभग ५ करोड़ व्यक्ति भारी मनसिक तनाव (डिप्रैशन) के रोगी हैं और एक लाख आदमी आत्महत्या करते हैं। लाखों आत्महत्याओं की तो रिपोर्ट दर्ज ही नहीं कराई जाती है। आदमी ज़्यादा अशान्त, उग्र, क्रोधी, तनावग्रस्त होता जा रहा है। हमारे पारिवारिक रिशतों में दरारें हैं। राजनैतिक समज की दशा यह है कि हमारे एक भूतपूर्व प्रधानमंत्री ने स्वयं कुछ इस तरह लिखा है कि राजनेता सबकुछ करते हैं, सिर्फ जनता की भलई को छोड़कर।

धर्म ने हमें आपस मेंबाँट डाला है। धर्म के नाम पर हर साल हज़ारों बड़ी बेरहमी से काट डाले जाते हैं। बलात्कार, उग्रवाद, रिशवत, हत्याओं और अपराध ने हमारे समाज को दीमक की तरह खोखला कर दिया है। आखिर कहीं तो अन्त होगा, यह खोखला ढाँचा कभी न कभी तो चरमरा के ढहेगा। समझने वाला दिमाग़ और देखने वाली आँखें चाहिये, अन्त तो अब बिल्कुल समीप खड़ा है। बाईबल क्या कह रही है, “सुनो यहोवा(परमेश्वर) पृथ्वी को निर्जन और सुनसान करने पर है (यशायह २४:१); पृथ्वी शून्य और सत्या नाश हो जाएगी (यशायह २४:३)।” लेकिन परमेश्वर ऐसा क्यों करेगा? जवाब इस पद में लिखा है “पृथ्वी अपने रहने वालों के कारण अशुद्ध हो गई है, इस कारण पृथ्वी को श्राप डसेगा (यशायह २४:५,६)।” जैसे ही परमेश्वर का धैर्य टूटेगा, उसका कोप बरसेगा। तब उसकोकोई रोक न सकेगा। बरबादी अब पास ही तैयार खड़ी है।

“निश्पाप तो कोई मनुष्य नहीं है (१ राजा ८:४६)।” हाँ एक भी नहीं, सबने पाप किया है। जहाँ पाप है वहाँ श्राप है, जहाँ श्राप है वहाँ बेचैनी है। जब तक पाप से पीछा नहीं छूटेगा श्राप तब तक पीछा नहीं छोड़ेगा। यदि पाप से पीछा नहीं छूटा तो पाप का श्राप मौत के बाद भी पीछा नहीं छोड़ेगा। सच मानियेगा, प्रभु यीशु बहुत ही प्यारा परमेश्वेर है, बहुत कुछ सह लेता है। सब कुछ क्षमा करने का दिल रखता है। वह आपको प्यार करता है। वह आपको आपके पाप गिनाने नहीं आया, वह सिर्फ आपके पाप माफ करने आया है। संसार में कोई ऐसा पापी व्यक्ति नहीं है जिसे वह मफ न कर सके। उसी के सीने में ऐसा दिल है। आप मने या न माने, पर यही बात मानने के योग्य है कि वह पापियों को क्षमा देने के लिये आया है। आप पपों से क्षमा पाएं सिर्फ इसलिये उसने क्रूस पर अपनी जान दी। जब वह क्रूस पर उस भयानक पीड़ा में तड़प रहा था, तब भी उसकीपहली प्रार्थना यही थी कि “हे पिता इशें क्षमा कर क्योंकि यह नहीं जानते कि यह क्या कर रहे हैं (लूका २३:३४)।” प्रभु यीशु का एक ही मकसद है कि आप नाश न हों परन्तु अनन्त जीवन और आनन्द पाएं।

सहज सी बात है, क्षमा चाहिये तो क्षमा माँगिये। पृथ्वी पर प्रभु को क्षमा देने का अधिकार है (मरकुस २:१०)। जब तक आप पृथ्वी पर हैं आप क्षमा की भूमी पर हैं। पृथ्वी से विदा लेते ही क्षमा की सीमा समाप्त हो जाती है, न्याय की सीमा शुरू हो जाती है। अब सवाल यह है कि आप इस पृथ्वी पर कब तक हैं? इसका उत्तर तो सिर्फ परमेश्वर के पास है, किसी मनुष्य के नहीं। इसीलिए जब तक अवसर उपलब्ध है, क्षमा माँग लें; किसे पता है कि अगला पल क्या हो जाए।

सत्य वचन बाइबल हमें एक सत्यकथा बताता है। मौत के बाद की बात बताता है, अन्त और अनन्त के बीच से पर्दा हटाकर दिखाता है, कब्र के बाद की बात हमसे कहता है। एक बहुत धनवान व्यक्ति था, जब वह मरा तो उसका बहुत महँगा अन्तिम संस्कार हुआ। यहाँ आँखें बन्द हुईं और वहाँ खुलीं तो उसने अपने आप को बहुत भयानक पीड़ा में तड़पता हुआ पाया (लूका १६:१९-२३)। वहाँ उसके पास इतना भी नहीं था कि अपनी उस जलने की पीड़ा को कम करने के लिये एक बूँद पानी भी उसे मिल सके। ब उसे मालूम हुआ कि बहुत देर हो चुकी है, अब कुछ नहीं हो सकता। तब उसे अपने परिवार जनों का ध्यान आया और वह उनके लिये वहाँ से चिल्लाया “ऐसा न हो कि वे भी इस पीड़ा की जगह में आएं (लूका १६:२८)।” उसे मालूम था, उसने सुना था, अब उसे ध्यान भी आया कि मन फिराने से अर्थात पापों की क्षमा पा लेने से इस भयानक पीड़ा से बचा जा सकता था। पर उसने उस समय इस सच्चाई को बकवास जानकर इस पर विश्वास नहीं किया, समय रहते अम्ल नहीं किया (लूका १६:३०)। अब मौत के बाद पाप से पछाताने का कोई अर्थ ही नहीं रह गया था। इस अमीर व्यक्ति को स्वर्ग तो संसार में ही दिखता था, पर जब सच्चाई समझ में आई, क्षमा का समय निकल चुका था। भले ही आप विश्वास करें या न करें, सच्चाई यही है।
प्रभु यीशु पपों से क्षमा देने के लिये आया, कोई धर्म देने के लिये नहीं। धर्म बदल्ने के विचार को दफनाकर प्रभु के पास पापों की क्षमा वा अनन्त जीवन पाने के लिये आईये। उससे कहिये ‘हे प्रभु यीशु मुझ पापी पर दयाकर, मेरे पाप क्षमा कीजिये, मुझ बेचैन और अशान्त जन को अपनी शान्ति दीजिये। मैं विश्वास करता हूँ कि आप मेरे पापों की क्षमा के लिये क्रूस पर मरे और तीसरे दिन जी उठे। मुझे अपने पवित्र लहू से धोकर शुद्ध करें।’ उसका वायदा है कि जो कोई भि उसको पुकारता है प्रभु की क्षमा उसके लिये है”क्योंकि हे प्रभु तू भला और क्षमा करने वाला है, जितने तुझे पुकारते हैं उन सभों के लिये तू अति करुणामय है (भजन ८६:५)।”

आज शायद पाप आपको बहुत आकर्शक लगे, बहुत फायेदेमन्द हो, ज़रूरी लगे या मजबूरी लगे; पर उस पाप का श्राप आपको न यहाँ चैन से जीने देगा और न यहाँ से जाने के बाद यह श्राप आपका पीछा छोड़ेगा। आपकी एक पश्चाताप की प्रार्थना आपकी समझ से बहर काम करेगी, आपको तराशकर एक नये जीवन के साथ खड़ा कर देगी। आप खुद ही कह उठेंगे, क्या मैं वही आदमी हूँ? प्रभु को परख कर देखिये, प्रभु की क्षमा कॊ स्वीकारिये। आज तक जो भी सच्चे पश्चाताप और स्मर्पण के साथ उसके पास आया है, कभी निराश नहीं गया।

अब हम साल के अन्त में खड़े हैं। समय हमारी पकड़ से बाहर है। समय का कुछ पता नहीं कि कब हमारा ही समय आ जाये? क्यों नहीं क्षमा के लिये प्रभु की ओर हाथ उठाते? एक बार उससे कह कर तो देखिये कि हे प्रभु यीशु मसीह मुझ जीवन से हारे बेचैन और निराश व्यक्ति पर दया कीजिये, मुझ पापी पर दया कर मेरे पाप क्षमा कीजिये।

रविवार, 15 नवंबर 2009

सम्पर्क दिसम्बर २०००: उस प्रभु ने मेरा धर्म नहीं, जीवन बदला है

मैं श्याम नारायण हूँ जो अपको अपनी आप बीती बताने जा रहा हूँ। मेरा जन्म एक सामन्य से परिवार में हुआ। मेरा गाँव ऊँचडिह जिला इलाहबाद, उत्तर प्रदेश में है। मेरे माता -mता ईश्वर के पक्के भक्त थे। प्रातः जब तक नहा धोकर पूजा पाठ नहीं कर लेते थे, तब किसी से बात तक नहीं करते थे। यह देखकर मुझमें भी ईश्वर को देखने की प्रबल इच्छा जन्मी। एक दिन मैंने पिताजी से पूछा ‘ईश्वर कहाँ है?” उन्होंने एक आकृति की तरफ इशारा करके कहा, ये है ईश्वर। मैंने पूछा वे कहाँ रहते हैं? पिताजी ने मुझ से कहा अभी तू जानने योग्य नहीं है। पिताजी के एक धार्मिक गुरूजी से भी मैंने यही सवाल किया, उनका उत्तर था कि ईश्वर की प्राप्ति बड़ी तपस्या से हो पाती है। उनकी बताई विशेष पूजा और २१ दिन के उपवास को पूरा करने के बाद, २१वें दिन मैं ईश्वर की जय बोलकर बाढ़ से भरी हुई नदी में कूद गया, और डूबने लगा। बड़ी मुशकिल से लोगों ने मुझे बचाया, पर ऐसा दुर्भाग्य मेरा कि फिर भी मुझे ईश्वर की प्राप्ति नहीं हुई। तत्पश्चात मैंने घनघोर जँगल के एकाँत में जाकर, एक पेड़ के नीचे बैठकर तप्स्या की और गुरूजी का दिया हुआ मंत्र जपने लगा, पर फिर भी कुछ नहीं हुआ। फिर मैं एक बड़े महातीर्थ स्थान में गया, जहाँ बड़े पहुँचे हुए धार्मिक गुरू आते हैं। वहाँ पर मैंने उन धार्मिक गुरुओं से भी ईश्वर प्राप्ति का उपाय पूछा। उन्होंने जो उत्तर दिया उससे मुझे निराशा ही हाथ लगी।

जब मैं घर वापस लौटा तो सब लोग मेरा मज़ाक बनाते और मुझ पर हंसते थे। माता-पिता बड़े चिंतित रहने लगे। मेरा विवाह बचपन में ही हो गया था। किसी ने मेरे माता पिता को सलाह दी कि इसका गौना कराकर इसकी पत्नी को घर ले आओ, तब यह ईश्वर को भूल जाएगा और घर पर ही रहने लगेगा। मैंने इस बात का बड़ा विरोध किया, क्योंकि मेरा विचार था कि मैं गृहस्थी में फंसकर ईश्वर की खोज नहीं कर पाऊंगा। मुझे यह भी एहसास था कि मैं एक पापी हूँ और छुटकारा पाने के लिए मुझे कुछ करना है। पत्नी के आने के दो दिन पूर्व ही मैंने घर छोड़ दिया। तीसरे दिन एक और तीर्थ स्थान पर पहुँचा, जहाँ एक बड़े धार्मिक गुरूजी रहते थे। मैंने उन्हें भी अपनी आप बीती सुनाई और उनसे कहा कि जितना भी कठिन मार्ग क्यों न हो मैं उसपर चलूँगा, लेकिन मुझे ईश्वर तक पहुँचने का मार्ग बताइये। उन्होंने मेरा निश्चय देखकर कहा, मैं तुम्हें अन्धेरे में नहीं रखना चाहता, मेरे बाल सफेद हो चुके हैं पर अभी तक मुझे ही ईश्वर की प्राप्ति नहीं हुई है, तो तुम्हें कैसे उस से मिलवा दूँ? हाँ यदि ईश्वर स्वयं चाहे तो तुम्हें मिल सकता है। इसलिए घर जाकर अपनी पi के साथ अपनी गृहस्थी बसाओ, और प्रार्थना में लगे रहो। मैं फिर निराश होकर घर लौट आया और फिर लोगों के उपहास, व्यंगय और कटाक्षों का पात्र बना। मेरे ससुर ने मुझे बुलवाकर खूब खरी खोटी सुनाई और सम्बंध तोड़ने तक की धमकी दी। मेरी पत्नी और मेरे बीच में कलह, लड़ाई-झगड़े दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगे। किसी ने कहा मुझ पर दुष्ट आत्मा का साया है। यह सुनकर मैं और भी क्रोधित होता था, कि मुझमें भूत कैसे हो सकता है, मैं तो ईश्वर का भक्त हूं? एक रिश्तेदार ने हम दोनों हाथ देखकर कहा कि यदि ये एक साथ रहेंगे तो इन्में से एक की मृत्यु तय है। अतः मेरी पत्नी की इच्छानुसार उसको उसके घर छोड़ दिया गया।

इस घटना के बाद तो मैं और भी मज़ाक का पात्र बन गया। लोग कहते थे कि यह मूर्खों से भी महामूर्ख है, इसे न तो ईश्वर ही मिला न पत्नी। इसका मूँह देखना भी पाप है। माँ दुखी थी और पिताजी ने भी बोलना बंद कर दिया ता । बड़ा भाई मुझे देखकर मूँह फेर लेता और कहता कि यदि मुझसे बोला तो तुझे जूते से मारूंगा। मैं बड़ा निराश हो गया था, सारी आशाएं मिट सी गईं और काम धंधा भी बंद हो गया था। जीवन में कुछ भी शेष बाकी न बचा। मैंने सोचा अब जीने से मरना बेहतर है। जब मैंने दृढ़ निश्चय कर लिया कि अब इस जीवन को समाप्त करना ही भला होगा, तो सवाल उठा कि कैसे? ज़हर खरीदने के लिये भी मेरे पास पैसे नहीं थे। मैंने सोचा कि अपना रेडियो बेचकर ज़हर खरीदूंगा। उसे बेचेने से पहिले मैंने उसे आखिरी बार सुनने की लालसा से उसका बटन घुमाया तो अचानक से किसी जगह चल रहे कार्यक्रम में किसी के बोलने की आवाज़ आई “प्रिय मित्र यदि आपसे संसार, मात-पिता, पत्नि, दोस्त प्यार नहीं करते तो आप निराश न हों। यीशु आपको बुला रहा है। जितनों ने यीशु मसीह पर विश्वास किया उसने उन्हें परमेश्वर की सन्तान होने का अधिकार दिया। यदि आप पश्चाताप करें और यीशु मसीह से अपने पापों की क्षमा माँगें, तो वह आज ही आपको नया जीवन देगा। आपका नाम स्वर्ग में लिखा जाएगा।”

यह सुनकर मैं फूट फूट कर रोया। और मैंने सच्चे हृदय से पश्चाताप करके, एक एक पाप की क्षमा प्रभु यीशु से माँगी। परिणाम स्वरूप एक अद्भुत शान्ति व आनन्द मेरे जीवन में भर गया। मैं जान गया कि परमेश्वर ने मेरे मन में आकर मेरे सब पाप क्षमा कर दिये और मेरा नाम स्वर्ग में लिख दिया है। मैं एक अनोखे उत्साह और प्रसन्न्ता से भर गया। यह १ अगस्त १९९६ का दिन था। गाँव के लोग यह देखकर आश्चर्यचकित थे कि यह सब कुछ गवाँ कर भी कितना खुश है, ज़रूर यह पागल हो गया है। कुछ लोग पूछते थे कि तुम्हें यह ज्ञान कहाँ से मिला? मैं बड़े आनन्द से कहता कि प्रभु यीशु ने मुझे पापों की क्षमा दी और मुझे नया जीवन देकर मृत्यु से बचाया है।

जबकि मैंने कोई धर्म नहीं बदला, पर मेरे पिताजी ने यही मान कर मुझे घर से निकाल दिया और कहा कि कहीं भी जा पर मुझे अपना मुँह दोबारा न दिखाना। उसके बाद मैं दिल्ली आया और रोहिणी इलके में एक प्रॉपर्टी डीलर की दुकन पर काम करने लगा। मैं प्रतिदिन प्रार्थना करता कि प्रभु किसी विश्वासी से मिलवा दे ताकि मैं प्रभु यीशु के बारे और जान सकूँ और संगति करके आत्मिक जीवन में बढ़ सकूँ। प्रभु ने मेरी प्रार्थना सुनकर एक विश्वासी भाई से भेंट करवाई। इस भाई के साथ मैंने प्रभु यीशु के विषय में शिक्षा पाना, प्रार्थना करना, संगति करना आरंभ किया। इस भाई ने मुझे बाईबल से एक पद दिखाया - प्रेरितों १६:३१, और मुझे अपने परिवार के लिये प्रार्थना करने को कहा। प्रार्थना के उत्तर में मुझे मेरे माता-पिता, भाई और पत्नि के पत्र आने लगे। मैंने उन्हें पत्र के द्वारा विस्तारपूर्वक लिख कर भेजा कि प्रभु यीशु ने मेरा जीवन कैसे बदल दिया है। जून १९९७ में मेरी पत्नि सहित सब परिवार जन दिल्ली आये तो वह मेरा बदला हुआ जीवन देखकर बहुत प्रभावित हुए। यह सब देखकर और प्रभु के बारे में सुनकर उन्हें भी लगा कि वास्तव में प्रभु जीवनों को बदलकर सच्ची शाँति प्रदान कर सकता है।