सोच
वास्तव में वचन तब ही काम करता है जब वह हमारे जीवन में उतर जाए। वरना तो वचन बाईबल के काग़ज़ी पन्नों पर ही रह जाता है। जैसे ही यह जीवित वचन हमारे जीवन में उतरने लगता है, हमारा जीवन उभरने लगता है।
एक कहानी है: एक गैस के गुब्बारे बेचने वाला अक्सर जब बच्चों से घिरा होता तब एक गैस भरा गुब्बारा हवा में छोड़ देता। गुब्बारे को हवा में लहराता हुआ ऊपर को उठता देख, बच्चे बड़े आतुर होकर उससे गुब्बारे खरीदते और उसकी आमदनी बढ़ जाती। एक दिन जब उसने ऐसा ही किया तो एक छोटे बच्चे ने पीछे से उसकी कमीज़ खींची, गुब्बारे वाले का ध्यान अपनी ओर करके उसके गुब्बारों की ओर इशारा किया और बड़ी मासूमियत से पूछा, “भईया क्या ये काला गुब्बारा भी ऐसे ही ऊपर उड़ सकता है?” गुब्बारे वाले ने प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, “बेटा, गुब्बारा अपने रंग से नहीं, पर जो उसके अन्दर भरा है, उससे ऊपर ऊड़ता है।” यही बात हमारे जीवन पर भी लागू होती है, जो अन्दर भरा है, वो ही हमें दिशा प्रदान करता है- संसार हमें नीचे अपनी ओर खींचता है और परमेश्वर का वचन हमें जीवन की ऊंचाईयों की ओर अग्रसर करता है।
ज़्यादतर विश्वासी एक ऐसा परमेश्वर चाहते हैं जो उनके मन के अनुसार उनकी इच्छाएं पूरी कर सके। जो इच्छाएं उनके अन्दर होती हैं, वही उनकी प्रार्थनों में भी बाहर आती हैं। पर परमेश्वर ऐसे लोगों को खोजता है जो उसके मन के अनुसार हों और जो उसकी इच्छा पूरी करना चाहते हों। हमारे प्रभु ने स्वयं के लिए प्रार्थना की-“हे पिता मेरी नहीं पर तेरी इच्छा पूरी हो।” चेलों को भी जो प्रार्थना उसने सिखाई, उसमें कहा, “जैसे तेरी इच्छा स्वर्ग में पूरी होती है, पृथ्वी पर भी हो।”
दाऊद परमेश्वर के मन के अनुसार व्यक्ति था। अपने लड़कपन से ही उसका विश्वास अपने परमेश्वर पर दृढ़ था। जब इस्राइलियों का सामना फिलिस्तियों की सेना से हुआ, तो ४० दिन तक एक गजराज सा विशाल फिलस्ती जिसका नाम गोलियत था, उन्हें ललकारता रहा और उन्का मज़ाक उड़ाता रहा। पर किसी इस्राइली में उसका सामना करने की हिम्मत नहीं थी। वे तो बस गोलियत को देखकर डरते और काँपते ही रहे, क्योंकि पूरी इस्राइली कौम की सोच में शक था, किसी को भी अपने परमेश्वर पर और उसकी सामर्थ पर विश्वास नहीं था। क्योंकि उनकी सोच सही नहीं थी, इस लिए कुछ करने की शक्ती भी उन्में नहीं थी। परन्तु परमेश्वर के प्रति सही सोच रखने वाले दाऊद ने, गोलियत की तुलना में कद और उम्र में बहुत छोटे होने और युद्ध विद्या में निपुण न होने के बावजूद भी, केवल परमेश्वर पर अपने विश्वास की सामर्थ से गोलियत को परास्त किया और इस्राइलियों को एक बड़ी विजय दिलवाई। परमेश्वर का वचन कहता है, “दुष्ट अपने...सोच विचार छोड़कर यहोवा की ओर फिरे...(यशायाह ५५:७)।” जो उसके वचन के अनुसार सोचते हैं, वो उससे सामर्थ भी पाते हैं। जो अपनी सोच में ही हार देखने लगते हैं, वे पहले से ही मान लेते हैं कि वे हार चुके हैं, और यह हार का डर उन्हें कुछ करने नहीं देता। कुछ लोगों ने सोच लिया है कि अब प्रार्थना से कुछ होने वाला नहीं है, इस अविश्वास के कारण उनके लिए कुछ होने वाला भी नहीं है। पर जो प्रभु आपके अन्दर है वह हारा हुआ नहीं है कि कुछ कर न सके। उसमें पूरी सामर्थ है कि वो आपकी हार को जीत में बदल दे, विश्वास से उसकी ओर हाथ तो बढ़ाइये। अपनी नहीं, उसकी सामर्थ और क्षमता पर भरोसा कीजिए।
बहुत बार अच्छे लोगों के साथ भी बुरी घटनाएं घट जाती हैं। १९१४ में थॉमस एडिसन नामक ६७ साल के वृद्ध वैज्ञानिक की करोड़ों की फैक्ट्री में आग लग गयी। उम्र के आखिरी पड़ाव पर उसने अपनी सारी उम्र की मेहनत की कमाई को जलता हुआ देखा, और बोला-“जो भी होता है, अच्छे के लिए ही होता है (रोमियों ८:२८)। इस आग में हमारी कमजोरियां और कमियां भी जलकर राख हो गयीं हैं। परमेश्वर की दया से अब हम नये सिरे से शुरू करंगे।” सिर्फ तीन हफते बाद ही उसने फोनोग्राफ की खोज कर डाली।
प्रभु आपको हारे हुए जीवन जीने के लिए विश्वास में नहीं लाया, बल्कि आपकी सोच ने आपको हार और निराशा में ला खड़ा किया है। निराश व्यक्ति अपनी साधारण सोच को भी खो देता है। ऐसा हारा हुआ जीवन, मौत से ज़्यादा, जीने से डरने लगता है। आप अपने विचारों को सुन सकते हैं। आप क्या सोचते हैं; कैसे सोचते हैं; क्या हमेशा उल्टी, गन्दी और विरोध की बातें ही सोचते हैं? बाईबल बताती है के मन में ग़लत सोचने भर से ही पाप हो जाता है (मत्ती ५:२८)। प्रार्थना करें कि प्रभु आपकी ऐसी “सोच” ही बदल डाले।
संगति
सुअरों के बाड़े में गन्दगी के सिवाय क्या मिलेगा? पवित्र लोगों की संगति में रहने से हमारी सोच भी पवित्र होने लगती है। हम कोई क्यों न हों, अकेले हों या दुकेले, मर्द हों या औरत, जवान हों या बूढ़े, रो़ज़गार वाले हों या बेरोज़गार, लेकिन प्रत्येक विश्वासी के लिए सही संगति सब से ज़रूरी है।
संगति या मण्डली अपने सबसे बुरे दिनों में से निकल रही है। शैतान का पूरा प्रयास है कि मण्डली की सामर्थ समाप्त हो जाए, मण्डली चाहे बची रहे। अर्थात केवल ‘नामधारी’ मण्डलियां रहें, जहाँ प्रार्थना-आराधना तो हो पर उनमें सामर्थ न हो। प्रभु ने तो विजयी मण्डली बनाई और उसे ऐसी सामर्थ दी कि उस पर अधोलोक के फाटक भी विजयी नहीं हो सकते (मत्ती १६:१८) और जिसकी पहचान उसके सदस्यों के आपसी प्रेम से होती है (यूहन्ना१३:३५)। यही प्रेम और एक मनता मण्डली की सामर्थ है, और इस एक मनता से जो चाहो वह करवा लो।
अगर विश्वासी के जीवन में परमेश्वर की उपस्थिति नहीं है तो वह आम आदमी की तरह है। यदि प्रभु की मण्डली में परमेश्वर की उपस्थिति नहीं है तो वह मण्डली, कमरे में एकत्रित कुछ लोगों की भीड़ मात्र है, प्रभु की मण्डली नहीं। मण्डली में जब आपस में प्रेम और एक मनता नहीं रहती तब उसकी सामर्थ समाप्त हो जाती है। कितने तो प्रभु के घर में सालों से रहते हैं पर फिर भी मन में बैर और विरोध से भरे रहते हैं; स्वर्ग जाने का दावा करते हैं पर मन में नरक पालते हैं। एक वास्तविक विश्वासी को अपने शत्रुओं से भी प्रेम रखना है (मत्ती ५:४४), फिर मण्डली के अपने भाई-बहिनों से विरोध रखने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। मैं मण्डली के सदस्यों और सेवकों को समझाना चाहता हूँ कि परमेश्वर अपना न्याय अपने घर से ही शुरू करेगा (१ पतरस ४:१७)। क्या आपको मालूम है कि अपने घर में वो न्याय कहाँ से शुरू करेगा? सेवकों से और अपने पवित्र स्थान ही से आरंभ करेगा, “उन्होंने पुरनियों से आरंभ किया जो भवन के सामने थे (यहेजकेल ९:६)”।
जब हम दूसरों को क्षमा नहीं करते तो हम परमेश्वर की क्षमा करने वाली आत्मा का अपमान करते हैं। न्याय के दिन कुछ गाएंगे और कुछ रोएंगे चिल्लाएंगे। आप किनके साथ होंगे?
परिश्रम
उद्धार तो सहज है, एक सच्ची क्षमा याचना की प्रार्थना से प्राप्त हो जाता है। पर आत्मिक सफलता और आशीश, मेहनत और ईमान्दारी पर निर्भर करती है। पौलुस को, आत्मिक रूप से, इतनी बड़ी सफलता कैसे मिली? पौलुस कहता है कि “मैंने सबसे बढ़कर परिश्रम किया, तुम्हें वैसा परिश्रम करना है जैसे तुमने मुझे करते देखा है और अब भी सुनते हो कि मैं वैसे ही करता हूँ (फिल्लिप्यों १:३०)”। सफलता कभी तुक्के से हाथ नहीं लगती, संकरे मार्ग में सख़्त मेहनत की ज़रूरत होती है। ज़्यादतर विश्वासी आराम के दायरे में जीना चाहते हैं। आप जानते हैं फिर भी वैसे जीते नहीं। आत्मिक अनुशासन मसीही जीवन में अनिवार्य है, इसका कोई दूसरा विकल्प नहीं है। कभी बाईबल पढ़ना छूट गया तो कभी संगती गोल कर गये। पारिवारिक प्रार्थनाओं का भी कुछ ऐसा ही हॉल है। उपवास से डर लगता है। बस उतना परिश्रम करते हैं जिससे काम चल जाए और जान छूट जाए “हे निक्कमे और आलसी दास तू जानता था (मत्ती २५:२६)”। जीवन में जीतने की इच्छा तो सभी रखते हैं, पर मात्र इच्छा रखने से तो जीत नहीं मिलती, उस जीत के अनुरूप परिश्रम भी तो करना पड़ता है। काम तो काम करने से ही होता है।
समस्याऐं
हमारा प्रभु बहुत परिश्रम करके जीया, लेकिन हमारे बीच आज तमाश्बीन विश्वासियों की कमी नहीं है। मण्डलीयाँ ऐसों से भरी पड़ीं हैं जो दूसरों की नाप-तौल करते रहते हैं, पर खुद कुछ नहीं करते। जो घोड़ा बोझ ढोता है वह कभी दुलत्ती नहीं मारता; दुलत्ती वही चलाता है जो कुछ बोझ नहीं ढो रहा होता।
आपका ऊंचा उठना शुरू हुआ नहीं कि टाँग खींचने वालों की भीड़ इकट्ठी होनी शुरू हो जाती है। ऐसे घटिया किस्म के लोग हमेशा मेहनत करने वालों से इर्ष्या करते हैं। मण्डली में ईमानदार और मेहनती विश्वासी अलग नज़र आते हैं। ये लोग ज़िद्दी नहीं होते, न बहाने गढ़ते हैं; वरन विनम्र, तहज़ीबदार और कुर्बानियाँ करने वाले होते हैं, अपनी गलती मान लेते हैं, दिखावे नहीं करते। ध्यान रहे, जितनी सफलता मिलेगी उतने आलोचक और रुकावट डालने वाले खड़े होते रहेंगे। पौलुस कहता है, “विरोधी बहुत हैं (१ कुरिन्थियों १६:९)”। शैतान ने इन लोगों पर प्रभु का काम बिगाड़ने का दायित्व सौंपा है। इनका आत्मिक अंधापन हमेशा दूसरों के दोष देखता है। इनके अंदर एक हिंसक, बदला लेने वाला स्वभाव रहता है। ये खुद कभी नहीं सीखते पर दूसरों को सिखाने का मन बनाए रखते हैं। इन लोगों के सहारे शैतान हमारी हिम्मत तोड़ना चाहता है जिससे या तो हम शैतान के शिकार हो जाएं या उसके साथ समझौता कर लें, और प्रभु का काम अवरुद्ध हो जाए।
कितने लोग जो इस पत्रिका को पढ़ रहे हैं वह अपनी हालत जान गये होंगे, पर अपने पाप को नहीं मानेंगे। अपने विश्वासी साथियों के पास जाकर, मण्डली के साथ अपने संबन्धों को ठीक-ठाक करने की कोशिश भी नहीं करेंगे। पवित्रआत्मा चेताता है कि उनकी यह ढिटाई उन्हें बहुत महंगी पड़ेगी। कितनों को सच्चाई स्वीकारने में शर्म आती है। मक्कारी की मार ने उनकी गवाही को ही मार डाला है। पहले जो परिश्रम किया उसे खुद ही रौंद डाला है।
किसी ने व्यंग्य किया कि हमारे राजनेताओं से ज़यादा ईमानदार तो वेष्याएं होती हैं। ऐसे गिरे नेता भी, मौका पड़ने पर आपस में बात कर, गिले-शिक्वे पीछे छोड़ कर, एक साथ हो लेते हैं। पर कितने ऐसे विश्वासी हैं जो आपस में बात तक करने को भी राज़ी नहीं होते। उनका अहंकार उन्हें माफी मांगने और माफी देने से रोकता है। आपसे ज़्यादा प्रभु आपको जानता है। अपने को उससे छुपना मात्र बेवकूफी है। क्या अपने एहसास किया कि जब आप इस पत्रिका को पढ़ रहे हैं तो प्रभु आप से बात कर रहा है? अगर आप उसकी आवाज़ सुन रहे हैं तो दिल सख़्त न करें। अब फैसले के पल आ पहुँचे हैं।
इतनी सीधी और सरल सच्चाई है कि कम से कम समझ वाला भी समझ सकता है। मौके हमेशा आपका इंतिज़ार करते नहीं रहेंगे। शैतान चाहता है कि आप उस वक़्त तक इन्तज़ार करते रहें जब कोई कुछ नहीं कर पाएगा। अगर कोई पाप आपके सीने में खटक रहा है तो अहंकार छोड़ उठिए और अपने प्रभु और उसके लोगों के साथ अपने संबन्ध ठीक-ठाक कर लीजिए। प्रभु आपकी हार को भी जीत में बदलने की सामर्थ रखता है।
सम्पर्क का सम्पादक आपसे निवेदन करता है कि आप उसे भी अपनी प्रार्थना में सम्भाले रखें।
- सम्पर्क परिवार
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