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गुरुवार, 7 मई 2020

पवित्र आत्मा को पाना – भाग 4 – पवित्र आत्मा से भरना या परिपूर्ण होना (1) - इफिसियों 5:18



पवित्र आत्मा से भरना या परिपूर्ण होना क्या है? – भाग 1  इफिसियों 5:18

पवित्र आत्मा से भर जाना से अभिप्राय है पवित्र आत्मा की सामर्थ्य, उसके नियंत्रण में होकर कार्य करना। इसके लिए इफिसियों 5:18 “और दाखरस से मतवाले न बनो, क्योंकि इस से लुचपन होता है, पर आत्मा से परिपूर्ण होते जाओ” के आधार पर दावा किया जाता है कि पवित्र आत्मा से परिपूर्ण होने या भर जाने की शिक्षा बाइबल में दी गई है। किन्तु यदि हम बहुधा ज़ोर देकर दोहराई जाने वाली पवित्र आत्मा संबंधी गलत शिक्षाओं के प्रभाव से निकल कर इस वाक्य को साधारण समझ से देखें, और वह भी उसके सही सन्दर्भ में, तो यहाँ असमंजस की कोई बात ही नहीं है। इस वाक्य का सीधा सा और स्पष्ट अर्थ है; यहां दाखरस द्वारा मनुष्य को नियंत्रित कर लेने वाले प्रभाव को व्यक्त करने के लिए अलंकारिक भाषा का प्रयोग किया गया है। पवित्र आत्मा की प्रेरणा से पौलुस ने जो लिखा है उसे ऐसे समझा जा सकता है, “जिस प्रकार दाखरस से ‘परिपूर्ण’ व्यक्ति दाखरस के मतवाला कर के लुचपन का व्यवहार करवाने के प्रभाव द्वारा पहचाना जाता है कि वह उस के अन्दर विद्यमान दाखरस के प्रभाव तथा नियंत्रण में है, उसी प्रकार मसीही विश्वासी को अपने आत्मा से भरे हुए या ‘परिपूर्ण’ होने को अपने आत्मिक व्यवहार के द्वारा प्रदर्शित और व्यक्त करना है कि वह पवित्र आत्मा से भरा हुआ है, उसके नियंत्रण में है” और फिर पद 19 से 21 में वह पवित्र आत्मा से भरे हुए होने पर किए जाने वाले अपेक्षित व्यवहार की बातें बताता है।

इस वाक्य में एक और बात पर ध्यान कीजिए, पौलुस ने लिखा है, ‘...परिपूर्ण होते जाओ’ अर्थात यह लगातार चलती रहने वाली प्रक्रिया है कि लगातार पवित्र आत्मा के प्रभाव और नियंत्रण में बने रहो; इसे यदा-कदा किए जाने वाला कार्य मत समझो। इसका यह अर्थ न तो है और न ही हो सकता है कि तुम्हें पवित्र आत्मा की मात्रा बारंबार लेते रहना पड़ेगा जब तक कि तुम उस से ‘भर’ नहीं जाते हो; या फिर यह कि क्योंकि पवित्र आत्मा व्यक्ति में से रिस कर निकलता रहता है, इस लिए जब भी ऐसा हो जाए तो उसे फिर से ‘भर’ लेने के लिए पर्याप्त मात्रा में उसे ले लो। यह तो कभी हो ही नहीं सकता है, क्योंकि जैसा ऊपर देखा है, पवित्र आत्मा परमेश्वर है, पवित्र त्रिएक परमेश्वर का एक व्यक्तित्व, उसे बांटा नहीं जाता है, वह टुकड़ों या किस्तों में नहीं मिलता है, उसे घटाया या बढ़ाया नहीं जा सकता है, और वह हर किसी सच्चे मसीही विश्वासी में मात्रा तथा गुणवत्ता में समान ही होता है। क्योंकि यही सच है तो फिर यही संभव है कि व्यक्ति के सच्चे मसीही विश्वास में आते ही जैसे ही पवित्र आत्मा उसे मिला, वह तुरंत ही उससे ‘भर गया’ अथवा ‘परिपूर्ण’ भी हो गया, क्योंकि अब जो पवित्र आत्मा मिल गया उससे अतिरिक्त, या अधिक, या दोबारा तो कभी मिल ही नहीं सकता है; जो है, जितना है, हमेशा वही और उतना ही रहेगा; अब तो बस उस व्यक्ति को पवित्र आत्मा की उपस्थिति को व्यक्त करते रहना है, अपने व्यवहारिक जीवन में पवित्र आत्मा के प्रभाव को दिखाते रहना है। तो इसलिए अब जिसमें जो भिन्नता हो सकती है वह व्यक्ति के पवित्र आत्मा के प्रति समर्पण एवं आज्ञाकारिता को व्यक्त करना या व्यवहारिक जीवन में प्रदर्शित करना है; किन्तु उसका यह व्यवहार और आचरण (जैसा कि हम शीघ्र ही देखेंगे) उस में पवित्र आत्मा की ‘मात्रा’ का सूचक नहीं है – क्योंकि न तो वह मात्रा और न गुणवत्ता कभी भी बदल नहीं सकती है।

 - क्रमशः
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