शुरू से ईश्वर प्राप्ति में मेरी बहुत आस्था थी। मैं छोटी उम्र से ही एक समय भोजन करता और बहुत समय विभिन्न देवी-देवताओं के सामने पूजा-अर्चना किया करता था। मैंने कोई ऐसा तीर्थ स्थान नहीं छोड़ा जहाँ मैं अपनी शान्ति तथा ईश्वर प्राप्ति के लिए नहीं गया। मेरी इन्हीं बातों को लेकर मेरे पिताजी काफी चिन्तित थे, क्योंकि मेरी छोटी उम्र से ही ये बातें उन्हें अटपटी लगती थीं। गाँव वाले सभी मुझे एक धार्मिक भक्त मानते थे, लेकिन मैं जानता हूँ मैं कैसा भक्त था। बाहरी तौर से तो मैं धार्मिक भक्त था परन्तु भीतरी जीवन बहुत गंदा और मक्कारी से भरा हुआ था। इतनी भक्ति और पूजा-अर्चना के बाद भी मेरे जीवन में कोई शान्ति नहीं, कोई आनन्द नहीं और कोई ईश्वर का भय नहीं था, यानि मैं एक पाखंडी जीवन जी रहा था। कुछ समय बाद मेरे पिताजी की भी मृत्यु हो गयी और मैं शारीरिक और आत्मिक, दोनों रीति से यतीम हो गया। परन्तु मेरी यह इच्छा हमेशा रही कि सच्चा ईश्वर कौन है और मैं उसे कैसे जानूँ?
मेरी शादी भी हो गयी और मेरा पहिला बच्चा एक मसीही नर्सिंग होम में पैदा हुआ। वहाँ मैंने उन लोगों से मसीही प्रेम के बारे में कुछ जनकारी ली। नौ महीने तक मैं उनके मसीही सत्संग में इस इच्छा से जाता रहा कि देखें वहाँ और हमारे यहाँ में क्या फर्क है। बहुत बातों में मैंने उन से वाद-विवाद भी किया। मसीही लोगों के कहने पर मैंने एक बाईबल भी खरीद ली। जब वे लोग पूछते थे कि क्या बाईबल पढ़ते हो तो मैं बोलता था कि हाँ पढ़ता हूँ, जबकि मैंने उसे एक चमड़े की अटैची में बंद करके रखा हुआ था और पढ़ता नहीं था। एक रात मेरी पत्नि मुझ से यह कह कर सोई कि यीशु के मानने वालों के पास मत जाओ नहीं तो वे तुम्हें भी अपने जैसा ही कर देंगे और बच्चों के ब्याह-शादी भी नहीं होंगे। मैं उसकी इस बात पर बहुत हंसा, क्योंकि बात मूर्खता की थी, और अपनी पत्नि को यह कह कर चुप करा दिया कि अभी से सवा महीने की बच्ची की शादी की चिंता? फिर भी मैंने कहा, ठीक है, मैं उनके पास नहीं जाऊंगा।
२५ नवम्बर १९८३ की बात है, सुबह चार बजे किसी ने मेरा दरवाज़ा खट-खटाया। मैंने दरवाज़ा खोला तो बाहर कोई भी नहीं था। दोबारा फिर ऐसा ही हुआ, लेकिन फिर बाहर कोई भी नहीं था। अब तीसरी बार, मेरा नाम “जगदीश” लेकर, दरवाज़ा खट-खटाया गया। जैसे ही मैंने दरवाज़ा खोला तो मेरा कमरा चकाचौंध कर देने वाली रौशनी से भर गया। अब मैं था और एक मधुर आवाज़ थी। वहाँ न कोई आकृति थी, न कोई रंग और रूप था, बस वह रौशनी और आवाज़ थी। मेरी पत्नि को इस घटना के बारे में कुछ ख़बर नहीं थी। मैं बहुत भयभीत था, परन्तु उस आवाज़ ने जान लिया कि मैं डरा हुआ हूँ और उसने कहा “मत डर”। मैं रो पड़ा और पूछा, “महराज आप कौन हैं?” उस आवाज़ ने कहा, “तसल्ली रख, मैं बताऊंगा कि मैं कौन हूँ। बाईबल निकल और पढ़”। मैंने कहा, “महराज मैं देख नहीं सकता”, उस आवाज़ ने कहा, “क्या अब भी तुझे मेरी ज्योति पर शक है?” मैंने फिर कहा, “महाराज, मैं पढ़ नहीं सकता, मैं कहाँ से पढ़ूँ नहीं जानता”। उसने प्रश्न किया, “तू मेरे लोगों से तो कहता है कि मैं पढ़ता हूँ?” मैंने कहा, “महाराज मैं झूठ बोलता हूँ”। जब मैंने बाईबल निकल कर खोली तो उस आवाज़ ने कहा “यूहन्ना १४:६ पढ़”। जबकि मैं देख नहीं सकता था, तौभी बाईबल के बारीक और काले अक्षर मुझे डेढ़-दो फुट लम्बे और लाल स्याही से लिखे हुए दिखाई दिये, वहाँ लिखा था - “यीशु ने कहा मार्ग, सत्य और जीवन मैं ही हूँ। बिना मेरे द्वारा कोई पिता (परमेश्वर) के पास नहीं पहुँच सकता” (यूहन्ना १४:६)।
इस पद (यूहन्ना १४:६) का पढ़ना था कि मैं अपने जीवन में अदभुत आनन्द और अदभुत शांति महसूस करने लगा। मैं एक और विशेष किस्म की अनुभूति अपने अन्दर अनुभव करने लगा, कि मेरा तमाम बनावटीपन और मक्कारी का जीवन सच्चाई में बदल रहा है। जिन्होंने मेरे इस पहिले जीवन को देखा था, अब वे मुझ में बदलाव देखते थे। जो आवाज़ मुझे सुनाई दी थी, वह प्रभु यीशु मेरे पास चल कर आए थे। उन्होंने मुझे मेरे पापों से धो कर मुझे शुद्ध कर दिया, मुझे सच्ची शांति दी और नरक की आग से बचा कर मुझे अनन्त जीवन दे दिया। मेरा बपतिस्मा २६ मई १९८४ को फरीदाबाद में हुआ। उसी समय एक भाई ने प्रभु के वचन बाईबल में से एक प्रतिज्ञा दी “मेरे माता-पिता ने तो मुझे छोड़ दिया है, परन्तु यहोवा (परमेश्वर) मुझे सम्भाल लेगा (भजन संहिता २७:१०)” जबकि वह भाई मुझे व्यक्तिगत रीति से नहीं जानते थे। प्रभु के इस वचन से मुझे इतना आनंद मिला कि आनंद के मारे मैं एक तरफ जाकर फूट-फूट कर रोया। मेरे जीवन के ऐसे बहुत सारे अनुभव मेरे पास हैं, जब मैं अपने पिछले जीवन से उनको मिला के देखता हूँ तो मुझे पता चलता है कि प्रभु की दया दृष्टि मुझ पर बचपन से ही थी, इसीलिए प्रभु ने मुझे उद्धार देने के लिए जीवित रखा।
प्रिय पाठक, यदि आप भी अनन्त जीवन पाना चाहते हैं तो प्रभु यीशु के पास आएं।
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